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श्रीमद्देवेन्द्रसूरि - विरचित कर्मविपाक अर्थात् कर्मग्रन्थ
(चतुर्थ भाग )
विद्यापीठ
हिन्दी अनुवाद
पं० सुखलालजी संघवी
दर्शनावरण
वेदनीय
मोहनीय
ज्ञानावरण
कर्म चक्र
Falle
अन्तराय
नाम
गोत्र
पार्श्वनाथ विद्यापीठ, वाराणसी
ainelibrary.org
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पार्श्वनाथ विद्यापीठ ग्रन्थमाला सं. १६०
श्रीमद्विजयानन्दसूरिभ्यो नमः
श्रीमद्देवेन्द्रसूरि - विरचित
कर्मविपाक अर्थात् कर्मग्रन्थ
(चतुर्थ भाग)
प्रधान सम्पादक प्रो. सागरमल जैन
पं. सुखलालजी संघवी कृत हिन्दी अनुवाद और टीका-टिप्पणी आदि ( सहित)
पार्श्वनाथ विद्यापीठ, वाराणसी
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पार्श्वनाथ विद्यापीठ ग्रन्थमाला सं. 160
प्रधान सम्पादक : डॉ. सागरमल जैन
पुस्तक : कर्म विपाक अर्थात् कर्मग्रन्थ
(चतुर्थ भाग) हिन्दी अनुवाद : पं. सुखलाल संघवी
प्रकाशक पार्श्वनाथ विद्यापीठ, आई.टी.आई. रोड, करौंदी, वाराणसी-221005 फोन : 0542-2575521 Emails : pvri@sify.com
parshwanathvidyapeeth@rediffmail.com
संस्करण : प्रथम पुनर्मुद्रित संस्करण ई. सन् 2009
© पार्श्वनाथ विद्यापीठ, वाराणसी
ISBN : 81-86715-95-9
मूल्य
: रु. 400/- मात्र
अक्षर-सज्जा विमल चन्द्र मिश्र, डी. 53/97, ए-8, पार्वतीपुरी कालोनी, गुरुबाग कमच्छा, वाराणसी
मुद्रक वर्द्धमान मुद्रणालय भेलूपुर, वाराणसी-221010
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प्रकाशकीय
व्यक्ति जैसा कर्म करता है उसे वैसा ही फल प्राप्त होता है। लेकिन उस फल की प्राप्ति के लिए व्यक्ति को किसी ईश्वर की आवश्यकता नहीं होती है। कर्म जड़ है और जब उसका चेतनजीव से सम्पर्क होता है तो वह अपने अच्छेबुरे विपाकों को नियत समय पर जीव पर प्रकट करता है । कर्मवाद यह नहीं कहता कि चेतन के सम्बन्ध के बिना ही जड़कर्म भोग देने में समर्थ है। वह इतना कहता है कि फल देने के लिए किसी ईश्वर की आवश्यकता नहीं है, क्योंकि सभी जीव चेतन हैं, वे जैसा कर्म करते हैं उसके अनुसार उनकी बुद्धि हो जाती है, जिससे बुरे कर्म के फल की इच्छा न रहने पर भी वे कुकृत्य कर बैठते हैं जिससे कर्मानुसार उनको फल मिलता है।
प्रथम संस्करण के रूप में यह ग्रन्थ श्री आत्मानन्द जैन पुस्तक प्रचारक मण्डल, रोशन मोहल्ला, आगरा द्वारा ई. सन् १९३९ में प्रकाशित हुआ था। ग्रन्थ की महत्ता एवं उपादेयता को देखते हुए पार्श्वनाथ विद्यापीठ इसके सभी खण्डों का संशोधन कर पुनः प्रकाशन कर रहा है। यह श्रमसाध्य एवं व्ययसाध्य कार्य कदापि सम्भव नहीं होता यदि हमें श्री चैतन्य कोचर, नागपुर का सहयोग नहीं मिला होता। श्री चैतन्य कोचर साहब की जैन साहित्य के विकास, संवर्द्धन एवं संरक्षण में विशेष रुचि है। आप एक उत्कृष्ट चिन्तक, सुश्रावक एवं व्यवसायी हैं। इस ग्रन्थ के प्रकाशन के लिए उदार आर्थिक सहयोग हेतु हम उनके प्रति अपनी कृतज्ञता ज्ञापित करते हैं।
इस ग्रन्थ के भाषा संशोधन एवं प्रूफ रीडिंग का गुरुतर कार्य डॉ. विजय कुमार, प्रकाशन अधिकारी, पार्श्वनाथ विद्यापीठ ने सम्पादित किया है, एतदर्थ वे बधाई के पात्र हैं। इस कार्य में उनके सहयोगी रहे डॉ. सुधा जैन एवं श्री ओमप्रकाश सिंह भी निश्चय ही धन्यवाद के पात्र हैं।
प्रकाशन सम्बन्धी व्यवस्थाओं के लिए हम संस्थान के सह-निदेशक डॉ. श्रीप्रकाश पाण्डेय के प्रति धन्यवाद ज्ञापित करते हैं।
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(४)
सुन्दर अक्षर-सज्जा तथा सत्वर मुद्रण के लिए क्रमश: श्री विमलचन्द्र मिश्र एवं वर्द्धमान मुद्रणालय बधाई के पात्र हैं। आशा ही नहीं बल्कि पूर्ण विश्वास है कि लगभग अप्राप्य हो गयी यह महत्त्वपूर्ण पुस्तक निश्चय ही विद्वत्वर्ग एवं सामान्य स्वाध्यायियों हेतु परम उपयोगी सिद्ध होगी।
दिनांक १६.०६.०८
डॉ. सागरमल जैन
सचिव
पार्श्वनाथ विद्यापीठ
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( ५ )
विषयानुक्रमणिका
प्रस्तावना मङ्गल और विषय
जीवस्थान आदि विषयों की व्याख्या
विषयों के क्रम का अभिप्राय
(१) जीवस्थान- अधिकार
जीवस्थान
जीवस्थानों में गुणस्थान जीवस्थानों में योग
जीवस्थानों में उपयोग
जीवस्थानों में लेश्या - बन्ध आदि
(२) मार्गणास्थान - अधिकार मार्गणा के मूल भेद मार्गणाओं की व्याख्या मार्गणस्थान के अवान्तर भेद
गतिमार्गणा के भेदों का स्वरूप
इन्द्रियमार्गणा के भेदों का स्वरूप
कायमार्गणा के भेदों का स्वरूप योगमार्गणा के भेदों का स्वरूप वेदमार्गणा के भेदों का स्वरूप कषायमार्गणा के भेदों का स्वरूप
ज्ञानमार्गणा के भेदों का स्वरूप
संयममार्गणा के भेदों का स्वरूप
दर्शनमार्गणा के भेदों का स्वरूप श्यामार्गणा के भेदों का स्वरूप भव्यत्वमार्गणा के भेदों का स्वरूप सम्यक्त्वमार्गणा के भेदों का स्वरूप संज्ञीमार्गणा के भेदों का स्वरूप
मार्गणाओं में जीवस्थान
i-xxxvii
९
१०
१३
१५
१५
१६
१९ २३
२६
३३
३३
३४
३६
३६
३६
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३७
३९
३९
४०
४४
४५
४६
४६ ४८
४९
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(६ )
४९
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६६
६९
७६
८३
.
९४
९८
आहारमार्गणा के भेदों का स्वरूप मार्गणाओं में गुणस्थान मार्गणाओं में योग मनोयोग के भेदों का स्वरूप वचनयोग के भेदों का स्वरूप काययोग के भेदों का स्वरूप
६७ मार्गणाओं में योग का विचार मार्गणाओं में उपयोग मार्गणाओं में लेश्या मार्गणाओं का अल्प-बहुत्व गतिमार्गणा का अल्प-बहुत्व
८४ इन्द्रिय और काय-मार्गणा का अल्प-बहुत्व योग और वेद-मार्गणा का अल्प-बहुत्व । कषाय, ज्ञान, संयम और दर्शन-मार्गणा का अल्प-बहुत्व ९१
लेश्या आदि पाँच मार्गणाओं का अल्प-बहुत्व (३) गुणस्थानाधिकार
गुणस्थानों में जीवस्थान गुणस्थानों में योग गुणस्थानों में उपयोग
१०२ सिद्धान्त के कुछ मन्तव्य
१०२ गुणस्थानों में लेश्या तथा बन्ध-हेतु बन्ध-हेतुओं के उत्तर-भेद तथा गुणस्थानों में मूल बन्ध-हेतु। एक सौ बीस प्रकृतियों के यथासंभव मूल बन्ध-हेतु गुणस्थानों में उत्तर बन्ध-हेतुओं का सामान्य तथा विशेष वर्णन ११२ गुणस्थानों में बन्ध
११६ गुणस्थानों में सत्ता तथा उदय गुणस्थानों में उदीरणा
११८ गुणस्थानों में अल्प-बहुत्व
११९ छ: भाव और उनके भेद
१२२ कर्म और धर्मास्तिकाय आदि अजीव द्रव्यों के भाव । गुणस्थानों में मूल भाव
१३१ संख्या का विचार
१०५
११०
११७
१३०
१३२
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(७)
१५२
१५३
१५६
संख्या के भेद-प्रभेद
१३२ संख्या के तीन भेदों का स्वरूप
१३३ पल्यों के नाम तथा प्रमाण
१३३ पल्यों के भरने आदि की विधि सर्षप-परिपूर्ण पल्यों का उपयोग असंख्यात और अनन्त का स्वरूप
असंख्यात तथा अनन्त के भेदों के विषय में कार्मग्रन्थिक मत १३९ प्रथमाधिकार के परिशिष्ट
१४७ परिशिष्ट 'क'
१४७ परिशिष्ट 'ख' परिशिष्ट 'ग' परिशिष्ट 'घ' परिशिष्ट 'च' परिशिष्ट 'छ'
१५६ द्वितीयाधिकार के परिशिष्ट
१६१ परिशिष्ट 'ज'
१६१ परिशिष्ट 'झ'
१६३ परिशिष्ट 'ट'
१६८ परिशिष्ट 'ठ' परिशिष्ट 'ड' परिशिष्ट 'ढ'
१७५ परिशिष्ट 'त'
१७६ परिशिष्ट 'थ'
१८० परिशिष्ट 'द'
१८१ परिशिष्ट 'ध'
१८३ तृतीयाधिकार के परिशिष्ट
१८८ परिशिष्ट 'प' परिशिष्ट 'फ'
१८९ परिशिष्ट 'ब' परिशिष्ट नं. १
१९३ परिशिष्ट नं. २ परिशिष्ट नं. ३
१९७
१८८
१९०
१९७
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(८ )
निवेदन
इस पुस्तक का लेखक मैं हूँ, इसलिये इसके सम्बन्ध में दो-चार आवश्यक बातें मुझको कह देनी हैं। करीब पाँच साल हुए यह पुस्तक लिखकर छापने को दे दी गई, पर कारणवश वह न छप सकी। मैं भी पूना से लौटकर आगरा आया। पुस्तक न छपी देखकर और लेखन विषयक मेरी अभिरुचि कुछ बढ़ जाने के कारण मैंने अपने मित्र और मण्डल के मन्त्री बाबू डालचंदजी से अपना विचार प्रकट किया कि जो यह पुस्तक लिखी गई है, उसमें परिवर्तन करने का मेरा विचार है। उक्त बाबूजी ने अपनी उदार प्रकृति के अनुसार यही उत्तर दिया कि समय व खर्च की परवा नहीं, अपनी इच्छा के अनुसार पुस्तक को नि:संकोच भाव से तैयार कीजिये। इस उत्तर से उत्साहित होकर मैंने थोड़े से परिवर्तन के स्थान पर पुस्तक को दुबारा ही लिख डाला। पहले मैंने सन्दर्भ नहीं दिये थे, पर पुनर्लेखन में कुछ नोटें लिखने के उपरान्त भावार्थ का क्रम भी बदल दिया। एक तरफ छपाई की उचित सुविधा न हो सकी और दूसरी तरफ नवीन वाचन तथा मनन का अधिकाधिक अवसर मिला । लेखन कार्य में मेरा और मण्डल का सम्बन्ध व्यापारिक तो था नहीं, इसलिये चिन्तन और लेखन में मैं स्वस्थ ही था और अब भी हूँ। इतने में मेरे मित्र रमणलाल आगरा आये और सहायक हुए। उनके अवलोकन और अनुभव का भी मुझे सविशेष सहारा मिला। चित्रकार चित्र तैयार कर उसके ग्राहक को जब तक नहीं देता, तब तक उसमें कुछन-कुछ नयापन लाने की चेष्टा करता ही रहता है। मेरी भी वही दशा हुई | छपाई में जैसे-जैसे विलम्ब होता गया, वैसे-वैसे कुछ-न-कुछ सुधारने का, नवीन भाव दाखिल करने का और अनेक स्थानों में क्रम बदलते रहने का प्रयत्न चलता ही रहा। अन्य कार्य करते हुए भी जब-कभी नवीन कल्पना हुई, कोई नई बात पढ़ने में आई और प्रस्तुत पुस्तक के लिये उपयुक्त जान पड़ी, तभी उसको इस पुस्तक में स्थान दिया। यही कारण है कि इस पुस्तक में अनेक सन्दर्भों और अनेक परिशिष्ट विविध प्रासङ्गिक विषय पर लिखे गये हैं। इस तरह छपाई के विलम्ब से पुस्तक पाठकों के समक्ष आने में बहुत अधिक समय लग गया।
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(९)
मण्डल को खर्च भी अधिक उठाना पड़ा और मुझको श्रम भी अधिक लगा, फिर भी वाचकों को तो फायदा ही हैं; क्योंकि यदि यह पुस्तक जल्दी प्रकाशित हो जाती तो इसका रूप वह नहीं होता, जो आज है।
दूसरी बात यह है कि मैंने जिन ग्रन्थों का अवलोकन और मनन करके इस पुस्तक के लिखने में उपयोग किया है, उन ग्रन्थों की तालिका साथ दे दी गयी है, इससे मैं बहुश्रुत होने का दावा नहीं करता, पर पाठकों का ध्यान इस ओर खींचना चाहता हूँ कि उन्हें इस पुस्तक में किन और कितने ग्रन्थों का कम-से-कम परिचय मिलेगा। मूल ग्रन्थ में साधारण अभ्यासियों के लिये अर्थ और भावार्थ लिखा गया है। कुछ विशेष जिज्ञासुओं के लिये साथ-ही-साथ उपयुक्त स्थानों में टिप्पणी भी दी गई है और विशेषदर्शी विचारकों के लिये खास-खास विषयों पर विस्तृत टिप्पणियाँ लिखकर उनको ग्रन्थगत तीनों अधिकार के बाद क्रमश: परिशिष्टरूप में दे दिया है। इसके बाद जिन पारिभाषिक शब्दों का मैंने अनुवाद में उपयोग किया है, उनका तथा मूल ग्रन्थ के शब्दों के दो कोष दिये हैं। अनुवाद के आरम्भ में एक विस्तृत प्रस्तावना दी है, जिसमें गुणस्थान के ऊपर एक विस्तृत निबन्ध है और साथ ही वैदिक तथा बौद्ध दर्शन में पाये जानेवाले गुणस्थान-सदृश विचारों का दिग्दर्शन कराया है। मेरा पाठकों से इतना ही निवेदन है कि सबसे पहले अन्तिम चार परिशिष्टों को पढ़ें, जिससे उन्हें कौन-कौन-सा विषय, किस-किस जगह देखने योग्य है, इसका साधारण ज्ञान आ जायगा और पीछे प्रस्तावना को, खासकर उसके गुणस्थान-सम्बन्धी विचार वाले भाग को एकाग्रतापूर्वक पढ़ें, जिससे आध्यात्मिक प्रगति के क्रम का बहुत-कुछ बोध हो सकेगा।
तीसरी बात कृतज्ञता प्रकाश करने की है। श्रीयुत् रमणीकलाल मगनलाल मोदी बी.ए. से मुझको बड़ी सहायता मिली है। मेरे सहृदय सखा पं. भगवानदास हरखचन्द और भाई हीराचन्द देवचन्द ने लिखित कापी देखकर उसमें अनेक जगह सुधार किया है। उदारचेता मित्र पं. भामण्डलदेव ने संशोधन का बोझा उठाकर उस सम्बन्ध की मेरी चिन्ता बहुत अंशों में कम कर दी। यदि उक्त महाशयों का सहारा मुझे न मिलता तो यह पुस्तक वर्तमान स्वरूप में प्रस्तुत करने के लिये कम से कम मैं तो असमर्थ ही था। इस कारण मैं उक्त सब मित्रों का हृदय से कृतज्ञ हूँ।
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(१०)
अन्त में त्रुटि के सम्बन्ध में कुछ कहना है। विचार व मनन करके लिखने में भरसक सावधानी रखने पर भी कुछ कमी रह जाना अवश्य सम्भव है, क्योंकि मुझको तो दिन-ब-दिन अपनी अपूर्णता का ही अनुभव होता जाता है। छपाई की शुद्धि की ओर मेरा अधिक खयाल था, तदनुकूल प्रयास और खर्च भी किया, पर लाचार, बीमार होकर काशी से अहमदाबाद चले आने के कारण प्रस्तावना मेरी अनुपस्थिति में छपी जिसके कारण कुछ गलतियाँ अवश्य रह गई हैं, जिनका दुःख वाचकों की अपेक्षा मुझको अधिक है। इसलिये विचारशील पाठकों से यह .. निवेदन है कि वे त्रुटियाँ सुधार कर पढ़े।
निवेदक सुखलाल संघवी
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जिन पुस्तकों का उपयोग प्रस्तुत अनुवाद में हुआ है, उनकी सूची
ग्रन्थ- नाम
आचाराङ्गनिर्युक्ति आचाराङ्गनिर्युक्ति टीका सूत्रकृताङ्गनिर्युक्ति
सूत्रकृताङ्गनिर्युक्ति टीका
भगवतीसूत्र
भगवतीसूत्र टीका
आवश्यक नियुक्ति
आवश्यक नियुक्ति टीका
नन्दी सूत्र
नदीसूत्र टीका
उपासकदशाङ्ग
औपपातिकोपाङ्ग
अनुयोगद्वार
अनुयोगद्वार टीका
जीवाभिगम
प्रज्ञापनोपाङ्ग
प्रज्ञापनोपाङ्ग चूर्णि
प्रज्ञापनोपाङ्ग टीका
उत्तराध्ययनसूत्र
उत्तराध्ययनसूत्र टीका
विशेषावश्यकभाष्य
विशेषावश्यकभाष्य टीका
विशेषणवती
( ११ )
कर्ता ।
भद्रबाहुस्वामी
शीलाङ्काचार्य
भद्रबाहुस्वामी
शीलाङ्काचार्य
धर्मवी
अभयदेवसूरि
भद्राबाहुस्वामी
हरिभद्रसूरि
देववाचक
मलयगिरि
सुधर्मस्वामी
आर्ष
आर्ष
मलधारी हेमचन्द्रसूरि
आर्ष
श्यामाचार्य
पूर्व ऋषि
मलयगिरि
आर्ष
वादिवेताल शान्तिसूरि जिनभद्रगणि क्षमाश्रमण
मलधारी हेमचन्द्रसूरि
जिनभद्रगणि क्षमाश्रमण
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ध्यानशतक
बृहत्संग्रहणी बृहत्संग्रहणी टीका
सन्मतितर्क
द्वात्रिंशिका
प्रशमरति
तत्त्वार्थसूत्र
तत्त्वार्थसूत्रभाष्य
तत्त्वार्थसूत्रभाष्य वृत्ति
तत्त्वार्थसूत्र सर्वार्थसिद्धि
तत्त्वार्थसूत्र राजवार्त्तिक
कर्मप्रकृतिचूर्णि
कर्मप्रकृतिचूर्णि टीका
पञ्चसंग्रह
पञ्चसंग्रह टीका
प्राचीन बन्धस्वामित्व
प्राचीन चतुर्थ कर्मग्रन्थ
प्राचीन चतुर्थ भाष्य
( १२ )
प्राचीन चतुर्थ टीका
प्राचीन चतुर्थ टीका
प्राचीन पञ्चम कर्मग्रन्थबृहच्चूर्णि सप्ततिकाचूर्णि
नव्य द्वितीय कर्मग्रन्थ
नव्य तृतीय कर्मग्रन्थ (बन्धस्वामित्व )
नव्य चतुर्थ कर्मग्रन्थ स्वोपज्ञ टीका नव्य पञ्चम कर्मग्रन्थ
नव्य कर्मग्रन्थ का टब्बा
नव्य कर्मग्रन्थ का टब्बा
नव्य प्रथम कर्मग्रन्थ हिंदी भाषान्तर
जिनभद्रगणि क्षमाश्रमण जिनभद्रगणि क्षमाश्रमण
मलयगिरि
सिद्धसेन दिवाकर
सिद्धसेन दिवाकर
उमास्वाति
उमास्वाति
उमास्वाति
सिद्धसेन
पूज्यपादाचार्य
अकलङ्कदेव
पूर्वाचार्य
यशोविजयोपाध्याय
चन्द्रर्षिमहत्तर
मलयगिरि
पूर्वाचार्य
जिनवल्लभगणि
पूर्वाचार्य
हरिभद्रसूरि
मलयगिरि
पूर्वाचार्य
पूर्वाचार्य
देवेन्द्रसूरि
देवेन्द्रसूरि
देवेन्द्रसूरि
देवेन्द्रसूरि
जयसोमसूरि
जीवविजय
पं. ब्रजलाल
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(१३)
सूक्ष्मार्थविचारसारोद्धार धर्मसंग्रहणी पञ्चाशक ललितविस्तरा ललितविस्तरा पञ्जिका योगशास्त्र लोकप्रकाश शास्त्रवार्तासमुच्चयटीका ज्ञानसार अष्टक द्वात्रिंशत्द्वात्रिंशिका अध्यात्ममतपरीक्षा टीका ज्ञानबिन्दु धर्मसंग्रह विशेषशतक द्रव्यगुणपर्यायरास नयचक्रसार आगमसार जैनतत्त्वादर्श नियमसार लब्धिसार त्रिलोकसार गोम्मटसार द्रव्यसंग्रह षट्पाहुड प्रमेयकमलमार्तण्ड मझिमनिकाय मराठी भाषान्तर दीघनिकाय मराठी भाषान्तर सांख्यदर्शन पातञ्जलयोगदर्शन
जिनवल्लभगणि हरिभद्रसूरि हरिभद्रसूरि हरिभद्रसूरि मुनिचन्द्रसूरि हेमचन्द्राचार्य विनयविजयोपाध्याय यशोविजयोपाध्याय यशोविजयोपाध्याय यशोविजयोपाध्याय यशोविजयोपाध्याय यशोविजयोपाध्याय मानविजयोपाध्याय समयसुन्दरोपाध्याय यशोविजयोपाध्याय देवचन्द्र देवचन्द्र विजयानन्दसूरि कुन्दकुन्दाचार्य नेमिचन्द्र सिद्धान्तचक्रवर्ती नेमिचन्द्र सिद्धान्तचक्रवर्ती नेमिचन्द्र सिद्धान्तचक्रवर्ती नेमिचन्द्र सिद्धान्तचक्रवर्ती कुन्दकुन्दाचार्य प्रभाचन्द्राचार्य प्रो. सि. वी. राजवाडे प्रो. सि. वी. राजवाडे कपिलर्षि पतञ्जलि
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(१४)
पातञ्जलयोगभाष्य पातञ्जलयोगवृत्ति पातञ्जलयोगवृत्ति योगवासिष्ठ महाभारत श्वेताश्वतरोपनिषद् भगवद्गीता वैशेषिकदर्शन न्यायदर्शन सुभाषितरत्नभाण्डागार काव्यमीमांसा मानवसंततिशास्त्र चिल्ड्रेन्स पाली अंग्रेजी कोष
व्यासर्षि वाचस्पति यशोविजयोपाध्याय पूर्वर्षि महर्षि व्यास पूर्व-ऋषि महर्षि व्यास कणाद गौतम ऋषि
राजशेखर
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प्रस्तावना
नाम
प्रस्तुत प्रकरण का 'चौथा कर्मग्रन्थ' यह नाम प्रसिद्ध है, किन्तु इसका असली नाम षडशीतिक है । यह 'चौथा कर्मग्रन्थ' इसलिए कहा गया है कि छः कर्मग्रन्थों में इसका नम्बर चौथा है; और 'षडशीतिक' नाम इसलिए नियत है। कि इसमे मूल गाथाएँ छियासी हैं। इसके अतिरिक्त इस प्रकरण को 'सूक्ष्मार्थ विचार' भी कहते हैं, वह इसलिये कि ग्रन्थकार ने ग्रन्थ के अन्त में 'सुहुमत्थ विचारों' शब्द का उल्लेख किया है। इस प्रकार देखने से यह स्पष्ट ही मालूम होता है कि प्रस्तुत प्रकरण के उक्त तीनों नाम अन्वर्थ — सार्थक हैं।
यद्यपि टब्बावाली प्रति जो श्रीयुत् भीमसी माणिक द्वारा 'निर्णय सागर प्रेस, बम्बई' से प्रकाशित 'प्रकरण रत्नाकर चतुर्थ भाग' में छपी है, उसमें मूल गाथाओं की संख्या नवासी है, किन्तु वह प्रकाशक की भूल है। क्योंकि उसमें जो तीन गाथाएँ दूसरे, तीसरे और चौथे नम्बर पर मूल रूप में छपी हैं, वे वस्तुत: मूल रूप नहीं हैं, किन्तु प्रस्तुत प्रकरण की विषय-संग्रह गाथाएँ हैं । अर्थात् इस प्रकरण में मुख्य क्या-क्या विषय हैं और प्रत्येक मुख्य विषय से सम्बन्ध रखनेवाले अन्य कितने विषय हैं, इसका प्रदर्शन करानेवाली वे गाथाएँ हैं। अतएव ग्रन्थकार ने उक्त तीन गाथाएँ स्वोपज्ञ टीका में उद्धृत की हैं, मूल रूप से नहीं ली हैं और न उनपर टीका की है।
संगति
पहले तीन कर्मग्रन्थों के विषयों की संगति स्पष्ट है। अर्थात् पहले कर्मग्रन्थ में मूल तथा उत्तर कर्म-प्रकृतियों की संख्या और उनका विपाक वर्णन किया गया है। दूसरे कर्मग्रन्थ में प्रत्येक गुणस्थान को लेकर उसमें यथासम्भव बन्ध, उदय, उदीरणा और सत्तागत उत्तर - प्रकृतियों की संख्या बतलाई गई है और तीसरे कर्मग्रन्थ में प्रत्येक मार्गणास्थान को लेकर उसमें यथासम्भव गुणस्थानों के विषय में उत्तर - कर्मप्रकृतियों का बन्धस्वामित्व वर्णन किया है। तीसरे कर्मग्रन्थ में मार्गणास्थानों में गुणस्थानों को लेकर बन्धस्वामित्व वर्णन किया है सही, किन्तु मूल में कहीं भी यह विषय स्वतन्त्र रूप से नहीं कहा गया है कि किस-किस मार्गणास्थान में कितने-कितने और किन-किन गुणस्थानों का सम्भव है।
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चौथा कर्मग्रन्थ
अतएव चतुर्थ कर्मग्रन्थ में इस विषय का प्रतिपादन किया है और उक्त जिज्ञासा की पूर्ति की गई है। जैसे मार्गणास्थानों में गुणस्थानों की जिज्ञासा होती है, वैसे ही जीवस्थानों में गुणस्थानों की और गुणस्थान में जीवस्थानों की भी जिज्ञासा होती है। इतना ही नहीं, बल्कि जीवस्थानों में योग, उपयोग आदि अन्यान्य विषयों की और मार्गणास्थानों में जीवस्थान, योग, उपयोग आदि अन्यान्य विषयों की तथा गुणस्थानों में योग, उपयोग आदि अन्यान्य विषयों की भी जिज्ञासा होती है। इन सब जिज्ञासाओं की पूर्ति के लिये चतुर्थ कर्मग्रन्थ की रचना हुई है। इसी से इसमें मुख्यतया जीवस्थान, मार्गणास्थान और गुणस्थान, ये तीन अधिकार रक्खे गये हैं और प्रत्येक अधिकार में क्रमशः आठ, छ: तथा दस विषय वर्णित हैं, जिनका निर्देश पहली गाथा के भावार्थ में पृष्ठ २ पर तथा फुटनोट में संग्रह गाथाओं के द्वारा किया गया है। इसके अतिरिक्त प्रसंगवश इस ग्रन्थ में ग्रन्थकार ने भावों का और संख्या का भी विचार किया है।
यह प्रश्न हो ही नहीं सकता कि तीसरे कर्मग्रन्थ की संगति के अनुसार मार्गणास्थानों में गुणस्थानों मात्र का प्रतिपादन करना आवश्यक होने पर भी, जैसे अन्य-अन्य विषयों का इस ग्रन्थ में अधिक वर्णन किया है, वैसे और भी नये-नये कई विषयों का वर्णन इसी ग्रन्थ में क्यों नहीं किया गया? क्योंकि किसी भी एक ग्रन्थ में सब विषयों का वर्णन असम्भव है। अतएव कितने और किन विषयों का किस क्रम से वर्णन करना, यह ग्रन्थकार की इच्छा पर निर्भर है; अर्थात् इस बात में ग्रन्थकार स्वतन्त्र है। इस विषय में नियोग-पर्यनियोग करने का किसी को अधिकार नहीं है।
प्राचीन और नवीन चतुर्थ कर्मग्रन्थ ‘षडशीतिक' यह मुख्य नाम दोनों का समान है, क्योंकि गाथाओं की संख्या दोनों में बराबर छियासी ही है। परन्तु नवीन ग्रन्थकार ने 'सूक्ष्मार्थ विचार' ऐसा नाम दिया है और प्राचीन की टीका के अन्त में टीकाकारने उसका नाम 'आगमिक वस्तु विचारसार' दिया है। नवीन की तरह प्राचीन में भी मुख्य अधिकार जीवस्थान, मार्गणास्थान और गुणस्थान, ये तीन ही हैं। गौण अधिकार भी जैसे नवीन क्रमश: आठ, छः तथा दस हैं, वैसे ही प्राचीन में भी हैं। गाथाओं की संख्या समान होते हुए भी नवीन में यह विशेषता है कि उसमें वर्णन शैली संक्षिप्त करके ग्रन्थकार ने दी और विषय विस्तारपूर्वक वर्णन किये हैं। पहला विषय 'भाव' और दूसरा ‘संख्या' है। इन दोनों का स्वरूप नवीन में सविस्तार है और प्राचीन में बिल्कुल नहीं है। इसके अतिरिक्त प्राचीन और नवीन का
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प्रस्तावना
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विषयसाम्य तथा क्रम-साम्य बराबर है। प्राचीन पर टीका, टिप्पणी, विवरण, उद्धार, भाष्य आदि व्याख्याएँ नवीन की अपेक्षा अधिक हैं। हाँ, नवीन पर, जैसे गुजराती टब्बे हैं, वैसे प्राचीन पर नहीं हैं।
इस सम्बन्ध की विशेष जानकारी के लिये अर्थात् प्राचीन और नवीन पर कौन-कौन-सी व्याख्या किस-किस भाषा में और किसी-किस की बनाई हुई है, इत्यादि जानने के लिये पहले कर्मग्रन्थ के आरम्भ में जो कर्म विषयक साहित्य की तालिका दी है, उसे देख लेना चाहिए। चौथा कर्मग्रन्थ और आगम, पंचसंग्रह तथा गोम्मटसार ___ यद्यपि चौथे कर्मग्रन्थ का कोई-कोई (जैसे गुणस्थान आदि) वैदिक तथा बौद्ध साहित्य में नामान्तर तथा प्रकारान्तर से वर्णन किया हुआ मिलता है, तथापि उसकी समान कोटि का कोई खास ग्रन्थ उक्त दोनों सम्प्रदायों के साहित्य में दृष्टिगोचर नहीं हुआ।
जैन-साहित्य श्वेताम्बर और दिगम्बर, दो सम्प्रदायों में विभक्त है। श्वेताम्बरसम्प्रदाय के साहित्य में विशिष्ट विद्वानों की कृति स्वरूप 'आगम' और 'पञ्चसंग्रह' ये प्राचीन ग्रन्थ ऐसे हैं, जिनमें कि चौथे कर्मग्रन्थ का सम्पूर्ण विषय पाया जाता है, या यों कहिये कि जिनके आधार पर चौथे कर्मग्रन्थ की रचना ही की गई है।
यद्यपि चौथे कर्मग्रन्थ में और जितने विषय जिस क्रम से वर्णित हैं, वे सब उसी क्रम से किसी एक आगम तथा पञ्चसंग्रह के किसी एक भाग में वर्णित नहीं हैं, तथापि भिन्न-भिन्न आगम और पञ्चसंग्रह के भिन्न-भिन्न भाग में उसके सभी विषय लगभग मिल जाते हैं। चौथे कर्मग्रन्थ का कौन-सा विषय किस आगम में और पञ्चसंग्रह के किस भाग में आता है, इसकी सूचना प्रस्तुत अनुवाद में उस-उस विषय के प्रसंग में टिप्पणी के तौर पर यथासंभव कर दी गई है, जिससे कि प्रस्तुत ग्रन्थ के अभ्यासियों को आगम और पञ्चसंग्रह के कुछ उपयुक्त स्थल मालूम हों तथा मतभेद और विशेषताएँ ज्ञात हों।
प्रस्तुत ग्रन्थ के अभ्यासियों के लिये आगम और पञ्चसंग्रह का परिचय करना लाभदायक है; क्योंकि उन ग्रन्थों के गौरव का कारण सिर्फ उनकी प्राचीनता ही नहीं है, बल्कि उनकी विषय-गम्भीरता तथा विषयस्फुटता भी उनके गौरव का कारण है।
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चौथा कर्मग्रन्थ
'गोम्मटसार' यह दिगम्बर सम्प्रदाय का कर्म-विषयक एक प्रतिष्ठित ग्रन्थ है, जो कि इस समय उपलब्ध है। यद्यपि वह श्वेताम्बरीय आगम तथा पञ्चसंग्रह की अपेक्षा बहुत अर्वाचीन है, फिर भी उसमें विषय-वर्णन, विषय-विभाग और प्रत्येक विषय के लक्षण बहुत स्फुट हैं। गोम्मटसार के 'जीवकाण्ड' और 'कर्मकाण्ड', ये मुख्य दो विभाग हैं। चौथे कर्मग्रन्थ का विषय जीवकाण्ड में ही है और वह इससे बहुत बड़ा है। यद्यपि चौथे कर्मग्रन्थ के सब विषय प्रायः जीवकाण्ड में वर्णित हैं, तथापि दोनों की वर्णन शैली बहुत अंशों में भिन्न है ।
iv
जीवकाण्ड में मुख्य बीस प्ररूपणाएँ हैं: - १ गुणस्थान, १ जीवस्थान, १ पर्याप्ति, १ प्राण, १ संज्ञा, १४ मार्गणाएँ और १ उपयोग, कुल बीस । प्रत्येक प्ररूपण का उसमें बहुत विस्तृत और विशद वर्णन है । अनेक स्थलों में चौथे कर्मग्रन्थ के साथ उसका मतभेद भी है।
इसमें सन्देह नहीं कि चौथे कर्मग्रन्थ के पाठकों के लिये जीवकाण्ड एक खास देखने की वस्तु है; क्योंकि इससे अनेक विशेष बातें मालूम हो सकती हैं। कर्म विषयक अनेक विशेष बातें जैसे श्वेताम्बरीय ग्रन्थों में लभ्य हैं, वैसे ही अनेक विशेष बातें दिगम्बरीय ग्रन्थों में भी लभ्य हैं। इस कारण दोनों सम्प्रदाय के विशेष जिज्ञासुओं को एक-दूसरे के समान विषयक ग्रन्थ अवश्य देखने चाहिए। इसी अभिप्राय से अनुवाद में उस उस विषय का साम्य और वैषम्य दिखाने के लिये जगह-जगह गोम्मटसार के अनेक उपयुक्त स्थल उद्धृत तथा निर्दिष्ट किये हैं।
विषय प्रवेश
जिज्ञासु लोग जब तक किसी भी ग्रन्थ के प्रतिपाद्य विषय का परिचय नहीं कर लेते तब तक उस ग्रन्थ के अध्ययन के लिये प्रवृत्ति नहीं करते। इस नियम के अनुसार प्रस्तुत ग्रन्थ के अध्ययन के निमित्त योग्य अधिकारियों की प्रवृत्ति कराने के लिये यह आवश्यक है कि शुरू में प्रस्तुत ग्रन्थ के विषय का परिचय कराया जाय। विषय का परिचय सामान्य और विशेष दो प्रकार से कराया जा सकता है।
(क) ग्रन्थ किस तात्पर्य से बनाया गया है; उसका मुख्य विषय क्या है और वह कितने विभागों में विभाजित है; प्रत्येक विभाग से सम्बन्ध रखने वाले अन्य कितने-कितने और कौन-कौन विषय हैं; इत्यादि वर्णन करके ग्रन्थ के शब्दात्मक कलेवर के साथ विषय-रूप आत्मा के सम्बन्ध का स्पष्टीकरण कर
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प्रस्तावना
देना अर्थात् ग्रन्थ का प्रधान और गौण विषय क्या-क्या है तथा वह किस-किस क्रम से वर्णित है, इसका निर्देश कर देना, यह विषय का सामान्य परिचय है । (ख) लक्षण द्वारा प्रत्येक विषय का स्वरूप बतलाना, यह उसका विशेष परिचय है।
V
प्रस्तुत ग्रन्थ के विषय का विशेष परिचय तो उस-उस विषय के वर्णन - स्थान में ही यथासम्भव मूल में किंवा विवेचन में करा दिया गया है। अतएव इस जगह विषय का सामान्य परिचय कराना ही आवश्यक एवं उपयुक्त है।
प्रस्तुत ग्रन्थ प्ररूपण का तात्पर्य यह है कि सांसारिक जीवों की भिन्नभिन्न अवस्थाओं का वर्णन करके यह बतलाया जाय कि अमुक-अमुक अवस्थायें औपाधिक, वैभाविक किंवा कर्म - कृत होने से अस्थायी तथा हेय हैं और अमुकअमुक अवस्थायें स्वाभाविक होने के कारण स्थायी तथा उपादेय हैं। इनके अतिरिक्त यह भी बतलाना है कि, जीव का स्वभाव प्रायः विकास करने का है । अतएव वह अपने स्वभाव के अनुसार किस प्रकार विकास करता है और तद्वारा औपाधिक अवस्थाओं को त्याग कर किस प्रकार स्वाभाविक शक्तियों का आविर्भाव करता है।
इस उद्देश्य की सिद्धि के लिये प्रस्तुत ग्रन्थ में मुख्यतया पाँच विषय वर्णन किये हैं
(१) जीवस्थान, (२) मार्गणास्थान, (३) गुणस्थान, (४) भाव और (५)
संख्या |
इनमें से प्रथम मुख्य तीन विषयों के साथ अन्य विषय भी वर्णित हैं— जीवस्थान में (१.) गुणस्थान, (२) योग, (३) उपयोग, (४) लेश्या, (५) बन्ध, (६) उदय, (७) उदीरणा और (८) सत्ता ये आठ विषय वर्णित हैं। मार्गणास्थान में (१) जीवस्थान, (२) गुणस्थान, (३) योग, (४) उपयोग, (५) लेश्या और (६) अल्प-बहुत्व, ये छः विषय वर्णित हैं तथा गुणस्थान में (१) जीवस्थान, (२) योग, (३) उपयोग, (४) लेश्या, (५) बन्ध- हेतु, (६) बन्ध, (७) उदय, (८) उदीरणा, (९) सत्ता और (१०) अल्प - बहुत्व, ये दस विषय वर्णित हैं। पिछले दो विषयों का अर्थात् भाव और संख्या का वर्णन अन्य विषय के वर्णन से मिश्रित नहीं है, अर्थात् उन्हें लेकर अन्य कोई विषय वर्णित नहीं किया है।
इस तरह देखा जाय तो प्रस्तुत ग्रन्थ के शब्दात्मक कलेवर के मुख्य पाँच हिस्से हो जाते हैं।
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चौथा कर्मग्रन्थ
पहला हिस्सा दूसरी गाथा से आठवीं गाथा तक का है, जिसमें जीवस्थान का मुख्य वर्णन करके उससे सम्बन्धित उक्त आठ विषयों का वर्णन किया गया है। दूसरा हिस्सा नवीं गाथा से लेकर चौवालिसवीं गाथा तक का है, जिसमें मुख्यतया मार्गणास्थान को लेकर उसके सम्बन्ध से छ: विषयों का वर्णन किया गया है। तीसरा हिस्सा पैंतालीसवीं गाथा से लेकर वेसठवीं गाथा तक का है, जिसमें मुख्यतया गुणस्थान को लेकर उसके आश्रय से उक्त दस विषयों का वर्णन किया गया है। चौथा हिस्सा चौंसठवीं गाथा से लेकर सत्तरवी गाथा तक का है, जिसमें केवल भावों का वर्णन है। पाँचवाँ हिस्सा इकहत्तरवी गाथा से छियासीवी गाथा तक का है, जिसमें सिर्फ संख्या का वर्णन है। संख्या के वर्णन के साथ ही ग्रन्थ की समाप्ति होती है।
जीवस्थान आदि उक्त मुख्य तथा गौण विषयों का स्वरूप पहली गाथा के भावार्थ में लिख दिया गया है; इसलिये फिर से यहाँ लिखने की जरूरत नहीं है। तथापि यह लिख देना आवश्यक है कि प्रस्तुत ग्रन्थ बनाने का उद्देश्य जो ऊपर लिखा गया है, उसकी सिद्धि जीवस्थान आदि उक्त विषयों के वर्णन से किस प्रकार हो सकती है।
जीवस्थान, मार्गणास्थान, गुणस्थान और भाव ये सांसारिक जीवों की विविध अवस्थाएँ हैं। जीवस्थान के वर्णन से यह मालूम किया जा सकता है कि जीवस्थान रूप चौदह अवस्थाएँ जाति-सापेक्ष हैं किंवा शारीरिक रचना के विकास या इन्द्रियों की न्यूनाधिक संख्या पर निर्भर हैं। इसी से सब कर्म-कृत या वैभाविक होने के कारण अन्त में हेय हैं। मार्गणास्थान के बोध से यह विदित हो जाता है कि सभी मार्गणाएँ जीव की स्वाभाविक अवस्था-रूप नहीं हैं। केवलज्ञान, केवलदर्शन, क्षायिकसम्यक्त्व, क्षायिक-चारित्र और अनाहारकत्व के अतिरिक्त अन्य सब मार्गणाएँ न्यूनाधिक रूप में अस्वाभाविक हैं, अतएव स्वरूप की पूर्णता के इच्छुक जीवों के लिये अन्त में हेय ही हैं। गुणस्थान के परिज्ञान से यह ज्ञात हो जाता है कि गुणस्थान आध्यात्मिक उत्क्रान्ति करनेवाली आत्मा की उत्तरोत्तर-विकास-सूचक भूमिकाएँ हैं। पूर्व-पूर्व भूमिका के समय उत्तर-उत्तर भूमिका उपादेय होने पर भी परिपूर्ण विकास हो जाने से वे सभी भूमिकाएँ आप ही आप छूट जाती हैं। भावों की जानकारी से यह निश्चय हो जाता है कि क्षायिक भावों को छोड़ कर अन्य सब भाव चाहे वे उत्क्रान्ति काल में उपादेय क्यों न हों, पर अन्त में हेय ही हैं। इस प्रकार जीव का स्वाभाविक स्वरूप क्या है और अस्वाभाविक क्या है, इसका विवेक करने के लिए जीवस्थान आदि
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प्रस्तावना
उक्त विचार जो प्रस्तुत ग्रन्थ में किया गया है, वह आध्यात्मिक विद्या के अभ्यासियों के लिए अतीव उपयोगी है।
आध्यात्मिक ग्रन्थ दो प्रकार के हैं। एक तो ऐसे हैं जो सिर्फ आत्मा के शुद्ध, अशुद्ध तथा मिश्रित स्वरूप का वर्णन करते हैं। प्रस्तुत ग्रन्थ दूसरी कोटिका है। अध्यात्म-विद्या के प्राथमिक और माध्यमिक अभ्यासियों के लिये ऐसे ग्रन्थ विशेष उपयोगी हैं; क्योंकि उन अभ्यासियों की दृष्टि व्यवहार-परायण होने के कारण ऐसे ग्रन्थों के द्वारा ही क्रमश: केवल पारमार्थिक स्वरूप-ग्राहिणी बनाई जा सकती है।
अध्यात्मिक-विद्या के प्रत्येक अभ्यासी की यह स्वाभाविक जिज्ञासा होती है कि आत्मा किस प्रकार और किस क्रम से आध्यात्मिक विकास करती है, तथा उसे विकास के समय कैसी-कैसी अवस्था का अनुभव होता है। इस जिज्ञासा की पूर्ति की दृष्टि से देखा जाय तो अन्य विषयों की अपेक्षा गुणस्थान का महत्त्व अधिक है। इस दृष्टि से इस जगह गुणस्थान का स्वरूप कुछ विस्तार के साथ लिखा गया है। साथ ही यह भी बतलाया जायगा कि जैनशास्त्र की तरह वैदिक तथा बौद्ध-शास्त्र में भी आध्यात्मिक विकास का कैसा वर्णन है। यद्यपि ऐसा करने में कुछ विस्तार अवश्य हो जायगा, तथापि नीचे लिखे जानेवाले विचार से जिज्ञासुओं की यदि कुछ भी ज्ञान-वृद्धि तथा रुचि-शुद्धि हुई तो यह विचार अनुपयोगी न समझा जायगा।
गुणस्थान का विशेष स्वरूप ___ गुणों (आत्मशक्तियों) के स्थानों को अर्थात् विकास की क्रमिक अवस्थाओं को गुणस्थान कहते हैं। जैनशास्त्र में गुणस्थान इस पारिभाषिक शब्द का मतलब आत्मिक शक्तियों के आविर्भाव की-उनके शुद्ध कार्यरूप में परिणत होते रहने की तरतम-भावापन्न अवस्थाओं से है। पर आत्मा का वास्तविक स्वरूप शुद्धचेतना और पूर्णानन्दमय है। उसके ऊपर जबतक तीव्र आवरणों के घने बादलों की घटा छाई हो, तब तक उसका असली स्वरूप दिखाई नहीं देता। किन्तु आवरणों के क्रमश: शिथिल या नष्ट होते ही उसका असली स्वरूप प्रकट होता है। जब आवरणों की तीव्रता अधिक हो, तब आत्मा प्राथमिक अवस्था मेंअविकसित अवस्था में पड़ी रहती है और जब आवरण बिल्कुल ही नष्ट हो जाते हैं, तब आत्मा चरम अवस्था-शद्ध स्वरूप की पूर्णता में वर्तमान हो जाती है। जैसे-जैसे आवरणों की तीव्रता कम होती जाती है, वैसे-वैसे आत्मा
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चौथा कर्मग्रन्थ
भी प्राथमिक अवस्था को छोड़कर धीरे-धीरे शुद्ध स्वरूप का लाभ करती हुई चरम अवस्था की ओर प्रस्थान करती है। प्रस्थान के समय इन दो अवस्थाओं के बीच उसे अनेक नीची-ऊँची अवस्थाओं का अनुभव करना पड़ता है। प्रथम अवस्था को अविकास की अथवा अध: पतन की पराकाष्ठा और चरम अवस्था को विकास की अथवा उत्क्रान्ति की पराकाष्ठा समझना चाहिए । इस विकास - क्रम की मध्यवर्तिनी सब अवस्थाओं को अपेक्षा से उच्च भी कह सकते हैं और नीच भी। अर्थात् मध्यवर्तिनी कोई भी अवस्था अपने से ऊपरवाली अवस्था की अपेक्षा नीच और नीचेवाली अवस्था की अपेक्षा उच्च कही जा सकती है। विकास की ओर अग्रसर आत्मा वस्तुतः उक्त प्रकार की संख्यातीत आध्यात्मिक भूमिकाओं का अनुभव करती है। पर जैनशास्त्र में संक्षेप में वर्गीकरण करके उनके चौदह विभाग किये हैं, जो 'चौदह गुणस्थान' कहलाते हैं।
सभी आवरणों में मोह का आवरण प्रधान है। अर्थात् जब तक मोह बलवान् और तीव्र हो, तब तक अन्य सभी आवरण बलवान् और तीव्र बने रहते हैं। इसके विपरीत मोह के निर्बल होते ही अन्य आवरणों की वैसी ही दशा हो जाती है। इसलिए आत्मा के विकास करने में मुख्य बाधक मोह की प्रबलता और मुख्य सहायक मोह की निर्बलता समझनी चाहिये। इसी कारण गुणस्थानों की विकास-क्रमगत अवस्थाओं की कल्पना मोह-शक्ति की उत्कटता, मन्दता तथा अभाव पर अवलम्बित है।
मोह की प्रधान शक्तियाँ दो हैं। इनमें से पहली शक्ति, आत्मा को दर्शन अर्थात् स्व-रूप पर-रूप का निर्णय किंवा जड़-चेतन का विभाग या विवेक करने नहीं देती; और दूसरी शक्ति आत्मा को विवेक प्राप्त कर लेने पर भी तदनुसार प्रवृत्ति अर्थात् अभ्यास- - पर - परिणति से छूटकर स्वरूप - लाभ नहीं करने देती । व्यवहार में कदम-कदम पर यह देखा जाता है कि किसी वस्तु का यथार्थ दर्शनबोध कर लेने पर ही उस वस्तु को पाने या त्यागने की चेष्टा की जाती है और वह सफल भी होती है। आध्यात्मिक विकासगामी आत्मा के लिये भी मुख्य दो ही कार्य हैं। पहला स्व-रूप तथा पर-रूप का यथार्थ दर्शन किंवा भेदज्ञान करना और दूसरा स्व-रूप में स्थित होना। इनमें से पहले कार्य को रोकनेवाली मोह की शक्ति जैनशास्त्र में 'दर्शनमोह' और दूसरे कार्य को रोकनेवाले मोह की शक्ति 'चारित्रमोह' कहलाती है। दूसरी शक्ति पहली शक्ति की अनुगामिनी है। अर्थात् पहली शक्ति प्रबल हो, तब तक दूसरी शक्ति कभी निर्बल नहीं होती; और पहली शक्ति के मन्द, मन्दतर और मन्दतम होते ही दूसरी शक्ति भी क्रमश: वैसी ही
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प्रस्तावना
होने लगती है। अथवा यों कहिये कि एक बार आत्मा स्वरूप-दर्शन कर लेती है तो फिर उसे स्वरूप-लाभ करने का मार्ग प्राप्त हो ही जाता है।
अविकसित किंवा सर्वथा अध:पतित आत्मा की अवस्था प्रथम गुणस्थान है। इसमें मोह की उक्त दोनों शक्तियों के प्रबल होने के कारण आत्मा की आध्यात्मिक स्थिति बिल्कुल गिरी हुई होती है। इस भूमिका के समय आत्मा चाहे आधिभौतिक उत्कर्ष कितना ही क्यों न कर ले, पर उसकी प्रवृत्ति तात्त्विक लक्ष्य से सर्वथा शून्य होती है। जैसे दिग्भ्रमवाला मनुष्य पूर्व को पश्चिम मानकर गति करता है और अपने इष्ट स्थान को नहीं पाता; उसका सारा श्रम एक तरह से वृथा ही जाता है, वैसे प्रथम भूमिकावाला आत्मा पर-रूप को स्वरूप समझ कर उसी को पाने के लिये प्रतिक्षण लालायित रहता है और विपरीत दर्शन या मिथ्यादृष्टि के कारण राग-द्वेष की प्रबल चोटों का शिकार बनकर तात्त्विक सुख से वञ्चित रहता है। इसी भूमिका को जैनशास्त्र में 'बहिरात्मभाव' किंवा 'मिथ्या दर्शन' कहा है। इस भूमिका में जितनी आत्माएँ वर्तमान होती हैं, उन सबों की भी आध्यात्मिक स्थिति एक-सी नहीं होती। अर्थात् सबके ऊपर मोह की सामान्यतः दोनों शक्तियों का आधिपत्य होने पर भी उसमें थोड़ा-बहुत तर-तमभाव अवश्य होता है। किसी पर मोह का प्रभाव गाढ़तम, किसी पर गाढ़तर
और किसी पर उससे भी कम होता है। विकास करना आत्मा का स्वभाव है। इसलिये जाने या अनजाने, जब उस पर मोह का प्रभाव कम होने लगता है, तब वह कुछ विकास की ओर अग्रसर हो जाता है और तीव्रतम राग-द्वेष को कुछ मन्द करता हुआ मोह की प्रथम शक्ति को छिन्न-भिन्न करने योग्य आत्मबल प्रकट कर लेता है। इसी स्थिति को जैनशास्त्र में 'ग्रन्थि भेद'' कहा गया है।
___ ग्रन्थि-भेद का कार्य बड़ा ही विषम है। राग-द्वेष की तीव्रतम विष-ग्रन्थि एक बार शिथिल व छिन्न-भिन्न हो जाय तो फिर बेड़ा पार ही समझिये; क्योंकि इसके बाद मोह की प्रधान शक्ति दर्शनमोह को शिथिल होने में देर नहीं लगती और दर्शनमोह शिथिल हुआ कि चारित्रमोह की शिथिलता का मार्ग आप ही १. गंठि ति सुदुब्भेओ कक्खडघणरूढगूढगंठि व्व।
जीवस्स कम्मजणिओ घणराग दोसपरिणामो।।११९५।। भिन्नम्मि तम्मि लाभो सम्मत्ताईण मोक्खहेऊणं। सो य दुलहो परिस्समचित्तविघायाइविग्घेहि।।११९६।। सो तत्थ परिस्सम्म घोरमहासमरनिग्गयाइ व्व। विज्जा य सिद्धिकाले जह बहुविग्घा तहा सोऽवि।।११९७।।
विशेषावश्यकभाष्य।
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चौथा कर्मग्रन्थ
आप खुल जाता है। एक तरफ राग-द्वेष अपने पूर्ण बल का प्रयोग करते हैं और दूसरी तरफ विकासोन्मुख आत्मा भी उनके प्रभाव को कम करने के लिए अपने वीर्य-बल का प्रयोग करता है। इस आध्यात्मिक युद्ध में यानी मानसिक विकार और आत्मा की प्रतिद्वन्द्विता में कभी एक तो कभी दूसरा जयलाभ करता है । अनेक आत्माएँ ऐसी भी होती हैं जो करीब ग्रन्थिभेद करने लायक बल प्रकट करके भी अन्त में राग-द्वेष के तीव्र प्रहारों से आहत होकर व उनसे हार खाकर अपनी मूल स्थिति में आ जाती हैं और अनेक बार प्रयत्न करने पर भी रागद्वेष पर जयलाभ नहीं करती। अनेक आत्माएँ ऐसी भी होती हैं, जो न तो हार खाकर पीछे गिरती हैं और न जयलाभ कर पाती हैं, किन्तु वे चिरकाल तक उस आध्यात्मिक युद्ध के मैदान में ही पड़ी रहती हैं । कोई-कोई आत्मा ऐसी भी होती है जो अपनी शक्ति का यथोचित प्रयोग करके उस आध्यात्मिक युद्ध में राग-द्वेष पर जयलाभ कर लेती है। किसी भी मानसिक विकार की प्रतिद्वन्द्विता में इन तीनों अवस्थाओं का अर्थात् कभी हार खाकर पीछे गिरने का, कभी प्रतिस्पर्धा में डटे रहने का और जयलाभ करने का अनुभव हमें अकसर नित्य प्रति हुआ करता है। यही संघर्ष कहलाता है। संघर्ष विकास का कारण है। चाहे विद्या, चाहे धन, चाहे कीर्ति, कोई भी लौकिक वस्तु इष्ट हो, उसको प्राप्त करते समय भी अचानक अनेक विघ्न उपस्थित होते हैं और उनकी प्रतिद्वन्द्विता में उक्त प्रकार की तीनों अवस्थाओं का अनुभव प्रायः सबको होता रहता है। कोई विद्यार्थी, कोई धनार्थी या कोई कीर्तिकाङ्क्षी जब अपने इष्ट के लिये प्रयत्न करता है, तब या तो वह बीच में अनेक कठिनाइयों को देखकर प्रयत्न को छोड़ देता है या कठिनाइयों को पारकर इष्ट-प्राप्ति के मार्ग की ओर अग्रसर होता है। जो अग्रसर होता है, वह बड़ा विद्वान्, बड़ा धनवान् या बड़ा कीर्तिशाली बन जाता है। जो कठिनाइयों से डरकर पीछे भागता है, वह पामर, अज्ञान, निर्धन या कीर्तिहीन बना रहता है और जो न कठिनाइयों को जीत सकता है और न उनसे हार-मानकर पीछे भागता है, वह साधारण स्थिति में ही पड़ा रहकर कोई ध्यान खींचने योग्य उत्कर्ष - लाभ नहीं करता।
X
इस भाव को समझाने के लिए शास्त्र' में दृष्टान्त दिया गया है कि तीन प्रवासी कहीं जा रहे थे। बीच में भयानक चोरों को देखते ही तीन में से एक १. जह वा तिन्नि णूस, जंतडविपहं सहावगमणेणं । वेलाइक्कमभीया, तुरन्ति पत्ता यदो चोरा ॥ १२११ ॥ द मग्गतडत्थे, ते एगो मग्गओ पडिनियत्ता । बितिओ गहिओ तइओ, समइक्कंतो पुरं पत्तो ।। १२१२ ।।
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प्रस्तावना
