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[নিহীঅঙ্গ
छः सूत्र “वण" के व छः सूत्र 'गंडमाल' आदि के यों १२ सूत्रों की सकारणता अकारणता में, अन्य ४२ सूत्रों से कुछ भिन्नता है; जिसका स्पष्टीकरण यथास्थान कर दिया गया है । उसका सारांश यह हैं कि
१. ४२ सूत्रों में-अकारण करना प्रायश्चित्त योग्य है।
२. १२ सूत्रों में यथाशक्ति सहन करने का लक्ष्य न रख कर शीघ्र उपचार करना प्रायश्चित्त योग्य है।
यह ५४ सूत्रों का समूह रूप एक आलापक या गमक है जिसका अन्यान्य अपेक्षा से उद्देशक ४-६-७-११-१५-१७ में भी कथन है । सर्वत्र इसी उद्देशक के मूल पाठ व अर्थ-विवेचन की सूचना की गई है । अतः इनको संक्षिप्त तालिका से पुनः समझ लेना चाहिये । १६-२१
पैर परिकर्म के सूत्र २२-२७
काय परिकर्म के सूत्र २८-३३
व्रण चिकित्सा के सूत्र ३४-३९
गंडादि की शल्य चिकित्सा के सूत्र कृमिनीहरण का सूत्र
नख परिकर्म का सूत्र ४२-४७
रोम परिकर्म के सूत्र
(जंघ, वत्थि, रोमराइ, कक्ख, उत्तरोट्ठ और मंसु) ४८-५०
दंत परिकर्म के सूत्र ५१-५६
प्रोष्ठ परिकर्म के सूत्र ५७-६३
चक्षु परिकर्म के सूत्र रोम केश परिकर्म के सूत्र (नासा, भमुग, केसाइं) ३ प्रस्वेद निवारण का सूत्र चक्षु, कर्ण, दंत नख, मल नीहरण सूत्र मस्तक ढंकने का सूत्र
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इस तीसरे उद्देशक में अकारण स्वयं करने का प्रायश्चित्त बताया है। चौथे उद्देशक में अकारण साधु-साधु परस्पर में करने का प्रायश्चित्त बताया है।
छठे सातवें उद्देशक में मैथुन भाव से क्रमशः स्वयं करने व साधु-साधु परस्पर करने का प्रायश्चित्त है।
ग्यारहवें उद्देशक में साधु के द्वारा गृहस्थ के ये कार्य करने का प्रायश्चित्त है । ___ पंद्रहवें उद्देशक में गृहस्थ से ये कार्य कराने का व स्वयं विभूषा वृत्ति से करने का दो पालापकों द्वारा प्रायश्चित्त कहा है।
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