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प्रथम उद्देशक]
[२३ थेगली दो प्रकार की होती है-१. सजातीय, २. विजातीय । जिस जाति का पात्र हो उसी जाति की थेगली लगाना "सजातीय" है, अन्य जाति की थेगली लगाना "विजातीय" है । पात्र के थेगली लगाना आवश्यक हो तो सजातीय थेगली ही लगाई जाए, विजातीय नहीं। यह नियम लकड़ी, तुम्बा, मिट्टी आदि की अपेक्षा से समझना चाहिए। किन्तु साथ में कपड़े का या धागे का जो उपयोग किया जाता है वह सजातीय या विजातीय नहीं कहा जाता है । तथा सेल्यूशन से जोड़ने को थेगली लगाना नहीं कहा जाता।
अविधि-सूत्र ४४-४५ में पात्र के बंधन का कथन है अतः पात्र विषयक अविधि का कथन इन सूत्रों के बाद में होना चाहिए था किन्तु यहाँ ४३वें सूत्र में अविधि का यह विधानसूत्र ४१-४२ और ४४-४५ इन चारों सूत्र से सम्बन्धित है ।
इसका फलितार्थ यह है कि थेगली भी प्रविधि से नहीं लगानी चाहिए और बंधन भी प्रविधि से नहीं बाँधना चाहिए।
विधि और अविधि की व्याख्या
१. बंधन और थेगली के बाद तथा सिलाई आदि के बाद वह स्थान प्रतिलेखन करने योग्य हो जाना चाहिए।
२. जहाँ बंधन, थेगली आदि लगाये गए हों, वहाँ से आहार आदि का अंश सरलता से साफ हो जाए ऐसा हो जाना चाहिए।
३. बंधन आदि लगाने का कार्य कम से कम समय में हो जाए।
ये ही विधि या विवेक समझने चाहिए और इसके विपरीत प्रविधि समझना चाहिए। बंधन
साधु का लक्ष्य तो यह रहे कि जिस पात्र का सुधार या उसके बंधन आदि कार्य न करना पड़े, ऐसे पात्र की ही याचना करे। ४१-४२ व ४४-४५ इन दो-दो सूत्रों का भाव यही है कि “जो भी पात्र मिले वह ऐसा हो कि कुछ भी संस्कार किए बिना सीधा उपयोग में आवे । यदि ऐसा न हो तो आवश्यकतानुसार जघन्य एक और उत्कृष्ट तीन बंधन लगाये जा सकते हैं।"
___ बंधन का अर्थ है—पात्र की गोलाई को धागे आदि से बांधकर मजबूत करना जिससे अधिक समय सुरक्षित रह सके।
एक स्थान पर बंधन लगाना एक बंधन कहलाता है और तीन स्थानों पर बांधना तीन बंधन कहलाता है।
मिट्टी के पात्र में बिना बंधन के काम चल सकता हो तो एक भी जगह बांधने की आवश्यकता नहीं होती है।
लकड़ी के अत्यन्त छोटे पात्र में एक भी बंधन की आवश्यकता नहीं होती है।
लकड़ी के बड़े पात्र में एक बंधन आवश्यक होता है। १. कुछ प्रतियों में निम्न सूत्र अधिक मिलता है, जो भाष्यचूर्णि में नहीं है-- __ "जे भिक्खू पायं अविहीए तड्डेइ तड्डेंतं वा साइज्जई।"
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