तो पीछे भाग गया। दूसरा उन चोरों से डर कर नहीं भागा, किन्तु उनके द्वारा पकड़ा गया। तीसरा असाधारण बल तथा कौशल से उन चोरों को हराकर आगे बढ़ गया। मानसिक विकारों के साथ आध्यात्मिक युद्ध करने में जो जय-पराजय होता है, उसका थोड़ा बहुत ख्याल उक्त दृष्टान्त से आ सकता है।
प्रथम गुणस्थान में रहने वाली विकासगामी ऐसी अनेक आत्माएँ होती हैं, जो राग-द्वेष के तीव्रतम वेग को थोड़ा-सा दबाये हुए होती हैं, पर मोह की प्रधान शक्ति को अर्थात् दर्शनमोह को शिथिल किये हुए नहीं होती। यद्यपि वे आध्यात्मिक लक्ष्य के सर्वथा अनुकूलगामी नहीं होती, तो भी उनका बोध व चरित्र अन्य अविकसति आत्माओं की अपेक्षा अच्छा ही होता है। यद्यपि ऐसी आत्माओं की आध्यात्मिक दृष्टि सर्वथा आत्मोन्मुख न होने के कारण वस्तुतः मिथ्या-दृष्टि, विपरीत-दृष्टि या असत्-दृष्टि ही कहलाती है, तथापि वह सत्-दृष्टि के समीप ले जानेवाली होने के कारण उपादेय मानी गई है।
अडवी भवो मणूसा, जीवो कम्मट्ठिई पहो दीहो। गंठी य भयत्थाणं, रागद्धोसा य दो चोरा।।१२१३।। भग्गो ठिई परिवड्डी, गहिओ पुण गंठिओ गओ तइओ। सम्मत्तपुरं एवं, जोएज्जा तिण्णी करणाई।।१२१४।।
(विशेषावश्यकभाष्य) यथा जनास्त्रय: केऽपि, महापुरं यियासवः।। प्राप्ता: क्वचन कान्तारे, स्थानं चौरैर्भयंकरम्।।६२०॥ तत्र द्रुतं द्रुतं यान्तो, ददृशुस्तस्करद्वयम्। तदृष्ट्वा त्वरितं पश्चादेको भीत: पलायितः।।६२१।। गृहीतश्चापरस्ताभ्यामन्यस्त्ववगणय्यतौ। भयस्थानमतिक्रम्य, पुरं प्राप पराक्रमी।।६२२।। दृष्टान्तोपनयश्चात्र, जना जीवा भवोऽटवी। पन्थाः कर्मस्थितिप्रन्थिदेशस्त्विह भयास्पदम्।।६२३।। रागद्वेषौ तस्करौ द्वौ तद्भीतो वलितस्तु सः। ग्रन्थि प्राप्यापि दुर्भावाद्, यो ज्येष्ठस्थितिबन्धकः।।६२४॥ चौररुद्धस्तु स ज्ञेयस्तादृग्रागादिबाधितः। ग्रन्थि भिनत्ति यो नैव, न चापि वलते ततः।।६२५॥ स त्वभीष्टपुरं प्राप्तो, योऽपूर्वकरणाद् द्रुतम्। रागद्वेषावपाकृत्य, सम्यग्दर्शनमाप्तवान्।।६२६।
(लोकप्रकाश निर्णयसागर प्रेस, ई.सन् १९२६, सर्ग ३) १. 'मिथ्यात्वे मन्दतां प्राप्ते, मित्राद्या अपि दृष्टयः।
मार्गाभिमुखभावेन, कुर्वते मोक्षयोजनम्॥३१॥ श्रीयशोविजयजी-कृत योगावतारद्वात्रिंशिका।
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चौथा कर्मग्रन्थ
बोध, वीर्य व चारित्र के तरतम भाव की अपेक्षा से उस असत्-दृष्टि के चार भेद करके मिथ्या-दृष्टि गुणस्थान की अन्तिम अवस्था का शास्त्र में अच्छा चित्र खींचा गया है। इन चार दृष्टियों में जो वर्तमान होते हैं, उनको सत्-दृष्टि लाभ करने में देरी नहीं लगती।
सद्बोध, सद्वीर्य व सच्चरित्र के तरतम-भाव की अपेक्षा से सत्दृष्टि के भी शास्त्र में चार विभाग किये गये हैं, जिनमें मिथ्यादृष्टि त्यागकर अथवा मोह की एक या दोनों शक्तियों को जीतकर आगे बढ़े हुए सभी विकसित आत्माओं का समावेश हो जाता है अथवा दूसरे प्रकार से यों समझाया जा सकता है कि जिसमें आत्मा का स्वरूप भासित हो और उसकी प्राप्ति के लिये मुख्य प्रवृत्ति हो- वह सद्दृष्टि है। इसके विपरीत जिसमें आत्मा का स्वरूप न तो यथावत् भासित हो और न उसकी प्राप्ति के लिये ही प्रवृत्ति हो, वह असद्दृष्टि है। बोध, वीर्य व चरित्र के तरतम भाव को लक्ष्य में रखकर शास्त्र में दोनों दृष्टि के चारचार विभाग किये गये हैं, जिनमें सब विकासगामी आत्माओं का समावेश हो जाता है और जिनका वर्णन पढ़ने से आध्यात्मिक विकास का चित्र आँखों के सामने नाचने लगता है।
शारीरिक और मानसिक द:खों की संवेदना के कारण अज्ञात रूप में ही गिरि-नदी-पाषाण न्याय से जब आत्मा का आवरण कुछ शिथिल होता है और
१. सच्छ्रद्धासंगतो बोधो, दृष्टिः सा चाष्टधोदिता।
मित्रा, तारा, बला, दीप्रा, स्थिरा, कान्ता, प्रभा, परा।।२५।। तृणगोमयकाष्ठाग्नि,-कणदीप्रप्रभोपमा। रत्नतारार्कचन्द्राभा, क्रमेणेक्ष्वादिसन्निभा।।२६।। आद्याश्चतस्रः सापाय,-पाता मिथ्यादृशामिह। तत्त्वतो निरपायाश्च, भिन्नग्रन्थेस्तथोत्तराः।।२८॥
(योगावतारद्वात्रिंशिका) २. इसके लिये देखिये, श्रीहरिभद्रसूरि-कृत योगदृष्टिसमुच्चय तथा उपाध्याय
यशोविजयजी-कृत २१ से २४ तक की चार द्वात्रिंशिकाएँ। ३. यथाप्रवृत्तकरणं, नन्वनाभोगरूपकम्।
भवत्यनाभोगतश्च, कथं कर्मक्षयोऽङ्गिनाम्॥६०७।। 'यथा मिथो घर्षणेन, ग्रावाणोऽद्रिनदीगताः। स्युश्चित्राकृतयों ज्ञानशून्या अपि स्वभावतः।।६०८॥ तथा यथाप्रवृत्तात्स्युरप्यनाभोगलक्षणात्। लघुस्थितिककर्माणो, जन्तवोऽत्रान्तरेऽथ च।।६०९॥ लोकप्रकाश, सर्ग ३
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प्रस्तावना
इसके कारण उसके अनुभव तथा वीर्योल्लास की मात्रा कुछ बढ़ती है, तब उस विकासगामी आत्मा के परिणामों की शुद्धि व कोमलता कुछ बढ़ती है । जिसकी बदौलत वह रागद्वेष की तीव्रतम - दुर्भेद ग्रन्थि को तोड़ने की योग्यता बहुत अंशों में प्राप्त कर लेता है। इस अज्ञानपूर्वक दुःख संवेदना - जनित अंति व अल्प आत्मा शुद्धि को जैनशास्त्र में 'यथाप्रवृत्तिकरण' कहा गया है। इसके बाद जब कुछ और अधिक आत्म-शुद्धि तथा वीर्योल्लास की मात्रा बढ़ती है तब रागद्वेष की उस दुर्भेद ग्रन्थि का भेदन किया जाता है। इस ग्रन्थि-भेदकारक आत्मशुद्धि को 'अपूर्वकरण' कहते हैं।
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क्योंकि ऐसा करण - परिणाम विकासगामी आत्मा के लिये अपूर्वप्रथम ही प्राप्त है। इसके बाद आत्म शुद्धि व वीर्योल्लास की मात्रा कुछ अधिक बढ़ती है, तब आत्मा मोह की प्रधानभूत शक्ति दर्शनमोह पर अवश्य विजयलाभ करती है। इस विजय कारक आत्म शुद्धि को जैनशास्त्र में 'अनिवृत्तिकरण' कहा गया है, क्योंकि उस आत्म शुद्धि के हो जाने पर आत्मा दर्शनमोह पर लाभ किये बिना नहीं रहता, अर्थात् वह पीछे नहीं हटता । उक्त तीन प्रकार की आत्मशुद्धियों में दूसरी अर्थात् अपूर्वकरण-नामक शुद्धि ही अत्यन्त दुर्लभ है। क्योंकि राग-द्वेष के तीव्रतम वेग को रोकने का अत्यन्त कठिन कार्य इसी के द्वारा किया जाता है, जो सहज नहीं है। एक बार इस कार्य में सफलता प्राप्त हो जाने पर
१. इसको दिगम्बर सम्प्रदाय में 'अथाप्रवृत्तकरण' कहते हैं। इसके लिये देखिये, तत्त्वार्थअध्याय ९ के १ ले सूत्र का १३ वाँ राजवार्तिक ।
२. तीव्रधारपर्शुकल्पाऽपूर्वाख्यकरणेन हि ।
आविष्कृत्य परं वीर्य, ग्रन्थि भिन्दन्ति केचन ।। ६१८ ॥ लोकप्रकाश, सर्ग ३ ३. परिणामविशेषोऽत्र, करणं प्राणिनां मतम् ॥ ५१९ || लोकप्रकाश, सर्ग ३ ४. 'अथानिवृत्तिकरणेनातिस्वच्छाशयात्मना।
करोत्यन्तरकरणमन्तर्मुहूर्तसंमितम्॥६२८ ॥ कृते च तस्मिन्मिथ्यात्वमोहस्थितिर्द्विधा भवेत्। तत्राद्यान्तरकरणादधस्तन्यपरोर्ध्वगा॥ ६२९ ॥ तत्राद्यायां स्थितौ मिथ्यादृक् स तद्दलवेदनात् । अतीतायामथैतस्यां स्थितावन्तर्मुहूर्ततः॥६३०॥ प्राप्नोत्यन्तरकरणं, तस्याद्यक्षण एव सः । सम्यक्त्वमौपशमिकमपौद्गलिकमाप्नुयात्॥ ६३१॥ यथा वनदवो दग्धेन्धनः प्राप्यातृणं स्थलम् । स्वयं विध्यायति तथा, मिथ्यात्वोग्रदवानलः ॥६३२॥ अवाप्यान्तरकरणं, क्षिप्रं विध्यायति स्वयम् । तदौपशमिकं नाम,
सम्यक्त्तत्वं लभतेऽसुमान्॥ ६३२ || लोकप्रकाश, सर्ग ३
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चौथा कर्मग्रन्थ
फिर चाहे विकासगामी आत्मा ऊपर की किसी भूमिका से गिर भी पड़े तथापि वह पुन: कभी-न-कभी अपने लक्ष्य को-आध्यात्मिक पूर्ण स्वरूप को प्राप्त कर लेती है। इस आध्यात्मिक परिस्थिति का कुछ स्पष्टीकरण अनुभवगत व्यावहारिक दृष्टान्त के द्वारा किया जा सकता है।
जैसे, एक ऐसा वस्त्र हो, जिसमें मल के अतिरिक्त चिकनाहट भी लगी हो। उसका मल ऊपर-ऊपर से दूर करना उतना कठिन और श्रम-साध्य नहीं, जितना कि चिकनाहट दूर करना। यदि चिकनाहट एक बार दूर हो जाय तो फिर बाकी का मल निकालने में किंवा किसी कारणवश फिर से लगे हुए गर्दे को दूर करने में विशेष श्रम नहीं पड़ता और वस्त्र को उसके असली स्वरूप में सहज ही लाया जा सकता है। ऊपर-ऊपर का मल दूर करने में जो बल दरकार है, उसके सदृश 'यथाप्रवृत्तिकरण' है। चिकनाहट दूर करनेवाले विशेष बल व श्रम-के समान 'अपूर्वकरण' है। जो चिकनाहट के समान राग-द्वेष की तीव्रतम ग्रन्थि को शिथिल करता है। बाकी बचे हुए मल को किंवा चिकनाहट दूर होने के बाद फिर से लगे हुए मल को कम करनेवाले बल-प्रयोग के समान 'अनिवृत्तिकरण' है। उक्त तीनों प्रकार के बल-प्रयोगों में चिकनाहट दूर करनेवाला बल-प्रयोग ही विशिष्ट है।
___ अथवा जैसे; किसी राजा ने आत्मरक्षा के लिये अपने अङ्ग रक्षकों को तीन विभागों में विभाजित कर रक्खा हो, जिनमें दूसरा विभाग शेष दो विभागों से अधिक बलवान् हो, तब उसी को जीतने में विशेष बल लगाना पड़ता है। वैसे ही दर्शनमोह को जीतने के पहले उसके रक्षक राग-द्वेष के तीव्र संस्कारों को शिथिल करने के लिये विकासगामी आत्मा को तीन बार बल-प्रयोग करना पड़ता है। जिनमें दूसरी बार किया जानेवाला बल-प्रयोग ही, जिसके द्वारा रागद्वेष की अत्यन्त तीव्रता रूप ग्रन्थि भेदी जाती है, प्रधान होता है। जिस प्रकार उक्त तीनों दलों में से बलवान् द्वारा दूसरे अङ्गरक्षक दल के जीत लिये जाने पर उस राजा का पराजय सहज होता है, इसी प्रकार द्वेष की अतितीव्रता को मिटा देने पर दर्शनमोह पर जयलाभ करना सहज है। दर्शनमोह को जीतते ही पहले गुणस्थान की समाप्ति हो जाती है।
ऐसा होते ही विकासगामी आत्मा स्वरूप का दर्शन कर लेती है अर्थात् उसकी अब तक जो पर-रूप में स्व-रूप की भ्रान्ति थी, वह दूर हो जाती है। अतएव उसके प्रयत्न की गति उलटी न होकर सीधी हो जाती है। अर्थात् वह विवेकी बन कर कर्तव्य-अकर्तव्य का वास्तविक विभाग कर लेता है। इस दशा
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प्रस्तावना
को जैनशास्त्र में 'अन्तरात्म भाव' कहते हैं; क्योंकि इस स्थिति को प्राप्त करके विकासगामी आत्मा अपने अन्दर वर्तमान सूक्ष्म और सहज शुद्ध परमात्म-भाव को देखने लगती है, अर्थात् अन्तरात्म-भाव, यह आत्म- मन्दिर का गर्भद्धार है, जिसमें प्रविष्ट होकर उस मन्दिर में वर्तमान परमात्म-भावरूप निश्चय देव का दर्शन किया जाता है।
यह दशा विकास-क्रम की चतुर्थी भूमिका किंवा चतुर्थ गुणस्थान है, जिसे पाकर आत्मा पहले पहल आध्यात्मिक शान्ति का अनुभव करती है। इस भूमिका में आध्यात्मिक दृष्टि यथार्थ (आत्मस्वरूपोन्मुख ) होने के कारण विपर्यास-रहित होती है। जिसको जैनशास्त्र में सम्यग्दृष्टि किंवा सम्यक्त्व' कहा है।
चतुर्थी से आगे की अर्थात् पञ्चमी आदि सब भूमिकाएँ सम्यग्दृष्टि वाली ही समझनी चाहिये; क्योंकि उनमें उत्तरोत्तर विकास तथा दृष्टि की शुद्धि अधिकाधिक होती जाती है। चतुर्थ गुणस्थान में स्वरूप-दर्शन करने से आत्मा को अपूर्व शान्ति मिलती है और उसको विश्वास होता है कि अब मेरा साध्यविषयक भ्रम दूर हुआ, अर्थात् अब तक जिस पौद्गलिक व बाह्य सुख को मैं तरस रहा था, वह परिणाम - विरस, अस्थिर एवं परिमित है; परिणाम- सुन्दर, स्थिर व अपरिमित सुख स्वरूप - प्राप्ति में ही है। तब वह विकासगामी आत्मा स्वरूपस्थिति के लिये प्रयत्न करने लगती है।
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मोह की प्रधान शक्ति - दर्शनमोह को शिथिल करके स्वरूप दर्शन कर लेने के बाद भी, जब तक उसकी दूसरी शक्ति- चारित्रमोह को शिथिल न किया जाय, तब तक स्वरूप लाभ किंवा स्वरूप स्थिति नहीं हो सकती। इसलिये वह मोह की दूसरी शक्ति को मन्द करने के लिये प्रयास करता है। जब वह उस शक्ति को अंशत: शिथिल कर पाता है; तब उसकी और भी उत्क्रान्ति हो जाती है। जिसमें अंशतः स्वरूप- स्थिरता या परपरिणति त्याग होने से चतुर्थ भूमिका की अपेक्षा अधिक लाभ होता है। यह देशविरति - नामक पाँचवाँ गुणस्थान है।
इस गुणस्थान में विकासगामी आत्मा को यह विचार होने लगता है कि यदि अल्प-विरति से ही इतना अधिक शान्ति-लाभ हुआ तो फिर सर्व - विरति — जड़ भावों के सर्वथा परिहार से कितना शान्ति लाभ होगा। इस विचार से प्रेरित होकर व प्राप्त आध्यात्मिक शान्ति के अनुभव से बलवान् होकर वह विकासगामी आत्मा
१. 'जिनोक्तादविपर्यस्ता, सम्यग्दृष्टिर्निगद्यते ।
सम्यक्त्वशालिनां सा स्यात्तच्चैवं जायतेऽङ्गिनाम्॥ ५९६ ॥'
( लोकप्रकाश, सर्ग ३)
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चौथा कर्मग्रन्थ
चारित्रमोह को अधिकांश में शिथिल करके पहले की अपेक्षा भी अधिक स्वरूपस्थिरता व स्वरूप-लाभ प्राप्त करने की चेष्टा करती है। इस चेष्टा में कृतकृत्य होते ही उसे सर्व-विरति संयम प्राप्त होता है। जिसमें पौदगलिक भावों पर मुर्छा बिल्कुल नहीं रहती, और उसका सारा समय स्वरूप की अभिव्यक्ति करने के काम में ही खर्च होता है। यह ‘सर्व-विरति' नामक षष्ठ गुणस्थान है। इसमें आत्मकल्याण के अतिरिक्त लोक-कल्याण की भावना और तदनुकूल प्रवृत्ति भी होती है जिससे कभी-कभी थोड़ी बहुत मात्रा में प्रमाद आ जाता है। ___पाँचवे गुणस्थान की अपेक्षा इस छठे गुणस्थान में स्वरूप अभिव्यक्ति अधिक होने के कारण यद्यपि विकासगामी आत्मा को आध्यात्मिक शान्ति पहले से अधिक ही मिलती है तथापि बीच-बीच में अनेक प्रमाद उसे शान्ति अनुभव में जो बाधा पहुँचाते हैं, उसको वह सहज नहीं कर सकता। अतएव सर्व-विरतिजनित शान्ति के साथ अप्रमाद-जनित विशिष्ट शान्ति का अनुभव करने की प्रबल लालसा से प्रेरित होकर वह विकासगामी आत्मा प्रमाद का त्याग करती है और स्वरूप की अभिव्यक्ति के अनुकूल मनन-चिन्तन के अतिरिक्त अन्य सब व्यापारों का त्याग कर देती है। यही 'अप्रमत्तसंयत' नामक सातवाँ गुणस्थान है। इसमें एक ओर अप्रमाद-जन्य उत्कट सुख का अनुभव आत्मा को उस स्थिति में बने रहने के लिये उत्तेजित करता है और दूसरी ओर प्रमाद-जन्य पूर्व वासनाएँ उसे अपनी ओर खींचती हैं। इस खींचातानी में विकासगामी आत्मा कभी प्रमाद की तन्द्रा और कभी अप्रमाद की जागृति अर्थात् छठे और सातवें गुणस्थान में अनेक बार जाती आती रहती है। भँवर या वातभ्रमी में पड़ा हुआ तिनका इधर से उधर
और उधर-से इधर जिस प्रकार चलायमान होता रहता है, उसी प्रकार छठे और सातवें गुणस्थान के समय विकासगामी आत्मा अनवस्थित बन जाती है।
प्रमाद के साथ होनेवाले इस आन्तरिक युद्ध के समय विकासगामी आत्मा यदि अपना विशेष चारित्र-बल प्रकाशित करती है तो फिर वह प्रमादों-प्रलोभनों को पार कर विशेष अप्रमत्त-अवस्था प्राप्त कर लेती है। इस अवस्था को पाकर वह ऐसी शक्ति-वृद्धि की तैयारी करती है कि जिससे शेष रहे-सहे मोह-बल को नष्ट किया जा सके। मोह के साथ होनेवाले भावी युद्ध के लिये की जानेवाली तैयारी की इस भूमिका को आठवाँ गुणस्थान कहते हैं।
पहले कभी न हुई ऐसी आत्म-शुद्धि इस गुणस्थान में हो जाती है। जिससे कोई विकासगामी आत्मा मोह के संस्कारों के प्रभाव को क्रमशः दबाती हई आगे बढ़ती है तथा अन्त में उसे बिल्कुल ही उपशान्त कर देती है और विशिष्ट आत्म
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शुद्धिवाला कोई दूसरा व्यक्ति ऐसा भी होता है, जो मोह के संस्कारों को क्रमश: जड़ मूल से उखाड़ता हुआ आगे बढ़ता है तथा अन्त में उन सब संस्कारों को सर्वथा निर्मूल कर डालता है। इस प्रकार आठवें गुणस्थान से आगे बढ़नेवाले अर्थात् अन्तरात्म-भाव के विकास द्वारा परमात्म-भाव-रूप सर्वोपरि भूमिका के निकट पहुँचने वाली आत्मा दो श्रेणियों में विभक्त हो जाती है।
एक श्रेणिवाली आत्माएँ ऐसी होती हैं, जो मोह को एक बार सर्वथा दबा तो लेती हैं, पर उसे निर्मूल नहीं कर पातीं। अतएव जिस प्रकार किसी बर्तन में भरी हुई भाफ कभी-कभी अपने वेग से उस बर्तन को उड़ा ले भागती है या नीचे गिरा देती है अथवा जिस प्रकार राख के नीचे दबी हुआ अग्नि हवा का झोंका लगते ही अपना कार्य करने लगती है; किंवा जिस प्रकार जल के तल में बैठा हुआ मल थोड़ा-सा क्षोभ पाते ही ऊपर उठकर जल को गन्दा कर देता है, उसी प्रकार पहले दबा हुआ मोह भी आन्तरिक युद्ध में थके हुए उन प्रथम श्रेणिवाली आत्माओं को अपने वेग के द्वारा नीचे पटक देता है। एक बार सर्वथा दबाये जाने पर भी मोह, जिस भूमिका से आत्मा को हार दिलाकर नीचे की ओर पटक देता है, वही ग्यारहवाँ गुणस्थान है। मोह को क्रमश: दबातेदबाते सर्वथा दबाने तक में उत्तरोत्तर अधिक-अधिक विशुद्धिवाली दो भूमिकाएँ अवश्य प्राप्त करनी पड़ती हैं, जो नौवाँ तथा दसवाँ गुणस्थान कहलाता है। ग्यारहवाँ गुणस्थान अध:पतन का स्थान है; क्योंकि उसे पानेवाली आत्मा आगे न बढ़कर एक बार तो अवश्य नीचे गिरती है।
दूसरी श्रेणिवाली आत्माएँ मोह को क्रमश: निर्मूल करते-करते अन्त में उसे सर्वथा निर्मूल कर ही डालती हैं। सर्वथा निर्मूल करने की जो उच्च भूमिका है, वही बारहवाँ गुणस्थान है। इस गुणस्थान को पाने तक में अर्थात् मोह को सर्वथा निर्मूल करने से पहले बीच में नौवाँ और दसवाँ गुणस्थान प्राप्त करना पड़ता है। इस प्रकार देखा जाय तो चाहे पहली श्रेणिवाली हों, चाहे दूसरी श्रेणिवाली, पर वे सब नौवाँ-दसवाँ गुणस्थान प्राप्त करती ही हैं। दोनों श्रेणियों में अन्तर इतना ही होता है कि प्रथम श्रेणि की अपेक्षा दूसरी श्रेणि में आत्मशुद्धि व आत्म-बल विशिष्ट प्रकार का पाया जाता है। जैसे.-किसी एक दर्जे के विद्यार्थी भी दो प्रकार के होते हैं। एक प्रकार के तो ऐसे होते हैं, जो सौ कोशिश करने पर भी एक बारगी अपनी परीक्षा में पास होकर आगे नहीं बढ़ सकते। पर दूसरे प्रकार के विद्यार्थी अपनी योग्यता के बल से सब कठिनाईयों को पार कर उस कठिनतम परीक्षा को बेधड़क पास कर ही लेते हैं। उन दोनों
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दल के इस अन्तर का कारण उनकी आन्तरिक योग्यता की न्यूनाधिकता है। वैसे ही नौवें तथा दसवें गुणस्थान को प्राप्त करनेवाले उक्त दोनों श्रेणिगामी आत्माओं की आध्यात्मिक विशुद्धि न्यूनाधिक होती है। जिसके कारण एक श्रेणिवाले तो दसवें गुणस्थान को पाकर अन्त में म्यारहवें गुणस्थान में मोह से हार खाकर नीचे गिरते हैं और अन्य श्रेणिवाले दसवें गुणस्थान को पाकर इतना अधिक आत्म-बल प्रकट करते हैं कि अन्त में वे मोह को सर्वथा क्षीण कर बारहवें गुणस्थान को प्राप्त कर ही लेते हैं।
जैसे ग्यारहवाँ गुणस्थान अवश्य पुनरावृत्ति का है, वैसे ही बारहवाँ गुणस्थान अपुनरावृत्ति का है। अर्थात् ग्यारहवें गुणस्थान को पानेवाली आत्मा एक बार उससे अवश्य गिरती है और बारहवें गुणस्थान को पानेवाली उससे कदापि नहीं गिरती, बल्कि ऊपर को ही चढ़ती है। किसी एक परीक्षा में नहीं पास होनेवाला विद्यार्थी जिस प्रकार परिश्रम व एकाग्रता से योग्यता बढ़ाकर फिर उस परीक्षा को पास कर लेता है, उसी प्रकार एक बार मोह से हार खाने वाली आत्मा भी अप्रमत्त-भाव व आत्मबल की अधिकता से फिर मोह को अवश्य क्षीण कर देती है। उक्त दोनों श्रेणि की आत्माओं की तरतम-भावापन्न आध्यात्मिक विशुद्धि मानों परमात्म-भाव-रूप सर्वोच्च भूमिका पर चढ़ने की दो नसेनियाँ हैं। जिनमें से एक को जैनशास्त्र में 'उपशमश्रेणि' और दूसरी को 'क्षपकश्रेणि' कहा गया है। पहली कुछ दूर चढ़ाकर गिरानेवाली और दूसरी चढ़ाने वाली ही है। पहली श्रेणि से गिरनेवाला आध्यात्मिक अध:पतन के द्वारा चाहे प्रथम गुणस्थान तक क्यों न चला जाय, पर उसकी वह अध:पतित स्थिति कायम नहीं रहती। कभी-न-कभी फिर वह दूने बल से और दूनी सावधानी से तैयार होकर मोहशत्रु का सामना करता है और अन्त में दूसरी श्रेणि की योग्यता प्राप्त कर मोह का सर्वथा क्षय कर डालता है। व्यवहार में अर्थात् आधिभौतिक क्षेत्र में भी यह देखा जाता है कि जो एक बार हार खाता है, वह पूरी तैयारी करके हरानेवाले शत्रु को फिर से हरा सकता है।
परमात्म-भाव का स्वराज्य प्राप्त करने में मुख्य बाधक मोह ही है। जिसको नष्ट करना अन्तरात्म-भाव के विशिष्ट विकास पर निर्भर है। मोह का सर्वथा नाश हुआ कि अन्य आवरण जो जैनशास्त्र में ‘घातिकर्म' कहलाते हैं, वे प्रधान सेनापति के मारे जाने के बाद अनुगामी सैनिकों की तरह एक साथ तितर-बितर हो जाते हैं। फिर क्या देरी, विकासगामी आत्मा तुरन्त ही परमात्म-भाव का पूर्ण आध्यात्मिक स्वराज्य पाकर अर्थात् सच्चिदानन्द स्वरूप को पूर्णतया व्यक्त करके
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निरतिशय ज्ञान, चारित्र आदि का लाभ करती है तथा अनिर्वचनीय स्वाभाविक सुख का अनुभव करती है। जैसे, पूर्णिमा की रात में निरभ्र चन्द्र की सम्पूर्ण कलाएँ प्रकाशमान होती हैं, वैसे ही उस समय आत्मा की चेतना आदि सभी मुख्य शक्तियाँ पूर्ण विकसित हो जाती हैं। इस भूमिका को जैन मान्यतानुसार में तेरहवाँ गुणस्थान कहते हैं ।
इस गुणस्थान में चिरकाल तक रहने के बाद आत्मा दग्ध रज्जु के समान शेष आवरणों की अर्थात् अप्रधानभूत अघातिकर्मों को उड़ाकर फेंक देने के लिये सूक्ष्मक्रिया प्रतिपाति शुक्लध्यान रूप पवन का आश्रय लेकर मानसिक, वाचिक और कायिक व्यापारों को सर्वथा रोक देती है। यही आध्यात्मिक विकास की पराकाष्ठा किंवा चौदहवाँ गुणस्थान है। इसमें आत्मा समुच्छिन्नक्रियाप्रतिपाति शुक्लध्यान द्वारा सुमेरु की तरह निष्प्रकम्प स्थिति को प्राप्त करके अन्त में शरीर - त्याग पूर्वक व्यवहार और परमार्थ दृष्टि से लोकोत्तर स्थान को प्राप्त करता है। यही निर्गुण ब्रह्मस्थिति' है, यही सर्वाङ्गीण पूर्णता है, यही पूर्ण कृतकृत्यता है, यही परम पुरुषार्थ की अन्तिम सिद्धि है और यही अपुनरावृत्ति - स्थान है। क्योंकि संसार का एकमात्र कारण मोह है। जिसके सब संस्कारों का निश्शेष नाश हो जाने के कारण अब उपाधि संभव नहीं है ।
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यह कथा हुई पहले से चौदहवे गुणस्थान तक के बारह गुणस्थान की, इसमें दूसरे और तीसरे गुणस्थान की कथा, जो छूट गई है, वह यों है कि सम्यक्त्व किंवा तत्त्वज्ञान वाली ऊपर की चतुर्थी आदि भूमिकाओं के राजमार्ग से च्युत होकर जब कोई आत्मा तत्वज्ञान - शून्य किंवा मिथ्यादृष्टिवाली प्रथम भूमिका के उन्मार्ग की ओर झुकती है, तब बीच में उस अधःपतनोन्मुख आत्मा की जो कुछ अवस्था होती है, वही दूसरा गुणस्थान है । यद्यपि इस गुणस्थान में प्रथम गुणस्थान की अपेक्षा आत्म-शुद्धि अवश्य कुछ अधिक होती है, इसीलिये इसका नम्बर पहले के बाद रक्खा गया है, फिर भी यह बात ध्यान में रखनी चाहिये कि इस गुणस्थान को उत्क्रान्ति स्थान नहीं कह सकते, क्योंकि प्रथम गुणस्थान को छोड़कर उत्क्रान्ति करनेवाली आत्मा इस दूसरे गुणस्थान को सीधे तौर से प्राप्त नहीं कर सकती, किन्तु ऊपर के गुणस्थान से गिरनेवाली
१. योगसंन्यासतस्त्यागी, योगानप्यखिलाँस्त्यजेत्। इत्येवं निर्गुणं ब्रह्म, परोक्तमुपपद्यते।।७।। वस्तुतस्तु गुणैः पूर्ण, मनन्तर्भासते स्वतः ।
रूपं त्यक्तात्मनः साधो - निरभ्रस्य विधोरिव ||८|| ( ज्ञानसार, त्यागाष्टक
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चौथा कर्मग्रन्थ
आत्मा ही इसकी अधिकारी बनती है। अध: पतन मोह के उद्वेक से होता है । अतएव इस गुणस्थान के समय मोह की तीव्र काषायिक शक्ति का आविर्भाव पाया जाता है। खीर आदि मिष्ट भोजन करने के बाद जब वमन हो जाता है, तब मुख में एक प्रकार का विलक्षण स्वाद अर्थात् न अति- मधुर न अति अम्ल जैसे प्रतीत होता है। इसी प्रकार दूसरे गुणस्थान के समय आध्यात्मिक स्थिति विलक्षण पाई जाती है। क्योंकि उस समय आत्मा न तो तत्त्व - ज्ञान की निश्चित भूमिका पर होती है और न तत्त्व - ज्ञान - शून्य निश्चित भूमिका पर । अथवा जैसे कोई व्यक्ति चढ़ने की सीढ़ियों से खिसक कर जब तक जमीन पर आकर नहीं ठहर जाता, तब तक बीच में एक विलक्षण अवस्था का अनुभव करता है, वैसे ही सम्यक्त्व से गिरकर मिथ्यात्व को पाने तक में अर्थात् बीच में आत्मा एक विलक्षण आध्यात्मिक अवस्था का अनुभव करती है। यह बात हमारे इस व्यावहारिक अनुभव से भी सिद्ध है कि जब किसी निश्चित उन्नत - व्यवस्था से गिरकर कोई निश्चित अवनत अवस्था प्राप्त की जाती है, तब बीच में एक विलक्षण परिस्थिति खड़ी होती है।
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तीसरा गुणस्थान आत्मा की उस मिश्रित अवस्था का नाम है, जिसमें न तो केवल सम्यक् - दृष्टि होती है और न केवल मिथ्या दृष्टि, किन्तु आत्मा उसमें दोलायमान आध्यात्मिक स्थिति वाली बन जाती है। अतएव उसकी बुद्धि स्वाधीन न होने के कारण सन्देहशील होती है अर्थात् उसके सामने जो कुछ आया, वह सब सच। न तो वह तत्त्व को एकान्त अतत्त्वरूप से ही जानती है और न तत्त्वअतत्त्व का वास्तविक पूर्ण विवेक ही कर सकती है।
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तीसरे
कोई उत्क्रान्ति करनेवाली आत्मा प्रथम गुणस्थान से निकलकर सीधे ही गुणस्थान को प्राप्त कर सकती है और कोई अपक्रान्ति करनेवाली आत्मा भी चतुर्थ आदि गुणस्थान से गिरकर तीसरे गुणस्थान को प्राप्त कर सकती है। इस प्रकार उत्क्रान्ति करनेवाली और अपक्रान्ति करनेवाली — दोनों प्रकार की आत्माओं का आश्रय-स्थान तीसरा गुणस्थान है। यही तीसरे गुणस्थान की दूसरे गुणस्थान से विशेषता है।
ऊपर आत्मा की जिन चौदह अवस्थाओं का विचार किया है, उनका तथा उनके अन्तर्गत अवान्तर संख्यातीत अवस्थाओं का बहुत संक्षेप में वर्गीकरण करके शास्त्र में शरीरधारी आत्मा की सिर्फ तीन अवस्थाएँ बतलाई हैं१. बहिरात्म - अवस्था, २. अन्तरात्म- अवस्था और ३. परमात्म- अवस्था ।
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पहली अवस्था में आत्मा का वास्तविक—विशुद्ध रूप अत्यन्त आच्छन्न रहता है, जिसके कारण आत्मा मिथ्याध्यासवाली होकर पौद्गलिक विलासों को ही सर्वस्व मान लेती है और उन्हीं की प्राप्ति के लिये सम्पूर्ण शक्ति का व्यय करती है।
। दूसरी अवस्था में आत्मा का वास्तविक स्वरूप पूर्णतया तो प्रकट नहीं होता, पर उसके ऊपर का आवरण गाढ़ न होकर शिथिल, शिथिलतर, शिथिलतम बन जाता है, जिसके कारण उसकी दृष्टि पौद्गलिक विलासों की ओर से हट कर शुद्ध स्वरूप की ओर लग जाती है। इसी से उसकी दृष्टि में शरीर आदि की जीर्णता व नवीनता अपनी जीर्णता व नवीनता नहीं है। यह दूसरी अवस्था ही तीसरी अवस्था का दृढ़ सोपान है।
तीसरी अवस्था में आत्मा का वास्तविक स्वरूप प्रकट हो जाता है अर्थात् उसके ऊपर के घने आवरण बिलकुल विलीन हो जाते हैं।
पहला, दूसरा और तीसरा गुणस्थान बहिरात्म-अवस्था का चित्रण है। चौथे से बारहवें तक के गुणस्थान अन्तरात्म-अवस्था का दिग्दर्शन है और तेरहवाँ, चौदहवाँ गुणस्थान परमात्म-अवस्था का वर्णन है। ___ आत्मा का स्वभाव ज्ञानमय है, इसलिये वह चाहे किसी गुणस्थान में क्यों न हो, पर ध्यान से कदापि मुक्त नहीं रहती। ध्यान के सामान्य रीति से (१) शुभ और (२) अशुभ, ऐसे दो विभाग और विशेष रीति से (१) आर्त, (२) रौद्र, (३) धर्म और (४) शुल्क, ऐसे चार विभाग शास्त्र में किये गये
।
१. अन्ये तु मिथ्यादर्शनादिभावपरिणतो बाह्यात्मा, सम्यग्दर्शनादिपरिणतस्त्वन्तरात्मा,
केवलज्ञानादिपरिणतस्तु परमात्मा। तत्राद्यगुणस्थानत्रये बाह्यात्मा, ततः परं क्षीणमोहगुणस्थानं यावदन्तरात्मा, ततः परन्तु परमात्मेति। तथा व्यक्त्या बाह्यात्मा, शक्त्या परमात्मान्तरात्मा च। व्यक्त्यान्तरात्मा तु शक्त्या परमात्मा अनुभूतपूर्वनयेन च बाह्यात्मा, व्यक्त्या परमात्मा, अनुभूतपूर्वनयेनैव बाह्यात्मान्तरात्मा च।'
(अध्यात्ममतपरीक्षा, गाथा १२५) 'बाह्यत्मा चान्तरात्मा च, परमात्मेति च त्रयः। कायाधिष्ठायकध्येया:, प्रसिद्धा योगवाङ्मये।॥१७॥ अन्ये मिथ्यात्वसम्यक्त्व.-केवलज्ञानभागिनः। मिश्रे च क्षीणमोहे च, विश्रान्तास्ते त्वयोगिनि।।१८।।'
(योगावतारद्वात्रिंशिका) २. 'आर्तरौद्रधर्मशुक्लानि'-तत्त्वार्थ-अध्याय ९, सूत्र २९।
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चौथा कर्मग्रन्थ
हैं। चार में से पहले दो अशुभ और पिछले दो शुभ हैं। पौद्गलिक दृष्टि की मुख्यता से आत्म-विस्मृति के समय जो ध्यान होता है, वह अशुभ और पौद्गलिक दृष्टि की गौणता व आत्मानुसन्धान-दशा में जो ध्यान होता है, वह शुभ है। अशुभ ध्यान संसार का कारण और शुभ ध्यान मोक्ष का कारण है। पहले तीन गुणस्थानों में आर्त और रौद्र, ये दो ध्यान ही तर-तम-भाव से पाये जाते हैं। चौथे और पाँचवें गुणस्थान में उक्त दो ध्यानों के अतिरिक्त सम्यक्त्व के प्रभाव से धर्मध्यान भी होता है। छठे गणस्थान में आर्त और धर्म, ये दो ध्यान होते हैं। सातवें गुणस्थान में सिर्फ धर्मध्यान होता है। आठवें से बारहवें तक पाँच गुणस्थानों में धर्म और शुक्ल, ये दो ध्यान होते हैं।
तेरहवें और चौदहवें गुणस्थान में सिर्फ शुक्लध्यान होता है।
गुणस्थान में पाये जाने वाले ध्यानों के उक्त वर्णन से तथा गुणस्थानों में किये हुए बहिरात्म-भाव आदि पूर्वोक्त विभाग से प्रत्येक मनुष्य यह सामान्यतया जान सकता है कि मैं किस गुणस्थान का अधिकारी हूँ। ऐसा ज्ञान, योग्य अधिकारी की नैसर्गिक महत्त्वाकांक्षा को ऊपर के गुणस्थानों के लिये उत्तेजित करता है।
दर्शनान्तर के साथ जैन दर्शन का साम्य जो दर्शन, आस्तिक, अर्थात् आत्मा, उसका पुनर्जन्म, उसकी विकासशीलता तथा मोक्ष-योग्यता माननेवाले हैं, उन सबों में किसी-न-किसी रूप में आत्मा के क्रमिक विकास का विचार पाया जाना स्वाभाविक है। अतएव आर्यावर्त के जैन, वैदिक और बौद्ध, इन तीनों प्राचीन दर्शनों में उक्त प्रकार का विचार पाया जाता है। यह विचार जैन दर्शन में गुणस्थान के नाम से, वैदिक दर्शन में भूमिकाओं के नाम से और बौद्ध दर्शन में अवस्थाओं के नाम से प्रसिद्ध है। गुणस्थान का विचार, जैसा जैन दर्शन में सूक्ष्म तथा विस्तृत है, वैसा अन्य दर्शनों में नहीं है, तो भी उक्त तीनों दर्शनों की उस विचार के सम्बन्ध में बहुतकुछ समता है। अर्थात् संकेत, वर्णनशैली आदि की भिन्नता होने पर भी वस्तुतत्त्व के विषय में तीनों दर्शनों का भेद नहीं के बराबर ही है। वैदिक दर्शन के
१. इसके लिये देखिये, तत्त्वार्थ-अध्याय ९, सूत्र ३५ से ४०। ध्यानशतक, गा. ६३
और ६४ तथा आवश्यक-हारिभद्रीय टीका पृ. ६०२। इस विषय में तत्त्वार्थ के उक्त सूत्रों का राजवार्तिक विशेष देखने योग्य है, क्योंकि उसमें श्वेताम्बर ग्रन्थों से थोड़ा सा मतभेद है।
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प्रस्तावना
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योगवासिष्ठ, पातञ्जलयोग आदि ग्रन्थों में आत्मा की भूमिकाओं पर अच्छा विचार है।
जैनशास्त्र में मिथ्यादृष्टि या बहिरात्मा के नाम से अज्ञानी जीव का लक्षण बतलाया गया है कि जो अनात्मा में अर्थात् आत्म-भिन्न जड़तत्त्व में आत्म-बुद्धि करता है, वह मिथ्यादृष्टि या बहिरात्मा' है। योगवासिष्ठ में तथा पातञ्जलयोगसूत्र में अज्ञानी जीव का वही लक्षण है। जैनशास्त्र में मिथ्यात्वमोहनीय का संसारबुद्धि और दुःखरूप फल वर्णित है। वही बात योगवासिष्ठ के निर्वाणप्रकरण' में अज्ञान के फलरूप से कही गई है। (२) योगवासिष्ठ निर्वाणप्रकरण पूर्वार्ध में अविद्या से तृष्णा और तृष्णा से दुःख का अनुभव तथा विद्या से १. तत्र मिथ्यादर्शनोदयवशीकृतो मिथ्यादृष्टिः।।
(तत्त्वार्थ-अध्याय ९, सू. १, राजवार्तिक १२) आत्मधिया समुपात्तकायादिः कीर्त्यतेऽत्र बहिरात्मा। कायादेः समधिष्ठायको भवत्यन्तरात्मा तु।।७।। (योगशास्त्र, प्रकाश १२) निर्मलं स्फटिकस्येव सहज रूपमात्मनः। अध्यस्तोपाधिसम्बन्धो जडस्तत्र विमुह्यति।।६।। (ज्ञानसार, मोहाष्टक) नित्यशुच्यात्मताख्यार्तिनित्याशुच्यनात्मसु। अवि द्यातत्त्वधीविद्या, योगाचार्य: प्रकीर्तिताः।।१॥ (ज्ञानसार, विद्याष्टक) भ्रमवाटी बहिर्दृष्टिभ्रंमच्छाया तदीक्षणम्। अभ्रान्तस्तत्त्वदृष्टिस्तु नास्यां शेते सुखाशया।।२।।
(ज्ञानसार, तत्त्वदृष्टि-अष्टक) २. यस्याऽज्ञानात्मनोज्ञस्य, देह एवाऽऽत्मभावना। उदितेति रुषैवाक्ष-रिपवोऽभिभवन्ति तम्।।३।।
(निर्वाण-प्रकरण, पूर्वार्ध, सर्ग ६) ३. अनित्याऽशुचिदुःखाऽनात्मसु नित्यशुचिसुखात्मख्यातिरविद्या।
(पातञ्जलयोगसूत्र, साधन-पाद, सूत्र ५) ४. समुदायावयवयोर्बन्धहेतुत्वं वाक्यपरिसमाप्तेर्वैचित्र्यात्।
____ (तत्त्वार्थ, अध्याय ९, सू. १, वार्तिक ३१) विकल्पचषकैरात्मा, पीतमोहासवोऽह्ययम्। भवोच्चतालमुत्तालप्रपञ्चमधितिष्ठति।।५।।
(ज्ञानसार, मोहाष्टक) अज्ञानात्प्रसृत्ता यस्माज्जगत्पर्णपरम्परा:। यस्मिस्तिष्ठन्ति राजन्ते विशन्ति विलसन्ति चा॥५३॥' अपातमात्रमधुरत्वमनर्थसत्त्वमाधन्तवत्त्वमखिलस्थितिभङ्गुरत्वम्। अज्ञानशाखिन इति प्रसृत्तानि रामनानाकृतीनि विपुलानि फलानि तानि
(६१, पूर्वार्द, सर्ग ६)
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चौथा कर्मग्रन्थ
अविद्या का नाश, यह क्रम जैसा वर्णित है, वही क्रम जैनशास्त्र में मिथ्याज्ञान और सम्यक् ज्ञान के निरूपण द्वारा जगह-जगह वर्णित है । ( ३ ) योगवासिष्ठ के उक्त प्रकरण में ही जो अविद्या विद्या से और विद्या का विचार से नाश बतलाया है, वह जैनशास्त्र में माने हुए मतिज्ञान आदि क्षायोपशमिक ज्ञान से मिथ्याज्ञान के नाश और क्षायिक ज्ञान से क्षायोपशमिक ज्ञान के नाश के समान है। (४) जैनशास्त्र में मुख्यतया मोह को ही बन्धन – संसार का हेतु माना गया है। योगवासिष्ठ में वही बात रूपान्तर से कही गई है। उसमें जो दृश्य के अस्तित्व को बन्धन का कारण कहा है; उसका तात्पर्य दृश्य के अभिमान या अध्यास से है। (५) जैसे, जैनशास्त्र में ग्रन्थि-भेद का वर्णन है वैसे ही योगवासिष्ठ में भी है। (६) वैदिक ग्रन्थों का यह वर्णन कि ब्रह्म, माया के संसर्ग से जीवत्व धारण करता है और मन के संसर्ग से संकल्प-विकल्पात्मक ऐन्द्रजालिक सृष्टि रचता है; तथा स्थावर - जङ्गमात्मक जगत् का कल्प के अन्त में नाश होता है५, इत्यादि बातों की संगति जैनशास्त्र के अनुसार इस प्रकार
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१. जन्मपर्वाहिनीरन्ध्रा, विनाशच्छिद्रचचुरा ।
भोगाभोगरसापूर्णा, विचारैकघुणक्षता ॥ ११ ॥ - सर्ग ८ |
२. मिथः स्वान्ते तयोरन्तश्छायातपनयोरिव।
अविद्यायां विलीनायां क्षीणे द्वे एव कल्पने ॥ २३ ॥ एते राघव ! लीयेते, अवाप्यं परिशिष्यतेः
अविद्यासंक्षयात् क्षीणो, विद्यापक्षोऽपि राघव ! ॥ २४ ॥ - सर्ग ९ |
३. अविद्या संसृतिर्बन्धो, माया मोहो महत्तमः ।
५.
कल्पितानीति नामानि यस्याः सकलवेदिभिः ॥ २० ॥ द्रष्टुर्द्दश्यस्य सत्ताऽङ्ग, -बन्ध इत्यभिधीयते ।
द्रष्टा दृश्यबलाद्द्बद्धो, दृश्याऽभावे विमुच्यते ॥ २२ ॥ ( उत्पात्त - प्रकरण, सर्ग १ ) तस्माच्चित्तविकल्पस्थ, -पिशाचो बालकं यथा ।
विनिहन्त्येवमेषान्त, - र्द्रष्टारं दृश्यरूपिका ||३८|| ( वही सर्ग ३ )
४. ज्ञप्तिर्हि ग्रन्थिविच्छेदस्तस्मिन् सति हि मुक्तता ।
मृगतृष्णाम्बुबुद्ध्यादिशान्तिमात्रात्मकस्त्वसौ ॥ २३ ॥' (वही, सर्ग ११८ )
तत्स्वयं स्वैरमेवाऽऽशु, संकल्पयति नित्यशः। तेनेत्थमिन्द्रजालश्रीर्विततेयं वितन्यते ॥ १६ ॥ यदिदं दृश्यते सर्वे, जगत्स्थावरजङ्गमम्।
तत्सुषुप्ताविव स्वप्नः, कल्पान्ते प्रविनश्यति ॥ १० ॥ (उत्पत्ति प्रकरण, सर्ग १ ) स तथाभूत एवाऽऽत्मा, स्वयमन्य इवोल्लसन् । जीवतामुपयातीव, भाविनाम्ना कदर्थिताम्॥१३॥
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प्रस्तावना
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की जा सकती है- आत्मा का अव्यवहार-राशि से व्यवहार-राशि में आना ब्रह्म का जीवत्व धारण करना है। क्रमश: सूक्ष्म तथा स्थूल मन द्वारा संशित्व प्राप्त करके कल्पना जाल में आत्मा का विचरण करना संकल्प-विकल्पात्मक ऐन्द्रजालिक सृष्टि है। शुद्ध आत्म-स्वरूप व्यक्त होने पर सांसारिक पर्यायों का नाश होना ही कल्प के अन्त में स्थावर-जङ्गमात्मक जगत् का नाश है आत्मा अपनी सत्ता भूलकर जड़-सत्ता को स्वसत्ता मानती है, जो अहंत्व-ममत्व भावनारूप मोहनीय का उदय और बन्ध का कारण है। यही अहंत्व-ममत्व भावना वैदिक वर्णन-शैली के अनुसार बन्ध-हेतु-भूत दृश्य सत्ता है। उत्पत्ति, वृद्धि, विकास, स्वर्ग, नरक आदि जो जीव की अवस्थाएँ वैदिक ग्रन्थों में वर्णित हैं, वे ही जैन-दृष्टि के अनुसार व्यवहार-राशि-गत जीव के पर्याय हैं। (७) योगवासिष्ठ में स्वरूप-स्थिति को ज्ञानी का और स्वरूप-भ्रंश को अज्ञानी का लक्षण माना है। जैनशास्त्र में भी सम्यक्-ज्ञान का और मिथ्यादृष्टि का क्रमश: वही स्वरूप बतलाया है। (८) योगवासिष्ठ में जो सम्यक-ज्ञान का लक्षण है, वह जैनशास्त्र के अनुकूल है। (९) जैनशास्त्र में सम्यक्-दर्शन की प्राप्ति (१) स्वभाव और (२) बाह्य निमित्त, इन दो प्रकार से बतलाई है। योगवाशिष्ठ में भी ज्ञान प्राप्ति का वैसा ही क्रम सूचित किया है। (१०) जैनशास्त्र के चौदह
१. उत्पद्यते यो जगति, स एव किल वर्धते। स एव मोक्षमाप्नोति, स्वर्गे वा नरकं च वा।।७।।
(उत्पत्ति-प्रकरण, स. १) २. स्वरूपावस्थितिर्मुक्ति स्तभ्रंशोऽहंत्ववेदनम्। एतत् संक्षेपत: प्रोक्तं तज्ज्ञत्वाज्ञत्वलक्षणम्।।५।।
(वही, स. ११७) ३. अहं ममेति मन्त्रोऽयं मोहस्य जगदान्ध्यकृत्।
अयमेव हि नपूर्वः, प्रतिमन्त्रोऽपि मोहजित्।।१।। (ज्ञानसार, मोहाष्टक) स्वभावलाभसंस्कार कारणं ज्ञानमिष्यते।
ध्यान्ध्यमात्रमतस्त्वन्यत् तथा चोक्तं महात्मना।।३।। (ज्ञानसार, ज्ञानाष्टक) ४. अनाद्यन्तावभासात्मा परमात्मेह विद्यते।
इत्येको निश्चय:स्फारः सम्यग्ज्ञानं विदुर्बुधाः।।२।। (उपशम-प्रकरण, स. ७९) ५. तनिसर्गादधिगमाद् वा। (तत्त्वार्थ-अ. १, सू. ३) ६. “एकस्तावद्गुरुप्रोक्ता दनुष्ठानाच्छनैः शनैः।
जन्मना जन्मभिर्वापि, सिद्धिदः समुदाहृतः।।३।। द्वितीयस्त्वात्मनैवाशु, किंच्व्युित्पन्नचेतसाम्। भवति ज्ञानसम्प्राप्ति राकाशफलपातवत्।।४।। (उपशम-प्रकरण, स. ७)
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चौथा कर्मग्रन्थ
गुणस्थानों के स्थान में चौदह भूमिकाओं का वर्णन योगवासिष्ठमें बहुत रुचिकर
१. अज्ञानभूः सप्तपदा ज्ञभूः सप्तपदैव हि । पदान्तराण्यसंख्यानि भवन्त्यन्यान्यथैतयोः ॥ २ ॥ तत्राऽऽरोपितमज्ञानं तस्य भूमारिमाः शृणु । बीजजाग्रत्तथा जाग्रन्महाजाग्रत्तथैव च ॥ ११ ॥ जाग्रत्स्वप्नस्तथा स्वप्नः स्वप्नजाग्रत्सुषुप्तकम्। इति सप्तविधो मोहः पुनरेव परस्परम् ।। १२ ।। श्लिष्टो भवत्यनेकाख्यः शृणु लक्षणमस्य च। प्रथमं चेतनं यत्स्या' - दनाख्यं निर्मलं चित्तः ॥ १३ ॥ भविष्यच्चित्तजीवादि नामशब्दार्थभाजनम् । बीजरूपं स्थितं जाग्रत् बीजजाग्रत्तदुच्यते॥१४॥ एषा ज्ञप्तेर्नवावस्था त्वं जाग्रत्संसृतिं शृणु । नवप्रसूतस्य परा-दयं चाहमिदं मम || १५ || इति यः प्रत्यय: स्वस्थस्तज्जाग्रत्प्रागभावनात्। अयं सोऽहमिदं तन्म इति जन्मान्तरोदितः ॥ १६ ॥ पीवरः प्रत्ययः प्रोक्तो महाजाप्रदिति स्फुरन् । अरूढमथवा रूढं सर्वथा तन्मयात्मकम् ॥ १७॥ यज्जाग्रतो मनोराज्यं जाग्रत्स्वप्नः स उच्यते । द्विचन्द्रशुक्तिकारूप्यमृगतृष्णादिभेदतः ॥ १८ ॥ अभ्यासात्प्राप्य जाग्रत्त्वं स्वप्नोऽनेकविधो भवेत्। अल्पकालं मया दृष्टमेवं नो सत्यमित्यपि ॥ १९ ॥ निद्राकालानुभूतेऽर्थे निद्रान्ते प्रत्ययो हि यः । स स्वप्नः कथितस्तस्य, महाजाग्रत्स्थितेर्हृदि ॥ २० ॥ चिरसंदर्शनाभावाद्प्रफुल्लवृहद्वपुः । स्वप्नो जाग्रत्तया रूढो महाजाग्रत्पदं गतः ॥ २१ ॥ अक्षते वा क्षते देहे स्वप्नजाग्रन्मतं हि तत्। षडवस्थापरित्यागे जड़ा जीवस्य या स्थितिः ॥ २२॥ - भविष्यदुः खबोधाढ्या सौषुप्ती सोच्यते गतिः । एते तस्यामवस्थायां तृणलोष्टशिलादयः ॥ २३ ॥ पदार्थाः संस्थिताः सर्वे परमाणुप्रमाणिनः ।
सप्तावस्था इति प्रोक्ता मयाऽज्ञानस्य राघव ॥ २४॥' (उत्पत्ति प्रकरण स. ११७)
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ज्ञानभूमिः शुभेच्छाख्या प्रथमा समुदाहृता । विवारणा द्वितीया तु तृतीया तनुमानसा ॥५॥ सत्त्वापत्तिश्चतुर्थी स्यात्ततो संसक्तिनामिका | पदार्थाभावनी षष्ठी सप्तमी तुर्यगा स्मृता ॥ ६ ॥ आसामन्तस्थिता मुक्तिस्तस्यां भूयो न शोच्यते । एतासां भूमिकानां त्वमिदं निर्वचनं शृणु ॥ ७ ॥
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प्रस्तावना
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व विस्तृत है। सात भूमिकाएँ ज्ञान की और सात अज्ञान की बतलाई गई हैं, जो जैन - परिभाषा के अनुसार क्रमशः मिथ्यात्व की और सम्यक्त्व की अवस्था की सूचक हैं। (११) योगवासिष्ठ में तत्त्वज्ञ, समदृष्टि, पूर्णाशय और मुक्त पुरुष का जो वर्णन' है, वह जैन संकेतानुसार चतुर्थ आदि गुणस्थानों में स्थित आत्मा पर लागू होता है। जैनशास्त्र में जो ज्ञान का महत्त्व वर्णित है, वही योगवासिष्ठ स्थितः किं मूढ एवास्मि प्रेक्ष्येऽहं शास्त्रसज्जनैः । वैराग्यपूर्वमिच्छेति, शुभच्छेत्युच्यते बुधैः ॥ ८ ॥ शास्त्रसज्जनसम्पर्कवैराग्याभ्यासपूर्वकम् । सदाचारप्रवृत्तिर्या, प्रोच्यते सा विचारणा ॥ | १ || विचारणा शुभेच्छाभ्यामिन्द्रियार्थेष्वसक्तता। या सा तनुताभावात्प्रोच्यते तनुमानसा ॥ १० ॥ भूमिकात्रितयाभ्यासाच्चित्तेऽर्थे विरतेर्वशात् । सत्यात्मनि स्थितिः शुद्धे, सत्त्वापत्तिरुदाहृता ।। ११ ।। दशाचतुष्टयाभ्यासादसंसंगफलेन च। रूढसत्त्वचमत्कारात्प्रोक्ता संसक्तिनामिका ॥ १२ ॥ भूमिकापञ्चकाभ्यासात्स्वात्मारामतया दृढम् । आभ्यन्तराणां बाह्यानां पदार्थानामभावनात् ॥ १३॥ परप्रयुक्तेन चिरं, प्रयत्नेनार्थभावनात्। पदार्थाभावनानाम्नी, षष्ठी संजायते गतिः || १४|| भूमिषट्कचिराभ्यासाद् भेदस्यानुपलम्भतः । यत्स्वभावैकनिष्ठत्वं, सा ज्ञेया तुर्यगा गतिः ॥ १५ ॥ '
१. योग. निर्वाण - प्र., स. १७०; निर्वाण - प्र. उ, स. योग. स्थिति-प्रकरण, स. ५७, निर्वाण प्र.स.
