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दूसरा उद्देशक]
विवेचन-इन सूत्रों में एक ही क्रिया के लिये दो दो पद दिये गये हैं। उनका अर्थ एक बार करना और बार बार करना इस तरह किया गया है। चूर्णी व भाष्य में दूसरी तरह से भी अर्थ दिया गया है । यथा
१. थोवेण अब्भंगणं, बहुणा मक्खणं ।-चूर्णी पृ. २७, सूत्र ४ ।। २. अब्भंगो थोवेण, बहुणा मक्खणं । --चूर्णी पृ. २१२, पंक्ति २ ॥ ३. एतेसि पढम पदा सई तु, बितिया तु बहुसो बहुणा वा ॥ गा. १४९६ ।। आमज्जण-पांवों पर हाथ फेरना या राथों से घर्षण करना । संबाहण-मर्दन करना-हाथ से पांव को दबाना ।
थकान या वात आदि रोग के बिना, आमर्जन संवाहन करने पर यह प्रायश्चित्त समझना चाहिए । विशेष कारण में अथवा सहनशीलता के अभाव में स्थविरकल्पी को शरीर का परिकर्म करने की और औषध के सेवन की अनुज्ञा समझनी
नि. भाष्य गा. १४९१-१४९२
___ व्यव. उ. ५, नि. उ. १३ परिकर्म की प्रवृत्ति में दोषों की संभावना बताते हुये भाष्यकार कहते हैं -
संघट्टणा तु वाते, सुहमे यऽण्णे विराधए पाणे ।
बाउस दोस विभूसा, तम्हा ण पमज्जए पाए ॥ १४९३ ॥ गाथा १४९८ में भी दोषों का वर्णन किया है । दोनों गाथानों का सयुक्त भावार्थ यह हैवायुकाय की विराधना, मच्छर पतंगा आदि छोटे बड़े संपातिम जीवों की विराधना, वकुशता, ब्रह्मचर्य की अगुप्ति, सूत्र-अर्थ (स्वाध्याय) की परिहानि तथा लोकापवाद आदि दोष. होते हैं । अतः विशेष कारण के बिना ये प्रवृत्तियां नहीं करनी चाहिये।
फुमेज्ज वा रएज्ज वा-मेहंदी आदि लगाने के बाद रूई के फोहे से (रंग को चमकीला बनाने के लिये) तेल आदि लगाने की क्रिया को यहां "फुमेज्ज" कहा गया है, यथा
फुमंते लग्गते रागो-अलत्तगरंगो फुमिज्जतो लग्गति । -१४९६ अर्थ-फूमित करने पर रंग लगता है-अलक्तक का रंग फूमित करने से ही लगता है ।
सूत्र में "फुमेज्ज" पद पहले दिया गया है, जो पद व्यत्यय आदि कारण से भी होना संभव है अथवा क्वचित् तेल लगाकर फिर रंग के पदार्थ भी लगाये जाते हों, इस अपेक्षा से भी यह कथन हो सकता है। काय-परिकर्म-प्रायश्चित्त
२२-२७ जे भिक्खू अप्पणो कायं आमज्जेज्ज वा पमज्जेज्ज वा आमज्जंतं वा पमज्जंतं वा साइज्जइ एवं पायगमेण णेयव्वं जाव जे भिक्खू अप्पणो कायं फुमेज्ज वा रएज्ज वा फुमंतं वा रयंतं वा साइज्जइ।
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