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दूसरा उद्देशक ]
पूर्व आलापकों की क्रियाएँ १. आमर्जन - हाथ से घर्षण, २. मर्दन -- हाथ से दबाना, ३. मालिश -- तेलादि से,
४. उबटन —- लोधादि से, ५. प्रक्षालन- प्रचित्त जल से, ६. रंगना - मेहंदी आदि से,
गंडादि आलायक की क्रियाएँ१. शस्त्र से काटना व काटकर, २. पीप खून निकालना व निकालकर, ३. प्रचित्त जल से धोना और धोकर,
४. मलहम लगाना व लगाकर, ५. तेलादि से मालिश करना, करके, ६. सुगंधित द्रव्य से सुवासित करना ।
सूत्र संख्या १६ से ६९ तक शरीरपरिकर्म प्रायश्चित्त के कुल ५४ सूत्र हैं । व्याख्याकार ने इन सूत्रों का भाव यह बताया है कि- 'कारण से करने में अनुज्ञा व अकारण से करने पर प्रायश्चित्त है' ऐसा समझना चाहिये । किन्तु व्रण के ६ सूत्र और गंडादि के ६ सूत्र हैं । इन १२ सूत्रों में तो कारण स्पष्ट है फिर भी प्रायश्चित्त क्यों कहा गया है ?
इस प्रश्न के उत्तर में व्याख्याकार कहते हैं कि- 'रोग को असातावेदनीय से उत्पन्न हुआ जानकर प्रदीन भाव से प्रसन्नचित्त रहकर निर्जरार्थ समभाव से सहन करना चाहिये, किन्तु प्रर्तध्यान या समाधि भाव नहीं करना चाहिये । जिनकल्पी ग्रामरणांत इसी अवस्था से रहते हैं । किन्तु स्थविर - कल्पी द्वारा वेदना असह्य होने पर १. सूत्र अर्थ के विच्छेद न होने के लिये २. संयमी जीवन के लिये, ३. समाधिभाव पूर्वक मरण की प्राप्ति के लिये तथा ४. ज्ञान-दर्शन- चारित्र तप की वृद्धि करने के लिये, इन क्रियाओं को करना वह "सकारण करना" कहलाता है ।
१. सहनशीलना आदि का विचार किये बिना, २. क्षमता बढ़ाने का लक्ष्य रखे बिना, ३. साधारण कारण से ही शीघ्र उपचार करने की आदत मात्र से ये प्रवृत्तियां करना "अकारण करना” कहलाता है, इस अपेक्षा से यह प्रायश्चित्तविधान है ।
इस भावार्थ की सूचक तीन गाथायें इस प्रकार हैंणिक्कारणे ण कप्पति, गंडादीएसु छेअ-धुवणादी । आसज्ज कारणं पुण, सो चेव गमो हवइ तत्थ ।। १५०७
चुपतितं दुक्खं, अभिभूतो वेयणाए तिव्वाए । अद्दीणो अव्वहिओ, तं दुक्खं अहियासए सम्मं ।। १५०८ ॥
[७३
अव्वोच्छित्तिणिमित्तं, जीवट्ठिए समाहिहेडं वा ।
पमज्जणादि तु पदे, जयणाए समायरे भिक्खू ।। १५०९ ॥ नि. चू.
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निशीथ सूत्र उद्देशक १३ में बिना रोग के [ रोग के पूर्व या पश्चात् ] चिकित्सा करे तो प्रायश्चित्त कहा गया है । उसके फलितार्थ से भी यह भाव निकलता है कि स्थविरकल्पी अपने समाधि भाव का विचार करके आवश्यक हो तो गीतार्थ व गीतार्थ की निश्रा से क्रमिक विवेकपूर्वक उपचार तथा शरीरपरिकर्म की क्रियाएं कर सकता है । अपवाद प्रसंग का निर्णय गीतार्थ के तत्त्वावधान में होता है ।
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