२. जागर्ति ज्ञानदृष्टिश्चेत्, तृष्णाकृष्णाहिजाङ्गुली।
पूर्णानन्दस्य तत् किं स्याद्दैन्यवृश्चिकवेदना || ४ ||' (ज्ञानसार, पूर्णताष्टक) 'अस्ति चेद् ग्रन्थिभिज्ज्ञानं किं चित्रैस्तन्त्रयन्त्रणैः । प्रदीपाः क्वोपयुज्यन्ते, तमोघ्नी दृष्टिरेव चेत् ॥ ६ ॥ मिथ्यात्वशैलपक्षच्छिद् ज्ञानदम्भोलिशोभितः । निर्भयः शक्रवद्योगी नन्दत्यानन्दनन्दने||७||
(उत्पत्ति प्रकरण, स. ११८ )
११९ ।
१९९ ।
पीयूषमसमुद्रोत्थं, रसायनमनौषधम्।
अनन्यापेक्षमैश्वर्यं ज्ञानमाहुर्मनीषिणः ॥ ८ ॥' (ज्ञानसार, ज्ञानाष्टक )
संसारे निवसन् स्वार्थसज्जः कज्जलवेश्मनि । लिप्यते निखिलो लोकः, ज्ञानसिद्धो न लिप्यते ॥ १ ॥ नाहं पुद्गलभावानां कर्ता कारयिताऽपि च । नानुमन्ताऽपि चेत्यात्म ज्ञानवान् लिप्यते कथम् ? ॥२॥ लिप्यते पुद्गलस्कन्धो न लिप्ये पुद्गलैरहम् ।
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चित्रव्योमाञ्जनेनेव, ध्यायन्निति न लिप्यते।।३।। लिप्तताज्ञानसंपातप्रतिघाताय केवलम्। निलेपज्ञानमग्नस्य क्रिया सर्वोपयुज्यते।।४।। तपः श्रुतादिना मत्त: क्रियावानपि लिप्यते। भावनाज्ञानसम्पन्नो निष्क्रियोऽपि न लिप्यते।।५।।' (ज्ञानसार, निर्लेपाष्टक) छिन्दन्ति ज्ञानदात्रेण स्पृहाविषलतां बुधाः। मुखशोषं च मूर्छा च दैन्यं यच्छति यत्फलम्।।३।।' (ज्ञानसार, निःस्पृहाष्टक) 'मिथोयुक्तपदार्थाना,-मसंक्रमचमत्क्रिया। चिन्मात्रपरिणामेन, विदुषैवानुभूयते।।७।। अविद्यातिमिरध्वंसे, दृशा विद्याञ्जनस्पृशा। पश्यन्ति परमात्मानमात्मन्येव हि योगिनः।।८।।' (ज्ञानसार, विद्याष्टक) भवसौख्येन किं भूरिंभयज्वलनभस्मना। सदा भयोज्झितज्ञानसुखमेव विशिष्यते।।२॥ न गोप्यं क्वापि नारोप्यं, हेयं देयं च न क्वचित्। क्व भयेन मुनेः स्थेयं, ज्ञेयं ज्ञानेन पश्यतः।।३।। एकं ब्रह्मास्त्रमादाय, निघ्नन् मोहचमूं मुनिः। बिभेति नैव संग्रामशीर्षस्थ इव नागराट्।।४।। मयूरी ज्ञानदृष्टिश्चेत् प्रसर्पति मनोवने। वेष्टनं भयसर्पाणां न तदाऽऽनन्दचन्दने।।५।। कृतमोहास्त्रवैफल्यं ज्ञानवर्म बिभर्ति यः। क्व भीस्तस्य क्व वा भङ्गः, कर्मसंगरकेलिषु।।६।। तूलवल्लघवो मूढा भ्रमन्त्यभ्रे भयानिलैः। नैकं रोमापि तैनिगरिष्ठानां तु कम्पते।।७।। चित्ते परिणतं यस्य चारित्रमकुतोभयम्। अखण्डज्ञानराज्यस्य तस्य साधोः कुतो भयम।।८॥(ज्ञानसार, निर्भयाष्टक) अदृष्टार्थेऽनुधावन्त: शास्त्रदीपं विना जडाः। प्राप्नुवन्ति परं खेदं प्रस्खलन्तः पदे पदे।।५।। अज्ञानाहिमहामन्त्रं स्वाच्छन्द्यज्वरलङ्घनम्। धर्मारामसुधाकुल्यां, शास्त्रमाहुमहर्षयः।।७॥ शास्त्रोक्ताचारकर्ता च, शास्त्रज्ञ: शास्त्रदेशकः। शास्त्रैकदृग् महायोगी प्राप्नोति परमं पदम्।।८।। (ज्ञानसार, शास्त्राष्टक) ज्ञानमेव बुधाः प्राहुः, कर्मणां तापनात् तपः। तदाभ्यन्तरमेवेष्टं, बाह्यं तदुपबृंहकम्॥१॥ आनुस्रोतसिकी वृत्तिर्बालानां सुखशीलता। प्रातिस्रोतसिकी वृत्तिर्ज्ञानिनां परमं तपः।।२।। सदुपायप्रवृत्तानामुपेयमधुरत्वतः। ज्ञानिनां नित्यमानन्दवृद्धिरेव तपस्विनाम्॥४॥' (ज्ञानसार, तपोष्टक)
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में प्रज्ञामाहात्म्य के नाम से उल्लिखित है । "
१. न तद्गुरोर्न शास्त्रार्थान्न पुण्यात् प्राप्यते पदम् । यत्साधुसङ्गाभ्युदिताद्विचारविशदाद्धृदः ।। १७ ।। सुन्दर्या निजया बुद्ध्या प्रज्ञयेव वयस्यया । पदमासाद्यते राम, न नाम क्रिययाऽन्यया ।। १८ ।। यस्योज्ज्वलति तीक्ष्णाग्रा, पूर्वापराविचारिणी । प्रज्ञादीपशिखा जातु, जाड्यान्ध्यं तं न बाधते ।। १९ ।। दुरुत्तरा या विपदो, दुःखकल्लोलसंकुलाः । तीर्यते प्रज्ञया ताभ्यो, नावाऽऽपद्भ्यो महामते ॥ २० ॥ प्रज्ञाविरहितं मूढमापदल्पाऽपि बाधते । पेलवाचाऽनिलकला, सारहीनमिवोलपम् ॥ २१ ॥ प्रज्ञावानसहायोऽपि कार्यान्तमाधिगच्छति । दुष्प्रज्ञः कार्यमासाद्य, प्रधानमपि नश्यति ॥ २३ ॥ शास्त्रसज्जनसंसर्गैः प्रज्ञां पूर्वे विवर्धयेत् । सेकसंरक्षणारम्भैः पुलप्राप्तौ लतामिव ।। २४ ।। प्रज्ञाबलबृहन्मूलः काले सत्कार्यपादपः । फलं फलत्यतिस्वादु भासो बिम्बमिवैन्दवम् ।।२५।। य एव यत्नः क्रियते बाह्यर्थोपार्जने जनैः । स एव यत्नः कर्तव्यः पूर्वं प्रज्ञाविवर्धने ॥ २६ ॥ सीमान्तं सर्वदुःखानामापदां कोशमुत्तमम् । बीजं संसारवृक्षाणां प्रज्ञामान्द्यं विनाशयेत् ॥ २७ ॥ स्वर्गाद्यद्यच्च पातालाद्राज्याद्यत्समवाप्यते । तत्समासाद्यते सर्वं, प्रज्ञाकोशान्महात्मना ॥ २८ ॥ प्रज्ञयोत्तीर्यते भीमात्तस्मात्संसारसागरात् । न दानैर्न च वा तीर्थैस्तपसा न च राघव ॥२९॥ यत्प्राप्ताः सम्पदं दैवीमपि भूमिचरा नराः । प्रज्ञापुण्यलतायास्तत्फलं स्वादु समुत्थितम् ॥ ३०॥ प्रज्ञाया नखरालूनमत्तवारणयूथपाः । जम्बुकैर्विजिताः सिंहा सिंहैर्हरिणका इव ॥ ३१॥ सामान्यैरपि भूपत्वं प्राप्तं प्रज्ञावशान्नरैः । स्वर्गापवर्गयोग्यत्वं प्राज्ञस्यैवेह दृश्यते ॥ ३२ ॥ प्रज्ञया वादिनः सर्वे स्वविकल्पविलासिनः । जयन्ति सुभटप्रख्यान्नरानप्यति भीरवः ॥ ३३ ॥ चिन्तामणिरियं प्रज्ञा हृत्कोशस्था विवेकिनः । फलं कल्पलतेवैषा चिन्तितं सम्प्रयच्छति ॥ ३४॥ भव्यस्तरति संसारं, प्रज्ञयापोह्यतेऽधमः । शिक्षितः पारमाप्नोति, नावा नाऽऽप्नोत्यशिक्षितः ॥ ३५ ॥
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चौथा कर्मग्रन्थ
योग सम्बन्धी विचार
गुणस्थान और योग के विचार में अन्तर क्या है ? गुणस्थान के किंवा अज्ञान व ज्ञान की भूमिकाओं के वर्णन से यह ज्ञात होता है कि आत्मा का आध्यात्मिक विकास किस क्रम से होता है और योग के वर्णन से यह ज्ञात होता है कि मोक्ष का साधन क्या है। अर्थात् गुणस्थान में आध्यात्मिक विकास के क्रम का विचार मुख्य है और योग में मोक्ष के साधन का विचार मुख्य है। इस प्रकार दोनों का मुख्य प्रतिपाद्य तत्त्व भिन्न-भिन्न होने पर एक के विचार में दूसरे की छाया अवश्य आ जाती है, क्योंकि कोई भी आत्मा मोक्ष के अन्तिम— अनन्तर या अव्यवहित — साधन को प्रथम ही प्राप्त नहीं कर सकती, किन्तु विकास के क्रमानुसार उत्तरोत्तर सम्भावित साधनों को सोपान - परम्परा की तरह प्राप्त करती हुई अन्त में चरम साधन को प्राप्त कर लेती है। अतएव योग केमोक्ष - साधन-विषयक विचार में आध्यात्मिक विकास के क्रम की छाया आ ही जाती है। इसी तरह आध्यात्मिक विकास किस क्रम से होता है, इसका विचार करते समय आत्मा के शुद्ध, शुद्धतर, शुद्धतम परिणाम, जो मोक्ष के साधनभूत हैं, उनकी छाया भी आ ही जाती है। इसलिये गुणस्थान के वर्णन - प्रसङ्ग में योग का स्वरूप संक्षेप में दिखा देना अप्रासङ्गिक नहीं है।
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योग किसे कहते हैं ?- -आत्मा का जो धर्म-व्यापार मोक्ष का मुख्य हेतु अर्थात् उपादान कारण तथा बिना विलम्ब से फल देने वाला हो, उसे योग कहते हैं। ऐसा व्यापार प्रणिधान आदि शुभ भाव या शुभ- भावपूर्वक की जानेवाली क्रिया
धीः सम्यग्योजिता पारमसम्यग्योजिताऽऽपदम्। नरं नयति संसारे भ्रमन्ती नौरिवाऽर्णवे ॥ ३६ ॥ विवेकिनमसंमूढं प्राज्ञमाशागणोत्थिताः। दोषा न परिबाधन्ते सन्नद्धमिव सायकाः ॥ ३७॥ प्रज्ञयेह जगत्सर्वे सम्यगेवाङ्ग दृश्यते । सम्यग्दर्शनमायान्ति नाऽऽपदो न च संपदः ॥ ३८ ॥ पिधानं परमार्कस्य जडात्माविततोऽसितः ।
अहंकाराम्बुदो मत्तः प्रज्ञावातेन बाध्यते ||३९|| ' ( उपशम- प्र., प्रज्ञामाहात्म्य)
१. मोक्षेण योजनादेव योगो ह्यत्र निरुच्यते।
लक्षणं तेन तन्मुख्यहेतुव्यापारतास्य तु || १ || ( योजलक्षण द्वात्रिंशिका )
२. प्रणिधानं प्रवृत्तिश्च तथा विघ्नजयस्त्रिधा ।
सिद्धिश्च विनियोगश्च एते कर्मशुभाशयाः ॥ १० ॥
एतैराशययोगैस्तु विना धर्माय न क्रिया ।
प्रत्युत प्रत्यपायाय लोभक्रोधक्रिया यथा ।। १६ ।। (योगलक्षणद्वात्रिंशिका )
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प्रस्तावना
है । पातञ्जलदर्शन में चित्त की वृत्तियों के निरोध को योग' कहा है। उसका भी वही मतलब है, अर्थात् ऐसा निरोध मोक्ष का मुख्य कारण है, क्योंकि उसके साथ कारण और कार्य रूप से शुभ भाव का अवश्य सम्बन्ध होता है।
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योग का आरम्भ कब से होता है ?- -आत्मा अनादि काल से जन्म-मृत्यु के प्रवाह में पड़ी है और उसमें नाना प्रकार के व्यापारों को करती रहती है। इसलिये यह प्रश्न पैदा होता है कि उसके व्यापार को कब से योगस्वरूप माना जाय ? इसका उत्तर शास्त्र में यह दिया गया है कि जब तक आत्मा मिथ्यात्व से व्याप्त बुद्धिवाली, अतएव दिङ्मूढ की तरह उलटी दिशा में गति करने वाली अर्थात् आत्मलक्ष्य से भ्रष्ट हो, तब तक उसका व्यापार प्रणिधान आदि शुभभाव रहित होने के योग नहीं कहा जा सकता। इसके विपरीत जब से मिथ्यात्व का तिमिर कम होने के कारण आत्मा की भ्रान्ति मिटने लगती है और उसकी गति सीधी अर्थात् सन्मार्ग के अभिमुख हो जाती है, तभी से उसके व्यापार को प्रणिधान आदि शुभ भाव सहित होने के कारण 'योग' संज्ञा दी जा सकती है। सारांश यह है कि आत्मा के आनादि सांसारिक काल के दो हिस्से हो जाते हैं- एक चरमपुद्गलपरावर्त्त और दूसरा अचरमपुद्गलपरावर्त। चरमपुद्गलपरावर्त अनादि सांसारिक काल का आखिरी और बहुत छोटा अंश है। अचरमपुद्गलपरावर्त उसका बहुत बड़ा भाग है; क्योंकि चरमपुद्गलपरावर्त को छोड़कर अनादि सांसारिक काल, जो अनन्तकालचक्र - परिमाण है, वह सब अचरमपुद्गलपरावर्त कहलाता है। आत्मा का सांसारिक काल, जब चरमपुद्गलपरावर्त-परिमाण बाकी रहता है, तब उसके ऊपर से मिथ्यात्वमोह का आवरण हटने लगता है। अतएव उसके परिणाम निर्मल होने लगते हैं और क्रिया भी निर्मल भावपूर्वक होती है। ऐसी क्रिया से भाव - -शुद्धि और भी बढ़ती है। इस प्रकार उत्तरोत्तर के भाव- शुद्धि बढ़ते जाने कारण चरमपुद्गलपरावर्तकालीन धर्म-व्यापार को योग कहा है। अचरमपुद्गलपरावर्त
१. योगश्चित्तवृत्तिनिरोधः। - पातञ्जलयोगसूत्र, पा. १, सू. २। २. मुख्यत्वं चान्तरङ्गत्वातऽत्फलाक्षेपाच्च दर्शितम् ।
चरमे पुद्गलावर्ते यत एतस्य संभवः ॥ २ ॥
न सम्मार्गाभिमुख्यं स्यादावर्तेषु परेषु तु ।
मिथ्यात्वच्छन्नबुद्धीनां दिङमढानामिवाङ्गिनाम् ||३||' (योगलक्षणद्वात्रिंशिका )
३. चरमावर्तिनो जन्तो, सिद्धेरासन्नता ध्रुवम् ।
भूयांसोऽभी व्यतिक्रान्तास्तेष्वेको बिन्दुरम्बुधौ ||२८||'
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(मुक्त्यद्वेषप्राधान्यद्वात्रिंशिका)
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चौथा कर्मग्रन्थ
कालीन व्यापार न तो शुभ-भावपूर्वक होता है और न शुभ-भाव का कारण ही होता है। इसलिये वह परम्परा से भी मोक्ष के अनुकूल न होने के सबब से योग नहीं कहलाता। पातञ्जलदर्शन में भी अनादि सांसारिक काल के निवृत्ताधिकार प्रकृति और अनिवृत्ताधिकार प्रकृति इस प्रकार दो भेद बतलायें हैं, जो जैनशास्त्र के चरम और अचरमपुद्गलपरावर्त के समानार्थक' हैं। योग के भेद और उनका आधार
जैनशास्त्र में (१) अध्यात्म, (२) भावना, (३) ध्यान, (४) समता और (५) वृत्तिसंक्षय, ऐसे पाँच भेद योग के किये हैं। पातञ्जलदर्शन में योग के (१) सम्प्रज्ञात और (२) असम्प्रज्ञात, ऐसे दो भेद हैं। जो मोक्ष का साक्षातअव्यवहित कारण हो अर्थात् जिसके प्राप्त होने के बाद तुरन्त ही मोक्ष हो, उसे ही यथार्थ में योग कहा जा सकता है। ऐसा योग जैनशास्त्र के संकेतानुसार वृत्तिसंक्षय और पातञ्जलदर्शन के संकेतानुसार असम्प्रज्ञात ही है। अतएव प्रश्न होता है कि योग के जो इतने भेद किये जाते हैं, उनका आधार क्या है? इसका उत्तर यह है कि अलबत्ता वृत्तिसंक्षय किंवा असम्प्रज्ञात ही मोक्ष का साक्षात् कारण होने से वास्तव में योग है। तथापि वह योग किसी विकासगामी आत्मा को पहले ही पहल प्राप्त नहीं होता, किन्तु इसके पहले विकास-क्रम के अनुसार ऐसे अनेक आन्तरिक धर्म-व्यापार करने पड़ते हैं, जो उत्तरोत्तर विकास को बढ़ाने वाले और अन्त में उस वास्तविक योग तक पहुँचाने वाले होते हैं। वे सब धर्म-व्यापार योग के कारण होने से अर्थात् वृतिसंक्षय या असम्प्रज्ञात योग के साक्षात् किंवा परम्परा से हेतु होने से योग कहे जाते हैं। सारांश यह है कि योग के भेदों का आधार विकास का क्रम है। यदि विकास क्रमिक न होकर एक ही बार पूर्णतया प्राप्त हो जाता तो योग के भेद नहीं किये जाते। अतएव वृत्तिसंक्षय जो मोक्ष का साक्षात् कारण है, उसको प्रधान योग समझना चाहिये और उसके पहले के जो अनेक धर्म-व्यापार योग-कोटि में गिन जाते हैं, वे प्रधान योग के कारण होने से योग कहे जाते हैं। इन सब व्यापारों की समष्टि को पातञ्जलदर्शन में सम्प्रज्ञात कहा है और जैनशास्त्र में शुद्धि के तर-तम-भावानुसार उस समष्टि
१. योजनाद्योग इत्युक्तो मोक्षेण मुनिसत्तमैः।
स निवृत्ताधिकारायां प्रकृतौ लेशतो ध्रुवः।।१४।। (अपुनर्बन्धद्वात्रिंशिका) २. अध्यात्म भावना ध्यानं समता वृत्तिसंक्षयः।
योग: पञ्चविधः प्रोक्तो योगमार्गविशारदः।।१।। (योगभेदद्वात्रिंशिका) ३. देखिये, पाद १, सूत्र १७ और १८।
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प्रस्तावना
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के अध्यात्म आदि चार भेद किये हैं। वृत्तिसंक्षय के प्रति साक्षात् किंवा परम्परा से कारण होनेवाले व्यापारों को जब योग कहा गया, तब यह प्रश्न पैदा होता है कि वे पूर्वभावी व्यापार कब से लेने चाहिये। किन्तु इसका उत्तर पहले ही दिया गया है कि चरमपुद्गलपरावर्तकाल से जो व्यापार किये जाते हैं, वे ही योग-कोटि में गिने जाने चाहिये। इसका सबब यह है कि सहकारी निमित्त मिलते ही, वे सब व्यापार मोक्ष के अनुकूल अर्थात् धर्म-व्यापार हो जाते हैं। इसके विपरीत कितने ही सहकारी कारण क्यों न मिलें, पर अचरमपुद्गलपरावर्त्तकालीन व्यापार मोक्ष के अनुकूल नहीं होते। .
योग के उपाय और गुणस्थानों में योगावतार
पातञ्जलदर्शन में (१) अभ्यास और (२) वैराग्य, ये दो उपाय योग के बतलाये हुए हैं। उसमें वैराग्य भी पर-अपर-रूप से दो प्रकार का कहा गया है। योग का कारण होने से वैराग्य को योग मानकर जैनशास्त्र में अपर-वैराग्य को अतात्त्विक धर्मसंन्यास और परवैराग्य को तात्त्विक धर्मसंन्यास योग कहा है। जैनशास्त्र में योग का आरम्भ पूर्वसेवा से माना गया है। पूर्वसेवा से अध्यात्म, अध्यात्म से भावना, भावना से ध्यान तथा समता, ध्यान तथा समता से वृत्तिसंक्षय और वृत्तिसंक्षय से मोक्ष प्राप्त होता है। इसलिये वृत्तिसंक्षय ही मुख्य योग है और पूर्व सेवा से लेकर क्षमता पर्यन्त सभी धर्म-व्यापार साक्षात् किंवा परम्परा से योग के उपायमात्र हैं। अपुनर्बन्धक, जो मिथ्यात्व को त्यागने के लिये तत्पर
और सम्यक्त्व-प्राप्ति के अभिमुख होता है, उसको पूर्वसेवा तात्त्विकरूप से होती है और सकृद्वन्धक, द्विर्बन्धक आदि को पूर्वसेवा अतात्त्विक होती है। अध्यात्म
और भावना अपुनर्बन्धक तथा सम्यग्दृष्टि को व्यवहारनय से तात्त्विक और देशविरति तथा सर्व-विरति को निश्चयनय से तात्त्विक होता है। अप्रमत्त, सर्वविरति आदि गुणस्थानों में ध्यान तथा समता उत्तरोत्तर तात्त्विक रूप से होते हैं। वृत्तिसंक्षय १. देखिये, पाद, १, सूत्र १२, १५ और १६। २. विषयदोषदर्शनजनितमायात् धर्मसंन्यासलक्षणं प्रथमम्, स तत्त्वचिन्तया विषयौदासीन्येन
जनितं द्वितीयापूर्वकरणभावितात्त्विकधर्मसंन्यासलक्षणं द्वितयं वैराग्यं, यत्र क्षायोपशमिका धर्मा अपि क्षीयन्ते क्षायिकाश्चोत्पद्यन्त इत्यस्माकं सिद्धान्त:।'
-श्रीयशोविजयजी-कृत पातञ्जल-दर्शनवृत्ति, पाद १०, सूत्र १६। ३. पूर्वसेवा तु योगस्य, गुरुदेवादिपूजनम्।
सदाचारस्तपो मुक्त्यद्वेषश्चेति प्रकीर्तिताः।।१।। (पूर्वसेवाद्वात्रिंशिका) ४. उपायत्वेऽत्र पूर्वेषामन्त्य एवावशिष्यते।
तत्पश्चमगुणस्थानादुपायोऽर्वागिति स्थितिः।।३१॥ (योगभेदद्वात्रिंशिका)
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चौथा कर्मग्रन्थ
तेरहवें और चौदहवें गुणस्थान में होता है। सम्प्रज्ञातयोग अध्यात्म से लेकर ध्यान पर्यन्त चारों भेदस्वरूप है और असम्प्रज्ञातयोग वृत्तिसंक्षयरूप है। इसलिये चौथे से बारहवें गुणस्थान तक में सम्प्रज्ञातयोग और तेरहवें-चौदहवें गुणस्थान में असम्प्रज्ञातयोग समझना चाहिए। पूर्वसेवा आदि शब्दों की व्याख्या
(१) गुरु, देव आदि पूज्य वर्ग का पूजन, सदाचार, तप और मुक्ति के प्रति अद्वेष, यह 'पूर्वसेवा' कहलाती है। (२) उचित प्रवृत्ति रूप अणुव्रत-महाव्रतयुक्त होकर मैत्री आदि भावनापूर्वक शास्त्रानुसार तत्त्व-चिन्तन करना, 'अध्यात्म'३ है। (३) अध्यात्म का बुद्धिसंगत अधिकाधिक अभ्यास ही 'भावना' ४ है। (४) अन्य विषय के संचार से रहित जो किसी एक विषय का धारावाही प्रशस्त सूक्ष्मबोध हो, वह 'ध्यान'५ है। (५) अविद्या से कल्पित जो इष्ट-अनिष्ट वस्तुएँ हैं, उनमें विवेकपूर्वक तत्त्व-बुद्धि करना अर्थात् इष्टत्व-अनिष्टत्व की भावना छोड़कर उपेक्षा धारण करना 'समता'६ है। (६) मन और शरीर के संयोग से १. 'शुक्लपक्षेन्दुवत्प्रायो वर्धमानगुणः स्मृतः।
भवाभिनन्ददोषाणामपुनर्बन्धको व्यये।।१।। अस्यैव पूर्वसेवोक्ता मुख्याऽन्यस्योपचारतः। अस्यावस्थान्तरं मार्ग पतिताभिमुखौ पुनः।।२।।' -अपुनर्बन्धकद्वात्रिंशिका। अपुनर्बन्धकस्यायं व्यवहारेण तात्त्विक: अध्यात्मभावनारूपो निश्चयेनोत्तरस्य तु।।१४।। सकृदावर्तनादीनामतात्त्विक उदाहृतः। प्रत्यपायफलप्रायस्तथा वेषादिमात्रतः।।१५॥ शुद्ध्यपेक्षा यथायोगं चारित्रवत एव च।
हन्त ध्यानादिको योग स्तात्त्विकः प्रविजृम्भते।।१६।। -योगविवेकद्वात्रिंशिका। २. संप्रज्ञातोऽवतरति ध्यानभेदेऽत्र तत्त्वतः।
तात्त्विकी च समापत्तिात्मनो भाव्यतां विना।।१५॥ असम्प्रज्ञातनामा तु, संमतो वृत्तिसंक्षयः॥
सर्वतोऽस्मादकरणनियम: पापगोचरः॥२१॥ -योगावतारद्वात्रिंशिका। ३. औचित्याद्वतयुक्तस्य, वचनात्तत्त्वचिन्तनम्।।
मैत्र्यादिभावसंयुक्तमध्यात्म तद्विदो विदुः।।२।। -योगभेदद्वात्रिंशिका। ४. अभ्यासो वृद्धिमानस्य भावना बुद्धिसंगतः।
निवृत्तिरशुभाभ्यासाद्भाववृद्धिश्च तत्फलम्।।९।। -योगभेदद्वात्रिंशिका। ५. उपयोगे विजातीयप्रत्ययाव्यवधानभाक्।
शुभैकप्रत्ययो ध्यानं सूक्ष्माभोगसमन्विम्।।११।। -योगभेदद्वात्रिंशिका। ६. व्यवहारकुदृष्टयोच्चैः रिष्टानिष्टेषु वस्तुषु। कल्पितेषु विवेकेन तत्त्वधी: समतोच्यते।।२२।। -योगभेदद्वात्रिंशिका।
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उत्पन्न होनेवाली विकल्प रूप तथा चेष्टा रूप वृत्तियों का निर्मूल नाश करना 'वृत्तिसंक्षय'' है। उपाध्याय श्रीयशोविजयजी ने अपनी पातञ्जलसूत्रवृत्ति में वृत्तिसंक्षय शब्द की उक्त व्याख्या की अपेक्षा अधिक विस्तृत व्याख्या की है। उसमें वृत्ति का अर्थात् कर्मसंयोग की योग्यता का संक्षय-ह्रास, जो ग्रन्थिभेद से शुरू होकर चौदहवें गुणस्थान में समाप्त होता है, उसी को बृत्तिसंक्षय कहा है और शुक्लध्यान के पहले दो भेदों में सम्प्रज्ञात का तथा अन्तिम दो भेदों में असम्प्रज्ञात का समावेश किया है। योगजन्य विभूतियाँ
योग से होनेवाली ज्ञान, मनोबल, वचनबल, शरीरबल आदि से सम्बन्धित अनेक विभूतियों का वर्णन पातञ्जल-दर्शन में है। जैनशास्त्र में वैक्रियलब्धि, आहारकलब्धि, अवधिज्ञान, मन:पर्याय ज्ञान आदि सिद्धियाँ वर्णित हैं, ये योग के ही फल हैं।
बौद्ध दर्शन में भी आत्मा की संसार, मोक्ष आदि अवस्थाएँ मानी हुई हैं। इसलिये उसमें आध्यात्मिक क्रमिक विकास का वर्णन होना स्वाभाविक है। स्वरूपोन्मुख होने की स्थिति से लेकर स्वरूप की पराकाष्ठा प्राप्त कर लेने तक की स्थिति का वर्णन बौद्ध-ग्रन्थों में है, जो पाँच विभागों में विभाजित है। इनके नाम इस प्रकार हैं-(१) धर्मानुसारी, (२) स्रोतापन, (३) सकृदागामी, (४) अनागामी और (५) अरहा।
१. इनमें से 'धर्मानुसारी' या 'श्रद्धानुसारी' वह कहलाता है, जो निर्वाणमार्ग के अर्थात् मोक्षमार्ग के अभिमुख हो, पर उसे प्राप्त न हुआ हो। इसी को जैनशास्त्र में 'मार्गानुसारी' कहा है और उसके पैंतीस गुण बतलाये हैं। (२) मोक्षमार्ग को प्राप्त किये हुए आत्माओं के विकास की न्यूनाधिकता के कारण स्रोतापन्न आदि १. विकल्यस्पन्दरूपाणां, वृत्तीनामन्यजन्मनाम्।
अपुनर्भावतो रोध:, प्रोच्यते वृत्तिसंक्षयः।।२५॥' -योगभेदद्वात्रिंशिका। २. 'द्विविधोऽप्ययमध्यात्मभावनाध्यानसमतावृत्तिसंक्षयभेदेन पञ्चधोक्तस्य योगस्य
पञ्चमभेदेऽवतरति' इत्यादि। –पाद १, सू. १८। ३. देखिये, तीसरा विभूतिपाद। ४. देखिये, आवश्यकनियुक्ति, गा. ६९ और ७०। ५. देखिये, प्रो.सि. वि. राजवाड़े-सम्पादित मराठीभाषान्तरित मज्झिमनिकाय
सू. पे. सू. पे. सू. पे. सू. पे.
६ २ २२ १५ ३४ ४ ४८ १०॥ ६. देखिये, श्रीहेमचन्द्राचार्य-कृत योगशास्त्र, प्रकाश १।।
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चौथा कर्मग्रन्थ चार विभाग हैं। जो आत्मा अविनिपात, धर्मानियत और सम्बोधिपरायण हो, उसको 'स्रोतापन्न' कहते हैं। स्रोतापन आत्मा सातवें जन्म में अवश्य निर्वाण पाती है। (३) 'सकृदागामी' उसे कहते हैं, जो एक ही बार इस लोक में जन्म ग्रहण करके मोक्ष जानेवाला हो। (४) जो इस लोक में जन्म ग्रहण न करके ब्रह्मलोक से सीधे ही मोक्ष जाने वाला हो, वह 'अनागामी' कहलाता है। (५) जो सम्पूर्ण आस्रवों का क्षय करके कृतकार्य हो जाता है, उसे 'अरहा'' कहते हैं।
धर्मानुसारी आदि उक्त पाँच अवस्थाओं का वर्णन मज्झिमनिकाय में बहुत स्पष्ट किया हुआ है। उसमें वर्णन किया है कि तत्काल जात वत्स, कुछ बड़ा किन्तु वत्स, प्रौढ़ वत्स, हल में जोतने लायक बलवान बैल और पूर्ण वृषभ जिस प्रकार उत्तरोत्तर अल्प-अल्प श्रम से गङ्गा नदी के तिरछे प्रवाह को पार कर लेते हैं, वैसे ही धर्मानुसारी आदि उक्त पाँच प्रकार की आत्माएँ भी मार काम के वेग को उत्तरोत्तर अल्प श्रम से जीत सकती हैं।
बौद्धशास्त्र में दस संयोजनाएँ-बन्धन वर्णित हैं। इनमें से पाँच 'ओरंभागीय' और पाँच ‘उड्ढ़भागीय' कही जाती हैं। पहली तीन संयोजनाओं का क्षय हो जाने पर सोतापन्न अवस्था प्राप्त होती है। इसके बाद राग, द्वेष और मोह शिथिल होने से सकृदागामी-अवस्था प्राप्त होती है। पाँच ओरंभागीय संयोजनाओं का नाश हो जाने पर औपपत्तिक अनावृत्तिधर्मा किंवा अनागामी अवस्था प्राप्त होती है और दसों संयोजनाओं का नाश हो जाने पर अरहा पद मिलता है। यह वर्णन जैनशास्त्र-गत कर्मप्रकृतियों के क्षय के वर्णन जैसा है। स्रोतापन्न आदि उक्त चार अवस्थाओं का विचार चौथे से लेकर चौदहवें तक के गुणस्थानों के विचारों से मिलता-जुलता है अथवा यों कहिये कि उक्त चार अवस्थाएँ चतुर्थ आदि गुणस्थानों का. संक्षेपमात्र है।
जैसे जैनशास्त्र में लब्धि का तथा योगदर्शन में योगविभूति का वर्णन है, वैसे ही बौद्धशास्त्र में भी आध्यात्मिक-विकास-कालीन सिद्धियों का वर्णन है, जिनको उसमें 'अभिज्ञा' कहते हैं। ऐसी अभिज्ञाएँ छह हैं, जिनमें पाँच लौकिक और एक लोकोत्तर कही गयी हैं। १. देखिये, प्रो. राजवाड़े-संपादित मराठीभाषान्तरित दीघनिकाय, पृ. १७६ टिप्पणी। २. देखिये, पृ. १५६। ३. (१) सक्कायदिट्ठि, (२) विचिकच्छा, (३) सीलब्बत परामास, (४) कामराग, (५)
पटीघ, (६) रूपराग, (७) अरूपराग, (८) मान, (९) उद्धच्च और (१०) अविज्जा।
मराठीभाषान्तरित दीघनिकाय, पृ. १७५ टिप्पणी। ४. देखिये-मराठीभाषान्तरित मज्झिमनिकाय, पृ. १५६।
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प्रस्तावना
बौद्धशास्त्र में बोधिसत्त्व का जो लक्षण है, वही जैनशास्त्र के अनुसार सम्यग्दृष्टि का लक्षण है। जो सम्यग्दृष्टि होता है, वह यदि गृहस्थ के आरम्भसमारम्भ आदि कार्यों में प्रवृत्त होता है, तो भी उसकी वृत्ति तप्तलोहपदन्यासवत् अर्थात् गरम लोहे पर रक्खे जाने वाले पैर के समान सकम्प या पाप भीरु होती है। बौद्धशास्त्र में भी बोधिसत्त्व का वैसा ही स्वरूप मानकर उसे कायपाती अर्थात् शरीरमात्र से (चित्त से नहीं) सांसारिक प्रवृत्ति में पड़ने वाला कहा है। वह चित्त पाती नहीं होता।
इति । .
१. 'कायपातिन एवेह बोधिसत्त्वाः परोदितम् ।
न चित्तपातिनस्ताव देतदत्रापि युक्तिमत् ॥ २७१ ||' – योगबिन्दु |
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२. ' एवं च यत्परैरुक्तं बोधिसत्त्वस्य लक्षणम् ।
विचार्यमाणं सन्नीत्या तदप्यत्रोपपद्यते ॥१०॥ तप्तलोहपदन्यासतुल्यावृत्तिः क्वचिद्यदि ।
इत्युक्तेः कायपात्येव चित्तपाती न स स्मृतः || ११||' - सम्यग्दृष्टिद्वात्रिंशिका |
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चौथा कर्मग्रन्थ मूल
नमिय जिणं जिअमग्गण, गुणठाणुवओगजोगलेसाओ । बन्धप्पबहूभावे, संखिज्जाई किमवि वुच्छं । । १॥ इह सुहुमबायरेगिं, दिबितिचउअसंनिसंनिपंचिंदी । अपजत्ता पज्जत्ता, कमेण चउदस जियट्ठाणा । । २ । । बायरअसंनिविगले, अपज्जि पढमबिय संनि अपजत्ते । अजयजुअ संनि पज्जे, सव्वगुणा मिच्छ सेसेसु । । ३ । । अपजत्तछक्कि कम्मुर, लमीसजोगा अपज्जसंनीसु । ते सविउवमीस एसु, तणुपज्जेसु उरलमन्ने । । ४॥ सव्वे संनि पत्ते, उरलं सुहुमे सभासु तं चउसु । बायरि सविउव्विदुगं, पजसंनिसु बार उवओगा । । ५ । । पजचउरिंदिअसंनिसु, दुदंस दु अनाण दससु चक्खुविणा संनिअपज्जे मणना, - णचक्खुकेवलदुगविहुणा । । ६ । । संनिदुगे छलेस अप, ज्जबायरे पढम चउ ति सेसेसु । सत्तट्ठ बन्धुदीरण, संतुदया अट्ठ तेरससु । । ७ ।। सत्तट्ठछेगबंधा, संतुदया सत्तअट्ठचत्तारि । सत्तट्ठछपंचदुगं, उदीरणा संनिपज्जत्ते । । ८ । । गइदिए य काये, जोए वेए कसायनाणेसु । संजमदंसणलेसा, - भवसम्मे संनिआहारे । । ९।। मुरनरतिरिनिरयगई, इगबियतियचउपणिंदि छक्काया । श्रूजलजलणानिलवण, - तसा यमणवयणतणुजोगा । । १० ।। वेय नरित्थिनपुंसा, कसाय कोहमयमायलोभ त्ति । मइमुयवहि मणकेवल, विहंगमइसुअअनाण सागारा । । ११ । ।
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चौथा कर्मग्रन्थ
सामाइछेयपरिहा,-रसुहुमअहखायदेसजयअजया। चक्खुअचक्खूओही, केवलदसण अणागारा।।१२।। किण्हा नीला काऊ, तेऊ पम्हा य सुक्क भव्वियरा। वेयगखइगुवसममि,-च्छमीससासाणं संनियरे।।१३।। आहारेयर भेया, सुरनरयविभंगमइसुओहिदुगे। सम्मत्ततिगे पम्हा, सुक्कासन्नीसु सन्निदुर्ग।।१४।। तमसंनिअपज्जजुयं,-नरे सबायरअपज्ज तेऊए। थावर इगिदि पढमा, चउ बार असन्नि दुदु विगले।।१५।। दस चरम तसे अजया, हारगतिरितणुकसायदुअनाणे। पढमतिलेसाभवियर-अचक्खुनपुमिच्छिसव्वे वि।।१६।। पजसन्नी केवलदुग,-संजयमणनाणदेसमणमीसे। पण चरमपज्ज वयणे, तिय छ व पज्जियर चक्खंमि।।१७।। थीनरपणिदि चरमा, चउ अणहारे दु संनि छ अपज्जा। ते सुहुमअपज्ज विणा, सासणि इत्तो गुणे वुच्छं।।१८।। पण तिरि चउ सुरनरए, नरसंनिपणिंदिभव्वतसि सव्वे। इगविगलभूदगवणे, दु दु एगं गइतसअभव्वं।।१९।। वेयतिकसाय नव दस, लोभे चउ अजय दुति अनाणतिगे। वारस अचक्खु चक्खुसु, पढमा अहखाइ चरम चउ।।२०।। मणनाणि सग जयाई, समइयछेय चउ दुन्नि परिहारे। केवलदुगि दो चरमा,-जयाइ नव मइसुओहिदुगे।।२१।। अड उवसमि चउ वेयगि, खइए इक्कार मिच्छतिगि देसे। सुहुमे य सठाणं तेर,-स जोग आहार सुक्काए।।२२।। अस्सन्निसु पढमदुर्ग, पढमतिलेसासु छ च्च दुसु सत्त। पढमंतिमदुगअजया, अणहारे मग्गणासु गुणा।।२३।। सच्चेयरमीसअस,-च्चमोसमणवइविउव्वियाहारा। उरलं मीसा कम्मण, इय जोगा कम्ममणहारे।।२४।।
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चौथा कर्मग्रन्थ का मूल
नरगइपणिंदितसतणु,-अचक्खुनरनपुकसायसंमदुगे। संनिछलेसाहारग,- भवमइसुओहिदुगे सव्वे।।२५।। तिरिइत्थिअजयसासण,-अनाणउवसम अभव्वमिच्छे। तेराहारदुगूणा, ते उरलदुगूण सुरनरए।।२६।। कम्मुरलदुगं थावरि, ते सविउव्विदुग पंच इगि पवणे। छ असंनि चरमवइजुय, ते विउवदुगूण चउ विगले।।२७।। कम्मुरलमीसविणु मण,-वइसमइयछेयचक्खुमणनाणे। उरलदुगकम्मपढम,-तिममणवइ केवलदुगंमि।।२८।। मणवइउरला परिहा,-रि सुहुमि नव ते उ मीसि सविउव्वा। देसे सविउव्विदुगा, सकम्मुरलमीस अहखाए।।२९।। ति अनाण नाण पण चउ, दंसण बार जियञ्चक्खणुवओगा। विणु मणनाणदुकेवल, नव सुरतिरिनिरय अजएसु।।३०।। तसजोयवेयसुक्का, - हारनरपणिदिसंनिभवि सव्वे। नयणेयरपणलेसा,-कसाइ दस केवलदुगूणा।।३१।। चउरिंदिअसंनिदुअना,-णदंसण इगिबितिथावरि अचक्खु तिअनाण दंसणदुर्ग, -अनाणतिगअभवि मिच्छद्गे।।३२।। केवलदुगे नियदुर्ग, नव तिअनाण विणु खइय अहखाये। दंसणनाणतिगं दे,-सि मीसि अन्नाणमीसं तं।।३३।। मणनाणचक्खुवज्जा, अणहारि तिन्नि सण चउ नाणा। चउनाणसंजमोवस,-मवेयगे ओहिदंसे य।।३४।। दो तेर तेर बारस, मणे कमा अट्ट दु चउ चउ वयणे। चउ दु पण तिन्नि काये, जियगुणजोगोवओगन्ने।। ३५।। छसु लेसासु सठाणं, एगिदिअसंनिभूदगवणेसु। पढमा चउरो तिन्नि उ, नारयविगलग्गिपवणेसु।।३६।। अहखायसुहुमकेवल,-दुगि सुक्का छावि सेसठाणेसु। नरनिरयदेवतिरिया, थोवा दु असंखणंतगुणा।।३७।।
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चौथा कर्मग्रन्थ पणचउतिदुएगिंदी, थोवा तिन्निअहिया अणंतगुणा। तस थोव असंखग्गी, भूजलानिल अहिय वण णंता।। ३८।। मणवयणकायजोगा, थोवा अस्संखगुण अणंतगुणा। पुरिसा थोवा इत्थी, संखगुणाणंतगुण कीवा।।३९।। माणी कोही माई, लोही अहिय मणनाणिणो थोवा।
ओहि असंखा मइसुय, अहियसम असंख विन्भंगा।।४।। केवलिणो णंतगुणा, मइसुयअन्नाणि णंतगुण तुल्ला। सुहुमा थोवा परिहा-र संख अहखाय संखगुणा।।४१।। छेयसमईय संखा, देस असंखगुण णंतगुण अजया। थोवअसंखदुणंता, ओहिनयणकेवलअचक्खू।।४२।। पच्छाणुपुव्यि लेसा, थोवा दो संख णंत दो अहिया। अभवियर थोवणंता, सासण थोवोवसम संखा।।४३।। मीसा संखा वेयग, असंखगुण खइयमिच्छ दु अणंता। संनियर थोव णंता,-णहार थोवेयर असंखा।।४४।। सव्व जियठाण मिच्छे, सग सासणि पण अपज्ज सन्निदुगं। संमे सन्नी दुविहो, सेसेसुं संनिपज्जत्तो।।४५।। मिच्छदुगअजइ जोगा,-हारदुगुणा अपुव्वपणगे उ। मणवइ उरलंसविउ,-व्व मीसि सविउव्वद्ग देसे।।४६।। साहारदुग पमत्ते, ते विउवाहारमीस विणु इयरे। कम्मुरलदुगंताइम,-मणवयण सयोगि न अजोगी।।४७।। तिअनाणदुदंसाइम,-दुगे अजइ देसि नाणदंसतिगं। ते मीसि मीसा समणा, जयाइ केवलदु अंतद्गे।।४८।। सासणभावे नाणं, विउव्वगाहारगे उरलमिस्सं। नेगिंदिसु सासाणो, नेहाहिगयं सुयमयं पि।।४९।। छसु सव्वा तेउतिगं, इगि छसु सुक्का अयोगि अल्लेसा। बंधस्स मिच्छ अविरइ,-कसायजोगत्ति चउ हेऊ।।५०।।
For Privi
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चौथा कर्मग्रन्थ का मूल अभिगहियमणभिगहिया, भिनिवेसियसंसइयमणाभोगं पण मिच्छ बार अविरइ, मणकरणानियमु छजियवहो । । ५१ । । नव सोल कसाया पन, र जोग इय उत्तरा उ सगवन्ना । इगचउपणतिगुणेसु, - चउतिदुइगपच्चओ बंधो । । ५२ ।। चउमिच्छमिच्छअविरइ, - पच्चइया सायसोलपणतीसा । जोग विणु तिपच्चइया, - हारगजिणवज्जसेसाओ । । ५३ । पणपन पत्र तियछहि, अचत्त गुणचत्तछचउदुगवीसा । सोलस दस नव नव स, -त्त हेउणो न उ अजोगिंमि । । ५४ ।। पणपन्नमिच्छि हारग, - दुगूण सासाणि पन्नमिच्छ विणा । मिस्सदुगकंमअणविणु, तिचत्तमीसे अह छचत्ता । । ५५ । । सदुमिस्सकंम अजए, अविरइकम्मुरलमीसबिकसाये। मुत्तु गुणचत्त देसे, छवीस साहारदु पमत्ते । । ५६ । । अविरइइगारतिकसा, - यवज्ज अपमत्ति मीसदुगरहिया । चवीस अपुव्वे पुण, दुवीस अविडव्वियाहारा । । ५७ ।। अछहास सोल बायरि, सुहुमेदस वेयसंजलणति विणा । खीणुवसंति अलोभा, सजोगि पुव्वुत्त सगजोगा । । ५८ । । अपमत्तंता सत्त, ट्ठ मीसअप्पुव्वबायरा सत्त । बंधइ छस्सुमो ए - गमुवरिमा बंधगाऽजोगी । । ५९ ।। आसुमं संतुदये, अट्ठ वि मोह विणु सत्त खीणंमि । चउ चरिमदुगे चट्ट उ, मंते उवसंति सत्तुदए । । ६० ।। उइति पमत्तंता, सगट्ठ मीसट्ठ वेयआउ विणा । छग अपमत्ताइ तओ, छ पंच सुहुमो पणुवसंतो । । ६१ । । पण दो खीण दु जोगी, - णुदीरगुअजोगि थोव उवसंता । संखगुण खीण सुहुमा नियट्टिअप्पुव्व सम अहिया । । ६२ ।। जोगि अपमत्तइयरे, संखगुणा देससासणामीसा । अविरय अजोगिमिच्छा, असंख चउरो दुवे णंता । । ६३ । ।
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चौथा कर्मग्रन्थ
उवसमखयमीसोदय,-परिणामा दुनवट्ठारइगवीसा। तिय भेय संनिवाइय, संमं चरणं पढम भावे।।६४।। बीए केवलजुयलं, संमं दाणाइलद्धि पण चरणं। तइए सेसुवओगा, पण लद्धी सम्मविरइदुगं।।६५।।
अन्नाणमसिद्धत्ता,-संजमलेसाकसायगइवेया। मिच्छं तुरिए भव्वा,- भव्वत्तजियत्त परिणामे।।६६।। चउ चउगईसु मीसग,-परिणामुदएहिं चउ सखइएहिं। उवसमजुएहिं वा चउ, केवलि परिणामुदयखइए।।६७।। खयपरिणामे सिद्धा, नराण पणजोगुवसमसेढीए। इय पनर संनिवाइय,-भेया वीसं असंभविणो।।६८।। मोहेव समो मीसो, चउघाइसु अट्ठकम्मसु च सेसा। धम्माइ पारिणामिय,-भावे खंधा उदइए वि।।६९।। संमाइचउसु तिग चउ, भावा चउ पणुवसामगुवसंते। चउ खीणापुव्व तिन्नि, से सगुणट्ठाणगेगजिए।।७०।। संखिज्जेगमसंखं, परित्तजुत्तनियपयजुयं तिविहं। एवमणंतं पि तिहा, जहन्नमज्झुक्कमा सव्वे।।७१।। लहुसंखिज्जं दुच्चिए, अओ पर मज्झिमं तु जा गुरु। जंबूद्दीवपमाणय,-चउपल्लपरुवणाइ इम।।७२।। पल्लाणवट्टियसला,-ग पडिसलागामहासलागक्खा। जोयणसहसोगाढा, सवेइयंता मसिहभरिया।।७३।। ता दीवुदहिसु इक्कि,-क्कसरिसवं खिविय निट्ठिए पढमे। पढमं व तदन्तं चिय, पुण भरिए तंमि तह खीणे।।७४।। खिप्पइ सलागपल्ले,-गु सरिसवो इय सलागखवणेणं। पुन्नो बीयो य तओ, पुट्विं पि व तमि उद्धरिए।।७५।। खीणे सलाग तइए, एवं पढमेहिं बीययं भरसु। तेहिं तइयं तेहि य, तुरियं जा किर फुडा चउरो।।७६।।
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चौथा कर्मग्रन्थ का मूल पढ़मतिपल्लुद्धरिया, दीवुदही पल्लचउसरिसवा य । सव्वो वि एगरासी, रूवूणो परमसंखिज्जं । । ७७ ।। रूवजुयं तु परित्ता, संखं लहु अस्स रासि अब्भासे । जुत्तासंखिज्जं आवलियासमयपरिमाणं ।। ७८ ।। बितिचउपंचमगुणणे, कमा सगासंख पढमचउसत्ता । णंता ते रूवजुया, मज्झा रूवूण गुरु पच्छा।। ७९ ।। इय सुत्तुत्तं अन्ने, वग्गियमिक्कसि चडत्थयमसंखं । होइ असंखासंखं, लहु रूवजुयं तु तं मज्झं । । ८० ॥ रूवणमाइमं गुरु, तिव ग्गिउं तं इमे दस क्खेवे । लोगाकासपएसा, धम्माधम्मेगजियदेसा । । ८१ ॥ ठिइबंधज्झवसाया, अणुभागा जोगछेयपलिभागा। दुह य समाण समया, पत्तेयनिगोयए खिवसु । । ८२ ।। पुणरवि तंमि तिवग्गिय, परित्तणंत लहु तस्स रासीणं । अब्भासे लहु जुत्ता, णंतं अभव्वजियपमाणं ।। ८३ । । तव्वग्गे पुण जायइ, णेताणंत लहु तं च तिक्खुत्तो । वग्गसु तह विनंतंहो, -इ णंत खेवे खिवसु छ इमे ।। ८४ ।। सिद्धा निगोयजीवा, वणस्सई कालपुग्गला चेव । सव्वमलोगनहं पुण, तिवग्गिउं केवलदुगंमि । । ८५ । । खित्ते णंताणंतं, हवेइ जिट्टं तु ववहरइ मज्झं । इय सुहुमत्थवियारो, लिहिओ देविंदसूरीहिं । । ८६ ।।
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श्रीवीतरागाय नमः। श्रीदेवेन्द्रसूरि-विरचित 'षडशीतिक' नामक
चौथा कर्मग्रन्थ
मंगल और विषय नमिय जिणं जिअमग्गण,-गुणठाणुवओगजोगलेसाओ। बंधप्पबहूभावे, संखिज्जाई किमवि वुच्छं।।१।।
नत्वा जिनं जीवमार्गणागुणस्थानोपयोगयोगलेश्याः।
बन्याल्पबहुत्वभावान् संख्येयादीन् किमपि वक्ष्ये।।१।।
अर्थ-श्रीजिनेश्वर भगवान् को नमस्कार करके जीवस्थान, मार्गणास्थान, गुणस्थान, उपयोग, योग, लेश्या, बन्ध, अल्पबहुत्व, भाव और संख्या आदि विषयों को मैं संक्षेप से कहूँगा।।१।।
भावार्थ-इस गाथा में चौदह विषय संगृहीत हैं, जिनका विचार अनेक रीति से इस कर्मग्रन्थ में किया हुआ है। इनमें से जीवस्थान आदि दस विषयों का कथन तो गाथा में स्पष्ट ही किया गया है और उदय, उदीरणा, सत्ता, और बन्धहेतु, ये चार विषय 'बन्ध' शब्द से सूचित किये गये हैं।
इस ग्रन्थ के तीन विभाग हैं?—(१) जीवस्थान, (२) मार्गणास्थान, और (३) गुणस्थान। पहले विभाग में जीवस्थान को लेकर आठ विषय का विचार १. इन विषयों की संग्रह-गाथायें ये हैं
'नभिय जिणं वत्तव्या, चउदसजिअठाणएस गुणठाणा। जोगुवओगो लेसा, बंधुदओदीरणा सत्ता।।१।। तह मूलचउदमग्गण,-ठाणेसु बासहि उसरेसुं च। जिअगुणजोगुवओगा, लेसप्पबहुं च छट्ठाणा।।२।। चउदसगुणेस जिअजो,-गुवओगलेसा व बंधहेऊ या बंधाइचउअप्या,-बहं च तो भावसंखाई।।३।।'
ये गाथायें श्रीजीवविजयजी-कृत और श्रीजयसोमसूरि-कृत टबे में हैं। इनके स्थान में पाठान्तर वाली निम्नलिखित तीन गाथायें प्राचीन चतुर्थ कर्मग्रन्थ हारिभद्री टीका,
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चौथा कर्मग्रन्थ
किया गया है; यथा-(१) गुणस्थान, (२) योग, (३) उपयोग, (४) लेश्या, (५) बन्ध, (६) उदय, (७) उदीरणा और (८) सत्ता। दूसरे विभाग में मार्गणास्थान पर छ: विषयों की विवेचना की गई है—(१) जीवस्थान, (२) गुणस्थान, (३) योग, (४) उपयोग, (५) लेश्या और (६) अल्पबहुत्व। तीसरे विभाग में गुणस्थान को लेकर बारह विषयों का वर्णन किया गया है(१) जीवस्थान, (२) योग, (३) उपयोग, (४) लेश्या, (५) बन्धहेतु, (६) बन्ध, (७) उदय, (८) उदीरणा, (९) सत्ता, (१०) अल्पबहुत्व, (११) भाव और (१२) संख्यात आदि संख्या।
__ जीवस्थान आदि विषयों की व्याख्या
(१) जीवों के सूक्ष्म, बादर आदि प्रकारों (भेदों) को 'जीवस्थान'१ कहते हैं। द्रव्य और भाव प्राणों को जो धारण करता है, वह 'जीव' है। पाँच इन्द्रियाँ, तीन बल, श्वासोछ्वास और आयु, ये दस द्रव्यप्राण हैं, क्योंकि वे जड़ और
श्रीदेवेन्द्रसूरि-कृत स्वोपज्ञ टीका श्रीजयसोमसूरि-कृत टब्बे में भी हैं
'चउदसजियठाणेस.चउदसगुणठाणगाणि जोगा य। उवयोगलेसबंधुद,-ओदीरणसंत अट्ठपए।।१।। चउदसमग्गणठाणे-सुमूलपएस बिसट्ठि इयरेसु। जियगुणजोगुवओगा, लेसप्पबहुंध छट्ठाणा।।२।। चउदसगुणठाणेसं. जियजोगुवओगलेसबन्या य।
बंधुदयुदीरणाओ, संतप्पबहुं च दस ठाणा।।३॥' १. जीवस्थान के अर्थ में 'जीवसमास' शब्द का प्रयोग भी दिगम्बरीय साहित्य में मिलता है। इसकी व्याख्या उसमें इस प्रकार है
'जेहिं अणेया जीवा, णज्जंते बहुविदा वि तज्जादी। ते पुण संगहिदत्था, जीवसमासा ति विण्णेया।।७।। तसचदुजुगाणमझे, अविरुद्धेहिं जुदजादिकम्मुदये। जीवसमासा होति छ, तन्मवसारिच्छसामण्णा।।७१।।' -जीवकाण्ड।
जिन धर्मों के द्वारा जीव तथा उनकी अनेक जातियों का बोध होता है, वे 'जीवसमास' कहलाते हैं।।७०॥ तथा त्रस, बादर, पर्याप्त और प्रत्येक युगलों से अविरुद्ध नामकर्म (जैसे सूक्ष्म से अविरुद्ध स्थावर) के उदय से युक्त जाति नामकर्म का उदय होने पर जो ऊर्ध्वतासामान्य, जीवों में होती है, वह 'जीवसमास' कहलाता है।।७१॥ ____ कालक्रम से अनेक अवस्थाओं के होने पर भी एक ही वस्तु का जो पूर्वापर सादृश्य देखा जाता है, वह 'ऊर्ध्वतासामान्य है। इससे उलटा एक समय में ही अनेक वस्तुओं की जो परस्पर समानता देखी जाती है, वह 'तिर्यक्सामान्य' है।
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मंगल और विषय
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कर्म-जन्य हैं। ज्ञान, दर्शन आदि पर्याय, जो जीव के गुणों के ही कार्य हैं, वे भावप्राण हैं। जीव की यह व्याख्या संसारी अवस्था को लेकर की गई है, क्योंकि जीवस्थानों में संसारी जीवों का ही समावेश है; अतएव वह मुक्त जीवों में लागू नहीं हो सकती। मुक्त जीव में निश्चयदृष्टि से की हुई व्याख्या घटती है; जैसेजिसमें चेतना गुण है, वह 'जीव' इत्यादि है । '
(२) मार्गणा के अर्थात् गुणस्थान, योग, उपयोग आदि की विचारणा के स्थानों (विषयों) को 'मार्गणास्थान' कहते हैं। जीव के गति, इन्द्रिय आदि अनेक प्रकार के पर्याय ही ऐसे स्थान हैं, इसलिये वे मार्गणास्थान कहलाते हैं ।
(३) ज्ञान, दर्शन, चारित्र आदि गुणों की शुद्धि तथा अशुद्धि के तरतमभाव से होनेवाले जीव के भिन्न-भिन्न स्वरूपों को गुणस्थान कहते हैं।
जीवस्थान, मार्गणास्थान और गुणस्थान, ये सब जीव की अवस्थायें हैं, तो भी इनमें अन्तर यह है कि जीवस्थान, जाति- नामकर्म, पर्याप्त - नामकर्म और अपर्याप्त-नामकर्म के औदयिक भाव हैं, मार्गणास्थान, नाम, मोहनीय, ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय और वेदनीयकर्म के औदयिक आदि भावरूप तथा पारिणामिक भावरूप हैं और गुणस्थान, सिर्फ मोहनीयकर्म के औदयिक, क्षायोपशमिक, औपशमिक और क्षायिक भावरूप तथा योग के भावाभावरूप हैं।
१. 'तिक्काले चदु पाणा, इंदियबलमाउआणपाणो य ।
ववहारा सो जीवो, णिच्छयणयदो दु चेदणा चस्स । । ३ । । ' २. इस बात को गोम्मटसार - जीवकाण्ड में भी कहा है
'जाहि व जासु व जीवा, मग्गिज्जंते जहा तहा दिट्ठा । ताओ चोदस जाणे, सुयणाणे मग्गणा होति । । १४० ।। '
जिन पदार्थों के द्वारा अथवा जिन पर्यायों में जीवों की विचारणा, सर्वज्ञ की दृष्टि के अनुसार की जाये, वे पर्याय 'मार्गणास्थान' हैं।
गोम्मटसार में 'विस्तार', 'आदेश' और 'विशेष', ये तीन शब्द मार्गणास्थान के नामान्तर पाये गये हैं— जीव, गा. ३।
३. इसकी व्याख्या गोम्मटसार - जीवकाण्ड में इस प्रकार है
'जेहिं दु लक्खिज्जंते, उदयादिसु संभवेहिं भावेहिं । जीवा ते गुणसण्णा, णिद्दिट्ठा सव्वदरसीहिं । । ८ । । '
दर्शनमोहनीय तथा चारित्रमोहनीय के औदायिक आदि जिन भावों (पर्यायों) के द्वारा जीव का बोध होता है, वह भाव 'गुणस्थान' है। गोम्मटसार में 'संक्षेप', 'ओव', 'सामान्य' और 'जीवसमास', ये चार शब्द गुणस्थान के समानार्थक हैं। (जीव, गा. ३ तथा १० )
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चौथा कर्मग्रन्थ
(४) चेतना - शक्ति का बोधरूप व्यापार, जो जीव का असाधारण स्वरूप है और जिसके द्वारा वस्तु का सामान्य तथा विशेष स्वरूप जाना जाता है, उसे 'उपयोग' कहते हैं।
१२
(५) मन, वचन या काय के द्वारा होनेवाला वीर्य-शक्ति का परिस्पन्दआत्मा के प्रदेशों में हलचल (कम्पन) — 'योग' है।
(६) आत्मा का सहजरूप स्फटिक के समान निर्मल है। उसके भिन्न-भिन्न परिणाम जो कृष्ण, नील आदि अनेक रंगवाले पुद्गलविशेष के असर से होते हैं, उन्हें 'लेश्या'' कहते हैं ३ ।
(७) आत्मा के प्रदेशों के साथ कर्म- पुद्गलों का जो दूध-पानी के समान सम्बन्ध होता है, वही 'बन्ध' कहलाता है । बन्ध, मिथ्यात्व आदि हेतुओं से होता है।
(८) बँधे हुए कर्म - दलिकों का विपाकानुभव (फलोदय) 'उदय' कहलाता है। कभी तो विपाकानुभव, अबाधाकाल पूर्ण होने पर होता है और कभी नियत अबाधाकाल पूर्ण होने के पहले ही अपवर्तना' आदि करण से होता है।
(९) जिन कर्म - दलिकों का उदयकाल न आया हो, उन्हें प्रयत्न विशेष से खींचकर -बन्धकालीन स्थिति से हटाकर - उदयावलिका में दाखिल करना 'उदीरणा' कहलाती है।
(१०) बन्धन' या संक्रमण करण से जो कर्म - 1 १. गोम्मटसार - जीवकाण्ड में यही व्याख्या है।
'वत्थुनिमित्तं भावो, जादो जीवस्स जो दु उवजोगो ।
सो दुविहो णायव्वो, सायारो चेव णायारो ।। ६७१ ।। ' २. देखिये, परिशिष्ट 'क' ।
३. 'कृष्णादिद्रव्यसाचिव्यात्परिणामोऽयमात्मनः ।
स्फटिकस्येव तत्राऽयं, लेश्याशब्दः प्रवर्तते । । '
यह एक प्राचीन श्लोक है। जिसे श्रीहरिभद्रसूरि ने आवश्यक टीका पृ. ६४५ / १ पर प्रमाण रूप से लिया है।
- पुद्गल, जिस कर्मरूप
४. बँधा हुआ कर्म जितने काल तक उदय में नहीं आता, वह 'अबाधाकाल' है।
५. कर्म की पूर्व- बद्ध स्थिति और रस, जिस वीर्य शक्ति से घट जाती हैं, उसे 'अपवर्तनाकरण' कहते हैं।
