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[निशीचसूत्र
जो भिक्षु अपने अपानद्वार की कृमियों को और कुक्षि की कृमियों को अंगुली डाल-डालकर निकालता है या निकालने वाले का अनुमोदन करता है (उसे लघुमासिक प्रायश्चित्त आता है।)
विवेचन–पाचन की विकृति से पेट में कृमियों की उत्पत्ति होती है जो प्रायः अपानद्वार-- गुदा भाग से अशुचि के साथ बाहर निकलती हैं । ये कृमियां कभी अपानद्वार के मुख पर या कभी कुछ अन्दर भाग में रुक जाती हैं। उन्हें अंगुली के द्वारा निकालने में विराधना संभव होती है अतः प्रायश्चित्त कहा है।
कुक्षि–अपान द्वार का ३-४ अंगुल तक का भीतरी भाग । पालु-अपान द्वार का बाह्य मुखस्थान ।
किमियं-कृमि छोटी बड़ी अनेक प्रकार की होती हैं । जो बाहर निकलने के वाद अल्प समय तक ही जीवित रहती हैं । वे बारीक लट जैसी यावत् सर्प के छोटे बच्चे जैसी भी हो सकती है । नख-परिकर्म प्रायश्चित्त
४१. जे भिक्खू अप्पणो दोहाओ णहसीहाओ' कप्पेज्ज वा, संठवेज्ज वा, कप्तं वा संठवेंतं वा साइज्जइ।
४१. जो भिक्षु अपने बढ़े हुये नखों के अग्रभागों को काटता है या सुधारता है या ऐसा करने वाले का अनुमोदन करता है । (उसे लघुमासिक प्रायश्चित्त आता है।)
विवेचन-अागामों में "दोहरोमनहंसिणो"-दीर्घ रोम नखों वाला-दश. अ. ६ गा. ६४ तथा "धुत्तकेसमंसुरोमणहे" ---केश, मूछ, रोम और नखों के संस्कार नहीं करने वाला,
–प्रश्न. श्रु. २, अ. १, सू, ४ इत्यादि पाठों के होते हुए भी नख काटने का एकांत निषेध नहीं समझना चाहिये क्योंकि आचा. श्रु. २, अ. ७, उ. १, में स्वयं के लिये ग्रहण किये नखछेदनक को अन्य भिक्षु को नहीं देने का तथा स्वयं के लौटाने की विधि का कथन है ।
निशीथ उ. १, सूत्र ३२ में नख काटने के लिए ग्रहण किये नखछेदनक से अन्य कार्य करने का प्रायश्चित्त है । तथा सूत्र १७, २१, २५, २९, ३७ में अविधि से ग्रहण करने, प्रविधि से लौटाने, बिना प्रयोजन ग्रहण करने आदि के प्रायश्चित्त विधान हैं । इन आचारांग तथा निशीथसूत्र के पाठों से स्वतः सिद्ध है कि साधु नखछेदनक आवश्यक होने पर विधि से ग्रहण कर सकता है, नख काट सकता है और विधि से लौटा सकता है ।
किन्तु प्रस्तुत सूत्र में नख काटने का प्रायश्चित्त कथन है, इससे यह स्पष्ट होता है कि अकारण नख काटने का निषेध और प्रायश्चित्त है एवं सकारण नख काटने पर प्रायश्चित्त नहीं है ।
सेवाकार्यों के करने में बढ़े हुए नख यदि बाधा रूप हों तो नख काटना “सकारण" है । नियत दिन से नख काटने का संकल्प रख कर नख काटना “अकारण" है ।
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