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कृत्स्न वस्त्र धारण का प्रायश्चित्त
२३. जे भिक्खू कसिणारं वत्थाइं धरेइ, धरेंतं वा साइज्जइ ।
२३. जो भिक्षु 'कृत्स्न' वस्त्र धारण करता है या करने वाले का अनुमोदन करता है, ( उसे लघुमासिक प्रायश्चित्त आता है | )
विवेचन - इस सूत्र के भाष्य में 'कृत्स्न' शब्द का विस्तृत अर्थ एवं विविध प्रकार के प्रायश्चित्त विधानों का कथन करके यह कहा है कि
सुत्तनिवातो कसिणे, चउव्विधे मज्झियम्मि वत्थम्मी । जहणे य मोल्लकसिणे, तं सेवंतम्मि आणादी ॥ ९६९ ॥
चार प्रकार के कृत्स्न वस्त्र
१. द्रव्यकृत्स्न, २. क्षेत्रकृत्स्न, ३. कालकृत्स्न, ४. भावकृत्स्न । द्रव्यकृत्स्न - - श्रेष्ठ सुकोमल सूत्रों से बना वस्त्र,
क्षेत्रकृत्स्न --- जिस क्षेत्र में जो वस्त्र बहुमूल्य होने से दुर्लभ हो, कालकृत्स्न - जिस काल में जो बहुमूल्य वस्त्र दुर्लभ हो, भावकृत्स्न-वर्ण से सुन्दर वर्ण वाला अथवा बहुमूल्य वस्त्र ।
प्रत्येक के तीन-तीन प्रकार हैं-जघन्य, मध्यम, उत्कृष्ट, यों बारह प्रकार के वस्त्र होते हैंजघन्य भावकृत्स्न का तथा जघन्य, मध्यम द्रव्य क्षेत्र - काल कृत्स्न का सूत्रोक्त प्रायश्चित्त है । उत्कृष्ट द्रव्य-क्षेत्र-काल- भावकृत्स्न का लघु चौमासी प्रायश्चित्त प्राता है ।
अठारह रुपये से कम मूल्य का वस्त्र जघन्य भावकृत्स्न है, अतः अठारह रुपये से कम मूल्य का वस्त्र साधु-साध्वियों को लेना कल्पता है ।
[ निशीथ सूत्र
अठारह रुपये से लेकर एक लाख रुपये तक के मूल्य के सभी वस्त्र बहुमूल्य माने गए हैं । जो बहुमूल्य होता है वही वर्ण से अत्यन्त सुन्दर और मृदु स्पर्श वाला होता है ।
चारों प्रकार के कृत्स्न वस्त्र ग्रहण करने पर जो दोष लगते हैं, वे भाष्यकार ने इस प्रकार कहे हैं—
कसिणे चव्विहम्मि जइ दोसा एवमाइणो होंति । उप्पज्जते तम्हा, अकसिणगहणं ततो भणितं ॥ ९७२ ॥ भिण्णं, गणणाजुत्तं च दव्वतो खेत्त कालतो उ चित्तं । मोल्ललहु वण्णहीणं च भावतो तं अणुण्णातं ॥ ९७३ ॥
चार प्रकार के अकृत्स्न वस्त्र
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साधु-साध्वियों को प्रकृत्स्न-वस्त्र ही ग्रहण करना चाहिए । द्रव्य से कृत्स्न - फलियाँ रहित वस्त्र,
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