६. जिस वीर्य - विशेष से कर्म का बन्ध होता है, वह 'बन्धनकरण' कहलाता है।
७. जिस वीर्य - विशेष से एक कर्म का अन्य सजातीय कर्मरूप में संक्रम होता है, वह
'संक्रमणकरण' है।
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मंगल और विषय
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में परिणत हये हों, उनका, निर्जरा' या संक्रमर से रूपान्तर न होकर उस स्वरूप में बना रहना ‘सत्ता'३ है।
(११) मिथ्यात्व आदि जिन वैभाविक परिणामों से कर्म-योग्य पुद्गल, कर्म-रूप में परिणत हो जाते हैं, उन परिणामों को ‘बन्धहेतु' कहते हैं।"
(१२) पदार्थों के परस्पर न्यूनाधिक भाव को 'अल्पबहुत्व' कहते हैं।
(१३) जीव और अजीव की स्वाभाविक या वैभाविक अवस्था को 'भाव' कहते हैं।
(१४) संख्यात, असंख्यात और अनन्त, ये तीनों पारिभाषिक संज्ञायें हैं।
विषयों के क्रम का अभिप्राय __ सबसे पहले जीवस्थान का निर्देश इसलिये किया है कि वह सबमें मुख्य है, क्योंकि मार्गणास्थान आदि अन्य सब विषयों का विचार जीव को लेकर ही किया जाता है। इसके बाद मार्गणास्थान के निर्देश करने का मतलब यह है कि जीव के व्यावहारिक या पारमार्थिक स्वरूप का बोध किसी न किसी गति आदि पर्याय के (मार्गणास्थान के) द्वारा ही किया जा सकता है। मार्गणास्थान के पश्चात् गुणस्थान के निर्देश करने का मतलब यह है कि जो जीव मार्गणास्थानवर्ती हैं,
१. कर्म पुद्गलों का आत्म-प्रदेशों से अलग होना 'निर्जरा' है। २. एक कर्म-रूप में स्थित प्रकृति, स्थिति, अनुभाग और प्रदेश का अन्य सजातीय
कर्मरूप में बदल जाना 'संक्रम' है। ३. बन्ध, उदय, उदीरणा और सत्ता ये ही लक्षण यथाक्रम से प्राचीन चतुर्थ कर्मग्रन्थ के माध्य में इस प्रकार है_ 'जीवस्य पुग्गलाण य, जुग्गाण परुप्परं अभेएणं। मिच्छाइहेउविहिया, जा घडणा इत्थ सो बन्यो।।३०।। करणेण सहावेण व, णिइवचए तेसिमुदयपत्ताणं। जं वेयणं विवागे,-ण सो उ उदओ जिणाभिहिओ।।३१।। कम्माणूणं जाए, करणविसेसेण ठिइवचयभावे। जं उदयावलियाए; पवेसणमुदीरणा सेह।।२।। बंधणसंकमलद्ध,-तलाहकम्मस्सरूवअविणासो।
निज्जरणसंकमेहि, सन्मावो जो य सा सत्ता।।३३।। ४. आत्मा के कर्मोदय-जन्य परिणाम 'वैभाविक परिणाम हैं। जैसे:-क्रोध आदि। ५. देखिये, आगे गाथा ५१-५२। ५. देखिये, आगे गा. ७३ से आगे।
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१४
चौथा कर्मग्रन्थ वे किसी-न-किसी गुणस्थान में वर्तमान होते ही हैं। गुणस्थान के बाद उपयोग के निर्देश का तात्पर्य यह है कि जो उपयोगवान हैं, उन्हीं में गुणस्थानों का सम्भव है; उपयोग-शून्य आकाश आदि में नहीं। उपयोग के अनन्तर योग के कथन का आशय यह है कि उपयोग वाले बिना योग के कर्म-ग्रहण नहीं कर सकते जैसे-सिद्ध। योग के पीछे लेश्या का कथन इस अभिप्राय से किया है कि योग द्वारा ग्रहण किये गये कर्म-पुद्गलों में भी स्थितिबन्ध व अनुभागबन्ध का निर्माण लेश्या ही से होता है। लेश्या के पश्चात् बन्ध के निर्देश का मतलब यह है कि जो जीव लेश्या-सहित हैं, वे ही कर्म बाँध सकते हैं। बन्ध के बाद अल्पबहुत्व का कथन करने से ग्रन्थकार का तात्पर्य यह है कि बन्ध करनेवाले जीव, मार्गणास्थान आदि में वर्तमान होते हुए आपस में अवश्य न्यूनाधिक हुआ करते हैं। अल्पबहुत्व के अनन्तर भाव के कहने का मतलब यह है कि जो जीव अल्पबहुत्व वाले हैं, उनमें औपशमिक आदि किसी-न-किसी भाव का होना पाया ही जाता है। भाव के बाद संख्यात आदि के कहने का तात्पर्य यह है कि भाववाले जीवों का एक-दूसरे से जो अल्पबहत्व है, उसका वर्णन संख्यात, असंख्यात आदि संख्या के द्वारा ही किया जा सकता है।
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जीवस्थान- अधिकार
(१) जीवस्थान - अधिकार जीवस्थान
इह
सुहुमबायरेगिं, - दिवितिचउअसंनिसानपंचिदी । अपजत्ता पज्जता, पज्जता, कमेण चउदस जियट्ठाणा १ ।। २ ।।
इह
सूक्ष्मबादरैकेन्द्रियद्वित्रिचतुरसंज्ञिसंज्ञिपञ्चेन्द्रियाः ।
अपर्याप्ताः पर्याप्ताः क्रमेण चतुर्दश जीवस्थानानि । । २ । । अर्थ - इस लोक में सूक्ष्म एकेन्द्रिय, बादर एकेन्द्रिय, द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय, असंक्षिपञ्चेन्द्रिय और संक्षिपञ्चेन्द्रिय, ये सातों भेद अपर्याप्तरूप से दो-दो प्रकार के हैं, इसलिये जीव के कुल स्थान (भेद ) चौदह होते हैं || २ ॥
1
१५
भावार्थ-यहाँ पर जीव के चौदह भेद दिखाये हैं, सो संसारी अवस्था को लेकर। जीवत्व रूप सामान्य धर्म की अपेक्षा से समानता होने पर भी व्यक्ति की अपेक्षा से जीव अनन्त हैं, इनकी कर्म- जन्य अवस्थायें भी अनन्त हैं, इससे व्यक्तिशः ज्ञान-सम्पादन करना छद्मस्थ के लिये सहज नहीं। इसलिये विशेषदर्शी शास्त्रकारों ने सूक्ष्म ऐकेन्द्रियत्व आदि जाति की अपेक्षा से इनके चौदह वर्ग किये हैं, जिनमें सभी संसारी जीवों का समावेश हो जाता है।
सूक्ष्म एकेन्द्रिय जीव वे हैं, जिन्हें सूक्ष्म नामकर्म का उदय हो। ऐसे जीव सम्पूर्ण लोक में व्याप्त हैं। इनका शरीर इतना सूक्ष्म होता है कि संख्यातीत इकट्ठे हों तब भी इन्हें आँखें देख नहीं सकतीः अतएव इनको व्यवहार के अयोग्य कहा है।
बादर एकेन्द्रिय जीव वे हैं, जिनको बादर नामकर्म का उदय हो। ये जीव, लोक के किसी-किसी भाग में नहीं भी होते; जैसे, अचित्त-सोने, चाँदी आदि वस्तुओं में। यद्यपि पृथिवी - कायिक आदि बादर एकेन्द्रिय जीव ऐसे हैं, जिनके अलग-अलग शरीर, आखों से नहीं दीखते; तथापि इनका शारीरिक परिणमन ऐसा बादर होता है कि जिससे वे समुदायरूप में दिखाई देते हैं। इसी से इन्हें
९. वही गाथा प्राचीन चतुर्थ कर्मग्रन्थ में ज्यों की त्यों है।
२. ये भेद, पञ्चसं ग्रह द्वार २, गा. ८२ में है।
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१६
चौथा कर्मग्रन्थ
व्यवहार-योग्य कहा है। सूक्ष्म या बादर सभी एकेन्द्रियों के इन्द्रिय, केवल त्वचा होती है। ऐसे, जीव पृथिवीकायिक आदि पाँच प्रकार के स्थावर ही हैं।
द्वीन्द्रिय वे हैं, जिनके त्वचा, जीभ, ये दो इन्द्रियाँ हों; ऐसे जीव शङ्ख, सीप, कृमि आदि हैं।
त्रीन्द्रियों के त्वचा, जीभ, नासिका, ये तीन इन्द्रियाँ हैं; ऐसे जीव , खटमल आदि हैं।
चतुरिन्द्रियों के उक्त तीन और आँख, ये चार इन्द्रियाँ हैं। भौरे, बिच्छू आदि की गिनती चतुरिन्द्रियों में होती है।
पञ्चेन्द्रियों को उक्त चार इन्द्रियों के अतिरिक्त कान भी होता है। मनुष्य, पशु, पक्षी आदि पञ्चेन्द्रिय हैं। पञ्चेन्द्रिय दो प्रकार के हैं—(१) असंज्ञी और (२) संज्ञी। असंज्ञी वे हैं, जिन्हें संज्ञा न हो। संज्ञी वे हैं, जिन्हें संज्ञा हो। इस जगह संज्ञा का मतलब उस मानस शक्ति से है, जिससे किसी पदार्थ के स्वभाव का पूर्वापर विचार व अनुसन्धान किया जा सके।
द्वीन्द्रिय से लेकर पञ्चेन्द्रिय पर्यन्त सब तरह के जीव बादर तथा त्रस (चलने-फिरने-वाले) ही होते हैं।
एकेन्द्रिय से लेकर पञ्चेन्द्रिय पर्यन्त उक्त सब प्रकार के जीव अपर्याप्त,१ पर्याप्त इस तरह दो-दो प्रकार के होते हैं। (क) अपर्याप्त वे हैं, जिन्हें अपर्याप्त नामकर्म का उदय हो। (ख) पर्याप्त वे हैं, जिनको पर्याप्त नामकर्म का उदय हो।।२।।
जीवस्थानों में गुणस्थान बायरअसंनिविगले, अपज्जि पढमविय संनि अपजत्ते। अजयजुअ संनि पज्जे, सव्वगुणा मिच्छ सेसेसु।।३।।
बादरासंज्ञिविकले पर्याप्ते प्रथमद्विकं संज्ञिन्यपर्याप्ते।
अयतयुतं संज्ञिनि पर्याप्ते, सर्वगुणा मिथ्यात्वं शेषेषु।।३।।
अर्थ-अपर्याप्त बादर एकेन्द्रिय, अपर्याप्त असंज्ञिपञ्चेन्द्रिय और अपर्याप्त विकलेन्द्रिय में पहला दूसरा दो ही गुणस्थान पाये जाते हैं। अपर्याप्त संज्ञिपञ्चेन्द्रिय
१. देखिये, परिशिष्ट 'ख'। २. देखिये, परिशिष्ट 'ग'। १. देखिये, परिशिष्ट 'घ'।
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जीवस्थान-अधिकार
में पहला, दूसरा और चौथा, ये तीन गुणस्थान हो सकते हैं। पर्याप्त संज्ञिपञ्चेन्द्रिय में सब गुणस्थानों का सम्भव है। शेष सात जीवस्थानों में-अपर्याप्त तथा पर्याप्त सूक्ष्म एकेन्द्रिय, पर्याप्त बादर एकेन्द्रिय, पर्याप्त असंज्ञिपञ्चेन्द्रिय और पर्याप्त विकलेन्द्रिय त्रय में पहला ही गुणस्थान होता है।।३।।
भावार्थ-बादर एकेन्द्रिय, असंज्ञिपञ्चेन्द्रिय और तीन विकलेन्द्रिय, इन पाँच अपर्याप्त जीवस्थानों में दो गुणस्थान कहे गये हैं; पर इस विषय में यह जानना चाहिये कि दूसरा गुणस्थान करण-अपर्याप्त में होता है, लब्धि-अपर्याप्त में नहीं; क्योंकि सास्वादनसम्यग्दृष्टिवाला जीव, लब्धि-अपर्याप्त रूप से पैदा होता ही नहीं। इसलिये करण अपर्याप्त बादर एकेन्द्रिय आदि उक्त पाँच जीवस्थानों में दो गुणस्थान और लब्धि-अपर्याप्त बादर एकेन्द्रिय आदि पाँचों में पहला ही गुणस्थान समझना चाहिये।
बादर एकेन्द्रिय में दो गुणस्थान कहे गये हैं सो भी सब बादर एकेन्द्रियों में नहीं; किन्तु पृथिवीकायिक, जलकायिक और वनस्पतिकायिक में। क्योंकि तेज:कायिक और वायुकायिक जीव, चाहे वे बादर हों, पर उनमें ऐसे परिणाम का सम्भव नहीं जिससे सास्वादन सम्यक्-युक्त जीव उनमें पैदा हो सके। इसलिये सूक्ष्म के समान बादर तेज-कायिक-वायुकायिक में पहला ही गुणस्थान समझना चाहिये।
इस जगह एकेन्द्रियों में दो गुणस्थान पाये जाने का कथन है, सो कर्मग्रन्थ के मतानुसार; क्योंकि सिद्धान्तो में एकेन्द्रियों को पहला ही गुणस्थान माना गया है।
अपर्याप्त संज्ञि-पञ्चेन्द्रिय में तीन गुणस्थान कहे गये हैं, सो इस अपेक्षा से कि जब कोई जीव चतुर्थ गणस्थान-सहित मर कर संज्ञिपञ्चेन्द्रियरूप से पैदा होता है तब उसे अपर्याप्त अवस्था में चौथे गुणस्थान का सम्भव है। इस प्रकार जो जीव सम्यक्त्व का त्याग करता हुआ सास्वादन भाव में वर्तमान होकर संज्ञिपञ्चेन्द्रिय रूप से पैदा होता है, उसमें शरीर पर्याप्ति पूर्ण न होने तक दूसरे गुणस्थान का सम्भव है और अन्य सब संज्ञि-पञ्चेन्द्रिय जीवों को अपर्याप्त अवस्था में पहला गुणस्थान होता ही है। अपर्याप्त संज्ञि-पञ्चेन्द्रिय में तीन १. देखिये ४९ वाँ गाथा की टिप्पणी। २. गोम्मटसार में तेरहवें गुणस्थान के समय केवलिसमुद्धात-अवस्था में योग की अपूर्णाता
के कारण अपर्याप्तता मानी हुई है, तथा छठे गुणस्थान के समय भी आहारकमिश्रकाय योग-दशा में व्याहारकशरीर पूर्ण न बन जाने तक अपर्याप्तता मानी हुई है। इसलिये गोम्मटसार (जीव. गा. ११५-११६) में निर्वृत्वपर्याप्त और (श्वेताम्बरसम्प्रदाय-प्रसिद्ध
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चौथा कर्मग्रन्थ गुणस्थानों का सम्भव दिखाया, सो करण-अपर्याप्त में; क्योंकि लब्धि अपर्याप्त में तो पहले के अतिरिक्त किसी गुणस्थान की योग्यता ही नहीं होती।
पर्याप्ति संज्ञि-पञ्चेन्द्रिय में सब गुणस्थान माने जाते हैं। इसका कारण यह है कि गर्भज मनुष्य, जिसमें सब प्रकार के शुभाशुभ तथा शुद्धाशुद्ध परिणामों की योग्यता होने से चौदहों गुणस्थान पाये जा सकते हैं, वे संज्ञि-पञ्चेन्द्रिय ही हैं।
यह शंका हो सकती है कि संज्ञि-पञ्चेन्द्रिय में पहले बारह गुणस्थान होते हैं, पर तेरहवाँ-चौदहवाँ, ये दो गुणस्थान नहीं होते। क्योंकि इन दो, गुणस्थानों के समय संज्ञित्व का अभाव हो जाता है। उस समय क्षायिक ज्ञान होने के कारण क्षायोपशमिक ज्ञानात्मक संज्ञा, जिसे 'भावमन' भी कहते हैं, नहीं होती। इस शङ्का का समाधान इतना ही है कि संज्ञि-पञ्चेन्द्रिय में तेरहवें-चौदहवें गुणस्थान का जो कथन है सो द्रव्यमन के सम्बन्ध से संज्ञित्व का व्यवहार अङ्गीकार करके; क्योंकि भावमन के सम्बन्ध से जो संज्ञी हैं, उनमें बारह ही गुणस्थान होते हैं।
करण-अपर्याप्त) संज्ञि-पञ्चेन्द्रिय में पहला, दूसरा चौथा, छठा और तेरहवाँ ये पाँच गुणस्थान कहे गये हैं। इस कर्मग्रन्थ में करण-अपर्याप्त संज्ञि पञ्चेन्द्रिय में तीन गुणस्थानों का कथन है, सो उत्पत्ति कालीन अपर्याप्त-अवस्था को लेकर। गोम्मटसार में पाँच गुणस्थानों का कथन है, सो उत्पत्तिकालीन, लब्धिकालीन उभय अपर्याप्त-अवस्था को लेकर। इस तरह ये दोनों कथन अपेक्षाकृत होने से आपस में विरुद्ध नहीं हैं। लब्धिकालीन अपर्याप्त-अवस्था को लेकर संज्ञी में गुणस्थान का विचार करना हो तो पाँचवाँ गुणस्थान भी गिनना चाहिये, क्योंकि उस गुणस्थान में वैक्रियलब्धि से वैक्रियशरीर रचे जाने के समय अपर्याप्त-अवस्था पायी जाती है। यही बात सप्ततिकाचूर्णि के निम्नलिखित पाठ से स्पष्ट होती है। 'मणकरणं केवलिणो वि अत्थि, तेन संनिणो भन्नति, मनोविन्नाणं पडुच्च ते संनिणो न भवंति ति।' केवली को भी द्रव्यमन होता है, इससे वे संज्ञी कहे जाते हैं, परन्तु मनोज्ञान की अपेक्षा से वे संज्ञी नहीं हैं। केवली-अवस्था में द्रव्यमन के सम्बन्ध से संज्ञित्व का व्यवहार 'गोम्मटसारजीवकाण्ड' में भी माना गया है। यथा
'मणसहियाणं वयणं, दिटुं तप्पुव्वमिदि सजोगम्हि। उत्तो मणोवयारे,-णिंदियणाणेण हीणम्हि।। २२७।। अंगोवंगुदयादो, दव्वमणटुं जिणिंदचंदम्हि।
मणवग्गणखंधाणं, आगमणादो दुमणजोगो।। २२८।। सयोगी केवली गुणस्थान में न होने पर भी वचन होने के कारण उपचार से मन माना जाता है, उपचार का कारण यह है कि पहले के गुणस्थान में मनवालों को वचन देखा जाता है।।२२७॥
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जीवस्थान-अधिकार
अपर्याप्त तथा पर्याप्त सूक्ष्म एकेन्द्रिय आदि उपर्युक्त शेष सात जीवस्थानों में परिणाम ऐसे संक्लिष्ट होते हैं कि जिससे उनमें मिथ्यात्व के अतिरिक्त अन्य किसी गुणस्थान का सम्भव नहीं है।।३॥
(२) जीवस्थानों में योग'
(दो गाथाओं से) अपजत्तछक्कि कम्मुर, लमीसजोगा अपज्जसंनीसु। ते सविउव्वमीस एसु तणु पज्जेसु उरलमन्ने।।४।।
अपर्याप्तषट्के कार्मणौदारिकमिश्रयोगावपर्याप्तसंज्ञिषु। तो सर्वक्रियमिश्रावेषु तनुपर्याप्तेष्वौदारिकमन्ये।।४।।
अर्थ-अपर्याप्त सूक्ष्म एकेन्द्रिय, अपर्याप्त बादर एकेन्द्रिय, अपर्याप्त विकलत्रिक और औदारिकमिश्र, ये दो ही योग होते हैं। अपर्याप्त संज्ञि-पञ्चेन्द्रिय में कार्मण, औदारिकमिश्र और वैक्रियमिश्र, ये तीन योग पाये जाते हैं। अन्य आचार्य ऐसा मानते हैं कि 'उक्त सातों प्रकार के अपर्याप्त जीव, जब शरीरपर्याप्ति पूरी कर लेते हैं, तब उन्हें औदारिक काययोग ही होता है, औदारिकमिश्र नहीं|४||
भावार्थ-सूक्ष्म एकेन्द्रिय आदि उपर्युक्त छ: अपर्याप्त जीवस्थानों में कार्मण और औदारिकमिश्र दो ही योग माने गये हैं; इसका कारण यह है कि सब प्रकार के जीवों को अन्तराल गति में तथा जन्म-ग्रहण करने के प्रथम समय में कार्मणयोग ही होता है; क्योंकि उस समय औदारिक आदि स्थूल शरीर का अभाव होने के कारण योगप्रवृत्ति केवल कार्मणशरीर से होती है। परन्तु उत्पत्ति के दूसरे समय से लेकर स्वयोग्य पर्याप्तियों के पूर्ण बन जाने तक मिश्रयोग होता है; क्योंकि उस उवस्था में कार्मण और औदारिक आदि स्थूल शरीर की मदद से योगप्रवृत्ति होती है। सूक्ष्म एकेन्द्रिय आदि छहों जीवस्थान औदारिक शरीर वाले ही हैं, इसलिये उनको अपर्याप्त अवस्था में कार्मण काययोग के बाद
जिनेश्वर को भी द्रव्यमन के लिये अङ्गोपाङ्ग नामकर्म के उदय से मनोवर्गणा के स्कन्धों
का आगमन हुआ करता है, इसलिये उन्हें मनोयोग कहा है।।२२८।। १. यह विषय, पञ्चसं द्वा. १, गा. ६-७ में है।
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चौथा कर्मग्रन्थ
औदारिकमिश्र काययोग ही होता है। उक्त छह जीवस्थान अपर्याप्त कहे गये हैं। सो लब्धि तथा करण, दोनों प्रकार से अपर्याप्त समझने चाहिये ।
२०
अपर्याप्त संज्ञि-पञ्चेन्द्रिय में मनुष्य, तिर्यञ्च देव और नारक - सभी सम्मिलित हैं, इसलिये उसमें कार्मण काययोग और कार्मण काययोग के बाद मनुष्य और तिर्यञ्च की अपेक्षा से औदारिकमिश्र काययोग तथा देव और नारक की अपेक्षा से वैक्रियमिश्र काययोग, कुल तीन योग माने गये हैं।
गाथा में जिस मतान्तर का उल्लेख है, वह शीलाङ्क आदि आचार्यों का है । उनका अभिप्राय यह है कि 'शरीरपर्याप्ति पूर्ण बन जाने से शरीर पूर्ण बन जाता है। इसलिये अन्य पर्याप्तियों की पूर्णता न होने पर भी जब शरीर पर्याप्ति पूर्ण बन जाती है तभी से मिश्रयोग नहीं रहता; किन्तु औदारिक शरीरवालों को औदारिक काययोग और वैक्रिय शरीरवालों को वैक्रिय काययोग ही होता है।' इस मतान्तर के अनुसार सूक्ष्म एकेन्द्रिय आदि छः अपर्याप्त जीवस्थानों में कार्मण, औदारिकमिश्र और औदारिक, ये तीन योग और अपर्याप्त संज्ञि - पञ्चेन्द्रिय में उक्त तीन तथा वैक्रियमिश्र और वैक्रिय, कुल पाँच योग समझने चाहिये ।
उक्त मतान्तर के सम्बन्ध में टीका में लिखा है कि यह मत युक्तिहीन है; क्योंकि केवल शरीरपर्याप्ति बन जाने से शरीर पूरा नहीं बनता; किन्तु उसकी पूर्णता के लिये स्वयोग्य सभी पर्याप्तियों का पूर्ण बन जाना आवश्यक है। इसलिये शरीरपर्याप्ति के बाद भी अपर्याप्त अवस्था पर्यन्त मिश्रयोग मानना युक्त है ॥ ४ ॥ सव्वे संनिपजत्ते, उरलं सुहुमे सभासु तं चउसु । बायरि सविउव्विदुगं, पजसंनिसु बार
उवओगा । । ५ । ।
सभाषे तच्चतुर्षु ।
सर्वे संज्ञिनि पर्याप्त औदारिकं सूक्ष्मे बादरे सवैक्रियद्विकं पर्याप्तसंज्ञिषु द्वादशोपयोगाः । । ५ । । अर्थ - पर्याप्त संज्ञी में सब योग पाये जाते हैं। पर्याप्त सूक्ष्म एकेन्द्रिय में औदारिक काययोग ही होता है। पर्याप्तविकलेन्द्रिय-त्रिक और पर्याप्त असंज्ञि
,
१. जैसे— 'औदारिकयोगस्तिर्यग्मनुजयोः शरीरपर्याप्तेरूर्ध्वे तदारतस्तु मिश्रः । ' - आचाराङ्ग-अध्य. २, उद्दे. १ की टीका पृ. ९४।
यद्यपि मतान्तर के उल्लेख में गाथा में 'उरलं' पद ही है, तथापि वह वैक्रियकाययोग का उपलक्षक (सूचक) है। इसलिये वैक्रियशरीरी देव नारकों को शरीरपर्याप्ति पूर्ण बन जाने के बाद अपर्याप्त दशा में वैक्रियकाययोग समझना चाहिये । इस मतान्तर को एक प्राचीन गाथा के आधार पर श्रीमलयगिरिजी ने पञ्चसंग्रह द्वा. १, गा. ६-७ की वृत्ति में विस्तारपूर्वक दिखाया है।
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जीवस्थान-अधिकार
पञ्चेन्द्रिय, इन चार जीवस्थानों में औदारिक और असत्यामृषावचन, ये दो योग होते हैं। पर्याप्त बादर-एकेन्द्रिय में औदारिक, वैक्रिय तथा वैक्रियमिश्र, ये तीन काययोग होते हैं। (जीवस्थानों में उपयोग:-) पर्याप्त संज्ञि-पञ्चेन्द्रिय में सब उपयोग होते हैं।।५।।
भावार्थ-पर्याप्तसंज्ञि-पञ्चेन्द्रिय में छहों पर्याप्तियाँ होती हैं, इसलिये उसकी योग्यता विशिष्ट प्रकार की है। अतएव उसमें चारों वचनयोग, चारों मनोयोग और सातों काययोग होते हैं।
यद्यपि कार्मण, औदारिकमिश्र और वैक्रियमिश्र, ये तीन अपर्याप्त-अवस्थाभावी हैं, तथापि वे संज्ञि-पञ्चेन्द्रियों में पर्याप्त-अवस्था में भी पाये जाते हैं। कार्मण तथा औदारिकमिश्र काययोग पर्याप्त अवस्था में तब होते हैं, जब कि केवली भगवान् केवलि-समुद्घात रचते हैं। केवलि-समुद्घात की स्थिति आठ समयप्रमाण मानी हुई है, इसके तीसरे, चौथे और पाँचवें समय में कार्मणकाययोग और दूसरे छठे तथा सातवे समय में औदारिक मिश्र काययोग होता है। वैक्रियमिश्र काययोग, पर्याप्त-अवस्था में तब होता है, जब कोई वैक्रिय लब्धिधारी मुनि आदि वैक्रियशरीर को बनाते हैं। ____ आहारक काययोग तथा आहारक मिश्रकाययोग के अधिकारी, चतुर्दशपूर्वक मुनि हैं। उन्हें आहारकशरीर बनाने व त्यागने के समय आहारकमिश्र काययोग
और उस शरीर को धारण करने के समय आहारक काययोग होता है। औदारिक काययोग के अधिकारी, सभी पर्याप्त मनुष्य-तिर्यञ्च और वैक्रिय काययोग के अधिकारी, सभी पर्याप्त देव-नारक हैं।
सूक्ष्म-एकेन्द्रिय को पर्याप्त-अवस्था में औदारिक काययोग ही माना गया है। इसका कारण यह है कि उसमें जैसे मन तथा वचन की लब्धि नहीं है, वैसे ही वैक्रिय आदि लब्धि भी नहीं है। इसलिये वैक्रिय काययोग आदि उसमें सम्भव नहीं है।
१. यह बात भगवान् उमास्वाति ने कही है
'औदारिकप्रयोक्ता, प्रथमाष्टमसमययोरसाविष्टः। मिश्रौदारिकयोक्ता, सप्तमषष्ठद्वितीयेषु। कार्मणशरीरयोगी, चतुर्थके पञ्चमे तृतीये च। समयत्रयेऽपि तस्मिन्, भवत्यनाहार को नियमात्।। २७६।।
-प्रशमरति अधि. २०।
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२२
चौथा कर्मग्रन्थ
द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय और असंज्ञि-पञ्चेन्द्रिय, इन चार जीवस्थानों में पर्याप्त-अवस्था में व्यवहारभाषा-असत्यामृषाभाषा होती है; क्योंकि उन्हें मुख होता है। काययोग, उनमें औदारिक ही होता है। इसी से उनमें दो ही योग कहे गये हैं। ___बादर-एकेन्द्रिय को–पाँच स्थावर को, पर्याप्त-अवस्था में औदारिक, वैक्रिय और वैक्रियमिश्र, ये तीन योग माने हुये हैं। इनमें से औदारिक काययोग तो सब तरह के एकेन्द्रियों को पर्याप्त-अवस्था में होता है, पर वैक्रिय तथा वैक्रियमिश्र काययोग के विषय में यह बात नहीं है। ये दो योग, केवल बादरवायुकाय में होते हैं, क्योंकि बादरवायुकायिक जीवों को वैक्रियलब्धि होती है। इससे वे जब वैक्रियशरीर बनाते हैं, तब उन्हें वैक्रियमिश्र काययोग और वैक्रियशरीर पूर्ण बन जाने के बाद वैक्रियकाययोग समझना चाहिये। उनका वैक्रियशरीर ध्वजाकार माना गया है।
१. 'आधं तिर्यग्मनुष्याणां, देवनारकयोः परम्।
केषांचिल्लब्धिमद्वायु,-संज्ञितिर्यग्नृणामपि।।१४४।।' -लोकप्रकाश सर्ग ३। 'पहला (औदारिक) शरीर, तिर्यञ्चों और मनुष्यों को होता है; दूसरा (वैक्रिय) शरीर देवों, नारकों, लब्धिवाले वायुकायिकों और लब्धिवाले संज्ञी तिर्यञ्च-मनुष्यों को होता है।' वायुकायिक को लब्धिजन्य वैक्रियशरीर होता है, यह बात, तत्त्वार्थ मूल तथा उसके भाष्य में स्पष्ट नहीं है, किन्तु इसका उल्लेख भाष्य की टीका में है'वायोश्च वैक्रियं लब्धिप्रत्ययमेव' इत्यादि। -तत्त्वार्थ-अ. २, स. ४८ की भाष्य वृत्ति। दिगम्बरीय साहित्य में कुछ विशेषता है। उसमें वायुकायिक के समान तेज:कायिक को भी वैक्रियशरीर का स्वामी कहा है। तद्यपि सर्वार्थसिद्धि में तेज:कायिक तथा वायुकायिक के वैक्रियशरीर के सम्बन्ध में कोई उल्लेख देखने में नहीं आया, पर राजवार्तिक में है'वैक्रियिकं देवनारकाणां, तेजोवायुकायिकपञ्चेन्द्रियतिर्यग्मनुष्याणां च केषांचित्।'
(तत्त्वार्थ-अ. २, सू. ४९, राजवार्तिक ८) यही बात गोम्मटसार-जीवकाण्ड में भी है
'बादरतेऊबाऊ, पंचिदियपुण्णगा विगुव्वंति।
. ओरालियं सरीरं, विगुव्वणप्पं हवे जेसिं।। २३२।।' २. यह मन्तव्य श्वेताम्बर-दिगम्बर दोनों सम्प्रदायों में समान है
'मरुतां तद्ध्वजाकार, वैधानामपि भूरुहाम्। स्युः शरीराण्यनियत, संस्थानानीति तद्विदः।। २५४।।
___-लो.प्र., सं. ५। 'मसुरंबुबिंदिसूई, कलावधयसण्णिहो हवे देहो। पुढवी आदि चउण्हं, तरुतसकाया अणेयविहा।।२०।।'
-जीवकाण्ड।
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जीवस्थान-अधिकार
(३) जीवस्थानों में उपयोग। पर्याप्त संज्ञि-पञ्चेन्द्रिय में सभी उपयोग पाये जाते हैं; क्योंकि गर्भज-मनुष्य, जिनमें सब प्रकार के उपयोगों का सम्भव है, वे संज्ञिपञ्चेन्द्रिय हैं। उपयोग बारह हैं, जिनमें पाँच ज्ञान और तीन अज्ञान, ये आठ साकार (विशेषरूप) हैं और चार दर्शन, ये निराकार (सामान्य रूप) हैं। इनमें से केवलज्ञान और केवलदर्शन की स्थिति समयमात्र की और शेष छाद्मस्थिक दस उपयोगों की स्थिति अन्तर्मुहूर्त की मानी हुई है।
सभी उपयोग क्रमभावी हैं, इसलिये एक जीव में एक समय में कोई भी दो उपयोग नहीं होते।।५।।
पजचउरिंदिअसंनिसु, दुदंस दु अनाण दससु चक्खुविणा । संनिअपज्जे मणना,-णचक्खुकेवलदुगविहुणा ।।६।।
१. यह विचार, पञ्च सं. द्वा. १, गा. ८ में है। २. • छाद्यस्थिक उपयोगों की अन्तर्मुहूर्त-प्रमाण स्थिति के सम्बन्ध में तत्त्वार्थ-टीका में नीचे लिखे उल्लेख मिलते हैं'उपयोगास्थितिकालोऽन्तर्मुहूर्तपरिमाणः प्रकर्षाद्भवति।।
-अ. २, सू. ८ की टीका। 'उपयोगतोऽन्तर्मुहूर्तमेव जघन्योत्कृष्टाभ्याम्'।
-अ. २, सू. ९ की टीका 'उपयोगतस्तु तस्याप्यन्तर्मुहूर्तमवस्थानम्'।
-अ. २, सू. ९ की टीका। यह बात गोम्मटसारमें भी उल्लिखित है:
'मदिसुदओहिमणेहिं य, सगसगविसये विसेसविण्णाणं। अंतोमुत्तकालो, उपजोगो सो दु सायारो।।६।। इंदियमणोहिणा वा, अत्थे अविसेसि दूण जं गहणं। अंतोमुत्तकालो, उवजोगो सो अणायारो।।६७४।।'
-जीवकाण्ड। क्षायिक उपयोग की एक समय-प्रमाण स्थिति, 'अन्ने एगंतरियं इच्छंत सुओवएसेणं।' इस कथन से सिद्धान्त-सम्मत है। विशेष खुलासे के लिये नन्दी सू. २२, मलयगिरिवृत्ति पृ. १३४, तथा विशेष. आ. गा ३१०१ की वृत्ति देखनी चाहिये। लोकप्रकाश के तीसरे सर्ग में भी यही कहा है:_ 'एकस्मिन् समये ज्ञानं, दर्शनं चापरक्षणे।
सर्वज्ञस्योपयोगी दौ, समयान्तरितौ सदा।।९७३।।' ३. देखिये, परिशिष्ट 'च।
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२४
चौथा कर्मग्रन्थ पर्याप्तचतुरिन्द्रियासंज्ञिनोः, द्विदर्शद्व्यज्ञानं दशसु चक्षुर्विना।
संज्ञिन्यपर्याप्ते मनोज्ञानचक्षुः केवलद्विकविहीनाः।।६।।
अर्थ-पर्याप्त चतुरिन्द्रिय तथा पर्याप्त असंज्ञि-पञ्चेन्द्रिय में चक्षु-अचक्षु दो दर्शनं और मति-श्रुत दो अज्ञान, कुल चार उपयोग होते हैं। सूक्ष्म-एकेन्द्रिय, बादर-एकेन्द्रिय, द्वीन्द्रिय और त्रीन्द्रिय, ये चारों पर्याप्त तथा अपर्याप्त और अपर्याप्त चतुरिन्द्रिय तथा अपर्याप्त असंज्ञि-पञ्चेन्द्रिय, इन दस प्रकार के जीवों में मति-अज्ञान, श्रुत-अज्ञान और अचक्षुर्दर्शन, ये तीन उपयोग होते हैं। अपर्याप्त संज्ञि-पञ्चेन्द्रियों में मनःपर्ययज्ञान, चक्षुदर्शन, केवलज्ञान, केवलदर्शन, इन चार को छोड़ शेष आठ (मतिज्ञान, श्रुतज्ञान, अवधि दर्शन, मति-अज्ञान, श्रुतअज्ञान, विभङ्गज्ञान और अचक्षुदर्शन) उपयोग होते हैं।।६।।
भावार्थ-पर्याप्त चतुरिन्द्रिय और पर्याप्त असंज्ञि-पञ्चेन्द्रिय में चतुर्दर्शन आदि उपर्युक्त चार ही उपयोग होते हैं, क्योंकि आवरण की घनिष्ठता और पहला ही गुणस्थान होने के कारण, उनमें चक्षुर्दर्शन और अचक्षुर्दर्शन के अतिरिक्त अन्य सामान्य उपयोग तथा मति-अज्ञान, श्रृत-अज्ञान के अतिरिक्त अन्य विशेष उपयोग नहीं होते।
सूक्ष्म-एकेन्द्रिय' आदि उपर्युक्त दस प्रकार के जीवों में तीन उपयोग कहे गये हैं, सो कार्मग्रन्थिक मत के अनुसार, सैद्धान्तिक मत के अनुसार नहीं।
१. देखिये, परिशिष्ट 'छ'। २. इसका खुलासा यों है:
___ यद्यपि बादर एकेन्द्रिय, द्वीन्द्रिय, चतुरिन्दिय और असंज्ञि-पञ्चेन्द्रिय, इन पाँच प्रकार के अपर्याप्त जीवों में कार्मग्रन्थिक विद्वान् पहला और दूसरा, ये दो गुणस्थान मानते हैं। देखिये, आगे गा. ४५वीं। तथापि वे दूसरे गुणस्थानक समय मति आदि को, ज्ञानरूप न मानकर अज्ञानरूपा ही मान लेते हैं। देखिये, आगे गा. २१वीं। इसलिये, उनके मतानुसार पर्याप्त-अपर्याप्त सूक्ष्म-एकेन्द्रिय, पर्याप्त बादर-एकेन्द्रिय, पर्याप्त द्वीन्द्रिय और पर्याप्त त्रीन्द्रिय, इन पहले गुणस्थान-वाले पाँच जीवस्थानों के समान, बादर एकेन्द्रिय आदि उक्त पाँच प्रकार के अपर्याप्त जीवस्थानों में भी, जिनमें दो गुणस्थानों का सम्भव है, अचक्षुर्दर्शन, मति-अज्ञान और श्रुत-अज्ञान, ये तीन उपयोग ही माने जाते हैं।
परन्तु सैद्धान्तिक विद्वानों का मन्तव्य कुछ भिन्न है। वे कहते हैं कि किसी प्रकार के एकेन्द्रिय मे–चाहे पर्याप्त हो या अपर्याप्त, सूक्ष्म हो या बादर- पहले के सिवाय अन्य गुणस्थान होता हो नहीं। देखिये, गा. ४९वीं। पर द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय
और असंज्ञि-पश्चेन्द्रिय, इन चार अपर्याप्त जीवस्थानों में पहला और दूसरा, ये दो गुणस्थान होते हैं। साथ ही सैद्धान्तिक विद्वान्, दूसरे गुणस्थान के समय मति आदि
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जीवस्थान-अधिकार
संज्ञि-पञ्चेन्द्रिय के अपर्याप्त-अवस्था में आठ उपयोग माने गये हैं। अत: इस प्रकार- तीर्थङ्कर तथा सम्यक्त्वी देव-नारक आदि को उत्पत्ति-क्षण से ही तीन ज्ञान और दो दर्शन होते हैं तथा मिथ्यात्वी देव-नारक आदि को जन्मसमय से ही तीन अज्ञान और दो दर्शन होते हैं। मनःपर्यय आदि चार उपयोग न होने का कारण यह है कि मनःपर्ययज्ञान, संयमवालों को हो सकता है, परन्तु अपर्याप्त अवस्था में संयम सम्भव नहीं है; तथा चक्षुर्दर्शन, चक्षुरिन्द्रिय के व्यापार की अपेक्षा रखता है, जो अपर्याप्त-अवस्था में नहीं होता। इसी प्रकार केवलज्ञान और केवलदर्शन, ये दो उपयोग कर्मक्षय-जन्य हैं, किन्तु अपर्याप्त-अवस्था में कर्म-क्षय का सम्भव नहीं है। संज्ञि-पञ्चेन्द्रिय के अपर्याप्त अवस्था में आठ उपयोग कहे गये, वह करण-अपर्याप्त की अपेक्षा से; क्योंकि लब्धि-अपर्याप्त में मतिअज्ञान, श्रुत-अज्ञान और अचक्षुर्दर्शन के अतिरिक्त अन्य उपयोग नहीं होते। ___इस गाथा में अपर्याप्त चतुरिन्द्रिय, अपर्याप्त असंज्ञि-पञ्चेन्द्रिय और अपर्याप्त संज्ञि-पञ्चेन्द्रिय में जो-जो उपयोग बतलाये गये हैं, उनमें चक्षुदर्शन परिगणित नहीं है, सो मतान्तर से; क्योंकि पञ्चसङ्ग्रहकार के मत से उक्त तीनों जीवस्थानों में, अपर्याप्त-अवस्था में भी इन्द्रियपर्याप्ति पूर्ण होने के बाद चक्षुर्दर्शन होता है। दोनों मत के तात्पर्य को समझने के लिये गा. १७वीं का नोट देखना चाहिये।।६।।
को अज्ञान रूप न मानकर ज्ञान रूप ही मानते हैं। देखिए, गा. ४९वीं। अतएव उनके मतानुसार द्वीन्द्रिय आदि उक्त चार अपर्याप्त-जीवस्थानों में अचक्षुदर्शन, मति-अज्ञान, मतिज्ञान और श्रुतज्ञान, ये पाँच उपयोग और सूक्ष्म एकेन्द्रिय आदि उपर्युक्त दस जीवस्थानों में से द्वीन्द्रिय आदि उक्त चार के सिवाय शेष छह जीवस्थानों में
अचक्षुर्दर्शन, मति-अज्ञान, श्रुत-अज्ञान, ये तीन उपयोग समझने चाहिये। १. इसका उल्लेख श्रीमलयगिरिसूरि ने इस प्रकार किया है
'अपर्याप्तकाछह लब्ब्यपर्याप्तका वेदितव्याः, अन्यथा करणापर्याप्तकेषु चतुरिन्द्रियादिष्विन्द्रियपर्याप्तौ सत्यां चक्षुर्दर्शनमपि प्राप्यते मूलटीकायामाचार्येणाभ्यनुज्ञानात्।' (पञ्च सं. द्वार १, गा. ८ की टीका)
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चौथा कर्मग्रन्थ (४-८) जीवस्थानों में लेश्या-बन्ध आदि।
(दो गाथाओं से) संनिदुगे छलेस अप,-ज्जबायरे पढम चउ ति सेसेसु। सत्तठ्ठ बन्धुदीरण, संतुदया अट्ठ तेरससु।।७।।
संज्ञिद्विके षड्लेश्या अपर्याप्तबादरे प्रथमाश्चतस्रस्तिस्रः शेषेषु।
सप्ताष्टबन्योदीरणे, सदुदयावष्टानां त्रयोदशसु।।७।। अर्थ-संज्ञि-द्विक में-अपर्याप्त तथा पर्याप्त संज्ञि-पञ्चेन्द्रिय में छहों लेश्यायें होती हैं। अपर्याप्त बादर-एकेन्द्रिय में कृष्ण आदि पहली चार लेश्यायें पायी जाती हैं। शेष ग्यारह जीवस्थानों में अपर्याप्त तथा पर्याप्त सूक्ष्मएकेन्द्रिय, पर्याप्त बादर-एकेन्द्रिय, अपर्याप्त-पर्याप्त द्वीन्द्रिय, अपर्याप्त-पर्याप्त त्रीन्द्रिय, अपर्याप्त-पर्याप्त चतुरिन्द्रिय, और अपर्याप्त-पर्याप्त असंज्ञि-पञ्चेन्द्रियों में कृष्ण, नील और कापोत, ये तीन लेश्यायें होती हैं।
पर्याप्त संज्ञी के अतिरिक्त तेरह जीवस्थानों में बन्ध, सात या आठ कर्म का होता है तथा उदीरणा भी सात या आठ कर्मों की होती है, परन्तु सत्ता तथा उदय आठ-आठ कर्मों के ही होते हैं।।७॥
भावार्थ-अपर्याप्त तथा पर्याप्त दोनों प्रकार के संज्ञी, छ: लेश्याओं के स्वामी माने जाते हैं, इसका कारण यह है कि उनमें शुभ-अशुभ सब तरह के परिणामों का सम्भव है। अपर्याप्त संज्ञि-पञ्चेन्द्रिय का मतलब करणापर्याप्त से है; क्योंकि उसी में छः लेश्याओं का सम्भव है। लब्धि-अपर्याप्त तो सिर्फ तीन लेश्याओं के अधिकारी हैं।
__ कृष्ण आदि तीन लेश्यायें, सब एकेन्द्रियों के लिये साधारण हैं; किन्तु अपर्याप्त बादर-एकेन्द्रिय में इतनी विशेषता है कि उसमें तेजोलेश्या भी पायी जाती है; क्योंकि तेजोलेश्या वाले ज्योतिषी आदि देव, जब उसी लेश्या में मरते हैं और बादर पृथिवीकाय, जलकाय या वनस्पतिकाय में जन्म लेते हैं, तब उन्हें अपर्याप्त-अवस्था में तेजोलेश्या होती है। यह नियम ही है कि जिस लेश्या में मरण हो, जन्म लेते समय वही लेश्या होती है।
१. इसका उल्लेख इस प्रकार मिलता है
'जल्लेसे मरह, तल्लेसे उववज्जई। इति।
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जीवस्थान-अधिकार
२७
अपर्याप्त तथा पर्याप्त सूक्ष्म एकेन्द्रिय आदि उपर्युक्त ग्यारह जीवस्थानों में तीन लेश्यायें कही गई हैं। इसका कारण यह है कि वे सब जीवस्थान, अशुभ परिणामवाले ही होते हैं; इसलिये उनमें शुभ परिणामरूप पिछली तीन लेश्यायें नहीं होती।
इस जगह जीवस्थानों में बन्ध, उदीरणा, सत्ता और उदय का जो विचार किया गया है, वह मूल प्रकृतियों को लेकर। प्रत्येक जीवस्थान में किसी एक समय में मूल आठ प्रकृतियों में से कितनी प्रकृतियों का बन्ध, कितनी प्रकृतियों की उदीरणा, कितनी प्रकृतियों की सत्ता और कितनी प्रकृतियों का उदय पाया जा सकता है, उसी को दिखाया है। १. बन्य
पर्याप्त संज्ञी के अतिरिक्त सब प्रकार के जीव, प्रत्येक समय में आयु को छोड़कर सात कर्म-प्रकृतियों को बाँधते रहते हैं। आठ कर्म-प्रकृतियों को वे तभी बाँधते हैं, जब कि आयु का बन्ध करते हैं, आयु का बन्ध एक भव में एक ही बार, जघन्य या उत्कृष्ट अन्तर्मुहूर्त तक ही होता है। आयुकर्म के लिये यह नियम है कि वर्तमान आयु का तीसरा, नौवाँ या सत्ताईसवाँ आदि बाकी रहने पर ही परभव के आयु का बन्ध होता है।
इस नियम के अनुसार यदि बन्ध न हो तो अन्त में जब वर्तमान आयु, अन्तर्मुहूर्त-प्रमाण बाकी रहता है, तब अगले भव की आयु का बन्ध अवश्य होता है। २. उदीरणा
उपर्युक्त तेरह प्रकार के जीवस्थानों में प्रत्येक समय में आठ कर्मों की उदीरणा हुआ करती है। सात कर्मों की उदीरणा, आयु की उदीरणा न होने के समय-जीवन की अन्तिम आवलिका में पायी जाती है; क्योंकि उस समय, आवलिकामात्र स्थिति शेष रहने के कारण वर्तमान (उदयमान) आयु की, और अधिक स्थिति होने पर भी उदयमान न होने के कारण अगले भव की आयु की उदीरणा नहीं होती। शास्त्र में उदीरणा का यह नियम बतलाया है कि जो
१. उक्त नियम सोपक्रम (अपवर्त्य घट सकनेवाली) आयुवाले जीवों को लागू पड़ता
है, निरूपक्रम आयुवालों को नहीं। वे यदि देव-नारक या असंख्यातवर्षीय मनुष्यतिर्यञ्च हों तो छह महीने आयु बाकी रहने पर ही परभव की आयु बाँधते हैं।
-वृहत्संग्रहणी, गा. ३२१-३२३, तथा पञ्चम कर्मग्रन्थ, गा. ३४।
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२८
चौथा कर्मग्रन्थ
कर्म, उदय प्राप्त है, उसकी उदीरणा होती है, दूसरे की नहीं। और उदय प्राप्त कर्म भी आवलिकामात्र शेष रह जाता है, तब से उसकी उदीरणा रुक जाती है।
उक्त तेरह जीवस्थानों में जो अपर्याप्त जीवस्थान हैं, वे सभी लब्धि अपर्याप्त समझने चाहिये; क्योंकि उन्हीं में सात या आठ कर्म की उदीरणा घट सकती है। वे अपर्याप्त अवस्था ही में मर जाते हैं, इसलिये उनमें आवलिकामात्र आयु बाकी रहने पर सात कर्म की और इसके पहले आठ कर्म की उदीरणा होती है। परन्तु करणापर्याप्तों के अपर्याप्त अवस्था में मरने का नियम नहीं है । वे यदि लब्धिपर्याप्त हुये तो पर्याप्त अवस्था ही में मरते हैं। इसलिये उनमें अपर्याप्त-अवस्था में आवलिकामात्र आयु शेष रहने का और सात कर्म की उदीरणा का संभव नहीं है।
३-४ सत्ता और उदय
आठ कर्मों की सत्ता ग्यारहवें गुणस्थान तक होती है और आठ कर्म का उदय दसवें गुणस्थान तक बना रहता है; परन्तु पर्याप्त संज्ञी के अतिरिक्त सब प्रकार के जीवों में अधिक से अधिक पहला, दूसरा और चौथा, इन तीन गुणस्थानों का संभव है; इसलिये उक्त तेरह प्रकार के जीवों में सत्ता और उदय आठ कर्मों को माना गया है ||७||
सत्तट्ठछेगबंधा,
संतुदया
सत्तट्ठछपंचदुगं, उदीरणा
सप्ताष्टषडेकबन्धा,
सदुदयौ
सत्तअट्ठचत्तारि । संनिपज्जत्ते । । ८ ।। सप्ताष्टचत्वारि ।
सप्ताष्टषट्पञ्चद्विकमुदीरणा
संज्ञि - पर्याप्ते ।।८।।
आठ
अर्थ - पर्याप्त संज्ञी में सात कर्म का, आठ कर्म का, छः कर्म का और एक कर्म का, ये चार बन्ध स्थान हैं, सत्ता स्थान और उदय स्थान सात, १. 'उदयावलियाबहिरिल्ल ठिईहिंतो कसायसहिया सहिएणं दलियमाकड्डिय उदयपत्तदलियेण समं अणुभवणमुदीरणा । '
जोगकरणेणं
- कर्मप्रकृति- चूणि ।
अर्थात् उदय-आवलिका से बाहर की स्थितिवाले दलिकों को कषायसहित या कषाय रहित योग द्वारा खींचकर - उस स्थिति से उन्हें छुड़ाकर - उदय प्राप्त दलिकों के साथ भोग लेना 'उदीरणा' कहलाती है।
इस कथन का तात्पर्य इतना ही है कि उदयावलिका के अन्तर्गत दलिकों की उदीरणा नहीं होती। अतएव कर्म की स्थिति आवलिकामात्र बाकी रहने के समय उसकी उदीरणा का रुक जाना नियमानुकूल है।
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जीवस्थान- अधिकार
२९
और चार कर्म के हैं तथा उदीरणा स्थान सात, आठ, छः, पाँच और दो कर्म का है ॥८॥
भावार्थ-जिन प्रकृतियों का बन्ध एक साथ (युगपत् ) हो, उनके समुदाय को 'बन्धस्थान' कहते हैं । इसी तरह जिन प्रकृतियों की सत्ता एक साथ पायी जाय, उनके समुदाय को 'सत्तास्थान', जिन प्रकृतियों का उदय एक साथ पाया जाय, उनके समुदाय को 'उदयस्थान' और जिन प्रकृतियों की उदीरणा एक साथ पायी जाय, उनके समुदाय को 'उदीरणास्थान' कहते हैं।
५ बन्धस्थान
उपर्युक्त चार बन्धस्थानों में से सात कर्म का बन्धस्थान, उस समय पाया जाता है जिस समय कि आयु का बन्ध नहीं होता। एक बार आयु का बन्ध हो जाने के बाद दूसरी बार उसका बन्ध होने में जघन्य काल, अन्तर्मुहूर्त्त प्रमाण और उत्कृष्ट काल, अन्तर्मुहूर्त - कम १ / ३ करोड़ पूर्ववर्ष तथा छः मास कम तेतीस सागरोपम - प्रमाण चला जाता है । अतएव सात कर्म के बन्धस्थान की स्थिति भी उतनी ही अर्थात् जघन्य अन्तर्मुहूर्त्त - प्रमाण और उत्कृष्ट अन्तर्मुहूर्त्त कम १ / ३ करोड़ पूर्व वर्ष तथा छह मास कम तेतीस सागरोपम- प्रमाण समझनी चाहिये।
-
आठ कर्म का बन्धस्थान, आयु-बन्ध के समय पाया जाता है। आयु-बन्ध, जघन्य या उत्कृष्ट अन्तर्मुहूर्त्त तक होता है, इसलिये आठ के बन्धस्थान की जघन्य या उत्कृष्ट स्थिति अन्तर्मुहूर्त - प्रमाण है।
छः कर्म का बन्धस्थान दसवें ही गुणस्थान में पाया जाता है; क्योंकि उसमें आयु और मोहनीय, दो कर्म का बन्ध नहीं होता। इस बन्धस्थान की जघन्य
१. नौ समय प्रमाण, इस तरह एक-एक समय बढ़ते-बढ़ते अन्त में एक समय कम मुहूर्त - प्रमाण, यह सब प्रकार का काल 'अन्तर्मुहूर्त' कहलाता है । जघन्य अन्तर्मुहूर्त नव समय का, उत्कृष्ट अर्मुहूर्त एक समय कम मुहूर्त का और मध्यम अन्तर्मुहूर्त दस समय, ग्यारह समय आदि बीच के सब प्रकार के काल का समझना चाहिये। दो घड़ी को - अड़तालीस मिनट को -- मुहूर्त कहते हैं।
२. दस कोटाकोटि पल्योपम का एक 'सागरोपम' और असंख्य वर्षों का एक 'पल्योपम' होता है। -- तत्त्वार्थ अ. ४, सू. १५ का भाष्य ।
३. जब करोड़ पूर्व वर्ष की आयुवाला कोई मनुष्य अपनी आयु के तीसरे भाग में अनुत्तर विमान की तेतीस सागरोपम-प्रमाण आयु बाँधता है, तब अन्तर्मुहूर्त्त पर्यन्त आयुबन्ध करके फिर वह देव की आयु के छह महीने शेष रहने पर ही आयु बाँध सकता है, इस अपेक्षा से आयु-बन्ध का उत्कृष्ट अन्तर समझना चाहिए ।
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३०
चौथा कर्मग्रन्थ
तथा उत्कृष्ट स्थिति दसवें गुणस्थान की स्थिति के बराबर- - जघन्य एक समय की और उत्कृष्ट अन्तर्मुहूर्त की — समझनी चाहिये।
एक कर्म का बन्धस्थान ग्यारहवें, बारहवें और तेरहवें, तीन गुणस्थानों में होता है। इसका कारण यह है कि इन गुणस्थानों के समय सातावेदनीय के अतिरिक्त अन्य कर्म का बन्ध नहीं होता। ग्यारहवें गुणस्थान की जघन्य स्थिति एक समय की और तेरहवें गुणस्थान की उत्कृष्ट स्थिति नौ वर्ष कम करोड़ पूर्व वर्ष की है। अतएव इस बन्धस्थान की स्थिति, जघन्य समय मात्र की और उत्कृष्ट नौ वर्ष - कम करोड़ पूर्व वर्ष की समझनी चाहिये ।
६. सत्तास्थान ।
तीन सत्तास्थानों में से आठ का सत्तास्थान, पहले ग्यारह गुणस्थानों में पाया जाता है। इसकी स्थिति, अभव्य की अपेक्षा से अनादि अनन्त और भव्य की अपेक्षा से अनादि - सान्त है। इसका कारण यह है कि अभव्य की कर्म-परम्परा का जैसे आदि नहीं है, वैसे अन्त भी नहीं है; पर भव्य की कर्म-परम्परा के विषय में ऐसा नहीं है; उसका आदि तो नहीं है, किन्तु अन्त होता है।
·
सात का सत्तास्थान केवल बारहवें गुणस्थान में होता है। इस गुणस्थान की जघन्य या उत्कृष्ट स्थिति अन्तर्मुहूर्त की मानी जाती है। अतएव सात के सत्तास्थान की स्थिति उतनी समझनी चाहिये । इस सत्तास्थान में मोहनीय को छोड़कर सात कर्मों का समावेश है।
चार का सत्तास्थान तेरहवें और चौदहवें गुणस्थान में पाया जाता है; क्योंकि इन दो गुणस्थानों में चार अघातिकर्म की ही सत्ता शेष रहती है। इन दो गुणस्थानों को मिलाकर उत्कृष्ट स्थिति नौ वर्ष सात मास-कम करोड़ पूर्व प्रमाण है। अतएव चार के सत्तास्थान की उत्कृष्ट स्थिति उतनी समझनी चाहिये। उसकी जघन्य स्थिति तो अन्तर्मुहूर्त्त प्रमाण है।
१. अत्यन्त सूक्ष्म क्रियावाला अर्थात् सबसे जघन्य गतिवाला परमाणु जितने काल में अपने आकाश-प्रदेश से अनन्तर आकाश-प्रदेश में जाता है, वह काल, 'समय' कहलाता है । - तत्त्वार्थ अ. ४, सू. १५ का भाष्य ।
२. चौरासी लक्ष वर्ष का एक पूर्वाङ्ग और चौरासी लक्ष पूर्वाङ्ग का एक 'पूर्व' होता है। - तत्त्वार्थ अ. ४, सू. १५ का भाष्य ।
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जीवस्थान-अधिकार
७. उदयस्थान।
आठ कर्म का उदयस्थान, पहले से दसवें तक दस गुणस्थानों में रहता है। इसकी स्थिति, अभव्य की अपेक्षा से अनादि-अनन्त और भव्य की अपेक्षा से अनादि-सान्त है। परन्तु उपशम-श्रेणि से गिरे हुए भव्य की अपेक्षा से, उसकी स्थिति सादि-सान्त है। उपशम-श्रेणि से गिरने के बाद फिर से अन्तर्मुहूर्त में श्रेणि की जा सकती है; यदि अन्तर्मुहूर्त न की जा सकी तो अन्त में कुछ-कम अर्धपुद्गल-परावर्त के बाद अवश्य की जाती है। इसलिये आठ के उदयस्थान की सादि-सान्त स्थिति जघन्य अन्तर्मुहूर्त-प्रमाण और उत्कृष्ट देश-ऊन (कुछ कम) अर्धपुद्गल परावर्त्त-प्रमाण समझनी चाहिये।
सात का उदयस्थान, ग्यारहवें और बारहवें गुणस्थान में पाया जाता है। इस उदयस्थान की स्थिति, जघन्य एक समय की और उत्कृष्ट अन्तर्मुहूर्त की मानी जाती है। जो जीव ग्यारहवें गुणस्थान में एक समय मात्र रह कर मरता है और अनुत्तरविमान में पैदा होता है, वह पैदा होते ही आठ कर्म के उदय का अनुभव करता है; इस अपेक्षा से सात के उदय स्थान की जघन्य स्थिति समय-प्रमाण कही गई है। जो जीव, बारहवें गणस्थान को पाता है, वह अधिक से अधिक उस गुणस्थान की स्थिति तक–अन्तर्मुहूर्त तक के सात कर्म के उदय का अनुभव करता है, पीछे अवश्य तेरहवें गुणस्थान को पाकर चार कर्म के उदय का अनुभव करता है; इस अपेक्षा से सात के उदयस्थान की उत्कृष्ट स्थिति अन्तर्मुहूर्त-प्रमाण कही गई है। चार का उदयस्थान, तेरहवें और चौदहवें गुणस्थान में पाया जाता है; क्योंकि इन दो गुणस्थानों में अघातिकर्म के अतिरिक्त अन्य किसी कर्म का उदय नहीं रहता। इस उदयस्थान की स्थिति जघन्य अन्तर्मुहूर्त
