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[निशीथसूत्र उत्सर्ग व अपवाद के निर्णय को समझने के लिए निशीथचूर्णी भाग-३ की प्रस्तावना से कुछ आवश्यक अंश उद्धत करना यहां प्रासंगिक होगा।
उत्सर्ग और अपवाद
उत्सर्ग और अपवाद दोनों का लक्ष्य है-जीवन की शुद्धि, आध्यात्मिक विकास, संयम की सुरक्षा, ज्ञानादि सद्गुणों की वृद्धि ।
जैसे राजपथ पर चलने वाला पथिक यदा कदा विशेष बाधा उपस्थित होने पर राजमार्ग का परित्याग कर पास की पगडंडी पकड़ लेता है और कुछ दूर जाने के बाद किसी प्रकार की बाधा दिखाई न दे तो पुनः राजमार्ग पर लौट आता है। यही बात उत्सर्ग से अपवाद में जाने और अपवाद से उत्सर्ग में आने के संबंध में समझ लेनी चाहिए। दोनों का लक्ष्य प्रगति है । अत: दोनों ही मार्ग हैं, अमार्ग या उन्मार्ग नहीं हैं । दोनों के समन्वय से साधक की साधना सिद्ध एवं समृद्ध होती है ।
उत्सर्ग और अपवाद कब और कब तक ?--
प्रश्न वस्तुतः महत्व का है। उत्सर्ग साधना की सामान्य विधि है । अतः उस पर साधक को सतत चलना होता है। उत्सर्ग छोड़ा जा सकता है किन्तु अकारण नहीं । किसी विशेष परिस्थितिवश ही उत्सर्ग का परित्याग कर अपवाद अपनाया जाता है, पर सदा के लिए नहीं।
___ जो साधक अकारण उत्सर्ग मार्ग का परित्याग कर देता है अथवा सामान्य कारण उपस्थित होने पर उसे छोड़ देता है, वह साधक सच्चा साधक नहीं है, वह जिनाज्ञा का आराधक नहीं अपितु विराधक है।
जो व्यक्ति अकारण औषध सेवन करता है अथवा रोग न होने पर भी रोगी होने का अभिनय करता है वह धूर्त है, कर्तव्यविमुख है। ऐसे व्यक्ति स्वयं पथभ्रष्ट होकर समाज को कलंकित करते हैं । यही दशा उन साधकों की है जो साधारण कारण से उत्सर्ग मार्ग का परित्याग कर देते हैं या अकारण ही अपवाद का सेवन करते रहते हैं, कारणवश एक बार अपवाद सेवन के बाद, कारण समाप्त होने पर भी अपवाद का सतत सेवन करते रहते हैं। ऐसे साधक स्वयं पथभ्रष्ट होकर समाज में भी एक अनुचित उदाहरण उपस्थित करते हैं। ऐसे साधकों का कोई सिद्धान्त नहीं होता है और न उनके उत्सर्ग अपवाद की सीमा होती है । वे अपनी वासनापूर्ति के लिए या दुर्बलता छिपाने के लिए विहित अपवाद मार्ग को बदनाम करते हैं।
अपवाद मार्ग भी एक विशेष मार्ग है। वह भी साधक को मोक्ष की ओर ही ले जाता है, संसार की ओर नहीं । जिस प्रकार उत्सर्ग संयम मार्ग है उसी प्रकार अपवाद भी संयम मार्ग है । किन्तु वह अपवाद वस्तुतः अपवाद होना चाहिये । अपवाद के पवित्र वेष में कहीं भोगाकांक्षा (व कषाय वृत्ति) चकमा न दे जाय, इसके लिये साधक को सतत, सजग, जागरूक एवं सचेष्ट रहने की आवश्यकता है।
साधक के सन्मुख वस्तुतः कोई विकट परिस्थिति हो, दूसरा कोई सरल मार्ग सूझ ही न पड़ता हो, फलतः अपवाद अपरिहार्य स्थिति में उपस्थित हो गया हो तभी अपवाद का सेवन धर्म होता है और ज्यों ही समागत तूफानी वातावरण साफ हो जाय, स्थिति की विकटता न रहे, त्यों ही उत्सर्ग मार्ग पर आरूढ़ हो जाना चाहिये। ऐसी स्थिति में क्षण भर का विलंब भी (संयम) घातक हो सकता है।
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