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भाष्य से मिल गई हैं। जहाँ पर चर्णिकार यह संकेत करते हैं वहीं पर यह पता चलता है कि यह नियुक्ति की गाथा है और यह भाष्य की गाथा है। इस नियुक्ति में श्रमणाचार का ही निरूपण हुआ है । निशीथभाष्य
निर्यक्तियों की व्याख्याशैली अत्यन्त गूढ़ और संक्षिप्त थी। उसका मुख्य लक्ष्य पारिभाषिक शब्दों की व्याख्या करना था। नियुक्तियों के गम्भीर रहस्यों को प्रकट करने हेतु नियुक्तियों की तरह ही प्राकृत भाषा में पद्यात्मक व्याख्या लिखी गई जो भाष्य के नाम से प्रसिद्ध है। नियुक्तियों के शब्दों में छिपे हुए अर्थबाहुल्य को अभिव्यक्त करने का सर्वप्रथम श्रेय भाष्यकारों को है। निशीथ के भाष्य-रचयिता श्री संघदासग भाष्य की अनेक गाथाएँ बृहत्कल्प और व्यवहारभाष्य में हैं। अनेक रसप्रद सरस कथाएँ भी हैं। विविध दृष्टियों से श्रमणाचार का निरूपण हआ है। जैसे पूलिंद आदि अनार्य अरण्य में जाते हए श्रमणों को आर्य समझ कर मार देते थे। सार्थवाह व्यापारार्थ दूर-दूर देशों में जाते थे। उस युग में अनेक प्रकार के सिक्के प्रचलित थे । भाष्य में बृहत्कल्प, नन्दीसूत्र, सिद्धसेन और गोविन्द-वाचक आदि के नामों का उल्लेख हमा है। निशीथचूणि
भाष्य के पश्चात् जैनाचार्यों ने गद्यात्मक व्याख्या साहित्य लिखने का निश्चय किया। उन्होंने शुद्ध प्राकृत में और संस्कृत मिश्रित प्राकृत में व्याख्यानों की रचना की। जो व्याख्या चणि के नाम से विश्रुत है। निशीथ पर दो-दो चूणियां निर्मित हुई, किन्तु वर्तमान में उस पर एक ही चूणि उपलब्ध है । निशीथचूणि के रचयिता जिनदासगणि महत्तर हैं । इस चूणि को विशेष चूणि कहते हैं । इस चूणि में मूल सूत्र, नियुक्ति व भाष्य गाथाओं का विवेचन है । इस चणि की भाषा संस्कृत मिश्रित प्राकृत है ।
हमने पूर्व पंक्तियों में निशीथ के बीस उद्देशकों का संक्षिप्त सार प्रस्तुत किया है। वह सार निशीथ मूल आगम के अनुसार दिया गया है। निशीथचणि में निशीथ के मूल भावों को स्पष्ट करने के लिए कुछ नये तथ्य चणिकार ने अपनी ओर से दिये हैं। अतः हम प्रबुद्ध पाठकों को निशीथचणि में जो वर्णन पाया है उसका सार यहाँ दे रहे हैं, इसलिए यह पुनरावृत्ति नहीं है । पाठक स्वयं अनुभव करेंगे कि चूर्णिकार ने किस प्रकार विषय को स्पष्ट किया है।
चर्णिकार ने सर्वप्रथम अरिहन्त, सिद्ध और साधुओं को नमस्कार किया है और अर्थप्रदाता प्रद्युम्न महाश्रमण को भी नमस्कार किया है। प्राचार्य, अग्र, प्रकल्प, चलिका और निशीथ इन सबका निक्षेपपद्धति से चिन्तन किया गया है। निशीथ का अर्थ है अप्रकाश+अन्धकार । अप्रकाशित वचनों के सही निर्णय हेतु निशीथसूत्र है। लोकव्यवहार में निशीथ का प्रयोग रात्रि के अन्धकार के लिये होता है। निशीथ के अन्य अर्थ भी दिये गये हैं। जिससे पाठ प्रकार के कर्मपंक नष्ट किये जायें वह निशीथ है।
प्रथम पुरुष प्रतिसेवक का वर्णन है । उसके पश्चात् प्रतिसेवना और प्रतिसेवितव्य का स्वरूप बताते हुए अप्रमाद-प्रतिसेवना, सहसात्करण, प्रमादप्रतिसेवना, क्रोध आदि कषाय, ज्ञान-दर्शन-चारित्र की विराधना, विकथा, इन्द्रिय, निद्रा आदि अनेक महत्त्वपूर्ण विषयों का विवेचन किया गया है । आलस्य, मैथुन, निद्रा, क्षुधा और आक्रोश इन पांचों का जितना सेवन किया जाय, उतना ही वे द्रौपदी के दुकूल की तरह बढ़ते रहते हैं ।
स्त्यानद्धिनिद्रा वह है जिसमें तीव्र दर्शनावरणकर्म का उदय होता है, जिस निद्रा में चित्त स्त्यान कठिन या जम जाय वह स्त्यानद्धि है । उसके स्वरूप को स्पष्ट करने के लिए चर्णिकार ने पुद्गल, मोदक, कुम्भकार और हस्तीदन्त के उदाहरण दिये हैं।
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