और उत्कृष्ट, देश-ऊन करोड़ पूर्व वर्ष की है। ८. उदीरणास्थान।
आठ का उदीरणास्थान, आयु की उदीरणा के समय होता है। आयु की उदीरणा पहले छह गुणस्थानों में होती है। अतएव यह उदीरणास्थान इन्हीं गुणस्थानों में पाया जाता है। ___ सात का उदीरणास्थान,- उस समय होता है जिस समय कि आयु की उदीरणा रुक जाती है। आयु की उदीरणा तब रुक जाती है, जब वर्तमान आयु आवलिका-प्रमाण शेष रह जाती है। वर्तमान आयु की अन्तिम आवलिका के १. एक मुहूर्त के १, ६७, ७७, २१६ वें भाग को 'आवलिका' कहते हैं।
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चौथा कर्मग्रन्थ
समय पहला, दूसरा, चौथा, पाँचवाँ और छठा, ये पाँच गुणस्थान पाये जा सकते हैं; दूसरे नहीं। अतएव सात के उदीरणास्थान का सम्भव, इन पाँच गुणस्थानों में समझना चाहिये। तीसरे गुणस्थान में सात का उदीरणास्थान नहीं होता, क्योंकि आवलिका-प्रमाण आयु शेष रहने के समय, इस गुणस्थान का सम्भव ही नहीं है। इसलिये इस गुणस्थान में आठ का ही उदीरणा स्थान माना जाता है।
छः का उदीरणास्थान सातवें गुणस्थान से लेकर दसवें गुणस्थान की एक आवलिका-प्रमाण स्थिति बाकी रहती है, तब तक पाया जाता है; क्योंकि उस समय आयु और वेदनीय, इन दो की उदीरणा नहीं होती।
दसवें गुणस्थान की अन्तिम आवलिका, जिसमें मोहनीय की भी उदीरणा रुक जाती है, उससे लेकर बारहवें गुणस्थान की अन्तिम आवलिका पर्यन्त पाँच का उदीरणास्थान होता है।
बारहवें गणस्थान की अन्तिम आवलिका, जिसमें ज्ञानावरण, दर्शनावरण और अन्तराय, तीन कर्म की उदीरणा रुक जाती है, उससे लेकर तेरहवें गणस्थान के अन्त पर्यन्त दो का उदीरणा-स्थान होता है। चौदहवें गुणस्थान में योग न होने के कारण उदय रहने पर भी नाम-गोत्र की उदीरणा नहीं होती।
__उक्त सब बन्धस्थान, सत्तास्थान आदि पर्याप्त संज्ञी के हैं; क्योंकि चौदहों गुणस्थानों का अधिकारी वही है। किस-किस गुणस्थान में कौन-कौन-सा बन्धस्थान, सत्तास्थान, उदयस्थान और उदीरणास्थान है; इसका विचार आगे गा. ५९ से ६२ तक में है।।८।।
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(२) मार्गणास्थान-अधिकार।
___मार्गणा के मूल भेद। गइइंदिए य काये, जोए वेए कसायनाणेसु। संजमदंसणलेसा-भवसम्भे
संनिआहारे ।।९।। गतीन्द्रिये च काये, योगे वेदे कषायज्ञानयोः ।
संयमदर्शनलेश्याभव्यसम्यक्त्वे संज्ञयाहारे।।९।। अर्थ-मार्गणास्थान के गति, इन्द्रिय, काय, योग, वेद, कषाय, संयम, दर्शन, लेश्या, भव्यत्व, सम्यक्त्व, संज्ञित्व और आहारत्व ये चौदह भेद हैं।।९।।
१. यह गाथा पञ्चसंग्रह की है (द्वार १. गा. २१)। गोम्मटसार-जीवकाण्ड में यह इस प्रकार है
'गइइंदियेसु काये, जोगे वेदे कसायणाणे य।
संजमदंसणलेस्साभवियासम्मत्तसण्णिआहारे।।१४१।।' २. गोम्मटसार जीवकाण्ड के मार्गणाधिकार में मार्गणाओं के जो लक्षण हैं, वे संक्षेप में
इस प्रकार हैं(१) गतिनामकर्म के उदय-जन्य पर्याय या चार गति पाने के कारणभूत जो पर्याय, वे 'गति' कहलाते हैं।
-गा. १४५। (२) अहमिन्द्र देव के समान आपस में स्वतन्त्र होने से नेत्र आदि को 'इन्द्रिय' कहते हैं।
-गा. १६३। (३) जाति-नामकर्म के नियत-सहचारी, त्रस या स्थावर-नामकर्म के उदय से होनेवाले पर्याय 'काय' है। -गा. १८०।। (४) पुद्गल-विपाकी शरीरनामकर्म के उदय से मन, वचन और काय-युक्त जीव की कर्मग्रहण में कारणभूत जो शक्ति, वह 'योग' है।
-गा. २१५। (५) वेद-मोहनीय के उदय-उदीरणा से होनेवाला परिणाम का संमोह (चाञ्चल्य), जिससे गुण-दोष का विवेक नहीं रहता, वह 'वेद' है। -गा. २७१। (६) 'कषाय' जीव के उस परिणाम को कहते हैं, जिससे सुख-दुःखरूप अनेक प्रकार के वास को पैदा करनेवाले और संसार रूप विस्तृत सीमावाले कर्मरूप क्षेत्र का कर्षण किया जाता है।
-गा. २८१। सम्यक्त्व, देशचारित्र, सर्वचारित्र और यथाख्यातचारित्र का घात (प्रतिबन्ध) करने वाला परिणाम 'कषाय' है।
-गा. २८२।
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३४
चौथा कर्मग्रन्थ
मार्गणाओं की व्याख्या। भावार्थ-(१) गति—जो पर्याय, गतिनामकर्म के उदय से होते हैं और जिनसे जीव पर मनुष्य, तिर्यश्च, देव या नारक का व्यवहार होता है, 'गति' है।
(२) इन्द्रिय- त्वचा, नेत्र आदि जिन साधनों से सर्दी-गर्मी, काले-पीले आदि विषयों का ज्ञान होता है और जो अङ्गोपाङ्ग तथा निर्माण-नामकर्म के उदय से प्राप्त होते हैं, वे 'इन्द्रिय' हैं।
(३) काय- जिसकी रचना और वृद्धि यथायोग्य औदारिक, वैक्रिय आदि पुद्गल-स्कन्धों से होती है और जो शरीर-नामकर्म के उदय से बनता है, उसे 'काय' (शरीर) कहते हैं।
(४) योग- वीर्य-शक्ति के जिस परिस्पन्द से-आत्मिक-प्रदेशों की हल चल से—गमन, भोजन आदि क्रियायें होती हैं और जो परिस्पन्द, शरीर, भाषा तथा मनोवर्गणा के पुद्गलों की सहायता से होता है, वह 'योग' है।
(५) वेद- संभोग-जन्य सुख के अनुभव की इच्छा, जो वेद-मोहनीयकर्म के उदय से होती है, वह 'वेद' है।
(७) जिसके द्वारा जीव तीन काल-सम्बन्धी अनेक प्रकार के द्रव्य, गुण और पर्याय को जान सकता है, वह 'ज्ञान' है।
-गा. २९८। (८) अहिंसा आदि व्रतों के धारण, ईर्या आदि समितियों के पालन, कषायों के निग्रह, मन आदि दण्ड के त्याग और इन्द्रियों की जय को 'संयम' कहा है।
___ -गा. ४६४। (९) पदार्थों के आकार को विशेषरूप से न जानकर सामान्यरूप से जानना, वह 'दर्शन' है।
___ -गा. ४८१। (१०) जिस परिणाम द्वारा जीव पुण्य-पाप कर्म को अपने साथ मिला लेता है, वह 'लेश्या है।
-गा. ४८८ (११) जिन जीवों की सिद्धि कभी होने वाली हो-जो सिद्धि के योग्य हैं, वे 'भव्य और इसके विपरीत, जो कभी संसार से मुक्त न होंगे, वे 'अभव्य' है।
-गा. ५५६। (१२) वीतराग के कहे हुये पाँच अस्तिकाय, छह द्रव्य या नव प्रकार के पदार्थों पर आज्ञापूर्वक या अधिगमपूर्वक (प्रमाण-नय-निक्षेप-द्वारा) श्रद्धा करना 'सम्यक्त्व' है।
___ -गा. ५६०१ (१३) नौ-इन्द्रिय (मन) के आवरण का क्षयोपशम या उससे होनेवाला ज्ञान, जिसे संज्ञा कहते हैं, उसे धारण करनेवाला जीव 'संज्ञी' और इसके विपरीत, जिसको मन के सिवाय अन्य इन्द्रियों से ज्ञान होता है, वह 'असंज्ञी' है। -गा. ६५९॥ (१४) औदारिक, वैक्रिय और आहारक, इन तीनों में से किसी भी शरीर के योग्य वर्गणाओं को यथायोग्य ग्रहण करने वाला जीव 'आहारक' है। -गा. ६६४।
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मार्गणास्थान-अधिकार
(६) कषाय- किसी पर आसक्त होना या किसी से नाराज हो जाना, इत्यादि मानसिक-विकार, जो संसार-वृद्धि के कारण हैं और जो कषायमोहनीय कर्म के उदय-जन्य हैं, उनको 'कषाय' कहते हैं।
(७) ज्ञान- किसी वस्तु को विशेष रूप से जाननेवाला चेतनाशक्ति का व्यापार (उपयोग), 'ज्ञान' कहलाता है।
(८) संयम- कर्मबन्ध-जनक प्रवृत्ति से अलग हो जाना, 'संयम' कहलाता का उपयोग 'दर्शन' है।
(९) दर्शन- विषय को सामान्य रूप से जानने वाला चेतनाशक्ति का उपयोग 'दर्शन' है।
(१०) लेश्या- आत्मा के साथ कर्म का मेल करानेवाले परिणाम विशेष 'लेश्या ' है।
(११) भव्यत्व- मोक्ष पाने की योग्यता को ‘भव्यत्व' कहते हैं।
(१२) सम्यक्त्व- आत्मा के उस परिणाम को सम्यक्त्व कहते हैं. जो मोक्ष का अविरोधी है- जिसके व्यक्त होते ही आत्मा की प्रवृत्ति, मुख्यतया
अन्तर्मख (भीतर की ओर) हो जाती है। तत्त्व-रुचि, इसी परिणाम का फल है। प्रशम, संवेग, निर्वेद, अनुकम्पा और आस्तिकता, ये पाँच लक्षण प्रायः सम्यक्त्वी में पाये जाते हैं।
(१३) संज्ञित्व- दीर्घकालिकी संज्ञा की प्राप्ति को ‘संज्ञित्व' कहते हैं।
(१४) आहारकत्व- किसी न किसी प्रकार के आहार को ग्रहण करना, 'आहारकत्व' है। १. यही बात भट्टारक श्रीअकलङ्कदेव ने कही है_ 'तस्मात् सम्यग्दर्शनमात्मपरिणामः श्रेयोभिमुखमध्यवस्यामः'
-तत्त्वा .अ. १, सू. २, राज. .१६। २. आहार तीन प्रकार का है—(१) ओज-आहार, (२) लोम-आहार और (३) कवल आहार। इनका लक्षण इस प्रकार है
'सरीरेणोयाहारो, तयाइ फासेण लोम आहारो। पक्खेवाहारो पुण, कवलियो होइ नायव्यो।।'
गर्भ में उत्पन्न होने के जो शुक-शोणितरूप आहार, कार्मणशरीर के द्वारा लिया जाता है, वह ओज, वायु का त्वगिन्द्रिय द्वारा जो ग्रहण किया जाता है, वह लोम और जो अङ्ग आदि खाद्य, मुख द्वारा ग्रहण किया जाता है, वह कवल-आहार है। आहार का स्वरूप गोम्मटसार-जीवकाण्ड में इस प्रकार है
'उदयावण्णसरीरो,-दयेण तदेहवयणचित्ताणं। णोकम्मवग्गणाणं, गहणं आहारयं नाम।। ६६३।।'
शरीरनामकर्म के उदय से देह, वचन और द्रव्यमन के बनने योग्य जो कर्मवर्गणाओं का जो ग्रहण होता है, उसको 'आहार' कहते हैं।
दिगम्बर-साहित्य में आहार के छह भेद किये हुये मिलते हैं। यथा .
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चौथा कर्मग्रन्थ
मूल प्रत्येक मार्गणा में सम्पूर्ण संसारी जीवों का समावेश होता है ॥ ९ ॥
मार्गणास्थान के अवान्तर (विशेष) भेद
(चार गाथाओं से)
छक्काया।
सुरनरतिरिनिरयगई, इगबियतियचउपणिंदि भूजलजलणानिलवण, तसा य मणवयणतणुजोगा । । १० ।।
सुरनरतिर्यङ्गिरयगतिरेकद्विकत्रिकचतुष्पञ्चेन्द्रियाणि
३६
षट्कायाः ।
भूजलज्वलनानिलवनत्रसाश्च
मनोवचनतनुयोगाः । । १० ।।
अर्थ - देव, मनुष्य, तिर्यञ्च और नरक, ये चार गतियाँ हैं। एकेन्द्रिय, द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय और पञ्चेन्द्रिय, ये पाँच इन्द्रिय हैं। पृथ्वीकाय, जलकाय, वायुकाय, अग्निकाय, वनस्पतिकाय और त्रसकाय, ये छ: काय हैं। मनोयोग, वचनयोग और काययोग, ये तीन योग हैं ॥ १० ॥
( १ ) - गतिमार्गणा के भेदों का स्वरूप
भावार्थ - (१) देवगति नामकर्म के उदय से होनेवाला पर्याय ( शरीर का विशिष्ट आकार), जिससे 'यह देव' है, ऐसा व्यवहार किया जाता है, वह 'देवगति'। (२) 'यह मनुष्य है', ऐसा व्यवहार कराने वाला जो मनुष्यगतिनामकर्म के उदय - जन्य पर्याय, वह 'मनुष्यगति । (३) जिस पर्याय से जीव 'तिर्यञ्च' कहलाता है और जो तिर्यञ्च गति - नामकर्म के उदय से होता है, वह ‘तिर्यञ्चगति’। (४) जिस पर्याय को पाकर जीव, 'नारक' कहलाता है और जिसका कारण नरकगति नामकर्म का उदय है, वह 'नरकगति' है।
( २ ) - इन्द्रियमार्गणा के भेदों का स्वरूप
(१) जिस जाति में सिर्फ त्वचा इन्द्रिय पायी जाती है और जो जाति, एकेन्द्रिय जाति - नामकर्म के उदय से प्राप्त होती है, वह 'एकेन्द्रिय जाति' । (२) जिस जाति में दो इन्द्रियाँ (त्वचा, जीभ) हैं और जो द्वीन्द्रिय जाति - नामकर्म के उदय-जन्य है, वह 'द्वीन्द्रिय जाति' । (३) जिस जाति में इन्द्रियाँ तीन (उक्त दो तथा नाक) होती हैं और त्रीन्द्रिय जाति- नामकर्म का उदय जिसका कारण है,
'णोकम्मकम्महारो, कवलहारो य लेप्पमाहारो ।
ओजमणो वि य कमसो, आहारो छव्विहो यो । । '
- प्रमेयकमलमार्तण्ड के द्वितीय परिच्छेद में प्रमाणरूप से उद्धृत ।
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मार्गणास्थान-अधिकार
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वह 'त्रीन्द्रिय जाति'। (४) चतुरिन्द्रिय जाति में इन्द्रियाँ चार (उक्त तीन तथा नेत्र) होती हैं और जिसकी प्राप्ति चतुरिन्द्रिय जाति-नामकर्म के उदय से होती है। (५) पञ्चेन्द्रिय जाति में उक्त चार और कान, ये पाँच इन्द्रियाँ होती हैं और उसके होने में निमित्त पञ्चेन्द्रिय जाति-नामकर्म का उदय है।
(३) कायमार्गणा के भेदों का स्वरूप (१) पार्थिव शरीर, जो पृथ्वी से बनता है, वह 'पृथ्वीकाय'। (२) जलीय शरीर, जो जल से बनता है, वह 'जलकाय'। (३) तैजसशरीर, जो तेज का बनता है, वह 'तेज:काय'। (४) वायवीय शरीर, जो वायु-जन्य है, वह 'वायुकाय'। (५) वनस्पतिशरीर, जो वनस्पतिमय है, वह 'वनस्पतिकाय' है। ये पाँच काय, स्थावर-नामकर्म के उदय से होते हैं और इनके स्वामी पृथ्वीकायिक आदि एकेन्द्रिय जीव हैं। (६) जो शरीर चल-फिर सकता है और जो त्रस-नामकर्म के उदय से प्राप्त होता है, वह 'त्रसकाय' है। इसके धारण करनेवाले द्वीन्द्रिय से पञ्चेन्द्रिय तक सब प्रकार के जीव हैं।
(४) योगमार्गणा के भेदों का स्वरूप (१) जीव का वह व्यापार 'मनोयोग' है, जो औदारिक, वैक्रिय या आहारक-शरीर के द्वारा ग्रहण किये हुये मनोद्रव्य-समूह की मदद से होता है। (२) जीव के उस व्यापार को 'वचनयोग' कहते हैं, जो औदारिक, वैक्रिय या आहारक-शरीर की क्रिया द्वारा संचय किये हुये भाषा-द्रव्य की सहायता से होता है। (३) शरीरधारी आत्मा की वीर्य-शक्ति का व्यापार-विशेष 'काययोग' कहलाता
है।।१०॥
(५) वेदमार्गणा के भेदों का स्वरूप वेय नरित्थिनपुंसा, कसाय कोहमयमायलोभ ति। मइसुयवहिमणकेवल,-बिहंगमइसुअनाण सागारा।।११।। वेदा नरस्त्रिनपुंसकाः, कषाया क्रोधमदमायालोमा इति। मतिश्रुतावधिमनः केवलविभङ्गमतिश्रुताज्ञानानि साकाराणि।।११।।
अर्थ-पुरुष, स्त्री और नपुंसक, ये तीन वेद हैं। क्रोध, मान, माया और लोभ, ये चार भेद कषाय के हैं। मति, श्रुत, अवधि, मन:पर्याय और केवलज्ञान १. देखिये, परिशिष्ट 'ज।
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तथा मति- अज्ञान, श्रुत- अज्ञान और विभङ्गज्ञान, ये आठ साकार (विशेष) उपयोग हैं || ११||
भावार्थ- (१) स्त्री के संसर्ग की इच्छा 'पुरुषवेद', (२) पुरुष के संसर्ग करने की इच्छा 'स्त्रीवेद' और (३) स्त्री-पुरुष दोनों संसर्ग की इच्छा 'नपुंसकवेद' है। '
१.
यह लक्षण भाववेद का है। द्रव्यवेद का निर्णय बाहरी चिह्नों से किया जाता हैपुरुष के चिह्न, दाढ़ी-मूँछ आदि हैं। स्त्री के चिह्न, डाढ़ी-मूँछ का अभाव तथा स्तन आदि हैं। नपुंसक में स्त्री-पुरुष दोनों के कुछ-कुछ चिह्न होते हैं। यही बात प्रज्ञापना - भाषापद की टीका में कही हुई है'योनिर्मृदुत्वमस्थैर्ये, मुग्धता क्लीबता स्तनौ ।
पुंस्कामितेति लिङ्गानि सप्त स्त्रीत्वे प्रचक्षते । । १ । । मेहनं खरता दायें, शौण्डीर्ये श्मश्रु धृष्टता । स्त्रीकामितेति लिङ्गानि सप्त पुंस्त्वे प्रचक्षते । । २ । । स्तनादिश्मश्रकेशादि - भावाभावसमन्वितम् ।
नपुंसकं बुधाः प्राहु, महानलसुदीपितम् । । ३॥
बाह्य चिह्न के सम्बन्ध में यह कथन बहुलता की अपेक्षा से है; क्योंकि कभीकभी पुरुष के चिह्न स्त्री में और स्त्री के चिह्न पुरुष में देखे जाते हैं। इस बात की सत्यता के लिये नीचे लिखे उद्धरण देखने योग्य हैं
'मेरे परम मित्र डाक्टर शिवप्रसाद, जिस समय कोटा हास्पिटल में थे (अब आपने ) स्वतन्त्र मेडिकल हाल खोलने के इरादे से नौकरी छोड़ दी है', अपनी आँखों देखा हाल इस प्रकार बयान करते हैं कि 'डॉक्टर मेकवाट साहब के जमाने में (कि जो उस समय कोटे में चीफ़ मेडिकल आफ़िसर थे) एक व्यक्ति पर मूर्छावस्था (अण्डर क्लोरोफ़ार्म) में शस्त्रचिकित्सा (औपरेशन) करनी थी, अतएव उसे मूर्छित किया गया; देखते क्या हैं कि उसके शरीर में स्त्री और पुरुष दोनों के चिह्न विद्यमान हैं। ये दोनों अवयव पूर्ण रूप से विकास पाए हुए थे। शस्त्रचिकित्सा किये जाने पर उसे होश में लाया गया, होश में आने पर उससे पूछने पर मालूम हुआ कि उसने उन दोनों अवयवों से पृथक्-पृथक् उनका कार्य लिया है, किन्तु गर्भादिक शंका के कारण उसने स्त्री विषयक अवयव से कार्य लेना छोड़ दिया है। यह व्यक्ति अब तक जीवित है।'
'सुनने में आया है और प्रायः सत्य है कि 'मेरवाड़ा डिस्ट्रिक्ट (Merwara District) में एक व्यक्ति के लड़का हुआ। उसने वयस्क होने पर एण्ट्रेन्स पास किया। इसी अर्से में माता-पिता ने उसका विवाह भी कर दिया, क्योंकि उसके पुरुष होने में किसी प्रकार की शंका तो थी नहीं; किन्तु विवाह होने पर मालूम हुआ कि वह पुरुषत्व के विचार से सर्वथा अयोग्य है। अतएव डाक्टरी जाँच करवाने पर मालूम हुआ कि वह वास्तव में स्त्री है और स्त्रीचिह्न के ऊपर पुरुष चिह्न नाम मात्र को बन गया है - इसी कारण वह चिह्न निरर्थक है-अतएव डाक्टर द्वारा उस कृत्रिम चिह्न को दूर कर देने पर उसका शुद्ध स्त्री स्वरूप प्रकट हो गया और उन दोनों स्त्रियों (पुरुष रूपधारी स्त्री और उसकी विवाहिता स्त्री) की एक ही व्यक्ति से शादी कर दी गई।' यह स्त्री कुछ समय पहिले तक जीवित बतलाई जाती है।'
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मानव - सन्ततिशास्त्र,
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(६) कषाय मार्गणा के भेदों का स्वरूप (१) 'क्रोध' वह विकार है, जिससे किसी की भली-बुरी बात सहन नहीं की जाती या नाराज़गी होती है। (२) जिस दोष से छोटे-बड़े के प्रति उचित नम्रभाव नहीं रहता या जिससे ऐंठ हो, वह 'मान' है। (३) 'माया' उसे कहते हैं, जिससे छल-कपट में प्रवृत्ति होती है। (४) 'लोभ' ममत्व को कहते हैं।
(७) ज्ञानमार्गणा के भेदों का स्वरूप (१) जो ज्ञान इन्द्रिय के तथा मन के द्वारा होता है और जो बहुतकर वर्तमानकालिक विषयों को जानता है, वह 'मतिज्ञान है। (२) जो ज्ञान, श्रुतानुसारी है जिसमें शब्द-अर्थ का सम्बन्ध भासित होता है-और जो मतिज्ञान के बाद होता है; जैसे—'जल' शब्द सुनकर यह जानना कि यह शब्द पानी का बोधक है अथवा पानी देखकर यह विचारना कि यह, 'जल' शब्द का अर्थ है, इस प्रकार उसके सम्बन्ध की अन्य-अन्य बातों का विचार करना, वह 'श्रुतज्ञान' है। (३) 'अवधिज्ञान' वह है, जो इन्द्रियों और मन की सहायता के बिना ही उत्पन्न होता है जिसके होने में आत्मा की विशिष्ट योग्यताभाव अपेक्षित है-और जो रूपवाले विषयों को ही जानता है। (४) 'मन: पर्यायज्ञान' वह है, जो संज्ञी जीवों के मन की अवस्थाओं को जानता है और जिसके होने
प्रकरण छठा। यह नियम नहीं है कि द्रव्यवेद और भाववेद समान ही हों। ऊपर से पुरुष के चिह्न होने पर भी भाव से स्त्रीवेद के अनुभव का सम्भव है। यथा
'प्रारब्ये रतिकेलिसंकुलरणारम्भे तथा साहस प्रायं कान्तजयाय किञ्चिदुपरि प्रारम्भि तत्संभ्रमात् । खिन्ना येन कटीतटी शिथिलता दोर्वल्लिरुत्कम्पितम्, वक्षो मीलितमौक्षि पौरुषरसः खीणां कुतः सिद्ध्यति ।।१७।।'
-सुभाषितस्त्रभाण्डागार-विपरीतरतक्रिया। इसी प्रकार अन्य वेदों के विषय में भी विपर्यय से सम्भव है, तथापि बहुत से द्रव्य
और भाव वेद में समानता-बाह्य चिह्न के अनुसार ही मानसिक-विक्रया-पाई जाती है। गोम्मटसार-जीवकाण्ड में पुरुष आदि वेद का लक्षण शब्द-व्युत्पत्ति के अनुसार किया
है। -गा.२७२-७४ १. काषायिक शक्ति के तीव्र-मन्द-भाव की अपेक्षा से क्रोधादि प्रत्येक कषाय के
अनन्तानुबन्धी आदि चार-चार भेद कर्मग्रन्थ और गोम्मटसार-जीवकाण्ड में समान हैं। किन्तु गोम्मटसार में लेश्या की अपेक्षा से चौदह-चौदह और आयु के बन्धाबन्ध की अपेक्षा से बीस-बीस भेद किये गये हैं; उनका विचार श्वेताम्बरीय ग्रन्थों में नहीं देखा गया। इन भेदों के लिये देखिये, जीव. गा. २९१ से २९४ तक।
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में आत्मा के विशिष्ट क्षयोपशम मात्र की अपेक्षा है, इन्द्रिय-मन की नहीं । (५) ‘केवलज्ञान', उस ज्ञान को कहते हैं, जिससे त्रैकालिक सब वस्तुएँ, जानी जाती हैं और जो परिपूर्ण, स्थायी तथा स्वतन्त्र है । (६) विपरीत मति उपयोग, 'मति - अज्ञान' है; जैसे— घट आदि को एकान्त सद्रूप मानना अर्थात् यह मानना कि वह किसी अपेक्षा से असद्रूप नहीं है । (७) विपरीत श्रुत- उपयोग 'श्रुत - अज्ञान' है; जैसे— 'हरि' आदि किसी शब्द को सुनकर यह निश्चय करना कि इसका अर्थ 'सिंह' है, दूसरा अर्थ हो ही नहीं सकता, इत्यादि। (८) विपरीत अवधिउपयोग ही 'विभङ्गज्ञान' है। कहा जाता है कि शिवराजर्षि को ऐसा ज्ञान था; क्योंकि उन्होंने सात द्वीप तथा सात समुद्र देखकर उतने में ही सब द्वीप - समुद्र का निश्चय किया था।
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जिस समय मिथ्यात्व का उदय हो आता है, उस समय जीव कदाग्रही बन जाता है, जिससे वह किसी विषय का यथार्थ स्वरूप जानने नहीं पाता; उस समय उसका उपयोग — चाहे वह मतिरूप हो, श्रुतरूप हो या अवधिरूप हो – अज्ञान (श्रयथार्थ - ज्ञान) रूप में बदल जाता है।
मनः पर्याय और केवलज्ञान, ये दो उपयोग, मिथ्यात्वी को होते ही नहीं; इससे वे ज्ञानरूप ही हैं।
ये आठ उपयोग, साकार इसलिये कहे जाते हैं कि इनके द्वारा वस्तु के सामान्य-विशेष, उभय रूप में से विशेष रूप (विशेष आकार) मुख्यतया जाना जाता है ।। ११॥
(८) संयममार्गणा के भेदों का स्वरूप सामाइछेयअपरिहा - रसुहुमअहंखायदेसजयअजया । चक्खुअचक्खू ओही केवलदंसण सामायिकच्छेदपरिहारसूक्ष्मयथाख्यातदेशयतायतानि । चक्षुरचक्षुरवधिकेवलदर्शनान्यनाकाराणि । । १२ ।।
अर्थ - सामायिक, छेदोपस्थापनीय, परिहारविशुद्ध, सूक्ष्मसम्पराय, यथाख्यात, देशविरति और अविरति, ये सात भेद संयममार्गणा के हैं। चक्षुर्दर्शन, अचक्षुर्दर्शन, अवधिदर्शन और केवलदर्शन, ये चार उपयोग अनाकार हैं ।। १२ ।
भावार्थ - (१) जिस संयम में समभाव की (राग-द्वेष के अभाव की ) प्राप्ति हो, वह 'सामायिकसंयम' है। इसके (क) 'इत्वर' और (ख) 'यावत्कथित', ये दो भेद हैं।
अणागारा । । १२।।
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(क) 'इत्वरसामायिक संयम' वह है, जो अभ्यासार्थी शिष्यों को स्थिरता प्राप्त करने के लिये पहले-पहल दिया जाता है और जिसकी काल मर्यादा उपस्थापन पर्यन्त-बड़ी दीक्षा लेने तक-मानी गई है। यह संयम भरत-ऐरावतक्षेत्र में प्रथम तथा अन्तिम तीर्थंकर के शासन के समय ग्रहण किया जाता है। इसके धारण करनेवालों को प्रतिक्रमण सहित पाँच महाव्रत अङ्गीकार करने पड़ते हैं तथा इस संयम के स्वामी ‘स्थितकल्पी'१ होते हैं।
___ (ख) 'यावत्कथितसामायिकसंयम' वह है, जो ग्रहण करने के समय से जीवपर्यन्त पाला जाता है। ऐसा संयम भरत-ऐरावत-क्षेत्र में मध्यवर्ती बाईस तीर्थङ्करों के शासन में ग्रहण किया जाता है, पर महाविदेह क्षेत्र में तो यह संयम, सब समय में लिया जाता है। इस संयम के धारण करनेवालों को महाव्रत चार और कल्प स्थितास्थित होता है।
(२) प्रथम संयम-पर्याय को छेदकर फिर से उपस्थापन (व्रतारोपण) करना-पहले जितने समय तक संयम का पालन किया हो, उतने समय को व्यवहार में न गिनना और दुबारा संयम ग्रहण करने के समय से दीक्षाकाल गिनना व छोटे-बड़े का व्यवहार करना-'छेदोपस्थापनीयसंयम' है। इसके (क) 'सातिचार' और (ख) 'निरतिचार', ये दो भेद हैं।
(क) “सातिचार-छेदोपस्थापनीयसंयम' वह है, जो किसी कारण से मूलगुणों का-महाव्रतों का-भङ्ग हो जाने पर फिर से ग्रहण किया जाता है।
(ख) 'निरतिचार-छेदोपस्थापनीय', उस संयम को कहते हैं, जिसको इत्वरसामायिक संयम वाले बड़ी दीक्षा के रूप में ग्रहण करते हैं। यह संयम, भरत-ऐरावत-क्षेत्रों में प्रथम तथा चरम तीर्थङ्कर के साधुओं को होता है और एक तीर्थ के साधु, दूसरे तीर्थ में जब दाखिल होते हैं; जैसे-श्रीपार्श्वनाथ के केशीगाङ्गेय आदि सान्तानिक साधु, भगवान् महावीर के तीर्थ में दाखिल हुये थे; तब उन्हें भी पुनर्दीक्षारूप में यही संयम होता है।
१. आचेलक्य, औद्देशिक, शय्यातरपिण्ड, राजपिण्ड, कृतिकर्म, व्रत, ज्येष्ठ, प्रतिक्रमण,
मास और पर्युषणा, इन दस कल्पों में जो स्थित हैं, वे 'स्थितकल्पी' और शय्यातरपिण्ड, व्रत, ज्येष्ठ तथा कृतिकर्म, इन चार में नियम से स्थित और शेष छ: कल्पों में जो अस्थित होते हैं, वे 'स्थितस्थितकल्पी' कहे जाते हैं।
-आव. हारिभद्री वृत्ति, पृ. ७९०, पञ्चाशक, प्रकरण १७। २. इस बात का वर्णन भगवतीसूत्र में है।
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(३) 'परिहारविशुद्धसंयम'१ वह है, जिसमें 'परिहारविशुद्धि' नाम की तपस्या की जाती है। परिहारविशुद्धि तपस्या का विधान संक्षेप में इस प्रकार है
नौ साधुओं का एक गण (समुदाय ) होता है, जिसमें से चार तपस्वी बनते हैं, चार उनके परिचारक (सेवक और एक वाचनाचार्य) जो तपस्वी हैं, वे ग्रीष्मकाल में जघन्य एक, मध्यम दो और उत्कृष्ट तीन उपवास करते हैं। शीतकाल में जघन्य दो, मध्यम तीन, और उत्कृष्ट चार, उपवास करते हैं; परन्तु वर्षाकाल में जघन्य तीन, मध्यम चार और उत्कृष्ट पाँच उपवास करते हैं। तपस्वी, पारणा के दिन अभिग्रहसहित आयंबिल२ व्रत करते हैं। यह क्रम, छ: महीने तक चलता है। दूसरे छ: महीनों में पहले के तपस्वी तो परिचारक बनते हैं और परिचारक, तपस्वी।
दूसरे छः महीने के लिये तपस्वी बने हुये साधुओं की तपस्या का वही क्रम होता है, जो पहले के तपस्वियों की तपस्या का। परन्तु जो साधु परिचारकपद ग्रहण किये हुये होते हैं, वे सदा आयंबिल ही करते हैं। दूसरे छः महीने के बाद, तीसरे छ: महीने के लिये वाचनाचार्य ही तपस्वी बनते हैं; शेष आठ साधुओं में से कोई एक वाचनाचार्य और बाकी के सब परिचारक होते हैं। इस १. इस संयम का अधिकार पाने के लिये गृहस्थ-पर्याय (उम्र का जवन्य प्रमाण २९ साल
साधु-पर्याय (दीक्षाकाल) का जघन्य प्रमाण २० साल और दोनों पर्याय का उत्कृष्ट प्रमाण कुछ कम करोड़ पूर्व वर्ष माना है। यथा
'एयस्स एस नेओ, गिहिपरिआओ जहन्नि गुणतीसा।
जइयरियाओ वीसा, दोसुवि उक्कोस देसूणा।' इस संयम के अधिकारी को साढ़े नव पूर्व का ज्ञान होता है; यह श्रीजयसोमसूरि ने अपने टबे में लिखा है। इसका ग्रहण तीर्थङ्कर या तीर्थङ्कर के अन्तेवासी के पास माना गया है। इस संयम को धारण करनेवाले मुनि, दिन के तीसरे प्रहर में भिक्षा व विहार कर सकते हैं और अल्य समय में ध्यान, कायोत्सर्ग आदि। परन्तु इस विषय में दिगम्बर-शास्त्र का थोड़ासा मत-भेद है। उसमें तीस वर्ष की उम्रवाले को इस संयम का अधिकारी माना है। अधिकारी के लिये नौ पूर्वका ज्ञान आवश्यक बतलाया है। तीर्थङ्कर के सिवाय और किसी के पास उस संयम के ग्रहण करने की उसमें मनाही है। साथ ही तीन संध्याओं को छोड़कर दिन के किसी भाग में दो कोस तक जाने की उसमें सम्मति है। यथा___'तीसं वासो जम्मे, वासपुषत्तं खु तित्थयरमूले।
पञ्चक्खाणं पडिदो, संझूण दुगाउयविहारो।।४७२।।' २. यह एक प्रकार का व्रत है, जिसमें घी, दूध आदि रस को छोड़ कर केवल अन्न खाया जाता है; सो भी दिन में एक ही दफा। पानी इसमें गरम पिया जाता है।
-आवश्यक नि., गा. १६०३-५।
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प्रकार तीसरे छह महीने पूर्ण होने के बाद अठारह मास की यह 'परिहारविशुद्धि' नामक तपस्या समाप्त होती है। इसके बाद वे जिनकल्प ग्रहण करते हैं अथवा वे पहले जिस गच्छ के रहे हों, उसी में दाखिल होते हैं या फिर भी वैसी ही तपस्या शुरू करते हैं। परिहारविशुद्धसंयम के 'निर्विशमानक' और 'निर्विष्टकायिक', ये दो भेद हैं। वर्तमान परिहार विशुद्ध को 'निर्विशमानक' और भूत परिहारविशुद्ध को 'निर्विष्टकायिक' कहते हैं।
(४) जिस संसार में सम्पराय (कषाय) का उदय सूक्ष्म (अति स्वल्प) रहता है, वह 'सूक्ष्मसम्परायसंयम' है। इसमें लोभ कषाय उदयमान होता है, अन्य नहीं । यह संयम दसवें गुणस्थान वालों को होता है। इसके (क) 'संक्लिश्यमानक' और (ख) 'विशुद्धयमानक', ये दो भेद हैं।
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(क) उपशमश्रेणि से गिरनेवालों को दसवें गुणस्थान की प्राप्ति के समय जो संयम होता है, वह 'संक्लिश्यमानक सूक्ष्मसम्परायसंयम' है, क्योंकि पतन होने के कारण उस समय परिणाम संक्लेश- प्रधान ही होते जाते हैं।
(ख) उपशमश्रेणि या क्षपकश्रेणि पर चढ़नेवालों को दसवें गुणस्थान में जो संयम होता है, वही 'विशुद्ध्यमानक सूक्ष्मसम्परायसंयम' है; क्योंकि उस समय के परिणाम विशुद्धि - प्रधान ही होते हैं।
(५) जो संयम यथातथ्य है अर्थात् जिसमें कषाय का उदय-लेश भी नहीं है, वह 'यथाख्यातसंयम' है। इसके (क) 'छाद्मस्थिक' और (ख) 'अछाद्मस्थिक' ये दो भेद हैं।
(क) ‘छाद्मस्थिकयथाख्यातसंयम' वह है, जो ग्यारहवें - बारहवें गुणस्थान वालों को होता है। ग्यारहवें गुणस्थान की अपेक्षा बारहवें गुणस्थान में विशेषता यह है कि ग्यारहवें में कषाय का उदय नहीं होता, उसकी सत्तामात्र होती है; पर बारहवें में तो कषाय की सत्ता भी नहीं होती ।
(ख) 'अछाद्मस्थिकयथाख्यातसंयम' केवलियों को होता है । सयोगी केवली का संयम 'सयोगीयथाख्यात' और अयोगी केवली का संयम ‘अयोगीयथाख्यात' है।
(६) कर्मबन्ध-जनक आरम्भ समारम्भ से किसी अंश में निवृत्त होना 'देशविरतिसंयम' कहलाता है। इसके अधिकारी गृहस्थ हैं ।
१. श्रावक की दया का परिमाण – मुनि सब तरह की हिंसा से मुक्त रह सकते हैं, इसलिये उनकी दया परिपूर्ण कही जाती है। पर गृहस्थ वैसे रह नहीं सकते; इसलिये उनकी
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(७) किसी प्रकार के संयम का स्वीकार न करना ‘अविरति' है। यह पहले से चौथे तक चार गुणस्थानों में पायी जाती है।
(९) दर्शनमार्गणा के चार' भेदों का स्वरूप
(१) चक्षु (नेत्र) इन्द्रिय के द्वारा जो सामान्य बोध होता है, वह 'चक्षुर्दर्शन' है।
(२) चक्षु को छोड़ अन्य इन्द्रिय के द्वारा तथा मन के द्वारा जो सामान्य बोध होता है, वह 'अचक्षुर्दर्शन' है।
(३) अवधिलब्धि वालों को इन्द्रियों की सहायता के बिना ही रूपी द्रव्यविषयक जो सामान्य बोध होता है, वह 'अवधिदर्शन' है।
(४) सम्पूर्ण द्रव्य-पर्यायों को सामान्य रूप से विषय करने वाला बोध 'केवलदर्शन' है।
दर्शन को अनाकार-उपयोग इसलिये कहते हैं कि इसके द्वारा वस्तु के सामान्य-विशेष, उभय रूपों में से सामान्य रूप (सामान्य आकार) मुख्यतया जाना
दया का परिमाण बहुत-कम कहा गया है। यदि मुनियों की दया को बीस अंश मान लें तो श्रावकों की दया को सवा अंश कहना चाहिये। इसी बात को जैनशास्त्रीय परिभाषा में कहा है कि 'साधुओं की दया बीस बिस्वा और श्रावकों की दया सवा बिस्वा है। इसका कारण यह है कि श्रावक, त्रस जीवों की हिंसा को छोड़ सकते हैं, बादर जीवों की हिंसा को नहीं। इससे मुनियों की बीस बिस्वा दया की अपेक्षा आधा परिमाण रह जाता है। इसमें भी श्रावक, त्रस की संकल्पपूर्वक हिंसा का त्याग कर सकते हैं, आरम्भ-अन्य हिंसा को नहीं। अतएव उस आधे परिमाण में से भी आधा हिस्सा निकल जाने पर पाँच बिस्वा दया बचती है। इरादा-पूर्वक हिंसा भी उन्हीं वसों की त्याग की जा सकती है, जो निरपराध हैं। सापराध त्रसों की हिंसा से श्रावक मुक्त नहीं हो सकते, इससे ढाई बिस्वा दया रहती है। इसमें से भी आधा अंश निकल जाता है; क्योंकि निरपराध त्रसों की भी सापेक्ष हिंसा श्रावकों के द्वारा हो ही जाती है, वे उनकी निरपेक्ष हिंसा नहीं करते। इसी से श्रावकों की दया का परिमाण सवा बिस्सा माना है। इस भाव को जानने के लिये एक प्राचीन गाथा इस प्रकार है
'जीवा सहुमा थूला, संकप्पा आरंभा भवे दुविहा।
सावराह निरवराहा, सविक्खा चेव निरविक्खा।।' इसके विशेष खुलासे के लिये देखिये, जैनतत्त्वादर्श का परिच्छेद १८ वाँ। १. यद्यपि सब जगह दर्शन के चार भेद ही प्रसिद्ध हैं और इसी से मन: पर्यायदर्शन
नहीं माना जाता है। तथापि कहीं-कहीं मन:पर्यायदर्शन को भी स्वीकार किया है। इसका उल्लेख, तत्त्वार्थ-अ. १, सू. २४ की टीका में है'केचित्तु मन्यन्ते प्रज्ञापनायां मनःपर्यायज्ञाने दर्शनता पठ्यते ।
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जाता है। अनाकार-उपयोग को न्याय-वैशेषिक आदि दर्शनों में 'निर्विकल्प अव्यवसायात्मक ज्ञान' कहते हैं।।१२।।
(१०) लेश्या के भेदों का स्वरूप किण्हा नीला काऊ, तेऊ पम्हा य सुक्क भव्वियरा। वेयगखइगुवसममि,-च्छमीससासाण संनियरे।।१३।।
कृष्णा नीला कापोता, तेजः पद्मा च शुक्ला भव्येतरौ।
वदकक्षायिकोपशममिथ्यामिश्रसासादनान संज्ञीतरौ।।१३।।
अर्थ-कृष्ण, नील, कापोत, तेज, पद्म और शुक्ल, ये छह लेश्यायें हैं, भव्यत्व, अभव्यत्व, ये दो भेद भव्यमार्गणा के हैं। वेदक (क्षायोपशमिक), क्षायिक, औपशमिक, मिथ्यात्व, मिश्र और सासादन, ये छह भेद सम्यक्त्वमार्गणा के हैं। संज्ञित्व, असंज्ञित्व, ये दो भेद संज्ञिमार्गणा के हैं।।१३।।
भावार्थ-(१) काजल के समान कृष्ण वर्ण के लेश्या-जातीय पुद्गलों के सम्बन्ध से आत्मा में ऐसा परिणाम होता है, जिससे हिंसा आदि पाँच आस्रवों में प्रवृत्ति होती है; मन, वचन तथा शरीर का संयम नहीं रहता, स्वभाव क्षुद्र बन जाता है; गुण-दोष की परीक्षा किये बिना ही कार्य करने की आदत-सी हो जाती है और क्रूरता आ जाती है, वह परिणाम 'कृष्णलेश्या' है। ___(२) अशोक वृक्ष के समान नीले रंग के लेश्या-पुद्गलों से ऐसा परिणाम आत्मा में उत्पन्न होता है कि जिससे ईर्ष्या, असहिष्णुता तथा माया-कपट होने लगते हैं, निर्लज्जता आ जाती है, विषयों की लालसा प्रदीप्त हो उठती है; रस-लोलुपता होती है और सदा पौलिक सुख की खोज की जाती है, वह परिणाम 'नीललेश्या' है।
(३) कबूतर के गले के समान रक्त तथा कृष्ण वर्ण के पुद्गलों से इस प्रकार का परिणाम आत्मा में उत्पन्न होता है, जिससे बोलने, काम करने और विचारने में सब-कहीं वक्रता ही वक्रता होती है; किसी विषय में सरलता नहीं होती; नास्तिकता आती है और दूसरों को कष्ट हो, ऐसा भाषण करने की प्रवृत्ति होती है, वह परिणाम ‘कापोतलेश्या' है।
(४) तोते की चौंच के समान रक्त वर्ण के लेश्या-पुदगलों से आत्मा में एक प्रकार का परिणाम होता है, जिससे कि नम्रता आ जाती है, शठता दूर हो जाती है, चपलता रुक जाती है; धर्म में रुचि तथा दृढ़ता होती है और सब
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चौथा कर्मग्रन्थ लोगों का हित करने की इच्छा होती है, वह परिणाम 'तेजोलेश्या' है।
(५) हल्दी के समान पीले रंग के लेश्या-पुद्गलों से एक तरह का परिणाम आत्मा में होता है, जिससे क्रोध, मान आदि कषाय बहुत अंशों में मन्द हो जाते हैं; चित् प्रशान्त हो जाता है आत्म-संयम किया जा सकता है; मित-भाषिता और जितेन्द्रियता आ जाती है, वह परिणाम ‘पद्मलेश्या' है।
(६) 'शुक्ललेश्या', उस परिणाम को समझना चाहिये, जिससे कि आर्त्तरौद्र-ध्यान बन्द होकर धर्म तथा शुक्ल-ध्यान होने लगता है; मन, वचन और शरीर को नियमित बनाने में रुकावट नहीं आती; कषाय की उपशान्ति होती है और वीतराग-भाव सम्पादन करने की भी अनुकूलता हो जाती है। ऐसा परिणाम शङ्ख के समान श्वेत वर्ण के लेश्याजातीय-पुद्गलों के सम्बन्ध से होता है।
(११) भव्यत्वमार्गणा के भेदों का स्वरूप (१) 'भव्य' वे हैं, जो अनादि तादृश-पारिणामिक-भाव के कारण मोक्ष को पाते हैं या पाने की योग्यता रखते हैं।
(२) जो अनादि तथाविध परिणाम के कारण किसी समय मोक्ष पाने की योग्यता ही नहीं रखते, वे 'अभव्य' हैं।
(१२) सम्यक्त्व मार्गणा के भेदों का स्वरूप
(१) चार अनन्तानुबन्धी कषाय और दर्शनमोहनीय के उपशम से प्रकट होनेवाला तत्त्व-रुचि रूप आत्म-परिणाम, 'औपशमिकसम्यक्त्व' है। इसके (क) 'ग्रन्थि-भेद-जन्य' और (ख) 'उपशमश्रेणि-भावी', ये दो भेद हैं।
१. अनेक भव्य ऐसे हैं कि जो मोक्ष की योग्यता रखते हुए भी उसे नहीं पाते; क्योंकि
उन्हें वैसी अनुकूल सामग्री ही नहीं मिलती, जिससे कि मोक्ष प्राप्त हो। इसलिये उन्हें 'जाति भव्य' कहते हैं। ऐसी भी मिट्टी है कि जिसमें सुवर्ण के अंश तो हैं, पर अनुकूल साधन के अभाव से वे न तो अब तक प्रकट हुए और न आगे ही प्रकट होने की सम्भावना है; तो भी उस मिट्टी को योग्यता की अपेक्षा से जिस प्रकार 'सुवर्ण-मृत्तिका' (सोने की मिट्टी) कह सकते हैं, वैसे ही मोक्ष की योग्यता होते हुए भी उसके विशिष्ट साधन न मिलने से, मोक्ष को कभी न पा सकनेवाले जीवों को 'जातिभव्य' कहना विरुद्ध नहीं। इसका विचार प्रज्ञापना के १८वें पद की टीका में, उपाध्यायसमयसुन्दरगणि-कृत विशेषशंतक में तथा भगवती के १२वें शतक के २रे 'जयन्ती'
नामक अधिकार में है। २. देखिये, परिशिष्ट ‘झ।
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मार्गणास्थान-अधिकार
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(क) 'ग्रन्थि-भेद-जन्य' औपशमिक सम्यक्त्व' अनादि-मिथ्यात्वी भव्यों को होता है। इसके प्राप्त होने की प्रक्रिया का विचार दूसरे कर्मग्रन्थ कीरी गाथा के भावार्थ में लिखा गया है। इसको 'प्रथमोपशम सम्यक्त्व' भी कहा है।
(ख) 'उपशमश्रेणि-भावी औपशमिक सम्यक्त्व' की प्राप्ति चौथे, पाँचवें, छठे या सातवें से किसी भी गुणस्थान में हो सकती है; परन्तु आठवें गुणस्थान में तो उसकी प्राप्ति अवश्य ही होती है।
औपशमिक सम्यक्त्व के समय आयुबन्ध, मरण, अनन्तानुबन्धी कषाय का बन्ध तथा अनन्तानुबन्धी कषाय का उदय, ये चार बातें नहीं होती। पर उससे च्युत होने के बाद सास्वादन-भाव के समय उक्त चारों बातें हो सकती हैं।
(२) अनन्तानुबन्धीय और दर्शनमोहनीय के क्षयोपशम से प्रकट होनेवाला तत्त्व-रुचि रूप परिणाम, 'क्षायोपशमिकसम्यक्त्व' है।
(३) जो तत्त्व-रुचि रूप परिणाम, अनन्तानुबन्धी-चतुष्क और दर्शनमोहनीय-त्रिक के क्षय से प्रकट होता है, वह 'क्षायिक सम्यक्त्व' है।
यह क्षायिक सम्यक्त्व, जिन-कालिक' मनुष्यों को होता है। जो जीव, आयुबन्ध करने के बाद इसे प्राप्त करते हैं, वे तीसरे या चौथे भव में मोक्ष पाते हैं; परन्तु अगले भव की आयु बाँधने के पहले जिनको यह सम्यक्त्व प्राप्त होता है, वे वर्तमान भव में ही मुक्त होते हैं।
(४) औपशमिक सम्यक्त्व का त्याग कर मिथ्यात्व के अभिमुख होने के समय, जीव का जो परिणाम होता है, उसी को ‘सासादन सम्यक्त्व' कहते हैं। इसकी स्थिति, जघन्य एक समय की और उत्कृष्ट छ: आवलिकाओं की होती है। इसके समय, अनन्तानुबन्धी कषायों का उदय रहने के कारण, जीव के परिणाम निर्मल नहीं होते। सासादन में अतत्त्व-रुचि, अव्यक्त होती है और मिथ्यात्व में व्यक्त, यही दोनों में अन्तर है।
(५) तत्त्व और अतत्त्व, इन दोनों की रुचि रूप मिश्र परिणाम जो सम्यग्मिथ्यामोहनीयकर्म के उदय से होता है, वह मिश्रसम्यक्त्व (सम्यग्मिथ्यात्व)' है। १. यह मत, श्वेताम्बर-दिगम्बर दोनों को एक-सा इष्ट है। 'दंसणखवणस्सरिहो, जिणकालीयो पुमट्ठवासुवरि' इत्यादि।
-पञ्चसंग्रह पृ. १२६५। 'दसणमोहक्खवणा,-पद्धवगो कम्मभूमिजो मणुसो। तित्थयरपायमूले, केवलिसुदकेवलीमूले।।११०।।' -लब्धिसार।
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चौथा कर्मग्रन्थ
(६) 'मिथ्यात्व' वह परिणाम है, जो मिथ्यामोहनीय कर्म के उदय से होता है, जिसके होने से जीव, जड़-चेतन का भेद नहीं जान पाता; इसी से आत्मोन्मुख प्रवृत्ति वाला भी नहीं हो सकता है। हठ, कदाग्रह आदि दोष इसी के फल हैं।
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(१३) संज्ञी' मार्गणा के भेदों का स्वरूप
(१) विशिष्ट मन: शक्ति अर्थात् दीर्घकालिकी संज्ञा का होना 'संज्ञित्व' है। (२) उक्त संज्ञा का न होना 'असंज्ञित्व' है ॥ १३ ॥
९. यद्यपि प्राणीमात्र को किसी न किसी प्रकार की संज्ञा होती ही है; क्योंकि उसके बिना जीवत्व ही असम्भव है, तथापि शास्त्र में जो संज्ञी - असंज्ञी का भेद किया गया है, सो दीर्घकालिकी संज्ञा के आधार पर। इसके लिये देखिये, परिशिष्ट 'ग'।
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मार्गणास्थान - अधिकार
(१) मार्गणाओं में जीवस्थान' ।
(पाँच गाथाओं से)
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आहारेयर भेया,
सुरनरयविभंगमइसुओहिदुगे ।
सम्मत्ततिगं पम्हा, - सुक्कासन्नीसु सन्निदुगं । । १४ । । भेदास्सुरनरकविभङ्गमतिश्रुतावधिद्विके ।
आहारेतरौ
सम्यक्त्वत्रिके पद्माशुक्लासंज्ञिषु संज्ञिद्विकम् । । १४ । ।
अर्थ- आहारक मार्गणा के आहारक और अनाहारक, ये दो भेद हैं। देवगति, नरकगति, विभङ्गज्ञान, मतिज्ञान, श्रुतज्ञान, अवधिज्ञान, अवधिदर्शन, तीन सम्यक्त्व (औपशमिक, क्षायिक और क्षायोपशमिक), दो लेश्याएँ (पद्मा और शुक्ला) और संज्ञित्व, इन तेरह मार्गणाओं में अपर्याप्त संज्ञी और पर्याप्त संज्ञी, ये दो जीवस्थान होते हैं || १४ ||
(१४) आहारक मार्गणा के भेदों का स्वरूप
भावार्थ - ( १ ) जो जीव, ओज, लोम और कवल, इनमें से किसी भी प्रकार के आहार को करता है, वह 'आहारक' है।
(२) उक्त तीन तरह के आहार में से किसी भी प्रकार के आहार को जो जीव ग्रहण नहीं करता है, वह 'अनाहारक' है।
देवगति और नरकगति में वर्तमान कोई भी जीव, असंज्ञी नहीं होता। चाहे अपर्याप्त हो या पर्याप्त, पर होते हैं सभी संज्ञी ही। इसी से इन दो गतियों में दो ही जीवस्थान माने गये हैं।
विभङ्गज्ञान को पाने की योग्यता किसी असंज्ञी में नहीं होती। अतः उसमें भी अपर्याप्त - पर्याप्त संज्ञी, ये दो ही जीवस्थान माने गये हैं । २
१. यह विषय पञ्चसंग्रह गाथा २२ से २७ तक में है।
२. यद्यपि पञ्चसंग्रह द्वार १ गाथा २७वीं में यह उल्लेख है कि विभङ्गज्ञान में संज्ञि-पर्याप्त एक ही जीवस्थान है, तथापि उसके साथ इस कर्मग्रन्थ का कोई विरोध नहीं; क्योंकि मूल पद्यसंग्रह में विभङ्गज्ञान में एक ही जीवस्थान कहा है, सो अपेक्षा - विशेष से। अतः अन्य अपेक्षा से विभङ्गज्ञान में दो जीवस्थान भी उसे इष्ट हैं। इस बात का खुलासा श्रीमलयगिरिसूरि ने उक्त २७वीं गाथा की टीका में स्पष्ट कर दिया है। वे लिखते हैं कि ‘संज्ञि-पञ्चेन्द्रियतिर्यञ्च और मनुष्य को अपर्याप्त अवस्था में विभङ्गज्ञान उत्पन्न नहीं होता । तथा जो असंज्ञी जीव मरकर रत्नप्रभा नरक में नारक का जन्म लेते है, उन्हें
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चौथा कर्मग्रन्थ
मतिज्ञान, श्रुतज्ञान, अवधि - द्विक, औपशमिक आदि उक्त तीन सम्यक्त्व और पद्म - शुक्ल - लेश्या, इन नौ मार्गणाओं में दो संज्ञी जीवस्थान माने गये हैं। इसका कारण यह है कि किसी असंज्ञी में सम्यक्त्व का सम्भव नहीं है और सम्यक्त्व के अतिरिक्त मति श्रुत - ज्ञान आदि का होना ही असम्भव है। इस प्रकार संज्ञी के अतिरिक्त दूसरे जीवों में पद्म या शुक्ल- लेश्या के योग्य परिणाम नहीं हो सकते। अपर्याप्त-अवस्था में मति - श्रुत - ज्ञान और अवधि-द्विक इसलिये माने जाते हैं कि कोई-कोई जीव तीन ज्ञानसहित जन्म ग्रहण करते हैं। जो जीव, आयु बाँधने के बाद क्षायिक सम्यक्त्व प्राप्त करता है, वह बँधी हुई आयु के अनुसार चार गतियों में से किसी भी गति में जाता है। इसी अपेक्षा से अपर्याप्तअवस्था में क्षायिक सम्यक्त्व माना जाता है। उस अवस्था में क्षायोपशमिक सम्यक्त्व मानने का कारण यह है कि भावी तीर्थङ्कर आदि, देव जब गति से निकल कर मनुष्य जन्म ग्रहण करते हैं, तब वे क्षायोपशमिक सम्यक्त्वसहित होते हैं। औपशमिक सम्यक्त्व के विषय में यह जानना चाहिये कि आयु के पूरे हो जाने से जब कोई औपशमिक सम्यक्त्वी ग्यारहवें गुणस्थान से च्युत होकर अनुत्तरविमान में पैदा होता है तब अपर्याप्त अवस्था में औपशमिक सम्यक्त्व पाया जाता है।
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भी अपर्याप्त अवस्था में विभङ्गज्ञान नहीं होता। इस अपेक्षा से विभङ्गज्ञान में एक (पर्याप्त संज्ञिरूप) जीवस्थान कहा गया है। सामान्य दृष्टि से उसमें दो जीवस्थान ही समझने चाहिये। क्योंकि जो संज्ञी जीव, मरकर देव या नारकरूप से पैदा होते हैं, उन्हें पर्याप्त अवस्था में भी विभङ्गज्ञान होता है।
१.
