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दूसरा उद्देशक]
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और एक बात यह भी है कि जितना आवश्यक हो उतना ही अपवाद का सेवन करना चाहिये । ऐसा न हो कि जब यह कर लिया तो अब इसमें क्या है ? यह भी कर लें । जीवन को निरन्तर एक अपवाद से दूसरे अपवाद पर शिथिल भाव से लुढकाते जाना, अपवाद नहीं है। जिन लोगों की मर्यादा का भान नहीं हैं, अपवाद की मात्रा एवं सीमा का परिज्ञान नहीं है, उनका अपवाद के द्वारा उत्थान नहीं है अपितु शतमुख पतन होता है। एक बहुत सुन्दर पौराणिक दृष्टांत है । उस पर से सहज समझा जा सकता है कि उत्सर्ग और अपवाद की अपनी क्या सीमाएं होती हैं और उसका सूक्ष्म विश्लेषण किस ईमानदारी से करना चाहिये ।
"एक विद्वान् ऋषि कहीं से गुजर रहे थे । भूख और प्यास से अत्यन्त व्याकुल थे। द्वादशवर्षी भयंकर दुर्भिक्ष था। राजा के कुछ हस्तीपक (पीलवान) एक जगह साथ में बैठकर भोजन कर रहे थे । ऋषि ने भोजन मांगा। उत्तर मिला-'भोजन तो जूठा है' । ऋषि बोले-"जूठा है तो क्या, आखिर पेट तो भरना है" "आपत्काले मर्यादा नास्ति' भोजन लिया, खाया और चलने लगे तो जल लेने को कहा, तब ऋषि ने उत्तर दिया-'जल जूठा है, मैं नहीं पी सकता'। लोगों ने कहा कि मालूम होता है कि-'अन्न पेट में जाते ही बुद्धि लौट आई है। ऋषि ने शांत भाव से कहा बंधुप्रो ! तम्हरा सोचना ठीक है किन्तु मेरी एक मर्यादा है। अन्न अन्यत्र मिल नहीं रहा था और मैं भूख से इतना आकुल-व्याकुल था कि प्राण कंठ में आ रहे थे और अधिक सहने की क्षमता समाप्त हो चुकी थी। अतः मैंने जूठा अन्न भी अपवाद की स्थिति में स्वीकार कर लिया। अब जल तो मेरी मर्यादा के अनुसार अन्यत्र शुद्ध मिल सकता है। अतः मैं व्यर्थ ही जूठा जल क्यों पीऊँ ।”
संक्षेप में सार यह है कि जब तक चला जा सकता है उत्सर्ग मार्ग पर ही चलना चाहिये, जब चलना सर्वथा दस्तर हो जाय, दूसरा कोई इधर-उधर बचाव का मार्ग न रहे तब अपवाद मार्ग का सेवन करना चाहिये और ज्यों ही स्थिति सुधर जाय पुनः तत्क्षण उत्सर्ग मार्ग पर लौट आना चाहिये ।
उत्सर्ग मार्ग सामान्य मार्ग है। यहां कौन चले कौन नहीं चले, इस प्रश्न के लिये कुछ भी स्थान नहीं है। जब तक शक्ति रहे. उत्साह रहे. अापत्ति काल में भी किसी प्रकार का ग्लानिभाव न
आवे, धर्म एवं संघ पर किसी प्रकार का उपद्रव न हो अथवा ज्ञान दर्शन चारित्र की क्षति का कोई विशेष प्रसंग उपस्थित न हो, तब तक उत्सर्ग मार्ग पर ही चलना है, अपवाद मार्ग पर नहीं ।
अपवाद मार्ग पर कभी कदाचित्त् ही चला जाता है । इस पर हर कोई साधक हर किसी समय नहीं चल सकता है। जो साधक अाचारांगसूत्र आदि आचारसंहिता का पूर्ण अध्ययन कर चुका है, गीतार्थ है, निशीथ सूत्र आदि छेद सूत्रों के सूक्ष्मतम मर्म का भी ज्ञाता है, उत्सर्ग-अपवाद पदों का अध्ययन ही नहीं अपितु स्पष्ट अनुभव रखता है, वही अपवाद के स्वीकार या परिहार के संबंध में ठीक ठीक निर्णय दे सकता है। अतः सभी आपवादिक विधान. करने वाले सुत्रों में कही गई प्रवृत्तियों के करने में इस उत्सर्ग-अपवाद के स्वरूप संबंधी वर्णन को ध्यान में रखना चाहिये। कृमि-नीहरण प्रायश्चित्त
४०. जे भिक्खू अप्पणो पालु-किमियं वा, कुच्छिकिमियं वा, अंगुलीए णिवेसिय-णिवेसिय णीहरइ, णीहरंतं वा साइज्जइ ।
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