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[निशीथसूत्र
उदाहरण के रूप में प्रथम उद्देशक के द्वितीय सूत्र की, द्वितीय उद्देशक के प्रथम सूत्र की, तृतीय उद्देशक के प्रथम सूत्र की चूर्णि देखें, इन सूत्रों में-"तस्स मासगुरुपच्छित्तं, तस्स मासलहुपच्छित्तं "तस्स मासलहुं" इत्यादि प्रकार से व्याख्या की गई है। किन्तु उद्देशक के अंतिम सूत्र के साथ संलग्न उपलब्ध प्रायश्चित्त पाठ की व्याख्या प्रायः नहीं की गई है । अन्य सूत्रों की व्याख्या में "तस्स मासलहु" आदि प्रायश्चित्त सूचक वाक्यों की क्रिया-व्याख्या जिस प्रकार है, अंतिम सूत्रों में भी प्रायः उसी प्रकार है।
अतः प्रत्येक सूत्र का अंतिम वाक्य "करेंतं वा साइज्जइ आवज्जइ से मासियं परिहारट्ठाणं अणुग्घाइयं"। (करने वाले का अनुमोदन करता है उसे गुरुमासिक प्रायश्चित्त पाता है। ऐसा होना चाहिये।
कभी मूल पाठ का संक्षिप्तीकरण किया गया, उस समय सब सूत्रों के साथ प्रायश्चित्त पाठ न लिखकर उद्देशक के अंतिम सूत्र के साथ "तं सेवमाणे" इतना पाठ संबंध जोड़ने के लिये अधिक लगा कर लिख दिया गया हो । ऐसा चूर्णिकारकृत शब्दार्थ और व्याख्या से ज्ञात हो जाता है ।
साइज्जइ-किसी भी निषिद्ध कार्य के होने में अभिरुचि रखना “साइज्जणा" है। वह दो प्रकार की है
१. निषिद्ध कृत्य दूसरे से करवाना । २. निषिद्ध कृत्य करते हुये का अनुमोदन करना । दूसरे से करवाना भी दो प्रकार का है१. जिसकी इच्छा निषिद्ध कार्य करने की है, उससे करवाना । २. जिसकी इच्छा निषिद्ध कार्य करने की नहीं है, उससे बलपूर्वक करवाना। अनुमोदन भी दो प्रकार का है१. निषिद्ध कार्य की व करने वाले की सराहना करना। २. अकृत्य करने वाले को गणप्रमुख द्वारा मना न करना। प्र.-गुरुतर दोष किसमें है, किसी अन्य से निषिद्ध कृत्य करवाने में या निषिद्ध कृत्य का
अनुमोदन करने में ? उ.-अनुमोदन में लघुतर दोष है और करवाने में गुरुतर दोष है ।
-नि. चू. भा. २ पृष्ठ-२५, गाथा ५८८ अंगादान के संचालनादि का प्रायश्चित्त
२. जे भिक्खू अंगादाणं कठेण वा, किलिचेण वा, अंगुलियाए वा, सलागाए वा संचालेइ, संचालतं वा साइज्जइ।
३. जे भिक्खू अंगादाणं संबाहेज्ज वा, पलिमद्देज्ज वा, संबाहंतं वा, पलिमइंतं वा साइज्जइ ।
४. जे भिक्खू अंगादाणं तेल्लेण वा, घएण वा, वसाए वा, णवणीएण वा, अब्भंगेज्ज वा, मक्खेज्ज वा, अन्भंगेंतं वा मक्खेंतं वा साइज्जइ ।
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