वह मन्तव्य ‘सप्ततिका' नामक छठे कर्मग्रन्थ की चूर्णी और पञ्चसंग्रह के मतानुसार समझना चाहिये। चूर्णी में अपर्याप्त अवस्था के समय नारकों में क्षायोपशमिक और क्षायिक, ये दो; पर देवों में औपशमिक सहित तीन सम्यक्त्व माने हैं। पञ्चसंग्रह में भी द्वार १ गा. २५वीं तथा उसकी टीका में उक्त चूर्णी के मत की ही पुष्टि की गई है । गोम्मटसार भी इसी मत के पक्ष में है; क्योंकि वह द्वितीय-उपशमश्रेणि-भावीउपशमसम्यक्त्व को अपर्याप्त अवस्था के जीवों को मानता है। इसके लिये देखिये, जीवकाण्ड की, गा. ७२९ ।
परन्तु कोई आचार्य यह मानते हैं कि 'अपर्याप्त अवस्था में औपशमिक सम्यक्त्व नहीं होता। इससे उसमें केवल पर्याप्त संज्ञी जीवस्थान मानना चाहिये।' इस मत के समर्थन में वे कहते हैं कि 'अपर्याप्त अवस्था में योग्य (विशुद्ध) अध्यवसाय न होने से औपशमिक सम्यक्त्व नया तो उत्पन्न ही नहीं हो सकता। रहा पूर्व-भव में प्राप्त किया हुआ, सो उसका भी अपर्याप्त अवस्था तक रहना शास्त्र सम्मत नहीं है; क्योंकि औपशमिक सम्यक्त्व दो प्रकार का है। एक तो वह, जो अनादि मिथ्यात्वी को पहले
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मार्गणास्थान- अधिकार
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संज्ञिमार्गणा में दो संज्ञि - जीवस्थान के अतिरिक्त अन्य किसी जीवस्थान का सम्भव नहीं है; क्योंकि अन्य सब जीवस्थान असंज्ञी ही हैं।
देवगति आदि उपर्युक्त मार्गणाओं में अपर्याप्त संज्ञी का मतलब करणअपर्याप्त से है, लब्धि - अपर्याप्त से नहीं। इसका कारण यह है कि देवगति और नरकगति में लब्धि- अपर्याप्त रूप से कोई जीव पैदा नहीं होते और न लब्धिअपर्याप्त को, मति आदि ज्ञान, पद्म आदि लेश्या तथा सम्यक्त्व होता है || १४ ||
-
सबायर
अपज्ज
तमसंनिअपज्जजुयं, नरे तेऊए । थावर इगिंदि पढमा, - चउ बार असन्नि दु दुबगले । । १५ ।। तदसंज्ञ्यपर्याप्तयुतं, नरे सबादरापर्याप्तं तेजसि । स्थावर एकेन्द्रिये प्रथमानि चत्वारि द्वादशासंज्ञिनि द्वे द्वे विकले । । १५ । ।
पहल होता है। दूसरा वह, जो उपशमश्रेणि के समय होता है। इसमें पहले प्रकार के सम्यक्त्व के सहित तो जीव मरता ही नहीं। इसका प्रमाण आगम में इस प्रकार है'अणबंधोद्यमाउग, - बंधं कालं च सासणो कुणई।
उवसमसम्मद्दिट्ठी, चउण्हमिक्कं पि नो कुणई । । '
अर्थात् 'अनन्तानुबन्धी का बन्ध, उसका उदय, आयु का बन्ध और मरण, ये चार कार्य दूसरे गुणस्थान में होते हैं, पर इनमें से एक भी कार्य औपशमिक सम्यक्त्व में नहीं होता।'
दूसरे प्रकार के औपशमिक सम्यक्त्व के विषय में यह नियम है कि उसमें वर्तमान जीव मरता तो है, पर जन्म ग्रहण करते ही सम्यक्त्वमोहनीय का उदय होने से वह औपशमिक सम्यक्त्वी न रह कर क्षायोपशमिक सम्यक्त्वी बन जाता है। यह बात शतक (पाँचवें कर्मग्रन्थ) की बृहत्चूर्णी में लिखी है
'जो उवसमसम्मद्दिट्ठी उवसमसेढीए कालं करेइ सो पढमसमयें चेव सम्मत्तपुंजं उदयावलियाए, छोढूण सम्मत्तपुग्गले वेएइ, तेण न उवसमसम्मद्दिट्ठी अपज्जत्तगो
लब्भइ । '
अर्थात् 'जो उपशमसम्यग्दृष्टि, उपशमश्रेणि में मरता है, वह मरण के प्रथम समय में ही सम्यक्त्वमोहनीय-पुञ्ज को उदयावलिका में लाकर उसे वेदता है, इससे अपर्याप्तअवस्था में औपशमिक सम्यक्त्व पाया नहीं जा सकता।'
इस प्रकार अपर्याप्त अवस्था में किसी तरह के औपशमिक सम्यक्त्व का सम्भव न होने से उन आचार्यों के मत से सम्यक्त्व में केवल पर्याप्त संज्ञी जीवस्थान ही माना जाता है।
इस प्रसङ्ग में श्रीजीवविजयजी ने अपने टब्बे में ग्रन्थ के नाम का उल्लेख किये बिना ही उसकी गाथा को उद्धृत करके लिखा है कि औपशमिक सम्यक्त्वी ग्यारहवें गुणस्थान से गिरता है सही; पर उसमें मरता नहीं। मरनेवाला क्षायिकसम्यक्त्वी ही होता है। गाथा इस प्रकार है
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चौथा कर्मग्रन्थ
अर्थ-मनुष्यगति में पूर्वोक्त संज्ञि-द्विक (अपर्याप्त तथा पर्याप्त संज्ञी) और अपर्याप्त असंज्ञी, ये तीन जीवस्थान हैं। तेजोलेश्या में बादर अपर्याप्त और संज्ञिद्विक, ये तीन जीवस्थान हैं। पाँच स्थावर और एकेन्द्रिय में पहले चार (अपर्याप्त सूक्ष्म, पर्याप्त सूक्ष्म, अपर्याप्त बादर और पर्याप्त बादर) जीवस्थान हैं। असंज्ञिमार्गणा में संज्ञि-द्विक के अतिरिक्त पहले बारह जीवस्थान हैं। विकलेन्द्रिय में दो-दो (अपर्याप्त तथा पर्याप्त) जीवस्थान हैं।।१५।।
भावार्थ-मनुष्य दो प्रकार के हैं-गर्भज और सम्मूछिम। गर्भज सभी संज्ञी ही होते हैं, वे अपर्याप्त तथा पर्याप्त दोनों प्रकार के पाये जाते हैं। पर. संमूछिम मनुष्य, जो ढाई द्वीप-समुद्र में गर्भज मनुष्य के मल-मूत्र, शुक्र-शोणित आदि में पैदा होते हैं, उनकी आयु अन्तर्मुहूर्त्त-प्रमाण ही होती है। वे स्वयोग्य पर्याप्तियों को पूर्ण किये बिना ही मर जाते हैं, इसी से उन्हें लब्धि-अपर्याप्त ही मानना है, तथा वे असंज्ञी ही माने गये हैं। इसलिए सामान्य मनुष्यगति में उपर्युक्त तीन ही जीवस्थान पाये जाते हैं।
'उवसमसेढिं पत्ता, मरंति उवसमगुणेसु जे सत्ता। ते लवसत्तम देवा, सव्वढे खयसमत्तजुआ।।' ।
इसका मतलब यह है कि 'जो जीव उपशमश्रेणि को ग्यारहवें गुणस्थान में मरते हैं, लवसप्तम कहलाने का सबब यह है कि सात लव-प्रमाण आयु कम होने से उनको देव का जन्म ग्रहण करना पड़ता है। यदि उनकी आयु और भी अधिक होती तो
देव हुए विना उसी जन्म में मोक्ष होता। १. जैसे, भगवान् श्यामाचार्य प्रज्ञापना पृ. ५०/१ में वर्णन करते हैं
'कहिणं भन्ते संमुच्छिममणुस्सा संमुच्छंति? गोयमा! अंतो मणुस्सखेतस्स पणयालीसाए जोयणसयसहस्सेसु अड्डाइज्जेसु दीवसमुद्देसु पन्नरससु कम्मभूमीसु तीसाए अकम्मभूमीसु छप्पनाए अन्तरदीवेसु गब्भवक्कंतियमणुस्साणं चेव उच्चारेसु वा पासवणेसु वा खेलेसु वा वंतेसु वा पित्तेसु वा सुक्केसु वा सोणिएसु वा सुक्कपुग्गलपरिसाडेसु वा विगयजीवकलेवरेसु वा थीपुरिससंजोगेसु वा नगरनिद्धमणेसु वा सव्वेसु चेव असुइठाणसु इच्छणं संमुच्छिममणुस्सा संमुच्छंति अंगुलस्स असंखभागमित्ताए ओगाहणाए असन्नी मिच्छदिट्ठी अन्नाणी सव्वाहिं पज्जत्तीहिं अपज्जत्ता अंतमुहुत्ताउया चेव कालं करंति ति।'
इसका सार संक्षेप में इस प्रकार है-'प्रश्न करने पर भगवान् महावीर गणधर गौतम से कहते हैं कि पैंतालीस लाख योजन-प्रमाण मनुष्य-क्षेत्र के भीतर ढाई द्वीपसमुद्र में पन्द्रह कर्मभूमि, तीस अकर्मभूमि और छप्पन अन्तद्वीपों में गर्भज-मनुष्यों के मल, मूत्र, कफ आदि सभी अशुचि-पदार्थों में संमूछिम पैदा होते हैं, जिनका देहपरिमाण अंगुल के असंख्यातवें भाग के बराबर हैं, जो असंयती, मिथ्यात्वी तथा अज्ञानी होते हैं और जो अपर्याप्त ही हैं तथा अन्तर्मुहूर्त्तमात्र में मर जाते हैं।
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मार्गणास्थान-अधिकार तेजोलेश्या पर्याप्त तथा अपर्याप्त, दोनों प्रकार के संज्ञियों में पायी जाती है तथा वह बादर एकेन्द्रिय में भी अपर्याप्त-अवस्था में होती है, इसी से उस लेश्या में उपर्युक्त तीन जीवस्थान माने हुए हैं। बादर एकेन्द्रिय को अपर्याप्तअवस्था में तेजोलेश्या मानी जाती है, सो इस अपेक्षा से कि भवनपति, व्यन्तर? आदि देव, जिनमें तेजोलेश्या का सम्भव है वे जब तेजोलेश्यासहित मरकर पृथिवी, पानी या वनस्पति में जन्म ग्रहण करते हैं, तब उनको अपर्याप्त (करणअपर्याप्त) अवस्था में कुछ काल तक तेजोलेश्या रहती है।
पहले चार जीवस्थान के अतिरिक्त अन्य किसी जीवस्थान में एकेन्द्रिय तथा स्थावरकायिक जीव नहीं हैं। इसी से एकेन्द्रिय और पाँच स्थावर काय, इन छ: मार्गणाओं में पहले चार जीवस्थान माने गये हैं।
चौदह जीवस्थानों में से दो ही जीवस्थान संज्ञी हैं। इसी कारण असंज्ञीमार्गणा में बारह जीवस्थान समझना चाहिये।
प्रत्येक विकलेन्द्रिय में अपर्याप्त तथा पर्याप्त दो-दो जीवस्थान पाये जाते हैं, इसी से विकलेन्द्रिय मार्गणा में दो-ही-दो जीवस्थान माने गये हैं।।१५।।
दस चरम तसे अजया,-हारगतिरितणुकसायदुअनाणे। पढमतिलेसाभवियर,-अचक्खुनपुमिच्छि सव्वे वि।।१६।। दश चरमाणि सेऽयताहारकतिर्यक्तनुकषायव्यज्ञाने। प्रथमत्रिलेश्याभव्येतराऽचक्षुर्नपुंमिथ्यात्वे सर्वाण्यपि।।१६।।
अर्थ-त्रसकाय में अन्तिम दस जीवस्थान हैं अविरति, आहारक, तिर्यञ्चगति, काययोग, चार कषाय, मति-श्रुत दो अज्ञान, कृष्ण आदि पहली तीन लेश्याएँ, भव्यत्व, अभव्यत्व, अचक्षुर्दर्शन, नपुंसकवेद और मिथ्यात्व, इन अठारह मार्गणाओं में सभी (चौदह) जीवस्थान पाये जाते हैं।।१६।।
१. "किण्हा नीला काऊ, तेऊलेसा य भवणवंतरिया। जोइससोहम्मीसा,-ण तेऊलेसा मुणेयव्या।।१९३।।' -बृहत्संग्रहणी।
अर्थात् 'भवनपति और व्यन्तर में कृष्ण आदि चार लेश्याएँ होती हैं; किन्तु ज्योतिष और सौधर्म-ईशान देवलोक में तेजोलेश्या ही होती है।' २. 'पुढवी आउवणस्सइ, गम्भे पज्जत्त संखजीवेसु।। सग्गचुयाणं वासो, सेसा पडिसेहिया ठाणा।।' -विशेषावश्यकभाष्य।
अर्थात् 'पृथ्वी, जल, वनस्पति और संख्यात-वर्ष-आयुवाले गर्भज-पर्याप्त, इन स्थानों ही में स्वर्ग-च्युत देव पैदा होते हैं, अन्य स्थानों में नहीं।'
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चौथा कर्मग्रन्थ भावार्थ-चौदह में से अपर्याप्त और पर्याप्त सूक्ष्म-एकेन्द्रिय तथा अपर्याप्त और पर्याप्त बादर-एकेन्द्रिय, इन चार के अतिरिक्त शेष दस जीवस्थान त्रसकाय में हैं, क्योंकि उन दस में ही त्रसनामकर्म का उदय होता है और इससे वे स्वतन्त्रतापूर्वक चल-फिर सकते हैं।
____ अविरति आदि उपर्युक्तं अठारह मार्गणाओं में सभी जीवस्थान, इसलिये माने जाते हैं कि सब प्रकार के जीवों में इन मार्गणाओं का सम्भव है।
__ मिथ्यात्व में सब जीवस्थान कहे हैं। अर्थात् सब जीवस्थानों में सामान्यतः मिथ्यात्व कहा है; किन्तु पहले बारह जीवस्थानों में अनाभोग मिथ्यात्व समझना चाहिये; क्योंकि उनमें अनाभोग-जन्य (अज्ञान-जन्य) अतत्त्व-रुचि है। पञ्चसंग्रह में 'अनभिग्रहिक-मिथ्यात्व' उन जीवस्थानों में लिखा है, सो अन्य अपेक्षा से। अर्थात् देव-गुरु-धर्म-का स्वीकार न होने के कारण उन जीवस्थानों का मिथ्यात्व 'अनभिग्रहिक' भी कहा जा सकता है।।१६।। पजसनी
केवलद्ग,-संजयमणनाणदेसमणमीसे। पण चरमपज्ज वयणे, तिय छ व पज्जियर चक्खूमि।।१७।। पर्याप्तसंज्ञी
केवलद्विक-संयतमनोज्ञानदेशमनोमिश्रे। पञ्च चरमपर्याप्तानि वचने, त्रीणि षड् वा पर्याप्तेतराणि चक्षुषि।।१७।।
अर्थ-केवल-द्विक (केवलज्ञान-केवलदर्शन) सामायिक आदि पाँच संयम, मन:पर्यायज्ञान, देशविरति, मनोयोग और मिश्रसम्यक्त्व, इन ग्यारह मार्गणाओं में सिर्फ पर्याप्त संज्ञी जीवस्थान है। वचनयोग में अन्तिम पाँच (द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय, असंज्ञि-पञ्चेन्द्रिय और संज्ञि-पञ्चेन्द्रिय) पर्याप्त जीवस्थान हैं। चक्षुर्दर्शन में पर्याप्त तीन (चतुरिन्द्रिय, असंज्ञि-पञ्चेन्द्रिय और संज्ञि-पञ्चेन्द्रिय) जीवस्थान हैं या मतान्तर से पर्याप्त और अपर्याप्त दोनों प्रकार के उक्त तीन अर्थात् कुल छह जीवस्थान हैं।।१७।।
भावार्थ-केवल-द्विक आदि उपर्युक्त ग्यारह मार्गणाओं में सिर्फ पर्याप्त संज्ञी जीवस्थान माना जाता है। इसका कारण यह है कि पर्याप्त संज्ञी के अतिरिक्त अन्य प्रकार के जीवों में न सर्वविरति का और न देशविरति का संभव है। अतएव संज्ञि-भिन्न जीवों में केवल-द्विक, पाँच संयम, देशविरति और मन:पर्यायज्ञान, जिनका सम्बन्ध विरति से है, वे हो ही नहीं सकते। इसी तरह पर्याप्त संज्ञी
१. देखिये, परिशिष्ट 'ट'।
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मार्गणास्थान-अधिकार
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के अतिरिक्त अन्य जीवों में तथाविध-द्रव्यमान का सम्बन्ध न होने के कारण मनोयोग नहीं होता और मिश्रसम्यक्त्व की योग्यता भी नहीं होती।
एकेन्द्रिय में भाषापर्याप्ति नहीं होती। भाषापर्याप्ति के अतिरिक्त वचनयोग का होना संभव नहीं। द्वीन्द्रिय आदि जीवों में भाषापर्याप्ति का संभव है। वे जब सम्पूर्ण स्वयोग्य पर्याप्तियाँ पूर्ण कर लेते हैं, तभी उनमें भाषापर्याप्ति के हो जाने से वचनयोग हो सकता है। इसी से वचनयोग में पर्याप्त द्वीन्द्रिय आदि उपर्युक्त पाँच जीवस्थान माने हुए हैं।
आँख वालों को ही चक्षुर्दर्शन हो सकता है। चतुरिन्द्रिय, असंज्ञिपञ्चेन्द्रिय और संज्ञि-पञ्चेन्द्रिय, इन तीन प्रकार के ही जीवों को आँखें होती हैं। इसी से इनके अतिरिक्त अन्य प्रकार के जीवों में चक्षुर्दर्शन का अभाव है। उक्त तीन प्रकार के जीवों के विषय में भी दो मत' हैं।
पहले मत के अनुसार उनमें स्वयोग्य पर्याप्तियाँ पूर्ण बन जाने के बाद ही चक्षुर्दर्शन माना जाता है। दूसरे मत के अनुसार स्वयोग्य पर्याप्तियाँ पूर्ण होने
१. इन्द्रियपर्याप्ति की नीचे-लिखी दो व्याख्यायें, इन मतों की जड़ हैं
(क) 'इन्द्रियपर्याप्ति जीव की वह शक्ति है, जिसके द्वारा धातुरूप में परिणत आहार-पुद्गलों में से योग्य पुद्गल, इन्द्रियरूप में परिणत किये जाते हैं।'
यह व्याख्या प्रज्ञापना-वृत्ति तथा पञ्चसंग्रह वृत्ति पृ. ६/१ में है। इस व्याख्या के अनुसार इन्द्रियपर्याप्ति का मतलब, इन्द्रिय-जनक शक्ति से है। इस व्याख्या को माननेवाले पहले मत का आशय यह है कि स्वयोग्य पर्याप्तियाँ पूर्ण बन चुकने के बाद (पर्याप्ति-अवस्था में) सब को इन्द्रियजन्यं उपयोग होता है, अपर्याप्त-अवस्था में नहीं। इसलिये इन्द्रियपर्याप्ति पूर्ण बन चुकने के बाद, नेत्र होने पर भी अपर्याप्तअवस्था में चतुरिन्द्रिय आदि को चक्षुर्दर्शन नहीं माना जाता।
(ख) 'इन्द्रियपर्याप्ति जीव की वह शक्ति है, जिसके द्वारा योग्य आहार पुद्गलों
को इन्द्रियरूप में परिणत करके इन्द्रिय-जन्य बोध का सामर्थ्य प्राप्त किया जाता हैयह व्याख्या बृहत् संग्रहणी पृ. १३८ तथा भगवती-वृत्ति पृ. २६६/१ में है। इसके अनुसार
इन्द्रियपर्याप्ति का मतलब, इन्द्रिय-रचना से लेकर इन्द्रिय-जन्य उपयोग तक की सब क्रियाओं को करनेवाले शक्ति से है। इस व्याख्या को माननेवाले दूसरे मत के अनुसार इन्द्रियपर्याप्ति पूर्ण बन जाने से अपर्याप्त-अवस्था में भी सबको इन्द्रिय-जन्य उपयोग होता है। इसलिये इन्द्रियपर्याप्ति बन जाने के बाद नेत्र-जन्य उपयोग होने के कारण अपर्याप्त-अवस्था में भी चतुरिन्द्रिय आदि को चक्षुर्दर्शन मानना चाहिये। इस मत की पुष्टि, पञ्चसंग्रह-मलयगिरि-वृत्ति के ८/१ पृष्ठ पर उल्लिखित इस मन्तव्य से होती है___'करणापर्याप्तेषु चतुरिन्द्रियादिष्विन्द्रियपर्याप्तौ सत्यां चक्षुर्दर्शनमपि प्राप्यते।' इन्द्रियपर्याप्ति को उक्त दोनों व्याख्याओं का उल्लेख, लोक प्र.सं., श्लो. २०-२१ में है।
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चौथा कर्मग्रन्थ
के पहले भी-अपर्याप्त-अवस्था में भी-चक्षुर्दर्शन माना जाता है; किन्तु इसके लिये इन्द्रियपर्याप्ति का पूर्ण बन जाना आवश्यक है; क्योंकि इन्द्रियपर्याप्ति न बन जाय तब तक आँख के पूर्ण न बनने से चक्षुर्दर्शन हो ही नहीं सकता। इस दूसरे मत के अनुसार चक्षुर्दर्शन में छह जीवस्थान माने हुए हैं और पहले मत के अनुसार तीन जीवस्थान।।१७॥
थीनरपणिंदि चरमा, चउ अणहारेदु संनि छ अपज्जा। ते सुहुमअपज्ज विणा, सासणि इत्तो गुणे वुच्छं।।१८।। स्त्रीनरपञ्चेन्द्रिये चरमाणि, चत्वार्यनाहार के द्वौ साञ्जनौ षडपर्याप्ताः ।
ते, सूक्ष्मापर्याप्तं विना, सासादन इतो गुणान् वक्ष्ये।।८।। ___ अर्थ-स्त्रीवेद, पुरुषवेद और पञ्चेन्द्रियजाति में अन्तिम चार (अपर्याप्त तथा पर्याप्त असंज्ञि-पञ्चेन्द्रिय, अपर्याप्त तथा पर्याप्त संज्ञि-पञ्चेन्द्रिय) जीवस्थान हैं। अनाहारक मार्गणा में अपर्याप्त-पर्याप्त दो संज्ञी और सूक्ष्म-एकेन्द्रिय, बादरएकेन्द्रिय, द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय और असंज्ञि-पञ्चेन्द्रिय, ये छः अपर्याप्त, कुल आठ जीवस्थान हैं। सासादन सम्यक्त्व में उक्त आठ में से सक्ष्म-अपर्याप्त को छोड़कर शेष सात जीवस्थान हैं।
अब आगे गुणस्थान कहे जायेंगे।।१८।। .
भावार्थ-स्त्रीवेद आदि उपर्युक्त तीन मार्गणाओं में अपर्याप्त असंज्ञिपञ्चेन्द्रिय आदि चार जीवस्थान कहे हुए हैं। इसमें अपर्याप्त का मतलब करणअपर्याप्त से है, लब्धि-अपर्याप्त से नहीं; क्योंकि लब्धि-अपर्याप्त को द्रव्यवेद, नपुंसक ही होता है।
___ असंज्ञि-पञ्चेन्द्रिय को यहाँ स्त्री और पुरुष, ये दो वेद माने हैं और सिद्धान्त' में नपुंसक; तथापि इसमें कोई विरोध नहीं है। क्योंकि यहाँ का कथन द्रव्यवेद की अपेक्षा से और सिद्धान्त का कथन भाववेद की अपेक्षा से हैं। भाव नपुंसकवेद वाले को स्त्री या पुरुष के भी चिह्न होते हैं।
१. 'तेणं भन्ते असंनिपंचेन्द्रिय तिरिक्खजोणिया किं इत्थिवेयगा पुरिसवेयगा नपुंसकवेयगा? गोयमा! नो इथिवेयगा नो पुरिसवेयगा, नपुंसकवेयगा।'
-भगवती। २. 'यद्यपि चासंज्ञिपर्याप्तापर्याप्ती नपुंसको तथापि स्त्रीपुंसलिङ्गाकारमात्रमङ्गीकृत्य
स्त्रीपुंसावुक्ताविति।' -पञ्चसंग्रह द्वार १, गा. २४ की मूल टीका।
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मार्गणास्थान - अधिकार
अनाहारक मार्गणा में आठ जीवस्थान ऊपर कहे हुए हैं, इनमें सात अपर्याप्त हैं और एक पर्याप्त। सब प्रकार के अपर्याप्त जीव, अनाहारकर उस समय होते हैं, जिस समय वे विग्रहगति ( वक्रगति) में एक, दो या तीन समय तक आहार ग्रहण नहीं करते। पर्याप्त संज्ञी को अनाहारक इस अपेक्षा से माना है कि केवलज्ञानी, द्रव्यमन के सम्बन्ध से संज्ञी कहलाते हैं और वे केवलिसमुद्घात के तीसरे, चौथे और पाँचवे समय में कार्मण काययोगी होने के कारण किसी प्रकार के आहार को ग्रहण नहीं करते ।
सासादन सम्यक्त्व में सात जीवस्थान कहे हैं, जिनमें से छ: अपर्याप्त हैं और एक पर्याप्त। सूक्ष्म एकेन्द्रिय को छोड़कर अन्य छः प्रकार के अपर्याप्त जीवस्थानों में सासादन सम्यक्त्व इसलिये माना जाता है कि जब कोई औपशमिकसम्यक्त्व वाला जीव, उस सम्यक्त्व को छोड़ता हुआ बादरएकेन्द्रिय, द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय, असंज्ञि - पञ्चेन्द्रिय या संज्ञि - पञ्चेन्द्रिय में जन्म ग्रहण करता है, तब उसको अपर्याप्त अवस्था में सासादन सम्यक्त्व पाया जाता है; परन्तु कोई जीव औपशमिक सम्यक्त्व को वमन करता हुआ सूक्ष्मएकेन्द्रिय में पैदा नहीं होता, इसलिये उसमें अपर्याप्त अवस्था में सासादन सम्यक्त्व का संभव नहीं है। संज्ञि - पञ्चेन्द्रिय के अतिरिक्त कोई भी जीव, पर्याप्तअवस्था में सासादन सम्यक्त्वी नहीं होता; क्योंकि इस अवस्था में औपशमिक सम्यक्त्व पानेवाले संज्ञी ही होते हैं, दूसरे नहीं ॥ १८ ॥
१. देखिये, परिशिष्ट 'ठ' ।
५७
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चौथा कर्मग्रन्थ
(२) मार्गणाओं में गुणस्थान । ( पाँच गाथाओं से । )
पण तिरि चउ सुरनरए नरसंनिपणिदिभव्वतसि सव्वं । इगविगल भूदगवणे, दु दु एगं गइतसअभव्वे ।। १९ । । पञ्च तिरिश्च चत्वारि सुरनरके, नरसंज्ञिपञ्चेन्द्रियभव्यत्रस सर्वाणि । एकविकलभूदकवने, द्वे द्वे एकं गतित्रसाभव्ये ।। १९ । । अर्थ-तिर्यञ्चगति में पाँच गुणस्थान हैं। देव तथा नरकगति में चार गुणस्थान हैं। मनुष्यगति, संज्ञी, पञ्चेन्द्रियजाति, भव्य और त्रसकाय, इन पाँच मार्गणाओं में सब गुणस्थान हैं। एकेन्द्रिय, विकलेन्द्रिय, पृथ्वीकाय, जलकाय और वनस्पतिकाय में पहला और दूसरा, ये दो गुणस्थान हैं। गतित्रस (तेज:काय और वायुकाय) और अभव्य में एक (पहला ) ही गुणस्थान है || १९ ॥
५८
भावार्थ - तिर्यञ्चगति में पहले पाँच गुणस्थान हैं; क्योंकि जाति-स्वभाव से सर्वविरति का संभव नहीं होता और सर्वविरति के अतिरिक्त छठे आदि गुणस्थानों का संभव नहीं है।
देवगति और नरकगति में पहले चार गुणस्थान माने जाने का सबब यह है कि देव या नारक स्वभाव से ही विरतिरहित होते हैं और विरति के बिना अन्य गुणस्थानों का संभव नहीं है।
मनुष्यगति आदि उपर्युक्त पाँच मार्गणाओं में हर प्रकार के परिणामों के संभव होने के कारण सब गुणस्थान पाये जाते हैं ।
एकेन्द्रिय, विकलेन्द्रिय, पृथ्वीकाय, जलकाय और वनस्पतिकाय में दो गुणस्थान कहे हैं। इनमें से दूसरा गुणस्थान अपर्याप्त अवस्था में ही होता है। एकेन्द्रिय आदि की आयु का बन्ध हो जाने के बाद जब किसी को औपशमिक सम्यक्त्व प्राप्त होता है, तब वह उसे त्याग करता हुआ सासादन सम्यक्त्व सहित एकेन्द्रिय आदि में जन्म ग्रहण करता है। उस समय अपर्याप्त अवस्था में कुछ काल तक दूसरा गुणस्थान पाया जाता है। पहला गुणस्थान तो एकेन्द्रिय आदि के लिये सामान्य है; क्योंकि वे सब अनाभोग (अज्ञान) के कारण तत्त्व - श्रद्धा - हीन होने से मिथ्यात्वी होते हैं। जो अपर्याप्त एकेन्द्रिय आदि, दूसरे गुणस्थान के अधिकारी कहे गये हैं, वे करण अपर्याप्त हैं, लब्धि अपर्याप्त नहीं, क्योंकि लब्धि - अपर्याप्त तो सभी जीव, मिथ्यात्वी ही होते हैं।
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मार्गणास्थान-अधिकार
५९
तेज:काय और वायुकाय, जो गतित्रस या लब्धित्रस कहे जाते हैं, उनमें न तो औपशमिक सम्यक्त्व प्राप्त होता है और न औपशमिक सत्यक्त्व को वमन करनेवाला जीव ही उनमें जन्म ग्रहण करता है, इसी से उनमें पहला ही गुणस्थान कहा गया है।
__ अभव्यों में सिर्फ प्रथम गुणस्थान, इस कारण माना जाता है कि वे स्वभाव से ही सम्यक्त्व-लाभ नहीं कर सकते और सम्यक्त्व प्राप्त किये बिना दूसरे आदि गुणस्थान असम्भव हैं।।१९।।
वेयतिकसाय नव दस, लोभे चउ अजय दु ति अनाणतिगे। बारस अचक्खु चक्खुसु, पढमा अहखाइ चरम चउ।।२०।। वेदात्रिकषाये नव दश, लोभे चत्वार्ययते द्वे त्रीण्यज्ञानत्रिके। द्वादशाचक्षुश्चक्षुषोः, प्रथमानि यथाख्याते चरमाणि चत्वारि।।२०।।
अर्थ-तीन वेद तथा तीन कषाय (संज्वलन-क्रोध, मान और माया) में पहले नौ गुणस्थान पाये जाते हैं। लोभ में (संज्वलनलोभ) दस गुणस्थान होते हैं। अयत (अविरति-) में चार गणस्थान हैं। तीन अज्ञान (मति-अज्ञान, श्रतः अज्ञान और विभङ्गज्ञान-) में पहले दो या तीन गुणस्थान माने जाते हैं। अचक्षुर्दर्शन और चक्षुर्दर्शन में पहले बारह गुणस्थान होते हैं। यथाख्यातचारित्र में अन्तिम चार गुणस्थान हैं।।२०।।
भावार्थ-तीन वेद और तीन संज्वलन-कषाय में नौ गुणस्थान कहे गये हैं, सो उदय की अपेक्षा से समझना चाहिये; क्योंकि उनकी सत्ता ग्यारहवें गुणस्थान पर्यन्त पाई जा सकती है। नौवें गुणस्थान के अन्तिम समय तक में तीन वेद और तीन सज्वलनकषाय या तो क्षीण हो जाते हैं या उपशान्त, इस कारण आगे के गुणस्थानों में उनका उदय नहीं रहता।
सवलनलोभ में दस गुणस्थान उदय की अपेक्षा से ही समझने चाहिये; क्योंकि सत्ता तो उसकी ग्यारहवें गुणस्थान तक पाई जा सकती है।
अविरति में पहले चार-गुणस्थान इसलिये कहे हुए हैं कि पाँचवें से लेकर आगे से सब गुणस्थान विरतिरूप हैं।
अज्ञान-त्रिक में गुणस्थानों की संख्या के विषय में दो मत' हैं। पहला उसमें दो गुणस्थान मानना है और दूसरा तीन गुणस्था। ये दोनों मत कार्मग्रन्थिक हैं। १. इनमें से पहला मत ही गोम्मटसार-जीवकाण्ड की ६८६वीं गाथा में उल्लिखित है।
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चौथा कर्मग्रन्थ (१) दो गुणस्थान माननेवाले आचार्य का अभिप्राय यह है कि तीसरे गुणस्थान के समय शुद्ध सम्यक्त्व न होने के कारण पूर्ण यथार्थ ज्ञान ही न हो, पर उस गुणस्थान में मिश्र-दृष्टि होने से यथार्थ ज्ञान की थोड़ी-बहुत मात्रा रहती ही है। क्योंकि मिश्र-दृष्टि के समय मिथ्यात्व का उदय जब अधिक प्रमाण में रहता है, तब तो अज्ञान का अंश अधिक और ज्ञान का अंश कम होता है। पर जब मिथ्यात्व का उदय मन्द और सम्यक्त्व-पुद्गल का उदय तीव्र रहता है, तब ज्ञान की मात्रा ज्यादा और अज्ञान की मात्रा कम होती है। चाहे मिश्रदृष्टि की कैसी भी अवस्था हो, पर उसमें न्यून-अधिक प्रमाण में. ज्ञान की मात्रा का संभव होने के कारण उस समय के ज्ञान को अज्ञान न मानकर ज्ञान ही मानना उचित है। इसलिये अज्ञान-त्रिक में दो ही गुणस्थान मानने चाहिये।
(२) तीन गुणस्थान माननेवाले आचार्य का आशय यह है कि यद्यपि तीसरे गुणस्थान के समय अज्ञान को ज्ञान-मिश्रित कहारे है। तथापि मिश्र-ज्ञान को ज्ञान मानना उचित नहीं; उसे अज्ञान ही कहना चाहिये। क्योंकि शुद्ध सम्यक्त्व हुए बिना चाहे कैसा भी ज्ञान हो, पर वह है अज्ञान। यदि सम्यक्त्व के अंश के कारण तीसरे गुणस्थान में ज्ञान को अज्ञान न मान कर ज्ञान ही मान लिया जाय तो दूसरे गुणस्थान में भी सम्यक्त्व का अंश होने के कारण ज्ञान को अज्ञान न मान कर ज्ञान ही मानना पड़ेगा, जो कि इष्ट नहीं है। इष्ट न होने का सबब यही है कि अज्ञान-त्रिक में दो गुणस्थान माननेवाले भी दूसरे गुणस्थान में मति आदि को अज्ञान न मानते हैं। सिद्धान्तवादी के सिवाय किसी भी कार्मग्रन्थिक विद्वान् को दूसरे गुणस्थान में मति आदि को ज्ञान मानना इष्ट नहीं है। इस कारण सासादन की तरह मिश्रगुणस्थान में भी मति आदि को अज्ञान मानकर अज्ञानत्रिक में तीन गुणस्थान मानना युक्त है।
__ अचक्षुर्दर्शन तथा चक्षुर्दर्शन में बारह गुणस्थान इस अभिप्राय से माने जाते हैं कि उक्त दोनों दर्शन क्षायोपशमिक हैं; इससे क्षायिक दर्शन के समय अर्थात् तेरहवें और चौदहवें गुणस्थान में उनका अभाव हो जाता है; क्योंकि क्षायिक और क्षायोपशमिक ज्ञान-दर्शन का साहचर्य नहीं रहता। १. 'मिथ्यात्वाधिकस्य मिश्रदृष्टेरज्ञानवाहुल्यं सम्यक्तवाधिकस्य पुनः
सम्यग्ज्ञानबाहुल्यमिति।' अर्थात् 'मिथ्यात्व अधिक होने पर मिश्र-दृष्टि में अज्ञान की बहुलता और सम्यक्त्व
अधिक होने पर ज्ञान की बहुलता होती है।' २. 'मिस्संमि वा मिस्सा' इत्यादि। अर्थात् 'मिश्रगुणस्थान में अज्ञान, ज्ञान-मिश्रित है।'
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मार्गणास्थान-अधिकार
यथाख्यातचारित्र में अन्तिम चार गुणस्थान माने जाने का अभिप्राय यह है कि यथाख्यातचारित्र, मोहनीयकर्म का उदय रुक जाने पर प्राप्त होता है और मोहनीयकर्म का उदयाभाव ग्यारहवें से चौहदवें तक चार गुणस्थानों में रहता है।।२०।।
मणनाणि सग जयाई, समइयछेय चउ दुन्नि परिहारे। केवलदुगि दो चरमा, जयाइ नव मइसुओहिदुगे।।२१।।
मनोज्ञाने सप्त यतादीनि, सामायिकच्छेदे चत्वारि वे परिहारे। केवलद्वि के द्वे चरमेऽयतादीनि नव मतिश्रुतावधिद्विके।।२१।।
अर्थ-मनः पर्यायज्ञान में प्रमत्तसंयत आदि सात गुणस्थान, सामायिक तथा छेदोपस्थापनीय-संयम में प्रमत्तसंयत आदि चार गुणस्थान, परिहारविशुद्धसंयम में प्रमत्तसंयत आदि दो गुणस्थान, केवल-द्विक में अन्तिम दो गुणस्थान, मतिज्ञान, श्रुतज्ञान और अवधिद्विक, इन चार मार्गणाओं में अविरतसम्यग्दृष्टि आदि नौ गुणस्थान हैं।॥२१॥
भावार्थ-मनः पर्यायज्ञान वाले, छठे आदि सात गुणस्थानों में वर्तमान पाये जाते हैं। इस ज्ञान की प्राप्ति के समय सातवाँ और प्राप्ति के बाद अन्य गुणस्थान होते हैं।
सामायिक और छेदोपस्थापनीय, ये दो संयम, छठे आदि चार गुणस्थानों में माने जाते हैं, क्योंकि वीतराग-भाव होने के कारण ऊपर के गुणस्थानों में इन सराग-संयमों का संभव नहीं है।
परिहारविशुद्धसंयम में रहकर श्रेणि नहीं की जा सकती, इसलिये उसमें छठा और सातवाँ, ये दो ही गुणस्थान समझने चाहिये।
केवलज्ञान और केवलदर्शन दोनों क्षायिक हैं। क्षायिक-ज्ञान और क्षायिकदर्शन, तेरहवें और चौदहवें गणस्थान में होते हैं, इसी से केवल द्विक में उक्त दो गुणस्थान माने जाते हैं।
- मतिज्ञान, श्रृतज्ञान और अवधि-द्विक वाले, चौथे से लेकर बारहवें तक नौ गुणस्थान में वर्तमान होते हैं; क्योंकि सम्यक्त्व प्राप्त होने के पहले अर्थात् पहले तीन गुणस्थानों में मति आदि अज्ञानरूप ही हैं और अन्तिम दो गुणस्थान में क्षायिक-उपयोग होने से इनका अभाव ही हो जाता है।
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चौथा कर्मग्रन्थ
इस जगह अवधिदर्शन में नौ गुणस्थान कहे हुए हैं, सो कार्मग्रन्थिक मत के अनुसार। कार्मग्रन्थिक विद्वान् पहले तीन गुणस्थानों में अवधिदर्शन नहीं मानते। वे कहते हैं कि विभङ्गज्ञान से अवधिदर्शन की भिन्नता न माननी चाहिये । परन्तुं सिद्धान्त के मतानुसार उसमें और भी तीन गुणस्थान गिनने चाहिये। सिद्धान्ती, विभङ्गज्ञान से अवधिदर्शन को जुदा मानकर पहले तीन गुणस्थानों में भी अवधिदर्शन मानते हैं । २१ ॥
६२
अड उवसमि चउ वेयगि, खइए इक्कार मिच्छतिगि देसे । सुहुमे य सठाणं तेर, - स जोग आहार सुक्काए ।। २२ ।। अष्टोपशमे चत्वारि वेदके, क्षायिक एकादश मिथ्यात्रिके देशे । सूक्ष्मे च स्वस्थानं त्रयोदश योगे आहारे शुक्लायाम् ।। २२ ।।
अर्थ-उपशम सम्यक्त्व में चौथा आदि आठ, वेदक ( क्षायोपशमिक - ) सम्यक्त्व में चौथा आदि चार और क्षायिक सम्यक्त्व में चौथा आदि ग्यारह गुणस्थान हैं। मिथ्यात्व - त्रिक (मिथ्यादृष्टि, सास्वादन और मिश्रदृष्टि ) में, देशविरति में तथा सूक्ष्मसम्पराय चरित्र में स्व-स्व स्थान (अपना-अपना एक ही गुणस्थान) है। योग, आहारक और शुक्ललेश्यामार्गणा में पहले तेरह गुणस्थान हैं || २२ ||
भावार्थ- - उपशम सम्यक्त्व में आठ गुणस्थान माने गये हैं। इनमें से चौथा आदि चार गुणस्थान, ग्रन्थि - भेद - जन्य प्रथम सम्यक्त्व पाते समय और आठवाँ आदि चार गुणस्थान, उपशमश्रेणि करते समय होते हैं।
वेदक सम्यक्त्व तभी होता है, जब कि सम्यक्त्व मोहनीय का उदय हो । सम्यक्त्व मोहनीय का उदय, श्रेणि का आरम्भ न होने तक (सातवें गुणस्थान तक) रहता है। इसी कारण वेदक सम्यक्त्व में चौथे से लेकर चार ही गुणस्थान समझने चाहिये।
चौथे और पाँचवें आदि गुणस्थान में क्षायिक सम्यक्त्व प्राप्त होता है, जो सदा के लिये रहता है, इसी से उसमें चौथा आदि ग्यारह गुणस्थान कहे गये हैं ।
पहला ही गुणस्थान मिथ्यात्व रूप, दूसरा ही सास्वादन - भाव रूप, तीसरा ही मिश्र - दृष्टि रूप, पाँचवाँ ही देशविरति रूप और दसवाँ ही सूक्ष्मसम्पराय चारित्र रूप है। इसी से मिथ्यात्व - त्रिक, देशविरति और सूक्ष्मसम्पराय में एक-एक गुणस्थान कहा गया है।
१. देखिये, परिशिष्ट 'ड' |
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मार्गणास्थान-अधिकार
तीन प्रकार का योग, आहारक? और शुक्ललेश्या, इन छह मार्गणाओं में तेरह गुणस्थान होते हैं; क्योंकि चौदहवें गुणस्थान के समय न तो किसी प्रकार का योग रहता है, न किसी तरह का आहार ग्रहण किया जाता है और न लेश्या ही सम्भव है।
योग में तेरह गुणस्थानों का कथन मनोयोग आदि सामान्य योगों की अपेक्षा से किया गया है। सत्य मनोयोग आदि विशेष योगों की अपेक्षा से गुणस्थान इस प्रकार हैं
(क) सत्यमन, असत्यामृषामन, सत्यवचन, असत्यामृषावचन और औदारिक, इन पाँच योगों में तेरह गुणस्थान हैं।
(ख) असत्यमन, मिश्रमन, असत्यवचन और मिश्रवचन, इन चार में पहले बारह गुणस्थान हैं।
(ग) औदारिकमिश्र तथा कार्मण काययोग में पहला, दूसरा, चौथा और तेरहवाँ, ये चार गुणस्थान हैं।
(घ) वैक्रिय काययोग में पहले सात और वैक्रियमिश्रकाययोग में पहला, दूसरा, चौथा, पाँचवाँ और छठा ये पाँच गुणस्थान हैं।
(च) आहारक काययोग में छठा और सातवाँ, ये दो और आहारक मिश्रकाययोग में केवल छठा गुणस्थान है।।२२॥
अस्सन्निसु पढमदुगं, पढमतिलेसासु छच्च दुसु सत्त। पढमंतिमदुगअजया, अणहारे मग्गणासु गुणा।।२३।।
असंज्ञिषु प्रथमद्विकं, प्रथमत्रिलेश्यासु षट् च द्वयोस्सप्त। प्रथमान्तिमद्विकायतान्यनाहारे मार्गणासु गुणाः।। २३।।
अर्थ-असंज्ञिओं में पहले दो गुणस्थान पाये जाते हैं। कृष्ण, नील और कापोत, इन तीन लेश्याओं में पहले छह गुणस्थान और तेजः और पद्म, इन दो लेश्याओं में पहले सात गुणस्थान हैं। अनाहारक मार्गणा में पहले दो, अन्तिम दो और अविरतसम्यग्दृष्टि, ये पाँच गुणस्थान हैं। इस प्रकार मार्गणाओं में गुणस्थान का वर्णन हुआ।।२३॥
भावार्थ-असंज्ञी में दो गुणस्थान कहे हुए हैं। पहला गुणस्थान सब प्रकार के असंज्ञियों को होता है और दूसरा कुछ असंज्ञिओं को। ऐसे असंज्ञी, करण१. देखिये, परिशिष्ट 'ढ'।
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चौथा कर्मग्रन्थ
अपर्याप्त एकेन्द्रिय आदि ही हैं; क्योंकि लब्धि-अपर्याप्त एकेन्द्रिय आदि में कोई जीव सास्वादन-भावसहित आकार जन्म ग्रहण नहीं करता।
कृष्ण, नील और कापोत, इन तीन लेश्याओं में छह गुणस्थान माने जाते हैं। इनमें से पहले चार गुणस्थान ऐसे हैं कि जिनकी प्राप्ति के समय और प्राप्ति के बाद भी उक्त तीन लेश्याएँ होती हैं। परन्तु पाँचवाँ और छठा, ये दो गुणस्थान ऐसे नहीं हैं। ये दो गुणस्थान सम्यक्त्वमूलक विरतिरूप हैं, इसलिये इनकी प्राप्ति तेजः आदि शुभ लेश्याओं के समय होती है; कृष्ण आदि अशुभ लेश्याओं के समय नहीं। तो भी प्राप्ति हो जाने के बाद परिणाम-शुद्धि कुछ घट जाने पर इन दो गुणस्थानों में अशुभ लेश्याएँ भी आ जाती हैं।
कहीं-कहीं२ कृष्ण आदि तीन अशुभ लेश्याओं में पहले चार ही गुणस्थान कहे गये हैं, सो प्राप्ति-काल की अपेक्षा से अर्थात् उक्त तीन लेश्याओं के समय पहले चार गुणस्थानों के सिवाय अन्य कोई गुणस्थान प्राप्त नहीं किया जा सकता।
तेजोलेश्या और पद्मलेश्णा में पहले सात गुणस्थान माने हुए हैं, सो प्रतिद्यमान और पूर्वप्रतिपन्न, दोनों की अपेक्षा से अर्थात् सात गुणस्थानों को पाने के समय और पाने के बाद भी उक्त दो लेश्याएँ रहती हैं।
__ अनाहारक मार्गणा में पहला, दूसरा, चौथा, तेरहवाँ और चौदहवाँ, ये पाँच गुणस्थान कहे हुए हैं। इनमें से पहले तीन गुणस्थान विग्रहगति-कालीन अनाहारक-अवस्था की अपेक्षा से, तेरहवाँ गुणस्थान केवलिसमुद्घात के तीसरे, चौथे और पाँचवें समय में होनेवाली अनाहारक-अवस्था की अपेक्षा से। और चौदहवाँ गुणस्थान योग-निरोध-जन्य अनाहारक-अवस्था की अपेक्षा से समझना चाहिये।
कहीं-कहीं यह लिखा हुआ मिलता है कि तीसरे, बारहवें और तेरहवें, इन तीन गुणस्थानों में मरण नहीं होता, शेष ग्यारह गुणस्थानों में इसका संभव
१. यही बात श्रीभद्रबाहु स्वामी ने कही है
'सम्मत्तसुयं सव्वा,-सु लहइ सुद्धासु तीस य चरित्तं। पुवपडिवन्नओ पुण, अन्नयरीए उ लेसाए।।८२२।।'
-आवश्यक-नियुक्ति, पृ. ३३८/१। अर्थात् 'सम्यक्त्व की प्राप्ति लेश्याओं में होती है, चारित्र की प्राप्ति पिछली तीन शुद्ध लेश्याओं में ही होती है। परन्तु चारित्र प्राप्त होने के बाद छह में से कोई लेश्या
आ सकती है।' २. इसके लिये देखिये, पञ्चसंग्रह, द्वार १, गा. ३० तथा बन्धस्वामित्व, गा. २४ और
जीवकाण्ड गा. ५३१)
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मार्गणास्थान-अधिकार
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है। इसलिये इस जगह यह शङ्का होती है कि जब उक्त शेष ग्यारह गुणस्थानों में मरण का संभव है, तब विग्रह गति में पहला, दूसरा और चौथा, ये तीन ही गुणस्थान क्यों माने जाते हैं?
