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विवेचन - परिघट्टण आदि का विवेचन उद्दे० १ सु० ४० में देखें । अन्य - गवेषित - पात्र ग्रहण का प्रायश्चित्त
२७. जे भिक्खू नियगगवेसियं पडिग्गहं धरेइ, धरेंतं वा साइज्जइ । २८. जे भिक्खू परगवेसियं पडिग्गहं धरेइ, धरेंतं वा साइज्जइ । २९. जे भिक्खू वरगवेसियं पडिग्गहं धरेइ, धरेंतं वा साइज्जइ । ३०. जे भिक्खू बलगवेसियं पडिग्गहं धरेइ, धरेंतं वा साइज्जइ ।
३१. जे भिक्खू लवगवेसियं पडिग्गहं धरेइ, धरेंतं वा साइज्जइ ।
२७. जो भिक्षु स्वजन गवेषित पात्र को धारण करता है या धारण करने वाले का अनुमोदन करता है ।
२८. जो भिक्षु अस्वजन गवेषित पात्र को धारण करता है या धारण करने वाले का अनुमोदन
करता है ।
२९. जो भिक्षु प्रधान पुरुष द्वारा गवेषित पात्र को धारण करता है या धारण करने वाले का अनुमोदन करता है ।
जो भिक्षु बलवान् गवेषित पात्र को धारण करता है या धारण करने वाले का अनुमोदन
३०.
करता है ।
[ निशीथसूत्र
३१. भिक्षु लव गवेषित पात्र को धारण करता है या धारण करने वाले का अनुमोदन करता है । ( उसे लघुमासिक प्रायश्चित्त आता है ।)
विवेचन- १. नियग - पारिवारिक सदस्यों के द्वारा ।
२. पर - अन्य श्रावक आदि के द्वारा ।
३. वर - प्रधान व्यक्ति -ग्राम, नगर आदि के प्रमुख व्यक्ति, प्रसिद्ध व्यक्ति या पदवीप्राप्तसरपंच आदि के द्वारा ।
४. बलवान् - शरीर से या प्रभुत्व से शक्तिसम्पन्न के द्वारा ।
५. लव - दान का फल आदि बताकर प्राप्त किया गया ।
साधु-साध्वियों को पात्र आदि स्वयं गवेषणा करके प्राप्त करना चाहिए, अन्य से गवेषणा करवाकर के प्राप्त करने में अनेक दोष लगने की सम्भावना रहती है । अतः दाता की भावना को समझकर प्रदीनवृत्ति से स्वयं विधिपूर्वक गवेषण करे । अन्य की गवेषणा का पात्र ग्रहण करने पर सूत्रोक्त प्रायश्चित्त आता है ।
दोषों की और प्रायश्चित्तों की विस्तृत जानकारी के लिए निशीथचूर्णि देखें ।
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