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[निशीयसूत्र श्रुतदेवता नमस्कार
इसी प्रकार भगवतीसूत्र के अन्त में श्रुतदेवता आदि अनेक देव-देवियों को नमस्कार रूप अन्तिम मंगल भी किसी युग में जुड़ा है। टीकाकार श्री अभयदेवसूरि ने भी इन्हें लिपिकर्ता के "मंगल' कहकर व्याख्या नहीं की है।
व्रती श्रमण अव्रती श्रुतदेवता यक्ष को नमस्कार करें यह संगत नहीं होता, कुछ आगमज्ञ श्रुतदेवता गणधर को ही मानते हैं किन्तु गणधर तो सूत्रागम के स्वयं स्रष्टा हैं, अत: वे अपने आपको नमस्कार करें यह भी युक्तिसंगत प्रतीत नहीं होता है।
जब लिपिक आगमों की प्रतिलिपियाँ करने लगे तो उनमें से किसी एक लिपिक ने भगवती के प्रारम्भ में "नमो बंभीए लिवीए" लिखकर नमस्कार रूप मंगलाचरण किया होगा, जिससे भगवती की प्रतिलिपि निर्विघ्न पूर्ण हो । क्योंकि भगवती ही सबसे बड़ा आगम सदा रहा है । उस प्रति की जितनी प्रतिलिपियाँ हुईं, उनमें यह लिपि नमस्कार का मंगलाचरण सूत्र स्थायी हो गया।
यद्यपि लिपिक ब्राह्मी लिपि में नहीं लिखते थे फिर भी उनकी यह श्रद्धा थी कि आदि लिपि "ब्राह्मी लिपि” है, उसे नमस्कार करने पर लिपि का व्यवसाय हमें समृद्धि देगा। प्रारम्भ में प्रयुक्त उत्थानिकायें
उपलब्ध आगमों की वाचना सुधर्मास्वामी की वाचना मानी जाती है, उनकी ही वाचना में उनका परिचय और उनके विहार का वर्णन जिस प्रकार इन उत्थानिकानों में वर्णित है उसे देखते हुए सामान्य पाठक भी यह समझ सकता है कि ये उत्थानिकायें किसी अन्य की ही कृति हैं।
उत्थानिकारों की रचनाशैली से ही यह स्पष्ट ज्ञात हो जाता हैउदाहरण के लिए प्रस्तुत है-उत्थानिका का एक अंश
"तेणं कालेणं तेणं समएणं समणस्स भगवओ महावीरस्स अंतेवासी अज्जसुहम्मे णाम थेरे जाइसंपन्ने जाव गामाणुगामं दूइज्जमाणे सुहं सुहेणं विहरमाणे जेणेव चंपाणयरो जेणेव पुण्णभद्दे चेइए तेणामेव उवागच्छइ." -ज्ञाताधर्मकथा अ. १, सू. १.
उस काल उस समय में श्रमण भगवान महावीर के अन्तेवासी आर्य सुधर्मा नाम के स्थविर जातिसम्पन्न 'यावत्' एक ग्राम से दूसरे ग्राम विचरते हुए सुखे सुखे विहार करते हुए जहाँ चम्पानगरी थी, जहाँ पूर्णभद्र चैत्य था वहाँ आए ।
उत्थानिका के इस अंश को पढ़कर सुज्ञ पाठक स्वयं निर्णय करें कि क्या.ये उत्थानिकाएं स्वयं सुधर्मास्वामी द्वारा संकलित हैं ? यदि नहीं तो यह निश्चित है कि बाद में ये जोडी गई हैं । इसलिए सूत्रों में मंगलाचरण सूत्र और उत्थानिकाएं मौलिक रचना नहीं हैं।
इसीलिए इस निशीथसूत्र में मंगलाचरण सूत्र और उत्थानिका सूत्र कहे बिना ही वेदमोहनीय के उदय का प्रायश्चित्त सूत्र कहा गया है।
अनगार धर्म की आराधना में ब्रह्मचर्य महाव्रत की आराधना अति कठिन है। इस एक के पूर्ण पालन से सभी महाव्रतों का पूर्ण पालन सम्भव है और इस एक के भंग होने पर सभी महाव्रतों का भंग होना सुनिश्चित है ।
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