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[निशीथसूत्र
४. अभिणवियासु गोलेहणियासु-पृथ्वी की विराधना के प्रसंग में दशवै अ. ४, में "न आलिहिज्जा न विलिहिज्जा" पाठ आता है । उसका अर्थ पृथ्वी में खीला शस्त्र आदि से लकीर करना होता है । यहाँ 'गो' शब्द युक्त लिह शब्द का प्रयोग हुआ है जिसका अर्थ होता है कि–'बैल आदि के द्वारा हल से जोती हुई भूमि ।' वह भूमि नूतन तत्काल की हो अर्थात् १-२ दिन की हो तो सचित्त होती है । अत: उसका वर्जन आवश्यक है । उस तत्काल की नूतन खुदी भूमि का गृहस्थ उपयोग ले रहे हों तो भी सचित्त होने से अकल्पनीय है और उसका उपयोग नहीं ले रहे हों तो भी अकल्पनीय है ।
वर्षा होने के कुछ समय पूर्व किसान भूमि पर हल चलाकर छोड़ देते हैं । वहाँ लोग शौच के लिये जाते हों या नहीं भी जाते हों किन्तु जब तक वह नवीन है सचितत्ता या मिश्रता की संभावना है तो वहाँ साधु को नहीं जाना चाहिये । जब अचित्त हो जाये तब वह नवीन नहीं कहलाती है ।
इस तरह अर्थ करने पर मट्टिया खाणी और गोलेहणिया' दोनों पदों का विषय समान हो जाता है जिससे "अभिणवियासु" व "परिभुज्जमाण अपरिभुज्जमाण" ये विशेषण सार्थक एवं संगत हो जाते हैं।
५. कद्दमबहुलं पाणीयं-सेओभण्णति, तस्स आयतणं-सेयाययणं ।
कीचड़ अधिक हो पानी कम हो ऐसा स्थान “सेयाययणं' कहलाता है । वर्षा हो जाने पर इस प्रकार का कीचड हो जाता है, तथा वहाँ फूलण (कोई) भी आ जाती है । अतः विराधना के कारण वहाँ पर परठने से प्रायश्चित्त आता है।
६. बड़, पीपल आदि कुछ फलों के संग्रहस्थानों का कथन सूत्र में है इसी प्रकार अन्य भी फलसंग्रह के स्थान समझ लेना चाहिये ।
७. सूत्र ७७-७८-७९ की व्याख्या चूर्णीकार ने नहीं की है । मात्र यह कह दिया है कि'ये जनपद प्रसिद्ध शब्द हैं।
सूत्र ७१ से ७९ तक कथित स्थानों में मल-मूत्र परठने पर दोष बताते हुए भाष्यकार ने बताया है कि गृह आदि के मालिक रुष्ट होकर तिरस्कार करते हुए अशुचि पर ही धक्का देकर गिरा सकते हैं या साधु पर अशुचि फेंक सकते हैं। श्मसान आदि में व्यंतर देवता के कुपिल होने की संभावना रहती है । सचित्त पृथ्वीकाय आदि के स्थानों में जीव विराधना होती है ।
जीव विराधना के सिवाय अचित्त स्थानों में जहाँ अन्य लोग साधारणतया शौचनिवृत्ति करते हों या जहाँ मालिक की आज्ञा हो वहाँ परठने पर प्रायश्चित्त नहीं आता है।
सूत्र ७४ में पृथ्वीकाय की विराधना, सूत्र ७५ में अपकाय की विराधना, सूत्र–७२ में देवछलना और शेष सूत्रों में (७१, ७३, ७६, ७७, ७८, ७९) में उसके स्वामी से तिरस्कार व अपवाद होने की संभावना रहती है । अविधि-परिष्ठापन प्रायश्चित्त
८०. जे भिक्खू दिया वा राओ वा वियाले वा उच्चार-पासवणेणं उब्बाहिज्जमाणे सपायं गहाय, परपायं वा जाइत्ता, उच्चार-पासवणं परिवेत्ता अणुग्गए सूरिए एडेइ, एडतं वा साइज्जइ ।
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