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[निशीथसूत्र तुम्बे का पात्र आवश्यकतानुसार दो या तीन जगह बंधन लगाने से सुरक्षित रहता है। साधु का मुख्य लक्ष्य सदा यह रहे कि अधिक प्रमाद न हो और स्वाध्याय बढ़े।
साधु का प्रमाद शरीर और उपधि संबंधी कार्य करना होता है, सावद्य योगरूप प्रमाद का तो वह त्यागी ही होता है।
अइरेग बंधण-आवश्यक होने पर बंधन लगाने की अनुज्ञा है, उत्कृष्ट तीन बंधन लगाने की भी अनुज्ञा है। तीन बंधन वाला पात्र जब तक उपयोग में आवे तब तक रखा जा सकता है। सामान्यतः तीन से ज्यादा बंधन की आवश्यकता या उपयोगिता किसी भी प्रकार के पात्र में कम संभव है। यह सूत्र ४४-४५ से स्पष्ट होता है, तथापि सूत्र ४६ में विकट परिस्थिति की संभावना के आशय से उसकी भी सीमित अनुज्ञा दी गई है। अर्थात्-किसी क्षेत्र या काल की परिस्थिति में लकड़ी या तुबा का पात्र जिसमें कि पहले से एक या तीन बंध लगे हैं और टूट फूट जाय तो जब तक अन्य पात्र न मिले तब तक ४-५ बंधन लगाकर के भी चलाना पड़े तो यथासंभव शीघ्रातिशीघ्र मिट्टी आदि के पात्र की याचना कर लेना चाहिए और अधिक बंधन वाले पात्र को परठ देना चाहिये। उसे डेढ़ महीने के बाद रखने पर इस (४६वें) सूत्र से प्रायश्चित्त आता है । वस्त्र-संधान-बंधन प्रायश्चित्त
४७. जे भिक्खू वत्थस्स एगं पडियाणियं देइ देंतं वा साइज्जइ । ४८. जे भिक्खू वत्थस्स परं तिण्हं पडियाणियाणं देइ देंतं वा साइज्जइ । ४९. जे भिक्खू वत्थं अविहीए सिव्वइ, सिव्वंतं वा साइज्जइ।
जे भिक्खू वत्थस्स एगं फालिय-गठियं करेइ, करेंतं वा साइज्जइ ।
जे भिक्खू वत्थस्स परं तिण्हं फालिय-गंठियाणं करेइ, करेंतं वा साइज्जइ । ५२. जे भिक्खू वत्थस्स एगं फालियं गण्ठेइ, गंठेतं वा साइज्जइ । ५३. जे भिक्खू वत्थस्स परं तिण्हं फालियाणं गंठेइ, गंठेतं वा साइज्जइ । ५४. जे भिक्खू वत्थं अविहीए गंठेइ, गंठेतं वा साइज्जइ । ५५. जे भिक्खू वत्थं अतज्जाएण गहेइ, गहेंतं वा साइज्जइ । ५६. जे भिक्खू अइरेग-गहियं-वत्थं परं दिवड्डाओ मासाओ धरेइ धरेतं वा साइज्जइ ।
१. ५२-५३-५४ तीन सूत्रों का चूर्णिकार ने कोई अर्थ नहीं किया है, किन्तु भाष्यकार ने इनके विषय को स्पर्श करने वाली गाथा दी है
तिण्हुवरि फालियाणं वत्थं, जो फालियंपि संसिव्वे ।
पंचण्हं एगतरे सो पावति प्राणमादीणि ||७८७।। इस गाथा के आधार से सूत्रों का पाठ व अर्थ किया गया है।
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