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दूसरा उद्देशक ]
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गई है । अत: दो और जोड़ने से १४ भेद होते हैं । इन भेदों के संक्षेप में दो भेद होते हैं - १. आहार, २. उपधि ।
आहार के ६ भेद और उपधि के आठ भेद करने से कुल चौदह भेद होते हैं और एक अपेक्षा से १२ प्रकार होते हैं तब प्रौषध भेषज शय्यातरपिंड नहीं होते हैं ।
३. तृण, डगल, राख, मल्लग (मिट्टी का सिकोरा ), शय्या, संस्तारक, पीढा और पात्रलेपादि वस्तु शय्यातरपिंड नहीं कहलाती हैं ।
उपलक्षण से अन्य उपकरणों को भी शय्यातरपिंड समझ लेना चाहिए, यथा - चश्मा, पेंसिल, पेंसिल छीलने का साधन, पेन आदि तथा पढ़ने के लिये पुस्तक या फर्नीचर की सामग्री आदि को शय्यातरपिंड नहीं समझना चाहिये ।
४. शय्यातर का कोई सदस्य दीक्षा ग्रहण करने के लिये आवश्यक उपधि एवं आहार लेकर आवे तो वह शिष्य शय्यातर के परिवार का होते हुए भी ग्रहण किया जा सकता है ।
शय्यातर कब होता है- -प्रज्ञा ग्रहण करने के बाद उपाश्रय में आहार, उपकरण रखने पर शय्यातर कहलाता है अर्थात् उसके बाद उसका प्रहारादि ग्रहण नहीं किया जा सकता है । शय्यातर का मकान छोड़ने के बाद कब तक शय्यातर समझना ?
१. यदि एक रात्रि भी नहीं रहे केवल दिन में ही कुछ समय रहना हुआ तो मकान छोड़ने के बाद शय्यातर नहीं रहता ।
२. यदि एक या अनेक रात्रि रहने के बाद मकान छोड़ा हो तो ग्राठ प्रहर तक उसे शय्यातर समझकर उसके यहां से आहारादि नहीं लेना चाहिये ।
३. एक मंडल में बैठकर आहार करनेवाले श्रमण यदि अनेक मकानों में ठहरे हों तो उनके सभी मालिक शय्यातर समझने चाहिए ।
यदि कोई श्रमण स्वयं का लाया हुआ प्रहार करनेवाले हों तो वे अपने शय्यातर को और आचार्य के शय्यातर को अपना शय्यातर समझें ।
४. शय्यातरपिंड ग्रहण करने से तीर्थंकर भगवान् की आज्ञाभंग का दोष लगता है, लौकिक व्यवहार में यह रूढ है कि जिसके घर पर अतिथि ठहरते हैं वे उसी के यहां का भोजन करते हैं । साधु भी यदि ऐसा करे तो उद्गम आदि दोषों की संभावना दृढ हो जाती है । शय्यातर की दान भावना में कमी आ सकती है । क्योंकि शय्या मिलना वैसे ही दुर्लभ होता है तब ऐसा करने से शय्या की दुर्लभता और भी बढ़ सकती है ।
५. आपवादिक परिस्थिति में किस क्रम से शय्यातरपिंड ग्रहण करना आदि शेष विवेचन जानने के लिए भाष्य का अवलोकन करना आवश्यक है ।
शय्यातर के घर की जानकारी नहीं करने का प्रायश्चित्त
४८. जे भिक्खू सागारियकुलं अजाणिय अपुच्छिय अगवेसिय पुव्वामेव पिंडवाय-पडियाए अणुपविस अणुपवितं वा साइज्जइ ।
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