________________
[निशीथसूत्र
जो भिक्षु अपने शरीर का एक बार या बार बार आमर्जन करता है या करने वाले का अनुमोदन करता है, इस प्रकार पैर के आलापक के समान जानना यावत् जो भिक्षु अपने शरीर को रंगता है या उस रंग को चमकीला बनाता है, अथवा ऐसा करने वाले का अनुमोदन करता है (उसे लघुमासिक प्रायश्चित्त पाता है।) ।
विवेचन-अनेक अंगों संबंधी ६ सूत्रों के आलापकों का स्वतंत्र कथन है । अतः यहां शरीर के कथन से अवशेष अंग-हाथ, पेट, पीठ आदि के लिए ६ सूत्र समझ लेने चाहिए, तथा संपूर्ण विवेचन पैर के सूत्रों के विवेचन के समान यहां भी विषयानुसार समझ लेना चाहिये ।
वरण-चिकित्सा-प्रायश्चित्त
२८-३३ जे भिक्ख अप्पणो कायंसि वणं आमज्जेज्ज वा पमज्जेज्ज वा आमज्जंतं वा पमज्जंतं वा साइज्जइ एवं पायगमेण यव्वं जाव जे भिक्खू अप्पणो कार्यसि वणं फुमेज्ज वा रएज्ज वा फुमंतं वा रयंतं वा साइज्जइ ।
जो भिक्ष अपने शरीर में हुए घाव का एक बार या अनेक बार आमर्जन करता है या आमर्जन करने वाले का अनुमोदन करता है, इस प्रकार पैर के आलापक के समान जानना यावत् जो भिक्षु अपने शरीर पर हुए घाव को रंगता है या चमकीला बनाता है या ऐसा करने वाले का अनुमोदन करता है। (उसे लघुमासिक प्रायश्चित्त पाता है।)
विवेचन-व्रण-घाव । यह दो प्रकार का होता है-- १. शरीर पर स्वतः उत्पन्न-दाद खुजली, कोढ आदि ।
२. बाह्य उपक्रम से उत्पन्न-शस्त्र, कांटा, कील आदि के लगने से, सांप, कुत्ता आदि के काटने से, ठोकर लगने से या गिरने-पड़ने से उत्पन्न घाव ।
भिक्षु को यदि सहन करने की क्षमता हो तो कर्म-निर्जरार्थ इन परिस्थितियों में भी समभाव से उत्पन्न दुःख को सहन करना चाहिये किन्तु परिकर्म नहीं करना चाहिये।
__ अनेक प्रकार से प्रमादवृद्धि, रोगवृद्धि आदि की संभावना होने के कारण इनके परिकर्म का प्रायश्चित्त कहा गया है । 'असह्य स्थिति के बिना परिकर्म नहीं करना' इस लक्ष्य की स्मृति बनी रहे इसलिये इनका लघुमासिक प्रायश्चित्त कहा गया है । गंडादि-शल्य-चिकित्सा-प्रायश्चित्त
३४. जे भिक्खू अप्पणो कायंसि गंडं वा, पिलगं वा, अरइयं वा, अंसियं वा, भगंदलं वा अण्णयरेणं तिक्खेणं सत्थजाएणं आच्छिदेज्ज वा विच्छिदेज्ज वा, आच्छिदंतं वा विच्छिदंतं वा साइज्जइ।
३५. जे भिक्खू अप्पणो कायंसि गंडं वा, पिलगं वा, अरइयं वा, अंसियं वा, भगंदलं वा, अण्णयरेणं तिक्खणं सत्थजाएणं आच्छिदित्ता विच्छिदित्ता पूर्व वा सोणियं वा णीहरेज्ज वा विसोहेज्ज वा, णोहरतं वा विसोहेंतं वा साइज्जइ ।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org.