________________
प्रथम उद्देशक]
[११ _ 'उव्व?ज्ज परिवट्टज्ज'-कल्क आदि पदार्थों से उबटन [लगाना, चुपड़ना, लेप करना, पीठी करना आदि] करने के अर्थ में भी तीन शब्दों का प्रयोग होता है-"उल्लोलेज्ज, उव्वज्ज, परिव?ज्ज", उनका भी अर्थ अब्भंगेज्ज-मक्खेज्ज के समान है।
मालिश और उबटन में अन्तरः-मालिश के योग्य पदार्थ स्निग्ध होते हैं। उनसे मालिश करने में विशेष शक्ति व श्रम का उपयोग होता है । इस तरह की गई मालिश त्वचा से लेकर अस्थि तक लाभप्रद होती है।
उबटन की वस्तुएं रूक्ष और कोमल होती हैं। उनके लगाने में विशेष शक्ति व श्रम की अपेक्षा नहीं होती है । उबटन के पदार्थ प्रायः त्वचा के लिये लाभप्रद होते हैं ।
कक्केण:-क्षेत्र काल के अंतर से पदार्थों के प्रयोग में परिवर्तन हो जाता है । कल्कादि शब्द भी प्रायः ऐसे ही हैं । चूर्णि के आधार से इनका अर्थ किया है
१. कक्केण, २. लोद्धेण, ३. पउमचुण्णेण, ४. ण्हाणेण, ५. सिणाणेण, ६. चुण्णेहिं, ७. वणेहिं ।
इन सात शब्दों का प्रयोग शरीर परिकर्म के प्रसंग में अनेक स्थलों पर हुआ है । लिपिकारों ने ऐसे समान पाठों के प्रसंग में बिंदी लगाकर पाठ संक्षिप्त किये हैं। संक्षिप्तीकरण में समान पद्धति नहीं रखने से कहीं दो, कहीं तीन, कहीं चार शब्द रह गये हैं। आगे के उद्देशों की व्याख्या में चूर्णिकार प्रथम उद्देशक का निर्देश कर पुनः व्याख्या नहीं करते हैं। अतः आगम-स्वाध्यायी को ऐसे स्थलों में विवेकपूर्वक निर्णय करना चाहिये।
९. जे भिक्खू अंगादाणं अण्णयरंसि अचित्तंसि सोयंसि अणुप्पवेसेत्ता सुक्कपोग्गले णिग्याएइ, णिग्याएंतं वा साइज्जइ।
९. जो भिक्षु "अंगादान' को किसी अचित छिद्र में प्रविष्ट करके शुक्र-पुद्गलों को निकालता है या निकालने वाले का अनुमोदन करता है (उसे गुरुमासिक प्रायश्चित्त पाता है ।)
विवेचन-ब्रह्मचर्य की ९ वाड में से एक का भी पालन नहीं करने से तथा वेदमोहनीय के तीव्र उदय होने पर ऐसी अवस्था प्राप्त होती है। उत्तराध्ययन अ० १६ में ब्रह्मचर्यव्रत की समाधि के लिए दस स्थान बताए हैं। उत्त० अ० ३२ में और दशवैकालिक अ० ८ में भी इस विषय के शिक्षावचन कहे गए हैं।
कतिपय स्थल यहां उद्धृत किये जाते हैं१. विभूसा इत्थिसंसग्गो, पणीयं पाण-भोयणं ।
नरस्सत्तगवेसिस्स, विसं तालउडं जहा ॥-दश. अ. ८, गा. ५६ २. चित्तभित्ति ण णिज्झाए, णारि वा सुअलंकियं ।
भक्खरं पि व दळूण, दिट्टि पडिसमाहरे ॥-दश. अ. ८, गा. ५४ ३. विवित्त-सेज्जासणजंतियाणं ओमासणाणं दमिइन्दियाणं । ___ण रागसत्तू धरिसेइ चित्तं, पराइओ वाहिरिवोसहेहिं ॥-उत्त. अ. ३२, गा. १२
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org