इसका समाधान यह है कि मरण के समय उक्त ग्यारह गुणस्थानों के पाये जाने का कथन है, सो व्यावहारिक मरण को लेकर (वर्तमान भाव का अन्तिम समय, जिसमें जीव मरणोन्मुख हो जाता है, उसको लेकर), निश्चय मरण को लेकर नहीं। परभव की आयु का प्राथमिक उदय, निश्चय मरण है। उस समय जीव विरति-रहित होता है। विरति का सम्बन्ध वर्तमान भव के अन्तिम समय तक ही है। इसलिये निश्चय मरण-काल में अर्थात् विग्रहगति में पहले, दूसरे
और चौथे गुणस्थान को छोड़कर विरति वाले पाँचवें आदि आठ गुणस्थानों का संभव ही नहीं है।।२३॥
(३) मार्गणाओं में योग।
(छह गाथाओं से) सच्चेयरमीसअस,-च्चमोसमणवइविउवियाहारा। उरलं मीसा कम्मण, इय जोगा कम्ममणहारे।। २४।।
सत्येतरमिश्रासत्यमृषमनोवचोवैकुर्विकाहारकाणि।
औहारिकं मिश्राणि कार्मणमिति योगाः कार्मणमनाहारे।। २४।।
अर्थ-सत्य, असत्य, मिश्र (सत्यासत्य) और असत्यामृष, ये चार भेद मनोयोग के हैं। वचनयोग भी उक्त चार प्रकार का ही है। वैक्रिय, आहारक और
औदारिक, ये तीन शुद्ध तथा ये ही तीन मिश्र और कार्मण, इस तरह सात भेद काययोग के हैं। सब मिलाकर पन्द्रह योग हुए। अनाहारक-अवस्था में कार्मण काययोग ही होता है।।२४।।
मनोयोग के भेदों का स्वरूप भावार्थ-(१) जिस मनोयोगद्वारा वस्तु का यथार्थ स्वरूप विचारा जाय; जैसे-जीव द्रव्यार्थिक नय से नित्य और पर्यायार्थिक नय से अनित्य है, इत्यादि, वह 'सत्यमनोयोग' है।
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चौथा कर्मग्रन्थ (२) जिस मनोयोग से वस्तु के स्वरूप का विपरीत चिन्तन हो; जैसेजीव एक ही है या नित्य ही है, इत्यादि, वह 'असत्यमनोयोग' है।
(३) किसी अंश में यथार्थ और किसी अंश में अयथार्थ, ऐसा मिश्रित चिन्तन, जिस मनोयोग के द्वारा हो, वह 'मिश्रमनोयोग' है। जैसे-किसी व्यक्ति में गुण-दोष दोनों के होते हुए भी उसे सिर्फ दोषी समझना। इसमें एक अंश मिथ्या है; क्योंकि दोष की तरह गुण भी दोष रूप से ख़याल किये जाते हैं।
(४) जिस मनोयोग के द्वारा की जाने वाली कल्पना विधि-निषेधशून्य हो-जो कल्पना, न तो किसी वस्तु का स्थापन ही करती हो और न उत्थापन, वह 'असत्यामृषामनोयोग' है। जैसे-हे देवदत्त! हे इन्द्रदत्त! इत्यादि। इस कल्पना का अभिप्राय अन्य कार्य में व्यग्रव्यक्ति को सम्बोधित करना मात्र है, किसी तत्त्व के स्थापन-उत्थापन का नहीं।
उक्त चार भेद, व्यवहारनय की अपेक्षा से हैं; क्योंकि निश्चयदृष्टि से सबका समावेश सत्य और असत्य, इन दो भेदों में ही हो जाता है। अर्थात जिस मनोयोग में छल-कपट की बुद्धि नहीं हैं, चाहे मिश्र हो या असत्यामृष, उसे 'सत्यमनोयोग' ही समझना चाहिये। इसके विपरीत जिस मनोयोग में छल-कपट का अंश है, वह 'असत्यमनोयोग' ही है।
वचनयोग के भेदों का स्वरूप (१) जिस 'वचनयोग' के द्वारा वस्तु का यथार्थ स्वरूप स्थापित किया जाय; जैसे—यह कहना कि जीव सद्रूप भी है और असद्रूप भी, वह 'सत्य वचनयोग' है।
(२) किसी वस्तु को अयथार्थरूप से सिद्ध करनेवाला वचन योग, 'असत्य वचनयोग' है; जैसे—यह कहना कि आत्मा कोई चीज़ नहीं है या पुण्य-पाप कुछ भी नहीं है।
(३) अनेक रूप वस्तु को एकरूप ही प्रतिपादन करनेवाला वचनयोग 'मिश्रवचनयोग' है। जैसे-आम, नीम आदि अनेक प्रकार के वृक्षों के वन को आम का ही वन कहना, इत्यादि।
(४) जो 'वचनयोग' किसी वस्तु के स्थापन-उत्थापन के लिये प्रवृत्त नहीं होता, वह 'असत्यामृषवचनयोग' है, जैसे-किसी का ध्यान अपनी ओर खींचने के लिये कहना कि हे भोजदत्त! हे मिश्रसेन! इत्यादि पद सम्बोधनमात्र हैं, स्थापन
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मार्गणास्थान-अधिकार उत्थापन- नहीं। वचनयोग के भी मनोयोग की तरह, तत्त्व-दृष्टि से सत्य और असत्य, ये दो ही भेद समझने चाहिये।
काययोग के भेदों का स्वरूप ___(१) सिर्फ वैक्रियशरीर के द्वारा वीर्य-शक्ति का जो व्यापार होता है, वह 'वैक्रिय काययोग' है। यह योग, देवों तथा नारकों को पर्याप्त-अवस्था में सदा ही होता है और मनुष्यों तथा तिर्यञ्चों को वैक्रियलब्धि के बल से वैक्रियशरीर धारण कर लेने पर ही होता है। 'वैक्रियशरीर' उस शरीर को कहते हैं, जो कभी एकरूप और कभी अनेक रूप होता है तथा कभी छोटा, कभी बड़ा, कभी आकाश-गामी, कभी भूमि-गामी, कभी दृश्य और कभी अदृश्य होता है। ऐसा वैक्रिय शरीर, देवों तथा नारकों को जन्म-समय से ही प्राप्त होता है; इसलिये वह 'औपातिक' कहलाता है। मनुष्यों तथा तिर्यञ्चों का वैक्रिय शरीर ‘लब्धिप्रत्यय' कहलाता है; क्योंकि उन्हें ऐसा शरीर, लब्धि के निमित्तं से प्राप्त होता है, जन्म से नहीं।
(२) वैक्रिय और कार्मण तथा वैक्रिय और औदारिक, इन दो-दो शरीरों के द्वारा होने वाला वीर्य-शक्ति का व्यापार, 'वैक्रिय मिश्रकाययोग' है। पहले प्रकार का वैक्रियमिश्रकाययोग, देवों तथा नारकों को उत्पत्ति के दूसरे समय से लेकर अपर्याप्त-अवस्था तक रहता है। दूसरे प्रकार का वैक्रिय मिश्रकाययोग, मनुष्यों और तिर्यञ्चों में तभी पाया जाता है, जब कि वे लब्धि के सहारे से वैक्रियशरीर का आरम्भ और परित्याग करते हैं।
(३) सिर्फ आहारक शरीर की सहायता से होनेवाला वीर्य-शक्ति का व्यापार, ‘आहारक काययोग' है।
(४) 'आहारक मिश्रकाययोग' वीर्य-शक्ति का वह व्यापार है, जो आहारक और औदारिक, इन दो शरीरों के द्वारा होता है। आहारकशरीर धारण करने के समय, आहारकशरीर और उसका आरम्भ-परित्याग करने के समय, आहारक मिश्रकाययोग होता है। चतुर्दशपूर्वधर मुनि, संशय दूर करने, किसी सूक्ष्म विषय को जानने अथवा समृद्धि देखने के निमित्त, दूसरे क्षेत्र में तीर्थङ्कर के पास जाने के लिये विशिष्ट-लब्धि के द्वारा आहारकशरीर बनाते हैं। __ (५) औदारिक काययोग, वीय-शक्ति का वह व्यापार है, जो सिर्फ औदारिकशरीर से होता है। यह योग, सब औदारिक शरीरी जीवों को पर्याप्तदशा में होता है। जिस शरीर को तीर्थङ्कर आदि महान् पुरुष धारण करते हैं,
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जिससे मोक्ष प्राप्त किया जा सकता है जिसके बनने में भिंडी के समान थोड़े पुद्गलों की आवश्यकता होती है और जो मांस-हड्डी और नस आदि अवयवों से बना होता है, वही शरीर, 'औदारिक' कहलाता है।
(६) वीर्य-शक्ति का जो व्यापार, औदारिक और कार्मण इन दोनों शरीरों की सहायता से होता है, वह 'औदारिक मिश्रकाययोग' है। यह योग, उत्पत्ति के दूसरे समय से लेकर अपर्याप्त-अवस्था पर्यन्त सब औदारिक शरीरी जीवों को होता है।
__ (७) सिर्फ कार्मणशरीर की मदत से वीर्य-शक्ति की जो प्रवृत्ति होती है, वह 'कार्मण काययोग' है। यह योग, विग्रहगति में तथा उत्पत्ति के प्रथम समय में सब जीवों को होता है। और केवलिसमुद्धात के तीसरे, चौथे और पाँचवें समय में केवली को होता है। 'कार्मणशरीर' वह है, जो कर्म-पुद्गलों से बना होता है और आत्मा के प्रदेशों की जड़, कार्मणशरीर ही है अर्थात् जब इस शरीर का समूल नाश होता है, तभी संसार का उच्छेद हो जाता है। जीव, नये जन्म को ग्रहण करने के लिये जब एक स्थान से दूसरे स्थान को जाता है, तब वह इसी शरीर से वेष्टित रहता है। यह शरीर इतना सूक्ष्म है कि वह रूपवाला होने पर भी नेत्र आदि इन्द्रियों का विषय बन नहीं सकता। इसी शरीर को दूसरे दार्शनिक ग्रन्थों में 'सूक्ष्मशरीर' या 'लिङ्गशरीर' कहा है।
यद्यपि तैजस नाम का एक और भी शरीर माना गया है, जो कि खाये हुए आहार को पचाता है और विशिष्ट लब्धि-धारी तपस्वी, जिसकी सहायता से तेजोलेश्या का प्रयोग करते हैं। इसलिये यह शङ्का हो सकती है कि कार्मण काययोग के समान तैजस काययोग भी मानना आवश्यक है।
इस शङ्का का समाधान यह है कि तैजसशरीर और कार्मणशरी का सदा साहचर्य रहता है। अर्थात् औदारिक आदि अन्य शरीर, कभी-कभी कार्मणशरीर को छोड़ भी देते हैं, पर तैजसशरीर उसे कभी नहीं छोड़ता। इसलिये वीर्यशक्ति का जो व्यापार, कार्मणशरीर के द्वारा होता है, वही नियम से तैजसशरीर के द्वारा भी होता रहता है। अत: कार्मण काययोग में ही तैजस काययोग का समावेश हो जाता है, इसलिये उसको जुदा नहीं गिना है।
१. 'उक्तस्य सूक्ष्मशरीरस्य स्वरूपमाह-'सप्तदशैकं लिङ्गम्।'
___-सांख्यदर्शन-अ. ३, सू. ९।
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आठ मार्गणाओं में योग का विचार
ऊपर जिन पन्द्रह योगों का विचार किया गया है, उनमें से कार्मण काययोग ही ऐसा है, जो अनाहारक अवस्था में पाया जाता है। शेष चौदह योग, आहारकअवस्था में ही होते हैं। यह नियम नहीं है कि अनाहारक अवस्था में कार्मण काययोग होता ही है; क्योंकि चौदहवें गुणस्थान में अनाहारक अवस्था होने पर भी किसी तरह का योग नहीं होता। यह भी नियम नहीं है कि कार्मण काययोग के समय, अनाहारक- अवस्था अवश्य होती है, क्योंकि उत्पत्ति-क्षण में कार्मण काययोग होने पर भी जीव, अनाहारक नहीं होता, बल्कि वह, उसी योग के द्वारा आहार लेता है। परन्तु यह तो नियम ही है कि जब जीव की अनाहारकअवस्था होती है, तब कार्मण काययोग के सिवाय अन्य योग होता ही नहीं। इसी से अनाहारक - मार्गणा में एक मात्र कार्मण काययोग माना गया है ||२४|| नरगइपणिंदितसतणु, - अचक्खुनरनपुकसायसंमदुगे । संनिछलेसाहारग, - भवमइमुओहिदुगे सव्वे ।। २५ ।।
नरगतिपञ्चेन्द्रियत्रसतन्वचक्षुर्नरनपुंसककषायसम्यक्त्वद्विके । संज्ञिषड्लेश्याहारकभव्यमितिश्रुतावधिद्विके
सर्वे ।। २५ ।।
अर्थ - मनुष्यगति, पञ्चेन्द्रियजाति, त्रसकाय, काययोग, अचक्षुर्दर्शन, पुरुषवेद, नपुंसकवेद, चार कषाय, क्षायिक तथा क्षायोपशमिक, ये दो सम्यक्त्व, संज्ञी, छह लेश्याएँ, आहारक, भव्य, मतिज्ञान, श्रुतज्ञान और अवधि-द्विक, इन छब्बीस मार्गणाओं में सब - पन्द्रहों योग होते हैं ॥ २५ ॥
-
भावार्थ - उपर्युक्त छब्बीस मार्गणाओं में पन्द्रह योग इसलिये कहे गये हैं कि इन सब मार्गणाओं का सम्बन्ध मनुष्य-पर्याय के साथ है और मनुष्य-पर्याय में सब योगों का सम्भव है।
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यद्यपि कहीं-कहीं यह कथन मिलता है कि आहारक मार्गणा में कार्मणयोग नहीं होता, शेष चौदह योग होते हैं । किन्तु वह युक्तिसङ्गत नहीं जान पड़ता; क्योंकि जन्म के प्रथम समय में, कार्मणयोग के सिवाय अन्य किसी योग का सम्भव नहीं है। इसलिये उस समय, कार्मणयोग के द्वारा ही आहारकत्व घटाया जा सकता है।
जन्म के प्रथम समय में जो आहार किया जाता है, उसमें गृह्यमाण पुद्गल ही साधन होते हैं, इसलिये उस समय, कार्मण काययोग मानने की जरूरत नहीं
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है। ऐसी शङ्का करना व्यर्थ है। क्योंकि प्रथम समय में, आहाररूप से ग्रहण किये हुए पुद्गल उसी समय शरीररूप में परिणत होकर दूसरे समय में आहार लेने में साधन बन सकते हैं, पर अपने ग्रहण में आप साधन नहीं बन सकते ॥ २५ ॥ तिरिइत्थिअजयसासण, - अनाणउवसमअभव्वमिच्छेसु । ते उरलदुगूण तिर्यकस्त्र्ययतसासादनाज्ञानोपशमाभव्यामथ्यात्वेषु ।
तेराहारदुगूणा,
सुरनरए।। २६ ।
त्रयोदशाहारकीद्वकोनास्त औदारिकद्विकोनाः सुरेनरके ।। २६ ।। अर्थ - तिर्यञ्चगति, स्त्रीवेद, अविरति, सास्वादन, तीन अज्ञान, उपशम सम्यक्त्व, अभव्य और मिथ्यात्व, इन दस मार्गणाओं में आहारक-द्विक के सिवाय तेरह योग होते हैं। देवगति और नरकगति में उक्त तेरह में से औदारिक-द्विक के सिवाय शेष ग्यारह योग होते हैं ॥ २६ ॥
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भावार्थ-निर्यञ्चगति आदि उपर्युक्त दस मार्गणाओं में आहारक-द्विक के सिवाय शेष सब योग होते हैं। इनमें से स्त्रीवेद और उपशम सम्यक्त्व को छोड़कर शेष आठ मार्गणाओं में आहारक योग न होने का कारण सर्वविरति का अभाव ही है। स्त्रीवेद में सर्वविरति का संभव होने पर आहारकयोग न होने का कारण स्त्रीजाति को दृष्टिवाद' - जिसमें चौदह पूर्व हैं- पढ़ने का निषेध है। उपशम सम्यक्त्व में सर्वविरति का संभव है तथापि उसमें आहारक योग न मानने का कारण यह है कि उपशम सम्यक्त्वी आहारक लब्धि का प्रयोग नहीं करते।
तिर्यञ्चगति में तेरह योग कहे गये हैं। इनमें से चार मनोयोग, चार वचनयोग और एक औदारिक काययोग, इस तरह से ये नौ योग पर्याप्त अवस्था में होते हैं। वैक्रिय काययोग और वैक्रिय मिश्रकाययोग पर्याप्त अवस्था में होते हैं सही; पर सब तिर्यञ्चों को नहीं; किन्तु वैक्रियलब्धि के बल से वैक्रियशरीर बनानेवाले कुछ तिर्यञ्चों को ही। कार्मण और औदारिकमिश्र, ये दो योग, तिर्यञ्चों को अपर्याप्त अवस्था में ही होते हैं।
स्त्रीवेद' में तेरह योगों का संभव इस प्रकार है— मन के चार, वचन के चार, दो वैक्रिय और एक औदारिक ये ग्यारह योग मनुष्य - तिर्यञ्च - स्त्री को पर्याप्त अवस्था में, वैक्रिय मिश्रकाययोग देवस्त्री को अपर्याप्त अवस्था में,
१. देखिये, परिशिष्ट 'त' ।
२.
स्त्रीवेद का मतलब इस जगह द्रव्य-स्त्रीवेद से ही है। क्योंकि उसी में आहारक योग का अभाव घट सकता है। भाव स्त्रीवेद में तो आहारक योग का संभव है अर्थात्
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औदारिक मिश्रकाययोग मनुष्य- तिर्यञ्च स्त्री को अपर्याप्त अवस्था में और कार्मणकाययोग पर्याप्त-मनुष्य - स्त्री को केवलिसमुद्धात अवस्था में होता है।
अविरति, सम्यग्दृष्टि, सास्वादन, तीन अज्ञान, अभव्य और मिथ्यात्व, इन सात मार्गणाओं में चार मन के, चार वचन के, औदारिक और वैक्रिय, ये दस योग पर्याप्त अवस्था में होते हैं। कार्मण काययोग विग्रहगति में तथा उत्पत्ति के प्रथम क्षण में होता है। औदारिकमिश्र और वैक्रियमिश्र, ये दो योग अपर्याप्तअवस्था में होते हैं।
उपशम सम्यक्त्व में चार मन के, चार वचन के, औदारिक और वैक्रिय, ये दस योग पर्याप्त अवस्था में पाये जाते हैं। कार्मण और वैक्रियमिश्र, ये दो योग अपर्याप्त अवस्था में देवों की अपेक्षा से समझने चाहिये, क्योंकि जिनका यह मत है कि उपशमश्रेणि से गिरनेवाले जीव मरकर, अनुत्तरविमान में उपशम सम्यक्त्वसहित जन्म लेते हैं, उनके मत से अपर्याप्त देवों में उपशम सम्यक्त्व के समय उक्त दोनों योग पाये जाते हैं। उपशम सम्यक्त्व में औदारिक मिश्रयोग गिना है, सो सैद्धान्तिक मत के अनुसार, कार्मग्रन्थिक मत के अनुसार नहीं; क्योंकि कार्मग्रन्थिक मत से पर्याप्त अवस्था में केवली के सिवाय अन्य किसी को वह योग नहीं होता । अपर्याप्त अवस्था में मनुष्य तथा तिर्यञ्च को होता है सही, पर उन्हें उस अवस्था में किसी तरह का उपशम सम्यक्त्व नहीं होता । सैद्धान्तिक मत से उपशम सम्यक्त्व में औदारिक मिश्रयोग घट सकता है; क्योंकि सैद्धान्तिक विद्वान् वैक्रियशरीर की रचना के समय वैक्रिय मिश्रयोग न मानकर औदारिक मिश्रयोग मानते हैं, इसलिये वह योग, ग्रन्थि - भेद - जन्य उपशम सम्यक्त्व वाले वैक्रियलब्धि-संपन्न मनुष्य में वैक्रियशरीर की रचना के समय पाया जा सकता है।
-
जो द्रव्य से पुरुष होकर भाव- स्त्रीवेद का अनुभव करता है, वह भी आहारक योग वाला होता है। इसी तरह आगे उपयोगाधिकार में जहाँ वेद में बारह उपयोग कहे हैं, वहाँ भी वेद का मतलब द्रव्य-वेद से ही है। क्योंकि क्षायिक उपयोग भाव-वेदरहित को ही होते हैं, इसलिये भाववेद में बारह उपयोग नहीं घट सकते। इससे उलटा, गुणस्थान-अधिकार में वेद का मतलब भाववेद से ही है; क्योंकि वेद में नौ गुणस्थान कहे हुए हैं, सो भाववेद में ही घट सकते हैं, द्रव्यवेद तो चौदहवें गुणस्थान पर्यन्त रहता है।
१. यह मत स्वयं ग्रन्थकार ने ही आगे की ४९वीं गाथा में इस अंश से निर्दिष्ट किया है'विव्वगाहारगे उरलमिस्सं ।
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देवगति और नरकगति में विरति न होने से दो आहारक योगों का सम्भव नहीं है तथा औदारिक शरीर न होने से दो औदारिक योगों का संभव नहीं है। इसलिये इन चार योगों के सिवाय शेष ग्यारह योग उक्त दो गतियों में कहे गये हैं; सो यथासम्भव विचार लेना चाहिये || २६ ॥
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कम्मुरलदुगं थावरि, ते सविउव्विदुग पंच इगि पवणे । छ असंनि चरमवइजुय, ते विउवदुगूण चउ विगले ।। २७ ।। कार्मणौदारिकद्विकं स्थावरे, ते सवैक्रियद्विकाः पञ्चैकस्मिन् पवने । षडसञ्जिनि चरमवचोयुतास्ते वैक्रियद्विकोनाश्चत्वारो विकले । । २७।।
अर्थ-स्थावर काय में, कार्मण तथा औदारिक- द्विक, ये तीन योग होते हैं। एकेन्द्रिय जाति और वायुकाय में उक्त तीन तथा वैक्रिय-द्विक, ये कुल पाँच योग होते हैं। असंज्ञी में उक्त पाँच और चरम वचनयोग (असत्यामृषावचन) कुल छह योग होते हैं। विकलेन्द्रिय में उक्त छह में से वैक्रिय-द्विक को घटाकर शेष चार (कार्मण, औदारिकमिश्र, औदारिक और असत्यामृषावचन) योग होते हैं ||२७||
भावार्थ-स्थावरकाय में तीन योग कहे गये हैं, सो वायुकाय के सिवाय अन्य चार प्रकार के स्थावरों में समझना चाहिये। क्योंकि वायुकाय में और भी दो योगों का संभव है। तीन योगों में से कार्मण काययोग, विग्रहगति में तथा उत्पत्ति - समय में, औदारिक मिश्रकाययोग, उत्पत्ति - समय को छोड़कर शेष अपर्याप्त काल में और औदारिक काययोग, पर्याप्त अवस्था में समझना चाहिये ।
एकेन्द्रिय जाति में, वायुकाय के जीव भी आ जाते हैं। इसलिये उसमें तीन योगों के अतिरिक्त, दो वैक्रिययोग मानकर पाँच योग कहे हैं।
वायुकाय में अन्य स्थानों की तरह कार्मण आदि तीन योग पाये जाते हैं, पर इनके सिवाय और भी दो योग (वैक्रिय और वैक्रियमिश्र) होते हैं। इसी से उसमें पाँच योग माने गये हैं। वायुकाय' में पर्याप्त बादर जीव, वैक्रियलब्धिसम्पन्न होते हैं, वे ही वैक्रिय-द्विक के अधिकारी हैं, सब नहीं । वैक्रियशरीर बनाते १. यही बात प्रज्ञापना - चूर्णि में कही हुई है—
'तिन्हं ताव रासीणं, वेडव्विअलब्द्धी चेव नत्थि । वादरपज्जताणं पि, संखेज्जइ भागस्य त्ति । । '
- पञ्चसंग्रह-द्वार १ की टीका में प्रमाणरूप से उद्घृत । अर्थात् – 'अपर्याप्त तथा पर्याप्त सूक्ष्म और अपर्याप्त बादर, इन तीन प्रकार के वायुकायिकों में तो वैक्रियलब्धि है ही नहीं। पर्याप्त बादर वायुकाय में है, वह सबमें नहीं; सिर्फ उसके संख्यातवें भाग में ही है।'
परन्तु
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समय, वैक्रिय मिश्रकाययोग और बना चुकने के बाद उसे धारण करते समय वैक्रिय काययोग होता है।
असंज्ञी में छह योग कहे गये हैं। इनमें से पाँच योग तो वायुकाय की अपेक्षा से; क्योंकि सभी एकेन्द्रिय असंज्ञी ही हैं। छठा असत्यामृषावचनयोग, द्वीन्द्रिय आदि की अपेक्षा से; क्योंकि द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय और सम्मूच्छिमपञ्चेन्द्रिय, ये सभी असंज्ञी हैं। द्वीन्द्रिय आदि असंज्ञी जीव, भाषालब्धियुक्त होते हैं; इसलिये उनमें असत्यामृषावचनयोग होता है।
विकलेन्द्रिय में चार योग कहे गये हैं; क्योंकि वे, वैक्रियलब्धिसम्पन्न न होने के कारण वैक्रिय शरीर नहीं बना सकते। इसलिये उनमें असंज्ञीसम्बन्धी छह योगों में से वैक्रिय - द्विक नहीं होता ।। २७ ।।
कम्मुरलमीसविणु उरलदुगकम्मपढमं - तिममणवइ
मण, - वइसमइयछेयचक्खुमणनाणे ।
केवलदुगंमि ।। २८ ।। मनोवचस्सामायिकच्छेदचक्षुर्मनोज्ञाने ।
केवलद्विके ।। २८ ।।
कर्मोदारिकमिश्रं बिना औदारिकद्विककर्मप्रथमान्तिममनोवचः
अर्थ- मनोयोग, वचनयोग, सामायिकचारित्र, छेदोपस्थापनीयचारित्र, चक्षुर्दर्शन और मन: पर्यायज्ञान, इन छह मार्गणाओं में कार्मण तथा औदारिकमिश्र को छोड़कर तेरह योग होते हैं। केवल द्विक में औदारिक-द्विक, कार्मण, प्रथम तथा अन्तिम मनोयोग (सत्य तथा असत्यामृषामनोयोग ) और प्रथम तथा अन्तिम वचनयोग (सत्य तथा असत्यामृषावचनयोग), ये सात योग होते हैं | | २८ ॥
भावार्थ- मनोयोग आदि उपर्युक्त छह मार्गणाएँ पर्याप्त अवस्था में ही पायी जाती हैं। इसलिये इनमें कार्मण तथा औदारिकमिश्र, ये अपर्याप्त अवस्था - भावी दो योग, नहीं होते। केवली को केवलिसमुद्धात में ये योग होते हैं। इसलिये यद्यपि पर्याप्त अवस्था में भी इनका संभव है तथापि यह जानना चाहिये कि केवलिसमुद्धात में जब कि ये योग होते हैं, मनोयोग आदि उपर्युक्त छह में से कोई भी मार्गणा नहीं होती। इसी से इन छह मार्गणाओं में उक्त दो योग के सिवाय, शेष तेरह योग कहे गये हैं । १
केवल - द्विक में औदारिक- द्विक आदि सात योग कहे गये हैं, सो इस प्रकार - सयोगीकेवली को, औदारिक काययोग सदा ही रहता है; सिर्फ
१. देखिये, परिशिष्ट 'ध' ।
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केवलिसमुद्धात के मध्यवर्ती छह समयों में नहीं होता। औदारिक मिश्रकाययोग, केवलिसमुद्धात के दूसरे, छठे और सातवें समय में तथा कार्मण काययोग तीसरे, चौथे और पाँचवें समय में होता है। दो वचनयोग, देशना देने के समय होते हैं और दो मनोयोग किसी के प्रश्न का मन से उत्तर देने के समय। मन से उत्तर देने का मतलब यह है कि जब कोई अनुत्तरविमानवासी देव या मनः पर्यायज्ञानी अपने स्थान में रहकर मन से केवली को प्रश्न करते हैं, तब उनके प्रश्न को केवलज्ञान से जानकर केवली भगवान् उसका उत्तर मन से ही देते हैं। अर्थात् मनोद्रव्य को ग्रहण कर उसकी ऐसी रचना करते हैं कि जिसको अवधिज्ञान या मन:पर्यायज्ञान के द्वारा देखकर प्रश्नकर्ता केवली भगवान के दिये हुए उत्तर को अनुमान द्वारा जान लेते हैं। यद्यपि मनोद्रव्य बहुत सूक्ष्म है तथापि अवधिज्ञान और मन:पर्यायज्ञान में उसका प्रत्यक्ष ज्ञान कर लेने की शक्ति है। जैसे कोई मानस शास्त्रज्ञ किसी के चेहरे पर होनेवाले सूक्ष्म परिवर्तनों को देखकर उसके मनोगत-भाव को अनुमान द्वारा जान लेता है, वैसे ही अवधिज्ञानी या मन:पर्यायज्ञानी मनोद्रव्य की रचना को साक्षात् देखकर अनुमान द्वारा यह जान लेते हैं कि इस प्रकार की मनोरचना के द्वारा अमुक अर्थ का ही चिन्तन किया हुआ होना चाहिये।॥२८॥
मणवइउरला परिहा,-रि सुहुमि नव ते उ मीसि सविउव्वा। देसे सविउव्विदुगा, सकम्मुरलमीस अहखाए।।२९।।
मनोवच औदारिकाणि परिहारे सूक्ष्मे नव ते तु मिश्रे सवैक्रियाः। देशे सवैक्रियद्विकाः सकार्मणौदारिकमिश्राः यथाख्याते।।२९।।
अर्थ-परिहारविशुद्ध और सूक्ष्मसम्पराय चारित्र में मन के चार, वचन के चार और एक औदारिक, ये नौ योग होते हैं। मिश्र में (सम्यग्मिथ्यादृष्टि में) उक्त नौ तथा एक वैक्रिय, कुल दस योग होते हैं। देशविरति में उक्त नौ तथा वैक्रियद्विक, कुल ग्यारह योग होते हैं। यथाख्यातचारित्र में चार मन के, चार वचन के, कार्मण और औदारिक-द्विक, ये ग्यारह योग होते हैं॥२९॥
भावार्थ-कार्मण और औदारिकमिश्र, ये दो योग छद्मस्थ के लिये अपर्याप्त-अवस्था-भावी हैं; किन्त चारित्र कोई भी अपर्याप्त अवस्था में नहीं होता। वैक्रिय और वैक्रियमिश्र, ये दो योग वैक्रियलब्धि का प्रयोग करनेवाले ही मनुष्य
२. गोम्मटसार-जीवकाण्ड की २२८वीं गाथा में भी केवली को द्रव्यमन का सम्बन्ध
माना है।
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को होते हैं। परन्तु परिहारविशुद्ध या सूक्ष्मसम्पराय चारित्रवाला कभी वैक्रियलब्धि का प्रयोग नहीं करता। आहारक और आहारकमिश्र, ये दो योग चतुर्दशपूर्वधर प्रमत्त मुनि को ही होते हैं; किन्तु परिहारविशुद्ध चारित्र का अधिकारी कुछ कम दस पूर्व का ही पाठी होता है और सूक्ष्मसंपराय चारित्रवाला चतुर्दशपूर्वधर होने पर भी अप्रमत्त ही होता है, इस कारण पहिारविशुद्ध और सूक्ष्मसम्पराय में कार्मण, औदारिकमिश्र, वैक्रिय, वैक्रियमिश्र, आहारक और आहारकमिश्र, ये छह योग नहीं होते, शेष नौ होते हैं।
मिश्र सम्यक्त्व के समय मृत्यु नहीं होती। इस कारण अपर्याप्त अवस्था में वह सम्यक्त्व नहीं पाया जाता। इसी से उसमें कार्मण, औदारिक मिश्र और वैक्रियमिश्र, ये अपर्याप्त अवस्था भावी तीन योग नहीं होते। तथा मिश्रसम्यक्त्वं के समय चौदह पूर्व के ज्ञान का संभव न होने के कारण दो आहारक योग नहीं होते। इस प्रकार कार्मण आदि उक्त पाँच योगों को छोड़कर शेष दस योग मिश्रसम्यक्त्व में होते हैं।
इस जगह यह शङ्का होती है कि मिश्रसम्यक्त्व में अपर्याप्त अवस्था - भावी वैक्रियमिश्रयोग नहीं माना जाता, सो तो ठीक है; परन्तु वैक्रियलब्धि का प्रयोग करते समय मनुष्य और तिर्यञ्च को पर्याप्त अवस्था में जो वैक्रिय मिश्रयोग होता है, वह मिश्रसम्यक्त्व में क्यों नहीं माना जाता ? इसका समाधान इतना ही दिया जाता है कि मिश्र सम्यक्त्व और लब्धि-जन्य वैक्रिय मिश्रयोग, ये दोनों पर्याप्त अवस्था - भावी हैं; किन्तु इनका साहचर्य नहीं होता । अर्थात् मिश्र सम्यक्त्व के समय लब्धि का प्रयोग न किये जाने के कारण वैक्रिय मिश्र काययोग नहीं होता।
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व्रतधारी श्रावक, चतुर्दश-पूर्वी और अपर्याप्त नहीं होता; इस कारण देशविरति में दो आहारक और अपर्याप्त अवस्था भावी कार्मण और औदारिक मिश्र, इन चार के सिवाय शेष ग्यारह योग माने जाते हैं, ग्यारह में वैक्रिय और वैक्रियमिश्र, ये दो योग गिने हुए हैं, सो इसलिये कि 'अम्बड' आदि श्रावक द्वारा वैक्रियलब्धि से वैक्रिय शरीर बनाये जाने की बात शास्त्र में प्रसिद्ध है।
यथाख्यातचारित्र वाला अप्रमत्त ही होता है, इसलिये उस चारित्र में दो वैक्रिय और दो आहारक, ये प्रमाद - सहचारी चार योग नहीं होते; शेष ग्यारह होते हैं। ग्यारह में कार्मण और औदारिकमिश्र, ये दो योग गिने गये हैं, सो
१. देखिये, औपपातिक पृ. ९६ ।
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केवलिसमुद्धात की अपेक्षा से। केवलिसमुद्धात के दूसरे, छठे और सातवें समय में औदारिकमिश्र और तीसरे, चौथे और पाँचवें समय में कार्मणयोग होता . है।।२९॥
(४) मार्गणाओं में उपयोग।
(छह गाथाओं से।) ति अनाण नाण पण चउ, दंसण बार जियलक्खणुवओगा।
विणु मणनाणदुकेवल, नव सुरतिरिनिरयअजएसु।।३०।। त्रीण्यज्ञानानि ज्ञानानि पञ्च चत्वारि, दर्शनानि द्वादश जीवलक्षणमुपयोगाः। बिना मनोज्ञानद्विकेवलं, नव सुरतिर्यनिरयायतेषु।।३०।।
अर्थ-तीन अज्ञान, पाँच ज्ञान और चार दर्शन ये बारह उपयोग हैं, जो जीव के लक्षण हैं। इनमें से मनःपर्यायज्ञान और केवल-द्विक, इन तीन के सिवाय शेष नौ उपयोग देवगति, तिर्यञ्च गति, नरकगति और अविरत में पाये जाते हैं।॥३०॥
भावार्थ-किसी वस्तु का लक्षण, उसका असाधारण धर्म है; क्योंकि लक्षण का उद्देश्य, लक्ष्य को अन्य वस्तुओं से भिन्न बतलाना है; जो असाधारण धर्म में ही घट सकता है। उपयोग, जीव के असाधारण (खास) धर्म हैं और अजीव से उसकी भिन्नता को दरसाते हैं; इसी कारण वे जीव के लक्षण कहे जाते हैं।
मनः पर्याय और केवल-द्विक, ये तीन उपयोग सर्वविरति-सापेक्ष हैं; परन्तु देवगति, तिर्यञ्चगति, नरकगति और अविरति, इन चार मार्गणाओं में सर्वविरति का संभव नहीं है; इस कारण इनमें तीन उपयोगों को छोड़कर शेष नौ उपयोग माने जाते हैं।
अविरति वालों में से शुद्ध सम्यक्त्वी को तीन ज्ञान, तीन दर्शन, ये छह उपयोग और शेष सबको तीन अज्ञान और दो दर्शन, ये पाँच उपयोग समझने चाहिये।॥३०॥
१. देखिये, परिशिष्ट 'द।
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सवे।
तसजोयवेयसुक्का, - हारनरपणिंदिसंनिभवि नयणेयरपणलेसा,- कसाइ दस केवलदुगूणा।।३१।।
त्रसयोगवेदशुक्लाहारकनरपञ्चेन्द्रियसंज्ञिभव्ये सर्वे। नयनेतरपञ्चलेश्याकषाये दश केवलद्विकोनाः।।३१।।
अर्थ-त्रसकाय, तीन योग, तीन वेद, शुक्ललेश्या, आहारक, मनुष्यगति, पञ्चेन्द्रियजाति, संज्ञी और भव्य, इन तेरह मार्गणाओं में सब उपयोग होते हैं। चक्षुर्दर्शन, अचक्षुर्दर्शन, शुक्ल के सिवाय शेष पाँच लेश्याएँ और चार कषाय, इन ग्यारह मार्गणाओं में केवल-द्विक को छोड़कर शेष दस उपयोग पाये जाते हैं।।३१।।
भावार्थ-त्रसकाय आदि उपर्युक्त तेरह मार्गणाओं में से योग, शुक्ललेश्या और आहारकत्व, ये तीन मार्गणाएँ तेरहवें गुणस्थान पर्यन्त और शेष दस, चौदहवें गुणस्थान पर्यन्त पायी जाती हैं; इसलिये इन सब में बारह उपयोग माने जाते हैं। चौदहवें गुणस्थान पर्यन्त वेद पाये जाने का मतलब, द्रव्यवेद से है; क्योंकि भाववेद तो नौवें गुणस्थान तक ही रहता है।
चक्षुर्दर्शन और अचक्षुर्दर्शन, ये दो बारहवें गुणस्थान पर्यन्त, कृष्ण-आदि तीन लेश्याएँ छठे गुणस्थान पर्यन्त, तेज:-पद्म, दो लेश्याएँ सातवें गुणस्थान पर्यन्त और कषायोदय अधिक से अधिक दसवें गुणस्थान पर्यन्त पाया जाता है; इस कारण चक्षुर्दर्शन आदि उक्त ग्यारह मार्गणाओं में केवल-द्विक के सिवाय शेष दस उपयोग होते हैं।।३१।।
चउरिंदिअसंनि दुअना,-णदंसण इगिबितिथावरिप अचक्खु। तिअनाण दंसणदुर्ग, अनाणतिगअभवि मिच्छदुगे।। ३२।।
चतुरिन्द्रियासंज्ञिनि घ्यज्ञानदर्शनमेकद्वित्रिस्थावरेऽचक्षुः। व्यज्ञानं दर्शनद्विकमज्ञानत्रिकाभव्ये मिथ्यात्वद्विके।। ३२।।
अर्थ-चतुरिन्द्रिय और असंज्ञि-पञ्चेन्द्रिय में मति और श्रुत दो अज्ञान तथा चक्षुः और अचक्षः दो दर्शन, कुल चार उपयोग होते हैं। एकेन्द्रिय, द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय और पाँच प्रकार के स्थावर में उक्त चार में से चक्षुर्दर्शन के सिवाय, शेष तीन उपयोग होते हैं। तीन अज्ञान, अभव्य, और मिथ्यात्व-द्विक (मिथ्यात्व तथा सासादन), इन छह मार्गणाओं में तीन अज्ञान और दो दर्शन, कुल पाँच उपयोग होते हैं।॥३२॥
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चौथा कर्मग्रन्थ
__भावार्थ-चतुरिन्द्रिय और असंज्ञि-पञ्चेन्द्रिय में विभङ्गज्ञान प्राप्त करने की योग्यता नहीं है तथा उनमें सम्यक्त्व न होने के कारण, सम्यक्त्व के सहचारी पाँच ज्ञान और अवधि और केवल दो दर्शन, ये सात उपयोग नहीं होते, इस तरह कुल आठ के सिवाय शेष चार उपयोग होते हैं।
एकेन्द्रिय आदि उपर्युक्त आठ मार्गणाओं में नेत्र न होने के कारण चक्षुर्दर्शन और सम्यक्त्व न होने के कारण पाँच ज्ञान तथा अवधि और केवल, ये दो दर्शन और तथाविध योग्यता न होने के कारण विभङ्गज्ञान, इस तरह कुल नौ उपयोग नहीं होते, शेष तीन होते हैं।
अज्ञान-त्रिक आदि उपर्युक्त छह मार्गणाओं में सम्यक्त्व तथा विरति नहीं है; इसलिये उनमें पाँच ज्ञान और अवधि-केवल, ये दो दर्शन, इन सात के सिवाय शेष पाँच उपयोग होते हैं।
सिद्धान्ती, विभङ्गज्ञानी में अवधिदर्शन मानते हैं और सास्वादनगुणस्थान में अज्ञान न मानकर ज्ञान ही मानते हैं; इसलिये इस जगह अज्ञान-त्रिक आदि छह मार्गणाओं में अवधिदर्शन नहीं मानारे है और सास्वादन मार्गणा में ज्ञान नहीं माना है, सो कार्मग्रन्थिक मत के अनुसार समझना चाहिये।।३२।।
केवलदुगे नियदुर्ग, नव तिअनाण विणु खइयहखाये। दंसणनाणतिगं दे,-सि मीसि अन्नाणमीसं तं।।३३।।
केवलद्विके निजद्विकं, नव त्र्यज्ञानं बिना क्षायिकयथाख्याते। दर्शनज्ञानत्रिकं देशे मिश्रेऽज्ञानमिदं तत्।।३३।।
अर्थ-केवल-द्विक में निज-द्विक (केवलज्ञान और केवलदर्शन) दो ही उपयोग हैं। क्षायिक सम्यक्त्व और यथाख्यातचारित्र में तीन अज्ञान को छोड़, शेष नौ उपयोग होते हैं। देशविरति में तीन ज्ञान और तीन दर्शन, ये छह उपयोग होते हैं। मिश्र-दृष्टि में वही उपयोग अज्ञान-मिश्रित होते हैं।।३३॥
भावार्थ-केवल-द्विक में केवलज्ञान और केवलदर्शन दो ही उपयोग माने जाने का कारण यह है कि मतिज्ञान आदि शेष दस छाद्यस्थिक उपयोग, केवली को नहीं होते।
क्षायिक सम्यक्त्व के समय, मिथ्यत्व का अभाव ही होता है। यथाख्यातचारित्र के समय, ग्यारहवें गुणस्थान में मिथ्यात्व भी है, पर सिर्फ १. खुलासे के लिये २१वीं तथा ४९वीं गाथा का टिप्पण देखना चाहिये। २. वही मत गोम्मटसार-जीवकाण्ड की ७०४वीं गाथा में उल्लिखित है।
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मार्गणास्थान - अधिकार
७९
सत्तागत, उदयमान नहीं; इस कारण इन दो मार्गणाओं में मिथ्यात्वोदय- सहभावी तीन अज्ञान नहीं होते । शेष नौ उपयोग होते हैं। सो इस प्रकार — उक्त दो मार्गणाओं में छद्मस्थ अवस्था में पहले चार ज्ञान तथा तीन दर्शन, ये सात उपयोग और केवलि - अवस्था में केवलज्ञान और केवलदर्शन, ये दो उपयोग।
देशविरति में, मिथ्यात्व का उदय न होने के कारण तीन अज्ञान नहीं होते और सर्वविरति की अपेक्षा रखने वाले मन: पर्यायज्ञान और केवल - द्विक, ये तीन उपयोग भी नहीं होते; शेष छह होते हैं। छह में अवधि - द्विक का परिगणन इसलिये किया गया है कि श्रावकों को अवधि - उपयोग का वर्णन, शास्त्र में मिलता है।
मिश्र-दृष्टि में छह उपयोग वही होते हैं, जो देशविरति में; पर विशेषता इतनी है कि मिश्र - दृष्टि में तीन ज्ञान, मिश्रित होते हैं, शुद्ध नहीं अर्थात् मतिज्ञान, मति-अज्ञान-मिश्रित, श्रुतज्ञान, श्रुत अज्ञान - मिश्रित और अवधिज्ञान, विभङ्गज्ञान-मिश्रित होता है। मिश्रितता इसलिये मानी जाती है कि मिश्रदृष्टिगुणस्थान के समय अर्द्ध-विशुद्ध दर्शनमोहनीय- पुञ्ज का उदय होने के कारण परिणांम कुछ शुद्ध और कुछ अशुद्ध अर्थात् मिश्र होते हैं। शुद्धि की अपेक्षा से मति आदि को ज्ञान और अशुद्धि की अपेक्षा से अज्ञान कहा जाता है।
गुणस्थान में अवधिदर्शन का सम्बन्ध विचारने वाले कार्मग्रन्थिक पक्ष दो हैं। पहला पक्ष चौथे आदि नौ गुणस्थानों में अवधिदर्शन मानता है, जो २१वीं गा. में निर्दिष्ट है। दूसरा पक्ष, तीसरे गुणस्थान में भी अवधिदर्शन मानता है, जो ४८वीं गाथा में निर्दिष्ट है। इस जगह दूसरे पक्ष को लेकर ही मिश्र - दृष्टि के उपयोग में अवधिदर्शन गिना है | | ३३ ॥
मणनाणचक्खुवज्जा, अणहारि तिन्नि दंसण चउ नाणा | चउनाणसंजमोवस, मवेयगे ओहिदंसे य।। ३४।।
मनोज्ञानचक्षुवर्जा अनाहारे त्रीणि दर्शनानि चत्वारि ज्ञानानि । चतुर्ज्ञानसंयमोपशमवेदकेऽवधिदर्शने
च।। ३४।।
अर्थ-अनाहारक मार्गणा में मन: पर्यायज्ञान और चक्षुर्दर्शन को छोड़कर, शेष दस उपयोग होते हैं। चार ज्ञान, चार संयम, उपशम सम्यक्त्व, वेदक अर्थात् क्षायोपशमिक सम्यक्त्व और अवधिदर्शन, इन ग्यारह मार्गणाओं में चार ज्ञान तथा तीन दर्शन, कुल सात उपयोग होते हैं ||३४||
१. जैसे— श्रीयुत् धनपतिसिंहजी द्वारा मुद्रित उपासकदशा पृ. ७० ।
२. गोम्मटसार में यही बात मानी हुई है। देखिये, जीवकाण्ड की गाथा ७०४ ।
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चौथा कर्मग्रन्थ
भावार्थ-विग्रहगति, केवलिसमुद्धात और मोक्ष में अनाहारकत्व होता है। विग्रहगति में आठ उपयोग होते हैं। जैसे-भावी तीर्थङ्कर आदि सम्यक्त्वी को तीन ज्ञान, मिथ्यात्वी को तीन अज्ञान और सम्यक्त्वी-मिथ्यात्वी उभय को अचक्षु और अवधि, ये दो दर्शन। केवलिसमुद्धात और मोक्ष में केवलज्ञान और केवलदर्शन, दो उपयोग होते हैं। इस तरह सब मिलाकर अनाहारक मार्गणा में दस उपयोग हुए। मनः पर्यायज्ञान और चक्षुदर्शन, ये दो उपयोग पर्याप्त-अवस्थाभावी होने के कारण अनाहारक मार्गणा में नहीं होते।
केवलज्ञान के सिवाय चार ज्ञान, यथाख्यात के सिवाय चार चारित्र, औपशमिक-क्षायोपशमिक दो सम्यक्त्व और अवधिदर्शन, ये ग्यारह मार्गणाएँ चौथे से लेकर बारहवें गुणस्थान तक में ही पायी जाती हैं; इस कारण इनमें तीन अज्ञान और केवल-द्विक, इन पाँच के सिवाय शेष सात उपयोग माने हुए हैं। ____ इस जगह अवधिदर्शन में तीन अज्ञान नहीं माने हैं। सो २१वीं गाथा में कहे हुए ‘जयाइ नव मइसुओहिदुगे' इस कार्मग्रन्थिक मत के अनुसार समझना चाहिये।।३४।।
दो तेर तेर बारस, मणे कमा अट्ठ दु चउ चउ वयणे। चउ दु पण तिनि काये, जियगुणजोगोवओगन्ने।।३५।। द्वे त्रयोदश त्रयोदश द्वादश, मनसि क्रमादष्ट द्वे चत्वारश्चत्वारो वचने। चत्वारि द्वे पञ्च त्रयः काये, जीवगुणयोगोपयोगा अन्ये।।३५।।
अर्थ-अन्य आचार्य मनोयोग में जीवस्थान दो, गुणस्थान तेरह, योग तेरह, उपयोग बारह, वचनयोग में जीवस्थान आठ, गुणस्थान दो, योग चार, उपयोग चार और काययोग में जीवस्थान चार, गुणस्थान दो, योग पाँच और उपयोग तीन मानते हैं।।३५॥
भावार्थ-पहले किसी प्रकार की विशेष विवक्षा किये बिना ही मन, वचन और काययोग में जीवस्थान आदि का विचार किया गया है। पर इस गाथा में कुछ विशेष विवक्षा करके। अर्थात् इस जगह प्रत्येक योग यथासम्भव अन्य योग से रहित लेकर उसमें जीवस्थान आदि दिखाये हैं। यथासम्भव कहने का मतलब यह है कि मनोयोग तो अन्य योगरहित मिलता ही नहीं; इस कारण वह वचनकाय उभय-योग-सहचरित ही लिया जाता है; पर वचन तथा काययोग के विषय में यह बात नहीं; वचनयोग कहीं काययोगरहित न मिलने पर भी द्विन्द्रियादि में
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मार्गणास्थान-अधिकार
मनोयोगरहित मिल जाता है। इसलिये वह मनोयोगरहित लिया जाता है। काययोग एकेन्द्रिय में मन-वचन उभय योगरहित मिल जाता है। इसी से वह वैसा ही लिया जाता है।
मनोयोग में अपर्याप्त और पर्याप्त संज्ञी, ये दो जीवस्थान हैं, अन्य नहीं; क्योंकि अन्य जीवस्थानों में मनः पर्याप्ति, द्रव्यमन आदि सामग्री न होने से मनोयोग नहीं होता। मनोयोग में गुणस्थान तेरह हैं; क्योंकि चौदहवें गुणस्थान में कोई भी योग नहीं होता। मनोयोग पर्याप्त-अवस्था-भावी है, इस कारण उसमें अपर्याप्त-अवस्था-भावी कार्मण और औदारिकमिश्र, इन दो को छोड़ शेष तेरह योग होते हैं। यद्यपि केवलिसमुद्धात के समय पर्याप्त-अवस्था में भी उक्त दो योग होते हैं। तथापि उस समय प्रयोजन न होने के कारण केवलज्ञानी मनोद्रव्य को ग्रहण नहीं करते। इसलिये उस अवस्था में भी उक्त दो योग के साथ मनोयोग का साहचर्य नहीं घटता। मनवाले प्राणियों में सब प्रकार के बोध की शक्ति पायी जाती है; इस कारण मनोयोग में बारह उपयोग कहे गये हैं।
