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[निशीथसूत्र ५०. जे भिक्खू अप्पणो "दंते" फुमेज्ज वा रएज्ज वा, फुतं वा रएंतं वा साइज्जइ । ___ अर्थ--४८. जो भिक्षु दाँत (मंजन आदि से) घिसता है या बार-बार घिसता है या घिसने वाले का अनुमोदन करता है।
४९. जो भिक्षु अपने दाँत शीतल या उष्ण अचित्त जल से एक बार या बार-बार धोता है या धोने वाले का अनुमोदन करता है।
५०. जो भिक्षु अपने दाँत मिस्सी आदि से रंगता है या तेल आदि पदार्थ लगाकर चमकीले बनाता है या ऐसा करने वाले का अनुमोदन करता है (उसे लघुमासिक प्रायश्चित्त आता है ।)
विवेचन-दशवैकालिक अ. ३, गा. ३, में दंतप्रक्षालन को अनाचार कहा है तथा उववाई आदि अन्य आगमों में अनेक स्थानों पर श्रमण-चर्या में “अदंत-धावण' भी एक चर्या कही गई है। वर्तमान युग में साधु-साध्वियों की आहार पानी की सामग्री प्राचीन काल जैसी न रहने के कारण दंतप्रक्षालन आदि न करने पर दाँतों में दन्तक्षय या "पायरिया" आदि रोग होने की सम्भावना रहती है । अतः जिन साधु-साध्वियों को उक्त जिनाज्ञा का पालन करना हो तो उन्हें नीचे लिखी सावधानियाँ रखनी चाहिए---
१. पौष्टिक पदार्थों का सेवन नहीं करना, यदि सेवन किया जाए तो उपवास आदि तप अवश्य करना,
२. सदा ऊनोदरी तप करना, ३. अत्यन्त गर्म या अत्यन्त ठण्डे पदार्थों का सेवन नहीं करना,
४. भोजन करने के बाद या कुछ खाने-पीने के बाद दाँतों को साफ करते हुए कुछ पानी पी लेना चाहिए । शाम को चौविहार का त्याग करते समय भी इसी प्रकार दाँतों को अच्छी तरह साफ करते हुए पानी पी लेना चाहिए।
५. चाकेलेट गोलियाँ आदि नहीं खाना चाहिए।
उक्त सावधानियाँ रखने पर "अदंतधावण" नियम का पालन करते हुए भी दाँत स्वस्थ रह सकते हैं एवं इन्द्रिय-निग्रह, ब्रह्मचर्य-पालन आदि में भी समाधि भाव रह सकता है।
आगमोक्त अदंतधावन, अस्नान, ब्रह्मचर्य, ऊनोदरी तप तथा अन्य बाह्य आभ्यन्तर तप एवं अन्य सभी नियम परस्पर सम्बन्धित हैं, अत: आगमोक्त सभी नियमों का पूर्ण पालन करने पर ही स्वास्थ्य एवं संयम की समाधि कायम रह सकती है।
तात्पर्य यह है कि अदंतधावन नियम के पालन के साथ खान-पान के विवेक से ही इन्द्रियनिग्रह में सफलता प्राप्त हो सकती है। इन्द्रियनिग्रह की सफलता में ही संयमाराधन की सफलता रही हुई है। इन्हीं कारणों से आगमों में अदंतधावन को इतना महत्त्व दिया गया है।
सामान्यतः मंजन करना और दंतधावन सम्बन्धी क्रियाएँ करना, ये सब संयम जीवन के अयोग्य प्रवृत्तियाँ हैं। किन्तु असावधानी से या अन्य किसी कारण से दाँतों के रुग्ण हो जाने पर चिकित्सा के लिए मंजन करना एवं दंतप्रक्षालन सम्बन्धी क्रियाएँ करना अनाचार नहीं है । एवं उसका प्रस्तुत सूत्र से प्रायश्चित्त नहीं आता है ।
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