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[ निशीथसूत्र
साधु किस कार्य के लिए स्वयं गृहधूम उतारे या अन्य से उतरवाये, इसका समाधान चूर्णिकार ने इस प्रकार किया है
साधु के दाद खुजली आदि किसी प्रकार का चर्मरोग हो जाए तो वह गृहधूम से उसकी चिकित्सा स्वयं करे, किन्तु चूर्णिकार ने यह नहीं बताया कि 'गृहधूम' का प्रयोग किस प्रकार किया जाय । अतः किसी कुशल वैद्य से या चर्मरोग विशेषज्ञ से गृहधूम के प्रयोग की विधि जान लेनी चाहिए |
पूतिकर्म- प्रायश्चित्त
५८. जे भिक्खू पूइकम्मं भुजइ भुजंतं वा साइज्जइ ।
५८. जो भिक्षु पूतिकर्म दोष से युक्त आहार, उपधि व वसति का उपयोग करता है या करने वाले का अनुमोदन करता है, ( उसे गुरुमासिक प्रायश्चित्तं प्राता है | )
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विवेचन - भाष्यकार ने पूतिकर्म दोष तीन प्रकार का कहा है१. श्राहारपूतिकर्म, २. उपधिपूतिकर्म, ३. शय्यापूतिकर्म । आहार - पूतिकर्म दो प्रकार का है
१. दूषित पदार्थों से संस्कृत आहार २. दूषित उपकरण प्रयुक्त प्रहार | प्रधाकर्मादि दोषयुक्त हींग, नमक आदि से मिश्रित निर्दोष आहार भी पूतिकर्म-दोषयुक्त
हो जाता है ।
आधाकर्मादि दोषयुक्त आहार से लिप्त चम्मच आदि से दिया जाने वाला निर्दोष आहार भी पूतिकर्म दोषयुक्त हो जाता है ।
२. उपधि - पूतिकर्म
गृहस्थ द्वारा प्रधाकर्मादि दोषयुक्त धागे से निर्दोष वस्त्र की सिलाई करने पर अथवा थेगली लगाने पर वह पूतिकर्म दोषयुक्त हो जाता है ।
गृहस्थ द्वारा आधाकर्मादि दोषयुक्त टिकड़ी लगाने से अथवा बन्धन लगाने से निर्दोष पात्र भी पूतिकर्म - दोषयुक्त हो जाता है ।
३. शय्या - पूतिकर्म
निर्दोष शय्या के किसी भी विभाग में प्रधाकर्मादि दोषयुक्त बांस और काष्ठ आदि का उपयोग हुआ हो तो वह शय्या भी पूतिकर्म - दोषयुक्त हो जाती है ।
पूतिकर्म दोष वाला आहार भी शुद्ध आहार में मिल जाये तो भी पूर्तिकर्म दोषयुक्त हो जाता है ।
तं सेवमाणे आवज्जइ मासियं परिहारट्ठाणं अणुग्धाइयं ।
इन उपर्युक्त ५८ सूत्रों में कहे गये किसी भी प्रायश्चित्तस्थान के सेवन करने वाले को गुरुमासिक प्रायश्चित्त आता है ।
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