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दूसरे दिन दो, इस प्रकार क्रमशः पूर्णिमा को पन्द्रह ग्रास का भोजन लिया जाता है। इसी प्रकार कृष्णपक्ष में प्रथम दिन चौदह ग्रास, एक-एक ग्रास कम करते हुए चतुर्दशी को एक ग्रास खाया जाता है और अमावस्या को उपवास किया जाता है। यदि कोई कृष्णपक्ष की प्रथम तिथि से व्रत प्रारम्भ करता है तो प्रथम दिन चौदह ग्रास खाता है और क्रमश: ग्रासों को कम करता जाता है । चतुर्दशी को एक ग्रास खाता है और अमावस्या को एक ग्रास भी नहीं खाता, फिर शुक्लपक्ष के प्रथम दिन एक ग्रास लेता है और बढ़ता-बढ़ता पूर्णमासी को पन्द्रह ग्रास खाता है । इस स्थिति में मास पूर्णिमान्त होता है । इस क्रम में व्रत के मध्य में एक भी ग्रास नहीं होता । अधिक ग्रासों की संख्या प्रारम्भ और अन्त में होती है। इससे यह प्रायश्चित्त पीपिलिकामध्य चन्द्रायन कहा जाता है । चन्द्रायन-व्रत के सम्बन्ध में विविध प्रकारों का उल्लेख है।
इस प्रकार विविध प्रायश्चित्त उतारने हेतु विविध प्रकार के तपों का उल्लेख ग्रन्थों में प्रतिपादित है। हम उन सबका यहाँ उल्लेख न कर डॉ. पाण्डुरंग वामन काणे के द्वारा लिखित धर्मशास्त्र का इतिहास भाग ३ को पढ़ने का कष्ट करें, यह संकेत कर रहे हैं। जहां इस पर विस्तार से विवेचन और चर्चा है।
व्याख्या साहित्य निशीथनियुक्ति
छेदसूत्रों में निशीथ का बहुत ही गौरवपूर्ण स्थान रहा है । उसमें रहे हुए रहस्यों को व्यक्त करने हेतु समय-समय पर इस पर व्याख्या साहित्य का निर्माण हया है। सर्वप्रथम इस पर प्राकृत भाषा में पद्यबद्ध टीका लिखी गई । वह टीका निशीथ नियुक्ति के नाम से विश्रुत है। इसमें मूल ग्रन्थ के प्रत्येक पद पर व्याख्या न कर मुख्य रूप से पारिभाषिक शब्दों की व्याख्या की गई है। यह व्याख्याशैली निक्षेपपद्धतिपरक है। निक्षेपपद्धति में किसी एक पद के सम्भावित अनेक अर्थ करने के पश्चात उनमें से अप्रस्तुत अर्थों का निषेध कर प्रस्तुत अर्थ को ग्रहण किया जाता है। न्यायशास्त्र में यह पद्धति अत्यन्त प्रिय रही है। भद्रबाहस्वामी ने सिक्ति के लिए यह पद्धति उपयुक्त मानी है। उन्होंने आवश्यक नियुक्ति में लिखा है कि एक शब्द के अनेक अर्थ होते हैं पर कौनसा अर्थ किस प्रसंग के लिए उपयुक्त है। श्रमण भगवान् महावीर के उपदेश के समय कौनसा अर्थ किस शब्द से सम्बद्ध रहा है प्रभति सभी बातों को ध्यान में रखते हुए सही दृष्टि से अर्थ निर्णय करना। और उस अर्थ का मूल सूत्र के शब्दों के साथ सम्बन्ध स्थापित करना नियुक्ति का प्रयोजन है।' अपर शब्दों में कहा जाय तो सूत्र और अर्थ का निश्चित सम्बन्ध बताने वाली व्याख्या नियुक्ति है। अयवा निश्चय से अर्थ का प्रतिपादन करने वाली युक्ति नियुक्ति है। सुप्रसिद्ध जर्मन विद्वान् सारपेण्टियर ने नियुक्ति की परिभाषा करते हुए लिखा है कि 'नियुक्तियाँ अपने प्रधान भाग के केवल इंडेक्स का काम करती हैं। वे सभी विस्तारयुक्त घटनावलियों का संक्षेप से उल्लेख करती हैं।
निशीथनियुक्ति में भी सूत्रगत शब्दों की व्याख्या निक्षेपपद्धति से की गई है। प्रस्तुत नियुक्ति की गाथाएँ
१. लामा
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आवश्यकनियुक्ति, गा. ८८ २. सूत्रार्थयोः परस्परं नियोजन सम्बन्धन नियुक्तिः ।
-आवश्यकनियुक्ति गा. ८३ ३. निश्चयेन अर्थप्रतिपादिकयुक्तिः नियुक्तिः ।
--आचारांगनि. १/२/१ ४. उत्तराध्ययन की भूमिका, पृ. ५०-५१
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