________________
दूसरा उद्देशक
[८५ सत्रहवें उद्देशक में साधु गृहस्थ के द्वारा साध्वी के कराने का तथा साध्वी गृहस्थ के द्वारा साधु के कराने का प्रायश्चित्त कथन हुआ है।
इस प्रकार इन ५४ सूत्रों का निशीथ सूत्र में कुल नव बार पुनरावर्तन अन्यान्य अपेक्षाओं से हुआ है।
जिस प्रकार इस उद्देशक में इन ५४ सूत्रों का प्रायश्चित्तविधान अकारण से ये प्रवृत्तियां करने का है उसी प्रकार अन्य उद्देशों में भी जहां कहीं शरीर और उपकरण के परिकर्म संबंधी अन्य सामान्य (विभूषा, मैथुन, गृहस्थसेवा आदि के निर्देश बिना) सूत्र हैं वहां भी अकारण करने का हो
प्रायश्चित्त समझना चाहिये । इस सम्बन्ध में चूर्णी भाष्य के अतिरिक्त निम्न आगम प्रमाण भी हैं
उपधिविषयक- १. अपनी उपधि उपयोग में आने योग्य होते हुये भी यदि उसे परठ दे तो प्रायश्चित्त-नि. उ. ५ ।
२. गृहस्थ को उपधि देवे तो भी प्रायश्चित्त-नि. उ. १५ ।
३. वस्त्र पात्र के थेगली, संधान, बंधन, सीवण आदि कार्य के प्रायश्चित्त-सूत्रों में जघन्य एक का उत्कृष्ट तीन-तीन संख्या से ज्यादा करने का प्रायश्चित्त-नि. उ. १ ।
४. अविधि से सीवण आदि कार्य करने का प्रायश्चित्त-नि. उ. १ । सकारण या अकारण किसी भी रूप से ये कार्य करने का आगम का आशय होता तो उपरोक्त के स्थान पर ऐसे कथन होते कि-"वस्त्रादि के सीने के कार्य, बांधने के कार्य, थेगली लगाने का कार्य, सांधने का कार्य, विधि से या प्रविधि से किसी भी तरह करे तो भी प्रायश्चित्त ।" किन्तु ऐसा न होकर ऊपर निर्दिष्ट सूत्रों से प्रायश्चित्त-कथन हुआ है। अतः सकारण अवस्था में ये प्रायश्चित्त नहीं है यह स्पष्ट होता है। शरीरविषयक
१. कान का मैल निकाले तो प्रायश्चित्त, नख काटे तो प्रायश्चित्त । नि. उ. ३ ।
२. सूई, कतरनी, नखशोधनक, कर्णशोधनक ग्रहण करते समय जिस कार्य के लिए लेने का कहा उससे भिन्न कार्य करे तो प्रायश्चित्त अर्थात् वही कार्य करे तो प्रायश्चित्त नहीं । नि. उ. १ ।
३. परिवासित (बासी) तेल आदि या कल्क लोघ्र आदि लेप्य पदार्थों को उपयोग में लेने का निषेध । बृहत्कल्प उ. ५ ।
४. दिन में ग्रहण किये लेप्य पदार्थ व गोबर को रात्रि में उपयोग लेने के प्रायश्चित्त की दो चौभंगी। नि. उ. १२ ।
५. स्वस्थ होते हुए भी शरीर का परिकर्म या औषध-उपचार करे तो प्रायश्चित्त । नि. उ. १३ ।
यदि शरीर के समस्त परिकर्मों का सकारण अकारण की विवक्षा के बिना निषेध या प्रायश्चित्त कहने का आगमकार का प्राशय होता तो नखशोधनक आदि ग्रहण करने मात्र का स्पष्ट
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org |