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भिक्षु भिक्षुणियों को जिस अपराध के कारण दण्ड दिया जाता है वह आपत्ति के नाम से विश्रुत है। भिक्षुणीपातिमोक्ष के अनुसार पाँच प्रकार की आपत्तियां हैं - ( १ ) पाराजिक, (२) संघादिदेस, (३) निस्सग्गिय पावित्तिय (४) पाचित्तिय (५) पाटिदेसनीय इनके अतिरिक्त तीन प्रापतियों का वर्णन और मिलता है। (१) घुल्लच्चय, (२) दुक्कट, (३) दुब्भासित ।
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पाराजिक यह सबसे कठोर अपराध है । प्रस्तुत अपराध करने वाले को संघ से बहिष्कृत कर दिया जाता था। संघ में प्रवेश करने का उसे पुनः अधिकार नहीं था जो सद्धर्म के मार्ग से च्युत हो गया है उस अपराधी की | तुलना उस वृक्ष के मुझवि हुये पत्ते से की गई है जिसका सम्बन्ध वृक्ष से कट गया हो। पाराजिक का अपराधी धर्म ज्ञान से युत माना जाता था। पाराजिक आठ प्रकार के हैं- (१) मैथुन सेवन करना (२) चोरी करना (३) मानव की हत्या करना, शस्त्र की अन्वेषणा करना, मृत्यु की प्रशंसा करना (४) दिव्य शक्ति प्राप्त न होने पर भी दिव्य शक्ति मुझे प्राप्त है इस प्रकार दावा करना (५) कामासक्त होकर भिक्षुणी का कामुक पुरुष के जानू भाग के ऊपर और कटिभाग से निचले भाग का स्पर्श करना ( ६ ) पाराजिक दोष वाले को जानते हुए भी न स्वयं उसे रोकना और न गण को सूचित करना (७) जो समय संघ के द्वारा निष्कासित धर्म विनय और बुद्ध के उपदेश पर जो श्रद्धा रहित है उसका अनुगमन करना, तीन बार मना करने पर भी नहीं मानना (८) कामासक्त होकर भिक्षुणी का कामुक पुरुष का हाथ पकड़ना और उसके संकेत के अनुसार स्थान पर जाना । इसी प्रकार भिक्षुणी या महिला का हाथ पकड़ना और उसके संकेतानुसार कार्य करना ।
इन पाठ पाराजिक में गम्भीरतम अपराध मैथुन का है। बिना रागभाव के मैथुन नहीं हो सकता। इस लिए सतत संघ सावधान रहता था ।
पाराजिक अपराध के सदृश संधादिदेस अपराध भी है। इसमें भी मुख्य रूप से ब्रह्मचर्य की सुरक्षा के लिए ही विशेष सावधानी हेतु निर्देश दिया गया है। साथ ही संघभेद न करना, दुर्वचन न बोलना, संघ की निन्दा न करना, एक दूसरे का उपहास नहीं करना, एक दूसरे के अपराध को जो गोपनीय हैं उन्हें प्रकट न करना । संघादिदेस के अपराधी को मानत नामक दण्ड दिया जाता था । संघादिदेस अपराध करने पर भिक्षु को शीघ्र ही संघ को सूचित करता होता था। जो शीघ्र सूचित करता था उसे छह रात का मानत दण्ड दिया जाता था। और जो अपराध को छिपाता था उसके लिए परिवास का दण्ड अर्थात् निष्कासित का विधान था। जितने दिन छिपाता उतने दिन उसे परिवास का दण्ड दिया जाता था। परिवास के पश्चात् उसे पुनः छह रात का मानत प्रायश्चित करना पड़ता था । इस प्रकार के अपराधी भिक्षु को संघ से बाहर रहने का विधान था और प्रायश्चित्त काल तक उसे अन्य अधिकारों से वञ्चित कर दिया जाता था ।
जो भिक्षु परिवास दण्ड का प्रायश्चित्त कर रहा हो उसके लिए कुछ विशेष नियम थे । वह उपसम्पदा और निस्सय प्रदान नहीं कर सकता था । भिक्षुणियों को उपदेश भी नहीं दे सकता था । वह भिक्षुओं के साथ भी
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समन्तपासादिका भाग तृतीय पृ. १४५
पाचित्तिय पालि पृ. २८७, २९१
"पाराजिकेति पार नामोच्यते धर्मज्ञानम् । ततोजीना ओजीना संजीना परिहीणा तेनाह पाराजिकेति । "
- भिक्षुणी विनय १२३
चुल्लवग्ग पाट्टि पृ. ४००
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