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अठारहवें उद्दे शक में नौका सम्बन्धी दोषों पर चिन्तन किया गया है। नौका पर धारूढ़ होना, नौका खरीदना, नौका को जल से स्थल और स्थल से जल में लेना, नौका में पानी भरना या खाली करना, नौका को खेना, नाव से रस्सी बांधना आदि के प्रायश्चित्त का वर्णन है ।
उन्नीसवें उद्दे शक में स्वाध्याय और अध्यापन के सम्बन्ध में चिन्तन किया है। स्वाध्याय का काल, अकाल, विषय, अस्वाध्यायकाल में स्वाध्याय करने से लगने वाले दोष, अयोग्य व्यक्ति को, पार्श्वस्थ व कुशील को अध्ययन कराने से लगने वाले दोष और योग्य व्यक्ति को न पढ़ाने से लगने वाले दोषों पर प्रकाश डाला है।
बीसवें उद्दे शक में मासिक आदि परिहारस्थान, प्रतिसेवन, आलोचन, प्रायश्चित्त आदि पर चिन्तन किया
गया है ।
चूर्णि के उपसंहार में लेखक ने अपना नाम जिनदासगणि महत्तर बताया है और चूर्णि का नाम विशेषचूर्णि लिखा है।
प्रस्तुत चूर्णि का चूर्णिसाहित्य में एक विशिष्ट स्थान है। इसमें आचार के नियमोपनियम को सविस्तृत व्याख्या है। भारत की सांस्कृतिक, सामाजिक, दार्शनिक प्राचीन सामग्री का इसमें अनूठा संग्रह है। अनेक ऐतिहासिक और पौराणिक कथाओं का सुन्दर संकलन है । धूर्ताख्यान, तरंगवती, मलयवती, मगधसेन, आर्यकालक आदि की कथाएँ प्रेरणात्मक हैं।
निशीथचूणिदुर्गपदव्याख्या
जैन परम्परा में श्री चन्द्रसूरि नाम के दो आचार्य थे। एक मलधारी हेमचन्द्रसूरि के शिष्य थे तो दूसरे चन्द्रकुली श्री शीलभद्रसूरि और धनेश्वरसूरि गुरु युगल के शिष्य थे। जिनका दूसरा नाम पार्श्वदेवगण भी था । उन्होंने निशोषण के बीसवें उद्देशक पर निशीथ चूर्णिदुर्गपदव्याख्या नामक टीका लिखी है। चूर्णि के कठिन स्थलों को सरल व सुगम बनाने के लिए इसकी रचना की गई है, जैसा कि व्याख्याकार ने स्वयं स्वीकार किया है। पर यह वृत्ति महिनों के प्रकार दिन आदि के सम्बन्ध में विवेचन करने से नीरस हो गई है।
साथ उपाध्याय श्री अमर मुनिजी म. और पण्डित मुनि श्री कन्हैयाप्रकाशन सन्मति ज्ञानपीठ आगरा से हुआ है । उसका द्वितीय निशीथ एक अध्ययन नाम से पण्डित दलसुखभाई मालवणिया ने डबल्यू शूविंग मूलसूत्र लाइ
निशीयसूत्र भाष्य, चूर्णि और परिशिष्ट के लालजी म. 'कमल' द्वारा सम्पादित चार भागों का संस्करण भी पुनः आगरा से ही प्रकाशित हुआ है। उस पर सविस्तृत प्रस्तावना भी लिखी, जो उनके गम्भीर अध्ययन की परिचायिका है सिग १९१८ जैन साहित्य संशोधक समिति पूना से प्रकाशित हुआ। निशीथसूत्र का सर्वप्रथम मूलपाठ के साथ हिन्दी अनुवाद प्राचार्य अमोलक ऋषिजी म. ने किया, जिसका प्रकाशन सुखदेवसहाय ज्वालाप्रसाद जौहरी हैदराबाद वीर सं. २४४६ में हुआ । श्राचार्यप्रवर श्री घासीलालजी म. ने निशीथ पर संस्कृत भाषा में टीका लिखी है और वह जैन शास्त्रोद्धार समिति राजकोट से प्रकाशित हुआ । सुत्तागमे के दो भाग में धर्मोपदेष्टा फूलचन्दजी म. 'पुप्फभिक्खू' ने बत्तीस आगमों के मूलपाठ प्रकाशित किये। उसमें निशीय का मूल पाठ प्रकाशित हुआ है। नवसुतानि नामक ग्रन्थ में प्राचार्य श्री तुलसीजी के नेतृत्व में युवाचार्य महाप्रज्ञजी ने जो सम्पादन किया, उसमें मूलपाठ के रूप में निसीहज्भयणं भी प्रकाशित है । इसमें पाठान्तर भी दिये गये हैं । इस प्रकार निशीथ पर आज दिन तक विभिन्न स्थानों से प्रकाशन हुए हैं। पर निशीथ पर विवेचन युक्त कोई भी संस्करण नहीं निकला, जो निशीथ में रहे हुए रहस्यों को उद्घाटित कर सके। इसका मूल कारण गोपनीयता ही है।
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