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प्रशम उद्देशक
वेद-मोहोदय का प्रायश्चित्त
१. जे भिक्खू हत्थकम्मं करेइ, करेंतं वा साइज्जइ ।
१. जो भिक्षु हस्तकर्म करता है या करने वाले का अनुमोदन करता है (उसे गुरुमासिक प्रायश्चित्त आता है।) विवेचन
इस सूत्र को पढ़ते ही जिज्ञासु स्वाध्यायी के हृदय में सहसा एक जिज्ञासा जागृत होती है कि इस आगम के प्रारम्भ में ही यह सूत्र कैसा है ?
प्रारम्भ में तो मंगलाचरण या उत्थानिका ही होनी चाहिए। यह सूत्र तो अन्यत्र भी कहीं लिया जा सकता था।
इसका समाधान यह है कि आगमों की संकलनशैली ही ऐसी है कि उनमें 'अथ से इति' तक अभीष्ट विषयों का संकलन किया गया है।
उदाहरण के लिए आचारांग, सूत्रकृतांग, स्थानांग, समवायांग तथा बृहत्कल्प, व्यवहार आदि सूत्र देखें।
इनमें न मंगलाचरण सूत्र है और न उत्थानिका है। क्योंकि आगमों में प्रतिपादित श्रुतधर्म और चारित्रधर्म स्वयं मंगल है, अतएव आगम और उनके प्रत्येक सूत्र मंगल रूप हैं, फिर अतिरिक्त मंगलाचरण की आवश्यकता ही क्या है ?
अथवा-प्रायश्चित्त तप है, दशवैकालिक सूत्र के अनुसार तप मंगल है, अतएव प्रायश्चित्तप्ररूपक पूर्ण निशीथसूत्र मंगल रूप ही है-इसलिए अतिरिक्त मंगलाचरण अनावश्यक है ।
इस सम्बन्ध के चिन्तनशील आगम स्वाध्यायियों का अभिमत यह है कि जिन आगमों के प्रारम्भ में या अन्त में जो मंगलाचरण सूत्र हैं या उत्थानिकायें हैं, वे सब लिपिककाल में या अन्य किसी अज्ञात काल में किसी भावुक आगमानुरागी ने भक्तिवश बाद में जोड़ दिए हैं ।
प्रमाणरूप में प्रस्तुत हैलिपि-नमस्कार
भगवतीसूत्र के प्रारम्भ में "नमो बंभीए लिवीए" जो नमस्कार रूप मंगलाचरण है वह . लिपिककाल से प्रचलित हुआ है, क्योंकि जब तक श्रुतपरम्परा कंठस्थ रही तब तक लिपि को नमस्कार करने की उपादेयता ही क्या थी?
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