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दूसरा उद्देशक]
[८३ अल्पाधिक चक्षु रोग हो जाने के कारण अाँख का मैल निकालना 'सकारण' है और वह प्रायश्चित्त योग्य नहीं है।
दाँतों में से अन्न आदि का कण निकालना तथा अल्पाधिक दंत-रोग हो जाने पर दाँतों का मैल निकालना भी 'सकारण' समझना चाहिए।
नखों में प्रविष्ट अशुचिमय पदार्थों का निकालना तथा प्रविष्ट अन्नकणों को निकालना प्रायश्चित्त योग्य नहीं है, तथा बाल ग्लान वृद्ध आदि की वैयावृत्य सम्बन्धी कार्यों के लिए अथवा सामूहिक सेवा कार्यों के लिए नखों का मैल निकालना 'सकारण' है ।
___ जो आत्मलब्धिक आहार करने वाले या एकाकी आहार करने वाले गच्छवासी धर्मरुचि अनगार या अर्जुनमाली के समान साधक हो तथा गच्छनिर्गत साधक हो या गच्छगत होते हुए भी सेवा सम्बन्धी कार्यों से पूर्ण निवृत्त साधक हो या समान रुचि वाले सहयोगी साधक हों तो उन्हें अशुचि व आहार कणों के निकालने के सिवाय नख का मैल निकालने की आवश्यकता नहीं रहती है।
___ खाज खुजलाने आदि की प्रवृत्ति कम करने से या स्वावलंबी व सेवानिष्ठ जीवन होने से नखों में मैल के रहने की संभावना भी कम रहती है ।
___ सूत्र ६७ और ६८ के इस प्रायश्चित्तविधान में जल्ल परीषह को जीतने के लिए बल दिया गया है । जो भिक्षु सामर्थ्य या क्षेत्र काल की दृष्टि से जल्ल परीषह जीतने में सफल न हो सके तो भी उसे इन परीषहजय के विधानों से विपरीत प्ररूपणा तो नहीं करनी चाहिए। विहार में मस्तक ढांकने का प्रायश्चित्त
६९. जे भिक्खू गामाणुगामं दूइज्जमाणे अप्पणो सीस-दुवारियं करेइ, करेंतं वा साइज्जइ ।
६९. जो भिक्षु ग्रामानुग्राम विहार करते हुए अपना मस्तक ढंकता है या ढंकने वाले का अनुमोदन करता है । (उसे लघुमासिक प्रायश्चित्त पाता है।)
विवेचन-"सीसस्स आवरणं सीसदुवारं"-विहार में तथा गोचरी जाते समय या अन्य कार्यवश अन्यत्र जाना हो तो मस्तक पर वस्त्रादि अोढ़ कर जाना 'लिंग-विपर्यास' है क्योंकि मस्तक ढंक कर अन्यत्र जाना स्त्री की वेशभूषा है । अतः जो साधु अकारण या साधारण स्थिति में मस्तक ढंक कर अन्यत्र जावे-आवे या विहार करे तो प्रायश्चित्त आता है । वृद्ध या रुग्ण होने पर अथवा असह्य गर्मी सर्दी में मस्तक ढंक कर जाना सकारण है । लिंग विपर्यास के कारण साध्वी के लिये मस्तक नहीं ढंकना प्रायश्चित्त समझ लेना चाहिये । उपाश्रय में मस्तक ढंककर बैठने आदि का प्रायश्चित्त नहीं समझना चाहिये। रात्रि में मल-मूत्र परित्याग के लिये मस्तक ढंक कर बाहर जाने की परंपरा है अतः उसका भी प्रायश्चित्त नहीं समझना चाहिये । किन्तु इस परंपरा के लिये आगम में कोई स्पष्ट विधान नहीं मिलता है।
सूत्र नं. १६ से ६९ तक ५४ सूत्रों में "स्वयं' शरीर के परिकर्म करने का प्रायश्चित्त कहा गया है, उनका भावार्थ यह है कि इन्हें अकारण [प्रवृत्ति मात्र से] करने पर लघुमासिक प्रायश्चित्त आता है।
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