१७वीं गाथा में मनोयोग में सिर्फ पर्याप्त संज्ञी जीवस्थान माना है, सो वर्तमान-मनोयोग वालों को मनोयोगी मानकर इस गाथा में मनोयोग में अपर्याप्तपर्याप्त संज्ञि-पञ्चेन्द्रिय दो जीवस्थान माने हैं; सो वर्तमान-भावी उभय मनोयोग वालों को मनोयोगी मानकर। मनोयोग सम्बन्धी गुणस्थान, योग और उपयोग के सम्बन्ध में क्रम से २२, २८, ३१वीं गाथा का जो मन्तव्य है, इस जगह भी वही है; तथापि फिर से उल्लेख करने का मतलब सिर्फ मतान्तर को दिखाना है। मनोयोग में जीवस्थान और योग विचारने में विवक्षा भिन्न-भिन्न की गयी है। जैसे—भावी मनोयोग वाले अपर्याप्त संज्ञि-पञ्चेन्द्रिय को भी मनोयोगी मानकर उसे मनोयोग में गिना है। पर योग के विषय में ऐसा नहीं किया है। जो योग मनोयोग के समकालीन हैं, उन्हीं को मनोयोग में गिना है। इसी से उसमें कार्मण और औदारिकमिश्र, ये दो योग नहीं गिने हैं।
वचनयोग में आठ जीवस्थान कहे गये हैं। वे ये हैं-द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय और असंज्ञि-पञ्चेन्द्रिय, ये चार पर्याप्त तथा अपर्याप्त। इस जगह वचनयोग, मनोयोगरहित लिया गया है, सो इन आठ जीवस्थानों में ही पाया जाता है। १७वीं गाथा में सामान्य वचनयोग लिया गया है। इसलिये उस गाथा में वचनयोग में संज्ञिपञ्चेन्द्रिय जीवस्थान भी गिना गया है। इसके सिवाय यह भी भिन्नता है कि उस गाथा में वर्तमान वचनयोग वाले ही वचनयोग के स्वामी
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चौथा कर्मग्रन्थ
विवक्षित हैं; पर इस गाथा में वर्तमान की तरह भावी वचनयोग वाले भी वचनयोग के स्वामी माने गये हैं; इसी कारण वचनयोग में वहाँ पाँच और यहाँ आठ जीवस्थान गिने गये हैं।
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वचनयोग में पहला, दूसरा दो गुणस्थान, औदारिक, औदारिकमिश्र, कार्मण और असत्यामृषावचन, ये चार योग; तथा मतिअज्ञान, श्रुत- अज्ञान, चक्षुर्दर्शन और अचक्षुर्दर्शन, ये चार उपयोग हैं । २२, २८ और ३१वीं गाथा में अनुक्रम से वचनयोग में तेरह गुणस्थान, तेरह योग और बारह उपयोग माने गये हैं। इस भिन्नता का कारण वही है। अर्थात् वहाँ वचनयोग सामान्य मात्र लिया गया है, पर इस गाथा में विशेष — मनोयोगरहित । पूर्व में वचनयोग में समकालीन योग विवक्षित है; इसलिये उसमें कार्मण - औदारिकमिश्र, ये दो अपर्याप्तअवस्था भावी योग नहीं गिने गये हैं। परन्तु इस जगह असम - कालीन भी योग विवक्षित है। अर्थात् कार्मण और औदारिकमिश्र, अपर्याप्त अवस्था - भावी होने के कारण, पर्याप्त अवस्था - भावी वचनयोग के असम-कालीन हैं तथापि उक्त दो योगवालों को भविष्यत् में वचनयोग होता है। इस कारण उसमें ये दो योग गिने गये हैं।
कुल चार
काययोग में सूक्ष्म और बादर, ये दो पर्याप्त तथा अपर्याप्त, जीवस्थान; पहला और दूसरा दो गुणस्थान; औदारिक, औदारिकमिश्र, वैक्रिय, वैक्रियमिश्र और कार्मण, ये पाँच योग तथा मति- अज्ञान, श्रुत- अज्ञान और अचक्षुर्दर्शन, ये तीन उपयोग समझने चाहिये । १६, २२, २४ और ३१वीं गाथा में चौदह जीवस्थान, तेरह गुणस्थान, पन्द्रह योग और बारह उपयोग, काययोग में बतलाये गये हैं। इस मत-भेद का तात्पर्य भी ऊपर के कथनानुसार है । अर्थात् वहाँ सामान्य काययोग को लेकर जीवस्थान आदि का विचार किया गया है, पर इस जगह विशेष । अर्थात् मनोयोग और वचनयोग, उभयरहित काययोग, जो एकेन्द्रिय मात्र में पाया जाता है, उसे लेकर ॥ ३५ ॥
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मार्गणास्थान-अधिकार
८३
(५)-मार्गणाओं में लेश्या छसु लेसासु सठाणं, एगिंदिअसंनिभूदवणेसु। पढमा चउरो तिन्नि उ, नारयविगलग्गिपवणेसु।।३६।। षट्सु लेश्यासु स्वस्थानमेकेन्द्रियासंज्ञिभूदकवनेषु। प्रथमाश्चतस्रस्तिस्रस्तु, नारकविकलाग्निपवनेषु।।३६।। __ अर्थ-छह लेश्या मार्गणाओं में अपना-अपना स्थान है। एकेन्द्रिय, असंज्ञिपञ्चेन्द्रिय, पृथ्वीकाय, जलकाय और वनस्पतिकाय, इन पाँच मार्गणाओं में पहली चार लेश्याएँ हैं। नरकगति विकलेन्द्रिय-त्रिक, अग्निकाय और वायुकाय, इन छह मार्गणाओं में पहली तीन लेश्याएँ हैं।।३६।।
भावार्थ-छह लेश्याओं में अपना-अपना स्थान है, इसका मतलब यह है कि एक समय में एक जीव में एक ही लेश्या होती है, दो नहीं। क्योंकि छहों लेश्याएँ समान काल की अपेक्षा से आपस में विरुद्ध हैं; कृष्णलेश्या वाले जीवों में कृष्णलेश्या ही होती है। इसी प्रकार आगे भी समझ लेना चाहिये।
एकेन्द्रिय आदि उपर्युक्त पाँच मार्गणाओं में कृष्ण से तेजः पर्यन्त चार लेश्याएँ मानी जाती हैं। इनमें से पहली तीन तो भवप्रत्यक्ष होने के कारण सदा ही पायी जा सकती हैं, पर तेजोलेश्या के सम्बन्ध में यह बात नहीं; वह सिर्फ अपर्याप्त-अवस्था में पायी जाती है। इसका कारण यह है कि जब कोई तेजोलेश्या वाला जीव मरकर पृथ्वीकाय, जलकाय या वनस्पतिकाय में जन्मता है, तब उसे कुछ काल तक पूर्व जन्म की मरण-कालीन तेजोलेश्या रहती है।
नरकगति आदि उपर्युक्त छह मार्गणाओं के जीवों में ऐसे अशुभ परिणाम होते हैं, जिससे कि वे कृष्ण आदि तीन लेश्याओं के सिवाय अन्य लेश्याओं के अधिकारी नहीं बनते॥३६॥
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चौथा कर्मग्रन्थ
(६) - मार्गणाओं का अल्प - बहुत्व ।
(आठ गाथाओं से )
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सुक्का सुक्का छावि
अहखायसुहुमकेवल, दुगि सेसठाणेसु । नरनिरयदेवतिरिया, थोवा दु असंखणंतगुणा' ।। ३७ ।।
यथाख्यातसूक्ष्मकेवलद्विके शुक्ला षडपि शेषस्थानेषु । नरनिरयदेवतिर्यञ्चः स्तोकद्व्यसख्यानन्तगुणाः ।। ३७।।
अर्थ-यथाख्यातचारित्र, सूक्ष्मसम्परायचारित्र और केवल-द्विक, इन चार मार्गणाओं में शुक्ललेश्या है; शेष मार्गणास्थानों में छहों लेश्याएँ होती हैं।
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(गतिमार्गणा का अल्प- बहुत्वः ) मनुष्य सबसे कम हैं, नारक उनसे असंख्यातगुणा हैं, नारकों से देव असंख्यातगुणा हैं और देवों से तिर्यञ्च अनन्तगुणा हैं ||३७||
भावार्थ-यथाख्यात आदि उपर्युक्त चार मार्गणाओं में परिणाम इतने शुद्ध होते हैं कि जिससे उनमें शुक्ललेश्या के सिवाय अन्य लेश्या का संभव नहीं है। पूर्व गाथा में सत्रह और इस गाथा में यथाख्यातचारित्र आदि चार, सब मिलाकर इक्कीस मार्गणाएँ हुईं। इनको छोड़कर, शेष इकतालीस मार्गणाओं में छहों लेश्याएँ पायी जाती हैं। शेष मार्गणाएँ ये हैं
१ देवगति, १ मनुष्यगति, १ तिर्यञ्चगति, १ पञ्चेन्द्रियजाति, १ त्रसकाय, ३ योग, ३ वेद, ४ कषाय, ४ ज्ञान (मति आदि), ३ अज्ञान, ३ चारित्र (सामायिक, छेदोपस्थापनीय और परिहार - विशुद्ध), १ देशविरति १ अविरति, ३ दर्शन, १ भव्यत्व, १ अभव्यत्व, ३ सम्यक्त्व ( क्षायिक, क्षायोपशमिक और औपशमिक), १ सासादन, १ सम्यग्मिथ्यात्व १ मिथ्यात्व, १ संज्ञित्व, १ आहारकत्व और १ अनाहारकत्व, कुल ४१
>
१. यहाँ से लेकर ४४वीं गाथा तक, चौदह मार्गणाओं में अल्प-बहुत्व का विचार है; वह प्रज्ञापना के अल्प - बहुत्व नामक तीसरे पद से उद्धृत है। उक्त पद में मार्गणाओं के सिवाय और भी तेरह द्वारों में अल्प - बहुत्व का विचार है। गति-विषयक अल्पबहुत्व, प्रज्ञापना के ११९वें पृष्ठ पर है। इस अल्प - बहुत्व का विशेष परिज्ञान करने के लिये इस गाथा की व्याख्या में, मनुष्य आदि की संख्या दिखायी गयी है, जो अनुयोगद्वार में वर्णित है— मनुष्य- संख्या, पृ. २०५; नारक - संख्या, पृ. १०९ असुरकुमार- संख्या, पृ. २००; व्यन्तर - संख्या, पृ. २०८; ज्योतिष्क- संख्या, पृ. २०८; वैमानिक संख्या, पृ. २०९/१। यहाँ के समान पञ्चसंग्रह में थोड़ासा वर्णन है— व्यन्तर- संख्या, द्वा. २, गा. १४; ज्योतिष्क- संख्या, द्वा. २, गा. १५; मनुष्य
संख्या, द्वा. २, गा. २१।
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मार्गणास्थान - अधिकार
(मनुष्यों, नारकों, देवों और तिर्यञ्चों का परस्पर अल्प-बहुत्व, ऊपर कहा गया है, उसे ठीक-ठीक समझने के लिये मनुष्य आदि की संख्या शास्त्रोक्त रीति के अनुसार दिखायी जाती है)—
मनुष्य, जघन्य उन्तीस अङ्क-प्रमाण और उत्कृष्ट, असंख्यात होते हैं।
-
(क) जघन्य – मनुष्यों के गर्भज और संमूच्छिम, ये दो भेद हैं। इनमें से संमूच्छिम मनुष्य किसी समय बिलकुल ही नहीं रहते, केवल गर्भज रहते हैं। इसका कारण यह है कि संमूच्छिम मनुष्यों की आयु, अन्तर्मुहूर्त -प्रमाण होती है । जिस समय, संमूच्छिम मनुष्यों की उत्पत्ति में एक अन्तर्मुहूर्त से अधिक समय का अन्तर पड़ जाता है, उस समय, पहले के उत्पन्न हुए सभी संमूच्छिम मनुष्य मर चुकते हैं। इस प्रकार नये संमूच्छिम मनुष्यों की उत्पत्ति न होने के समय तथा पहले उत्पन्न हुए सभी संमूच्छिम मनुष्यों के मर चुकने पर, गर्भज मनुष्य ही रह जाते हैं, जो कम से कम नीचे लिखे उन्नीस अङ्को के बराबर होते हैं। इसलिये मनुष्यों की कम से कम यही संख्या हुई ।
८५
पाँचवें वर्ग के साथ छठे वर्ग को गुणने से जो उन्तीस अङ्क होते हैं, वे ही यहाँ लेने चाहिये। जैसे- २ को २के साथ गुणने से ४ होते हैं, यह पहला वर्ग। ४ के साथ ४ को गुणने से १६ होते हैं, यह दूसरा वर्ग । १६ को १६ से गुणने पर २५६ होते हैं, यह तीसरा वर्ग । २५६ का २५६ से गुणने पर ६५५३६ होते हैं, यह चौथा वर्ग । ६५५३६ को ६५५३६ से गुणने पर ४२९४९६७२९६ होते हैं, यह पाँचवाँ वर्ग। इसी पाँचवें वर्ग की संख्या को उसी संख्या के साथ गुणने से १८४४६७४४०७३७०९५५१६१६ होते हैं, यह छठा वर्ग। इस छठे वर्ग की संख्या को उपर्युक्त पाँचवें वर्ग की संख्या से गुणने पर ७९२२८१६२५१४२६४३३७५९३५४३९५०३३६ होते हैं, ये उन्तीस अङ्क हुए। अथवा १ का दूना २, २ का दूना ४, इस तरह पूर्व - पूर्व संख्या को, उत्तरोत्तर छ्यानवें बार दूना करने से, वे ही उन्तीस अङ्क होते हैं।
१. अनुयोगद्वार, पृ. २०५ – २०९ / १ |
१. समान दो संख्या के गुणनफल को उस संख्या का वर्ग कहते हैं। जैसे—५ का वर्ग
२५।
२.
ये ही उन्तीस अङ्क, गर्भज मनुष्य की संख्या के लिये अक्षरों के संकेत द्वारा गोम्मटसार जीवकाण्ड की १५७वीं गाथा में बतलाये हैं।
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चौथा कर्मग्रन्थ
(ख) उत्कृष्ट–जब संमूछिम मनुष्य पैदा होते हैं, तब वे एक साथ अधिक से अधिक असंख्यात तक होते हैं, उसी समय मनुष्यों की उत्कृष्ट संख्या पायी जाती है। असंख्यात संख्या के असंख्यात भेद हैं, इनमें से जो असंख्यात संख्या मनुष्यों के लिए इष्ट है, उसका परिचय शास्त्र में काल' और क्षेत्र२, दो प्रकार से दिया गया है।
(१) काल-असंख्यात अवसर्पिणी और उत्सर्पिणी के जितने समय होते हैं, मनुष्य अधिक से अधिक उतने पाये जा सकते हैं।
(२) क्षेत्र-सात३ रज्ज-प्रमाण धनीकृत लोक की अङ्गलमात्र सचि-श्रेणि के प्रदेशों के तीसरे वर्गमूल को उन्हीं के प्रथम वर्ग मूल के साथ गुणना, गुणने पर जो संख्या प्राप्त हो, उसका सम्पूर्ण सूचि-श्रेणि-गत प्रदेशों में भाग देना, भाग देने पर जो संख्या लब्ध होती है, एक-कम वही संख्या मनुष्यों की उत्कृष्ट संख्या है। यह संख्या, अङ्गुलमात्र सूचि-श्रेणि के प्रदेशों की संख्या, उनके तीसरे वर्ग मूल और प्रथम वर्गमूल की संख्या तथा सम्पूर्ण सूचि-श्रेणि के प्रदेशों की संख्या वस्तुत: असंख्यात ही है, तथापि उक्त भाग-विधि से मनुष्यों की जो उत्कृष्ट संख्या दिखायी गयी है, उसका कुछ ख़याल आने के लिये कल्पना करके इस प्रकार समझाया जा सकता है।
मान लीजिये कि सम्पूर्ण सूचि-श्रेणि के प्रदेश ३२००००० हैं और अङ्गुलमात्र सूचि-श्रेणि के प्रदेश २५६/२५६ का प्रथम वर्गमूल १६ और तीसरा वर्गमूल २ होता है। तीसरे वर्गमूल के साथ, प्रथम वर्गमूल को गुणने से ३२ होते हैं, ३२ का ३२००००० में भाग देने पर १००००० लब्ध होते हैं, इनमें से १ कम कर देने पर, शेष बचे ९९९९९। कल्पनानुसार यह संख्या, जो वस्तुतः असंख्यातरूप है, उसे मनुष्यों की उत्कृष्ट संख्या समझनी चाहिये।
१. देखिये, परिशिष्ट 'ध'। २. काल से क्षेत्र अत्यन्त सूक्ष्म माना गया है, क्योंकि अङ्गल-प्रमाण सूचि-श्रेणि के प्रदेशों की संख्या असंख्यात अवसर्पिणी के समयों के बराबर मानी हुई है।
"सहुमो य होइ कालो, तत्तो सहुमयरं हवइ खित्तं। अङ्गलसेढीमित्ते, ओसप्पिणीउ असंखेज्जा।।३७।।'
-आवश्यकनियुक्ति, पृ. ३३/१। ३. रज्जु, धनीकृत लोक, सूक्ति-श्रेणि और प्रतर आदि का स्वरूप पाँचवें कर्मग्रन्थ की
९७वीं गाथा से जान लेना चाहिये। ४. जिस संख्या का वर्ग किया जाय, वह संख्या उस वर्ग का वर्गमूल है। ५. मनुष्य की यही संख्या इसी रीति से गोम्मटसार-जीवकाण्ड की १५वीं गाथा
बतलाया है।
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मार्गणास्थान-अधिकार
नारक भी असंख्यात हैं, परन्तु नारकों की असंख्यात संख्या मनुष्यों की असंख्यात संख्या से असंख्यातगुनी अधिक है। नारकों की संख्या को शास्त्र में इस प्रकार बतलाया है
काल से वे असंख्यात अवसर्पिणी और उत्सर्पिणी के समयों के तुल्य हैं तथा क्षेत्र से, सात रज्जु-प्रमाण घनीकृत लोक के अङ्गल मात्र प्रतर-क्षेत्र में जितनी सचि-श्रेणियाँ होती हैं, उनके द्वितीय वर्ग मूल को, उन्हीं के प्रथम वर्गमूल के साथ गुणने पर, जो गुणनफल हो, उतनी सूचि-श्रेणियों के प्रदेशों की संख्या
और नारकों की संख्या बराबर होती है। इसको कल्पना से इस प्रकार समझ सकते हैं।
___ कल्पना कीजिये कि अङ्गुलमात्र प्रतर-क्षेत्र में २५६ सूचि-श्रेणियाँ हैं। इनका प्रथम वर्गमूल १६ हुआ और दूसरा ४/१६ को ४ के साथ गुणने से ९४ होता है। ये ९४ सूचि-श्रेणियाँ हुई। प्रत्येक सूचि-श्रेणि के ३२००००० प्रदेशों के हिसाब से, ६४ सूचि-श्रेणियों के २०४८००००० प्रदेश हुए, इतने ही नारक हैं।
भवनपति देव असंख्यात हैं, इनमें से असुरकुमार की संख्या इस प्रकार बतलायी गयी है-अङ्गुलमात्र आकाश-क्षेत्र के जितने प्रदेश हैं, उनके प्रथम वर्गमूल के असंख्यातवें भाग में जितने आकाश-प्रदेश आ सकते हैं, उतनी सूचिश्रेणियों के प्रदेशों के बराबर असुरकुमार की संख्या होती है। इसी प्रकार नागकुमार आदि अन्य सब भवनपति देवों की भी संख्या समझ लेनी चाहिए।
इस संख्या को समझने के लिये कल्पना कीजिये कि अङ्गुलमात्र आकाशक्षेत्र में २५६ प्रदेश हैं। उनका प्रथम वर्गमूल होगा १६।।
१६ का कल्पना से असंख्यातवाँ भाग २ मान लिया जाय तो २ सूचिश्रेणियों के प्रदेशों के बराबर असुरकुमार हैं। प्रत्येक सूचि-श्रेणि के ३२००००० प्रदेश कल्पना से माने गये हैं। तदनुसार २ सूचि-श्रेणियों के ६४००००० प्रदेश हुए। यही संख्या असुरकुमार आदि प्रत्येक भवनपति की समझनी चाहिये, जो कि वस्तुत: असंख्यात ही हैं।
१. गोम्मटसार में दी हुई नारकों की संख्या; इस संख्या से नहीं मिलती। इसके लिये
देखिये, जीवकाण्ड की १५२वीं गाथा। २. गोम्मटसार में प्रत्येक निकाय की जुदा-जुदा संख्या न देकर सब भवनपतिओं की संख्या
एक साथ दिखायी है। इसके लिये देखिये, जीवकाण्ड की १६०वी गाथा।
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चौथा कर्मग्रन्थ
व्यन्तरनिकाय के देव भी असंख्यात हैं। इनमें से किसी एक प्रकार के व्यन्तर देवों की संख्या का मान इस प्रकार बतलाया गया है। संख्यात योजनप्रमाण सूचि-श्रेणि के जितने प्रदेश हैं, उनसे घनीकृत लोक के मण्डलाकार समय प्रतर के प्रदेशों को भाग दिया जाय, भाग देने पर जितने प्रदेश लब्ध होते हैं, प्रत्येक प्रकार के व्यन्तर देव उतने होते हैं।१
इसे समझने के लिये कल्पना कीजिये कि संख्यात योजन प्रमाण सूचिश्रेणि के १०००००० प्रदेश हैं। प्रत्येक सूचि-श्रेणि के ३२००००० प्रदेशों की कल्पित संख्या के अनुसार, समग्र प्रतर के १०२४०००००००००० प्रदेश हुए। अब इस संख्या को १०००००० भाग देने पर १०२४०००० लब्ध होते हैं। यही एक व्यन्तरनिकायकी संख्या हुई। यह संख्या वस्तुत: असंख्यात है।
ज्योतिषी देवों की असंख्यात संख्या इस प्रकार मानी गयी है। २५६ अङ्गल-प्रमाण सूचि-श्रेणि के जितने प्रदेश होते हैं, उनसे समग्र प्रतर के प्रदेशों को भाग देना, भाग देने से जो लब्ध हों, उतने ज्योतिषी देवरे हैं।
इसको भी कल्पना से इस प्रकार समझना चाहिये। २५६ अङ्गुल-प्रमाण सूचि-श्रेणि में ६५५३६ प्रदेश होते हैं, उनसे समग्र प्रतर के कल्पित १०२४०००००००००० को भाग देना, भागने से लब्ध हुए १५६२५००००, यही मान, ज्योतिषी देवों का समझना चाहिये।
वैमानिक देव, असंख्यात हैं। इनकी असंख्यात संख्या इस प्रकार दरसायी गयी है-अङ्गुलमात्र आकाश-क्षेत्र के जितने प्रदेश हैं, उनके तीसरे वर्गमूल का घन करने से जितने आकाश-प्रदेश हों, उतनी सूचि-श्रेणियों के प्रदेशों के बराबर वैमानिकदेव हैं।
इसको कल्पना से इस प्रकार बतलाया जा सकता है-अङ्गलमात्र आकाश के २५६ प्रदेश हैं। २५६ का तीसरा वर्गमूल २। २का घन ८ है। ८ सूचि
१. व्यन्तर का प्रमाण गोम्मटसार में यही जान पड़ता है। देखिये, जीवकाण्ड की १५९वीं
गाथा। २. ज्योतिषी देवों की संख्या गोम्मटसार में भिन्न है। देखिये, जीवकाण्ड की १५९वीं गाथा। ३. किसी संख्या के वर्ग के साथ उस संख्या को गुणने से जो गुणनफल प्राप्त होता
है, वह उस संख्या का 'घन' है। जैसे–४ का वर्ग १६, उसके साथ ४ को गुणने
से ६४ होता है। यही चार का घन है। ४. सब वैमानिकों की संख्या गोम्मटसार में एक न देकर जुदा-जुदा दी है।
-जीव. गा. १६०-१६२।
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श्रेणियों के प्रदेश २५६००००० होते हैं, क्योंकि प्रत्येक सूचि - श्रेणि के प्रदेश, कल्पना से ३२००००० मान लिये गये हैं । यही संख्या वैमानिकों की संख्या समझनी चाहिये।
भवनपति, व्यन्तर, ज्योतिषी और वैमानिक सब देव मिलकर नारकों से असंख्यातगुण होते हैं।
देवों से तिर्यञ्चों के अनन्तगुण होने का कारण यह है कि अनन्तकायिकवनस्पति जीव, जो संख्या में अनन्त हैं, वे भी तिर्यञ्च हैं। क्योंकि वनस्पतिकायिक जीवों को तिर्यञ्चगति नामकर्म का उदय होता है ||३७||
इन्द्रिय और कायमार्गणा का अल्प- बहुत्व' पणचउतिदुएगिंदि, थोवा तिन्नि अहिया अनंतगुणातस थोव असंखग्गी, भूजलनिल अहिय वण णंता ।। ३८ ।
स्तोकास्त्रयोऽधिका
पञ्चचतुस्त्रिद्वयेकेन्द्रियाः, अनन्तगुणाः । त्रसाः स्तोका असंख्या, अग्नयो भूजलानिला अधिका वना अनन्ताः । । ३८ ॥ अर्थ-पञ्चेन्द्रिय जीव सबसे थोड़े हैं। पञ्चेन्द्रियों से चतुरिन्द्रिय, चतुरिन्द्रयों से त्रीन्द्रिय और त्रीन्द्रियों से द्वीन्द्रिय जीव विशेषाधिक हैं । द्वीन्द्रियों से एकेन्द्रिय जीव अनन्तगुण हैं।
त्रसकायिक जीव अन्य सब काय के जीवों से थोड़े हैं। इनसे अग्निकायिक जीव असंख्यात गुण हैं। अग्निकायिकों से पृथिवीकायिक, पृथिवीकायिकों से जलकायिक और जलकायिकों से वायुकायिक विशेषाधिक हैं। वायुकायिकों से वनस्पतिकायिक अनन्तगुण हैं ||३८||
भावार्थ - असंख्यात कोटा- कोटी योजन- प्रमाण सूचि श्रेणि के जितने प्रदेश हैं, घनीकृत लोक की उतनी सूचि श्रेणियों के प्रदेशों के बराबर द्वीन्द्रिय जीव
१. यह अल्प - बहुत्व प्रज्ञापना में पृ. १२० - १३५ / १ तक है। गोम्मटसार की इन्द्रियमार्गणा में द्वीन्द्रिय से पञ्चेन्द्रिय पर्यन्त का विशेषाधिकत्व यहाँ के समान वर्णित है। - जीव. गा. १७७-७८
कायमार्गणा में तेज:कायिक आदि का भी विशेषाधिकत्व यहाँ के समान है।
- जीव. गा. २०३ से आगे । २. एक संख्या अन्य संख्या से बड़ी होकर भी जब तक दूनी न हो, तब तक वह उससे 'विशेषाधिक' कही जाती है। यथा ४ या ५ की संख्या ३ से विशेषाधिक है, पर ६ की संख्या ३ से दूनी है, विशेषाधिक नहीं ।
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चौथा कर्मग्रन्थ
आगम में कहे गये हैं। त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय और पंचेन्द्रिय तिर्यञ्च द्वीन्द्रिय के बराबर ही कहे गये हैं।
इसलिये यह शङ्का होती है कि जब आगम में द्वीन्द्रिय आदि जीवों की संख्या समान कही हुई है तब पञ्चेन्द्रिय आदि जीवों का उपर्युक्त अल्प- बहुत्व कैसे घट सकता है ? इसका समाधान यह है कि असंख्यात संख्या के असंख्यात प्रकार हैं। इसलिये असंख्यात कोटा कोटी योजन-प्रमाण 'सूचि श्रेणी' शब्द से सब जगह एक ही असंख्यात संख्या न लेकर भिन्न-भिन्न लेनी चाहिये । पञ्चेन्द्रिय तिर्यञ्चों के परिमाण की असंख्यात संख्या इतनी छोटी ली जाती है कि जिससे अन्य सब पञ्चेन्द्रियों को मिलाने पर भी कुल पञ्चेन्द्रिय जीव चतुरिन्द्रियों की अपेक्षा कम ही होते हैं। द्वीन्द्रियों से एकेन्द्रिय जीव अनन्तगुण इसलिये कहे गये हैं कि साधारण वनस्पतिकाय के जीव अनन्तानन्त हैं, जो सभी एकेन्द्रिय हैं।
सब प्रकार के स घनीकृत लोक के एक प्रतर के प्रदेशों के बराबर भी नहीं होते और केवल तेज: कायिक जीव, असंख्यात लोकाकाश के प्रदेशों के बराबर होते हैं। इसी कारण त्रस सबसे थोड़े और तेज : कायिक उनसे असंख्यातगुण माने जाते हैं। तेज: कायिक, पृथिवीकायिक, जलकायिक और वायुकायिक, ये सभी सामान्यरूप से असंख्यात लोकाकाश-प्रदेश प्रमाण आगम में माने गये हैं तथापि इनके परिमाण सम्बन्धिनी असंख्यात संख्या भिन्न-भिन्न समझनी चाहिये। इसी अभिप्राय से इनका उपर्युक्त अल्प-बहुत्व कहा गया है। वायुकायिक जीवों से वनस्पतिकायिक इसलिये अनन्तगुण कहे गये हैं कि निगोद के जीव अनन्त लोकाकाश-प्रदेश प्रमाण हैं, जो वनस्पतिकायिक हैं ||३८||
योग और वेदमार्गणा का अल्प- बहुत्व । '
मणवयणकायजोगा, थोवा असंखगुण अनंतगुणा । पुरिसा थोवा इत्थी, संखगुणाणंतगुण कीवा ।। ३९ ।। मनोवचनकाययोगाः, स्तोका
असङ्ख्यगुणा अनन्तगुणाः ।
पुरुषाः स्तोकाः स्त्रियः सङ्ख्यगुणा अनन्तगुणाः क्लीबाः । । ३९ ।।
1
१. अनुयोगद्वार - सूत्र, पृ. २०३, २०४।
२. अनुयोगद्वार, पृ. २०२ / १ |
३. यह अल्प - बहुत्व, प्रज्ञापना के १३४वें पृष्ठ में है। गोम्मटसार में पन्द्रह योगों को लेकर संख्या का विचार किया है। देखिये, जीव. गा. २५८- २६९ ।
वेद-विषयक अल्प- बहुत्व का विचार भी उसमें कुछ भिन्न प्रकार से है। देखिये, जीव. गा.
२७६-२८०।
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अर्थ- मनोयोग वाले अन्य योगवालों से थोड़े हैं। वचनयोग वाले उनसे असंख्यातगुण और आययोग वाले वचनयोग वालों से अनन्तगुण हैं।
पुरुष सबसे थोड़े हैं। स्त्रियाँ पुरुषों से संख्यातगुण और नपुंसक स्त्रियों से अनन्तगुण हैं ।। ३९॥
भावार्थ- मनोयोग वाले अन्य योग वालों से इसलिये थोड़े माने गये हैं। कि मनोयोग संज्ञी जीवों में ही पाया जाता है और संज्ञी जीव अन्य सब जीवों से अल्प ही हैं। वचनयोग वाले मनोयोग वालों से असंख्यगुण कहे गये हैं। इसका कारण यह है कि द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय, असंज्ञि - पञ्चेन्द्रिय और संज्ञिपञ्चेन्द्रिय, ये सभी वचनयोग वाले हैं। काययोग वाले वचनयोगियों से अनन्तगुण इस अभिप्राय से कहे गये हैं कि मनोयोगी तथा वचनयोगी के अतिरिक्त एकेन्द्रिय भी काययोग वाले हैं।
तिर्यञ्च-स्त्रियाँ तिर्यञ्च पुरुषों से तीन गुनी और तीन अधिक होती हैं। मनुष्यस्त्रियाँ मनुष्य जाति के पुरुषों से सताईस गुनी और सत्ताईस अधिक होती हैं। देवियाँ देवों से बत्तीस गुनी और बत्तीस अधिक होती हैं। इसी कारण पुरुषों से स्त्रियाँ संख्यातगुण मानी हुई हैं। एकेन्द्रिय से चतुरिन्द्रिय पर्यन्त सब जीव, असंज्ञि-पञ्चेन्द्रिय और नारक, ये सब नपुंसक ही हैं। इसी से नपुंसक स्त्रियों की अपेक्षा अनन्तगुण माने गए हैं । । ३९ ॥
कषाय, ज्ञान, संयम और दर्शन मार्गणाओं का अल्प - बहुत्व (तीन गाथाओं से)
माणी कोही माई, लोही अहिय मणनाणिनो थोवा । ओहि असंखा मइसुय, अहियसम असंख विभंगा ।। ४० ।। मानिनः क्रोधिनो मायिनो, लोभिनोऽधिका मनोज्ञाननः स्तोकाः । अवधयोऽसंख्या मतिश्रुता, अधिकास्समा असङ्ख्या विभङ्गाः । । ४०॥ अर्थ-म - मानकषाय वाले अन्य कषायवालों से थोड़े हैं। क्रोधी मानियों से विशेषाधिक हैं। मायावी क्रोधियों से विशेषाधिक हैं। लोभी मायावियों से विशेषाधिक हैं।
१. देखिये, पञ्चसंग्रह द्वा. २, गा. ६५ २. देखिये, पञ्चसंग्रह द्वा. २, गा. ६८
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चौथा कर्मग्रन्थ
मनः पर्यायज्ञानी अन्य सब ज्ञानियों से थोड़े हैं। अवधिज्ञानी मनःपर्यायज्ञानियों से असंख्यगुण हैं। मतिज्ञानी तथा श्रुतज्ञानी आपस में तुल्य हैं। परन्तु अवधिज्ञानियों से विशेषाधिक ही हैं। विभङ्गज्ञानी श्रुतज्ञान वालों से असंख्यगुण हैं ||४०||
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भावार्थ- मानवाले क्रोध आदि अन्य कषायवालों से कम हैं, इसका कारण यह है कि मान की स्थिति क्रोध आदि अन्य कषायों की स्थिति की अपेक्षा अल्प है। क्रोध मान की अपेक्षा अधिक देर तक ठहरता है। इसी से क्रोधवाले मानियों से अधिक हैं । माया की स्थिति क्रोध की स्थिति से अधिक है तथा वह क्रोधियों की अपेक्षा अधिक जीवों में पायी जाती है। इसी से मायावियों को क्रोधियों की अपेक्षा अधिक कहा है। मायावियों से लोभियों को अधिक कहने का कारण यह है कि लोभ का उदय दसवें गुणस्थान पर्यन्त रहता है, पर माया का उदय नौवें गुणस्थान तक ही ।
जो जीव मनुष्य - देहधारी, संयमवाले और अनेक - लब्धि-सम्पन्न हों, उनको ही मन: पर्यायज्ञान होता है। इसी से मन: पर्यायज्ञानी अन्य सब ज्ञानियों से अल्प हैं। सम्यक्त्वी कुछ मनुष्य - तिर्यञ्चों को और सम्यक्त्वी सब देव नारकों को अवधिज्ञान होता है। इसी कारण अवधिज्ञानी मन: पर्यायज्ञानियों से असंख्यगुण हैं। अवधिज्ञानियों के अतिरिक्त सभी सम्यक्त्वी मनुष्य- तिर्यञ्च मति श्रुत ज्ञानवाले हैं। अतएव मति - श्रुत - ज्ञानी अवधिज्ञानियों से कुछ अधिक हैं। मति श्रुत दोनों, नियम से सहचारी हैं, इसी से मति - श्रुत ज्ञानवाले आपस में तुल्य हैं। मतिश्रुत ज्ञानियों से विभङ्गज्ञानियों के असंख्यगुण होने का कारण यह है कि मिथ्यादृष्टिवाले देव-नारक, जो कि विभङ्गज्ञानी ही हैं, वे सम्यक्त्वी जीवों से असंख्यातगुण हैं । ४० ॥
केवलिणो णंतगुणा, मइसुयअन्नाणि णंतगुण तुल्ला । सुहुमा थोवा परिहार संख अहखाय संखगुणा । । ४१ । । केवलिनोऽनन्तगुणाः, मतिश्रुताऽज्ञानिनोऽनन्तगुणास्तुल्याः । सूक्ष्माः स्तोकाः परिहाराः संख्या यथाख्याताः संख्यगुणाः । । ४१ ।
अर्थ - केवलज्ञानी, विभङ्गज्ञानियों से अनन्तगुण हैं। मति - अज्ञानी और श्रुतअज्ञानी, ये दोनों आपस में तुल्य हैं; परन्तु केवल ज्ञानियों से अनन्तगुण हैं। सूक्ष्मसम्पराय चारित्रवाले अन्य चारित्रवालों से अल्प हैं। परिहारविशुद्ध चारित्रवाले सूक्ष्मसम्पराय चारित्रियों से संख्यातगुण हैं। यथाख्यातचारित्र वाले परिहारविशुद्ध चारित्रों से संख्यातगुण हैं ।
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भावार्थ सिद्ध अनन्त हैं और वे सभी केवलज्ञानी हैं, इसी से केवलज्ञानी विभङ्गज्ञानियों से अनन्तगुण हैं। वनस्पतिकायिक जीव सिद्धों से भी अनन्तगुण हैं और वे सभी मति - अज्ञानी तथा श्रुत- अज्ञानी ही हैं। अतएव मति- अज्ञानी तथा श्रुत- अज्ञानी, दोनों का केवलज्ञानियों से अनन्तगुण होना संगत है। मति और श्रुतज्ञान की तरह मति और श्रुत- अज्ञान, नियम से सहचारी हैं, इसी से मतिअज्ञानी तथा श्रुत- अज्ञानी आपस में तुल्य हैं।
सूक्ष्मसम्पराय चारित्री उत्कृष्ट दो सौ से नौ सौ तक, परिहारविशुद्ध चारित्री उत्कृष्ट दो हजार से नौ हजार तक और यथाख्यात चारित्री उत्कृष्ट दो करोड़ से नौ करोड़ तक हैं। अतएव इन तीनों प्रकार के चारित्रियों का उत्तरोत्तर संख्यातगुण अल्प-बहुत्व माना गया है || ४१ ॥
छेयसमईय संखा, देस असंखगुण णंतगुण अजया । थोवअसंखदुणंता, ओहिनयणकेवलअचक्खू ।। ४२ ।। छेदसामायिकाः संख्याः, देशा असंख्यगुणा अनन्तगुणा अयताः । स्तोकाऽसंख्यद्व्यनन्तान्यवधिनयनकेवलाचक्षूंषि । । ४२ ।।
अर्थ-छेदोपस्थापनीयचारित्र वाले यथाख्यात चारित्रियों से संख्यातगुण हैं। सामायिकचारित्र वाले छेदोपस्थापनीय चारित्रियों से संख्यातगुण हैं। देशविरति वाले सामायिक चारित्रियों से असंख्यातगुण हैं। अविरति वाले देशविरतों से अनन्तगुण हैं।
अवधिदर्शनी अन्य सब दर्शनवालों से अल्प हैं। चक्षुर्दर्शनी अवधिदर्शनवालों से असंख्यातगुण हैं । केवलदर्शनी चक्षुर्दर्शनवालों से अनन्तगुण हैं। अचक्षुर्दर्शनी केवलदर्शनियों से भी अनन्तगुण हैं।
भावार्थ - यथाख्यातचारित्र वाले उत्कृष्ट दो करोड़ से नौ करोड़ तक होते हैं; परन्तु छेदोपस्थापनीयचारित्र वाले उत्कृष्ट दो सौ करोड़ से नौ सौ करोड़ तक और सामायिकचारित्र वाले उत्कृष्ट दो हजार करोड़ से नौ हजार करोड़ तक पाये जाते हैं। इसी कारण यें उपर्युक्त रीति से संख्यातगुण माने गये हैं । तिर्यञ्च भी देशविरत होते हैं; ऐसे तिर्यञ्च असंख्यात होते हैं। इसी से सामायिकचारित्र वालों से देशविरतिवाले असंख्यातगुण कहे गये हैं । उक्त चारित्र वालों को छोड़ अन्य सब जीव अविरत हैं, जिनमें अनन्तानन्त वनस्पतिकायिक जीवों का समावेश है। इसी अभिप्राय से अविरत जीव देशविरतिवालों की अपेक्षा अनन्तगुण माने गये हैं।
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चौथा कर्मग्रन्थ
देवों, नारकों तथा कुछ मनुष्य-तिर्यञ्चों को ही अवधिदर्शन होता है। इसी से अन्य दर्शनवालों की अपेक्षा अवधिदर्शनी अल्प हैं। चक्षुर्दर्शन, चतुरिन्द्रिय, असंज्ञि-पञ्चेन्द्रिय और संज्ञि-पञ्चेन्द्रिय, इन तीनों प्रकार के जीवों में होता है। इसलिये चक्षुर्दर्शनवाले अवधिदर्शनियों की अपेक्षा असंख्यातगुण कहे गये हैं। सिद्ध अनन्त हैं और वे सभी केवलदर्शनी हैं, इसी से उनकी संख्या चक्षुर्दर्शनियों की संख्या से अनन्तगुण है। अचक्षुर्दर्शन सभी संसारी जीवों में होता है, जिनमें अकेले वनस्पतिकायिक जीव ही अनन्तानन्त हैं। इसी कारण अचक्षुर्दर्शनियों केवलदर्शनियों से अनन्तगुण कहा है। लेश्या आदि पाँच मार्गणाओं का अल्प-बहुत्व'
(दो गाथाओं से) पच्छाणुपुव्विलेसा, थोवा दो संख णंत दो अहिया।
अभवियर थोवणंता, सासण थोवोवसम संखा।।४३।। पश्चानुपूर्व्या लेश्याः, स्तोका द्वे संख्ये अनन्ता द्वे अधिके। अभव्येतराः स्तोकानन्ताः, सासादनाः स्तोका उपशमाः संख्याः।।४३।।
अर्थ-लेश्याओं का अल्प-बहुत्व पश्चानुपूर्वी से-पीछे की ओर सेजानना चाहिये। जैसे-शुक्ललेश्या वाले, अन्य सब लेश्या वालों से अल्प हैं। पद्मलेश्या वाले, शुक्ललेश्या वालों से संख्यातगुण हैं। तेजोलेश्या वाले, पद्मलेश्या वालों से संख्यातगुण हैं। तेजोलेश्या वालों से कापोतलेश्या वाले
१. लेश्या का अल्प-बहुत्व प्रज्ञापना पृ. १३५/१, १५२/१; भव्य-मार्गणा का
पृ. १३९/१, संज्ञिमार्गणा का पृ. १३९/१ और आहारकमार्गणा का पृ. १३२/१ पर है। अल्पबहुत्व पद में सम्यक्त्वमार्गणा का जो अल्प-बहुत्व पृ. १३६ पर है, वह संक्षिप्तमात्र है। गोम्मटसार-जीवकाण्ड की ५३६ से लेकर ५४१वीं गाथाओं में जो लेश्या का अल्प बहुत्व द्रव्य, क्षेत्र, काल आदि को लेकर बतलाया गया है, वह कहीं-कहीं यहाँ से मिलता है और कहीं-कहीं नहीं मिलता। भव्यमार्गणा में अभव्य की संख्या उसमें कर्मग्रन्थ की तरह जघन्य-युक्तानन्त कही हुई है।
-जी.गा. ५५९। सम्यक्त्व, संज्ञी और आहारकमार्गणा का भी अल्प-बहुत्व उसमें वर्णित है।
-जी.गा. ६५६-६५८-६६२-६७०।
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मार्गणास्थान-अधिकार
अनन्तगुण हैं। कापोतलेश्या वालों से नीललेश्या वाले विशेषाधिक हैं। कृष्णलेश्या वाले, नीललेश्या वालों से भी विशेषाधिक हैं।
अभव्य जीव, भव्य जीवों से अल्प हैं। भव्य जीव, अभव्य जीवों की अपेक्षा अनन्तगुण हैं।
सासादनसम्यग्दृष्टि वाले, अन्य- सब दृष्टि वालों से कम हैं। औपशमिक सम्यग्दृष्टि वाले, सासादन सम्यग्दृष्टि वालों से संख्यातगुण हैं।।४३।।
भावार्थ-लान्तक देवलोक से लेकर अनुत्तरविमान तक के वैमानिक देवों को तथा गर्म-जन्य संख्यातवर्ष आयुवाले कुछ मनुष्य-तिर्यश्चों को शुक्ललेश्या होती है। पद्मलेश्या, सनत्कुमार से ब्रह्मलोक तक के वैमानिक देवों को और गर्म-जन्य संख्यात वर्ष आयुवाले कुछ मनुष्य तिर्यञ्चों को होती है। तेजोलेश्या, बादर पृथ्वी, जल और वनस्पतिकायिक जीवों को, कुछ पञ्चेन्द्रिय तिर्यश्च-मनुष्य, भवनपति और व्यन्तरों को, ज्योतिषों को तथा सोधर्म-ईशान कल्प के वैमानिक देवों को होती है। सब पद्मलेश्या वाले मिलाकर सब शुक्ललेश्या वालों की अपेक्षा संख्यातगुण हैं। इसी तरह सब तेजोलेश्या वाले मिलाये जायें तो सब पद्मलेश्या १. लान्तक से लेकर अनुत्तरविमान तक के वैमानिकदेवों की अपेक्षा सनत्कुमार से लेकर ब्रह्मलोक तक के वैमानिकदेव, असंख्यातगुण है। इसी प्रकार सनत्कुमार आदि के वैमानिक देवों की अपेक्षा केवल ज्योतिषदेव ही असंख्यात-गुण हैं। अत एव यह शङ्का होती है कि पद्मलेश्यावाले शुक्ललेश्यावालों से और तेजोलेश्यावाले पद्मलेश्यावालों से असंख्यातगुण न मानकर संख्यातगुण क्यों माने जाते हैं? इसका समाधान इतना ही है कि पद्मलेश्यावाले देव शुक्ललेश्यावाले देवों से असंख्यातगुण हैं सही, पर पद्मलेश्यावाले देवों की अपेक्षा शुक्ललेश्यावाले तिर्यञ्च असंख्यातगुण हैं। इसी प्रकार पद्मलेश्यावाले देवों से तेजोलेश्यावाले देवों के असंख्यातगुण होने पर भी तेजोलेश्यावाले देवों से पद्मलेश्यावाले तिर्यञ्च असंख्यातगुण हैं। अत एव सब शुक्ललेश्यावालों से सब पद्मलेश्यावाले और सब पद्मलेश्यावालों से सब तेजोलेश्यावाले संख्यातगुण ही होते हैं। सारांश, केवल देवों की अपेक्षा शुक्ल आदि उक्त तीन लेश्याओं का अल्प-बहुत्व विचारा जाता, तब तो असंख्यातगुण कहा जाता; परन्तु यह अल्प-बहुत्व सामान्य जीवराशि को लेकर कहा गया है और पद्मलेश्यावाले दवों से शुक्ल लेश्यावाले तिर्यञ्चों की तथा तेजोलेश्यावाले देवों से पद्मलेश्यावाले तिर्यञ्चों की संख्या इतनी बड़ी है; जिससे कि उक्त संख्यातगुण ही अल्पबहुत्व घट सकता है। श्रीजयसोमसरि ने शक्ललेश्या से तेजोलेश्या तक का अल्प-बहत्व असंख्यातगण लिखा है; क्योंकि उन्होंने गाथा-गत 'दो संख्या' पद के स्थान में 'दोऽसंखा' का पाठान्तर लेकर व्याख्या की है और अपने टबे में यह भी लिखा है कि किसी-किसी प्रति में 'दो संख्या' का पाठान्तर है, जिसके अनुसार संख्यातगुण का अल्प-बहुत्व समझना चाहिये, जो सुज्ञों को विचारणीय है।
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चौथा कर्मग्रन्थ
वालों से संख्यातगुण ही होते हैं। इसी से इनका अल्प - बहुत्व संख्यातगुण कहा है। कापोतलेश्या, अनन्त वनस्पतिकायिक जीवों को होती है, इसी सब से कापोतलेश्या वाले तेजोलेश्यावालों से अनन्तगुण कहे गये हैं। नीललेश्या, कापोतलेश्या वालों से अधिक जीवों में और कृष्णलेश्या, नीललेश्यावालों से भी अधिक जीवों में होती है; क्योंकि नीललेश्या कापोत की अपेक्षा क्लिष्टतर अध्यवसायरूप और कृष्णलेश्या नीललेश्या से क्लिष्टतम अध्यवसायरूप है। यह देखा जाता है कि क्लिष्ट, क्लिष्टतर और क्लिष्टतम परिणामवाले जीवों की संख्या उत्तरोत्तर अधिकाधिक ही होती है।
भव्य जीव, अभव्य जीवों की अपेक्षा अनन्तगुण हैं; क्योंकि अभव्य जीव 'जघन्ययुक्त' नामक चौथी अनन्तसंख्या - प्रमाण हैं, पर भव्य जीव अनन्तानन्त हैं। औपशमिक सम्यक्त्व को त्याग कर जो जीव मिथ्यात्व की ओर झुकते हैं, उन्हीं को सासादन सम्यक्त्व होता है, दूसरों को नहीं। इसी से अन्य सब दृष्टिवालों से सासादन सम्यग्दृष्टि वाले कम ही पाये जाते हैं। जितने जीवों को औपशमिक सम्यक्त्व प्राप्त होता है, वे सभी उस सम्यक्त्व को वमन कर मिथ्यात्व के अभिमुख नहीं होते, किन्तु कुछ ही होते हैं; इसी से औपशमिक सम्यक्त्व से गिरनेवालों की अपेक्षा उसमें स्थिर रहनेवाले संख्यातगुण पाये जाते हैं॥४३॥
मीसा संखा वेयग, असंखगुण खइयमिच्छ दु अनंता । संनियर थोव णंता - णहार थोवेयर असंखा ।। ४४ ।। मिश्राः संख्या वेदका, असंख्यगुणाः क्षायिकमिथ्या द्वावनन्तौ । संज्ञीतरे स्तोकानन्ता, अनाहारकाः स्तोका इतरेऽसंख्याः । । ४४ ।।
अर्थ- मिश्रदृष्टि वाले, औपशमिक सम्यग्दृष्टि वालों से संख्यातगुण हैं। वेदक (क्षायापशमिक) सम्यग्दृष्टि वाले जीव, मिश्रदृष्टि वालों से असंख्यातगुण हैं। क्षायिक सम्यग्दृष्टि वाले जीव, वेदक सम्यग्दृष्टि वालों से अनन्तगुण हैं। मिथ्यादृष्टिवाले जीव, क्षायिक सम्यग्दृष्टि वाले जीवों से भी अनन्तगुण हैं।
'दोऽसंख्या' यह पाठान्तर वास्तविक नहीं है। 'दो संख्या' पाठ ही तथ्य है। इसके अनुसार संख्यातगुण अल्प- बहुत्व का शङ्का सम्मधान पूर्वक विचार, सुज्ञ श्रीमलयगिरिसूरि ने प्रज्ञापना के अल्प- बहुत्व तथा लेश्यापद की अपनी वृत्ति में बहुत स्पष्ट रीति से किया है। पृ. १३६ / १ ३७५ /११
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मार्गणास्थान-अधिकार संज्ञी जीव, असंज्ञी जीवों की अपेक्षा कम हैं और असंज्ञी जीव, उनसे अनन्तगुण हैं। अनाहारक जीव, आहारक जीवों की अपेक्षा कम हैं और आहारक जीव, उनसे असंख्यातगुण हैं।।४४।।
भावार्थ-मिश्रदृष्टि पानेवाले जीव दो प्रकार के हैं। एक तो वे, जो पहले गुणस्थान को छोड़कर मिश्रदृष्टि प्राप्त करते हैं और दूसरे वे, जो सम्यग्दृष्टि से च्युत होकर मिश्रदृष्टि प्राप्त करते हैं। इसी से मिश्रदृष्टि वाले औपशमिक सम्यग्दृष्टि वालों से संख्यातगुण हो जाते हैं। मिश्र सम्यग्दृष्टि वालों से क्षायोपशमिक सम्यग्दृष्टि वालों के असंख्यातगुण होने का कारण यह है कि मिश्रसम्यक्त्व की अपेक्षा क्षायोपशमिक सम्यक्त्व की स्थिति बहुत अधिक है; मिश्रसम्यक्त्व की उत्कृष्ट स्थिति अन्तर्मुहूर्त की ही होती है, पर क्षायोपशमिक सम्यक्त्व की उत्कृष्ट स्थिति कुछ अधिक छयासठ सागरोपम की। क्षायिकसम्यक्त्वी, क्षायोपशमिक सम्यक्त्वियों से अनन्तगुण हैं; क्योंकि सिद्ध अनन्त हैं और वे सब क्षायिकसम्यक्त्वी ही हैं। क्षायिकसम्यक्त्वियों से भी मिथ्यात्वियों के अनन्तगण होने का कारण यह है कि सब वनस्पतिकायिक जीव मिथ्यात्वी ही हैं और वे सिद्धों से भी अनन्तगुण हैं।
देव, नारक, गर्भज-मनुष्य तथा गर्भज-तिर्यञ्च ही संज्ञी हैं, शेष सब संसारी जीव असंज्ञी हैं, जिनमें अनन्त वनस्पतिकायिक जीवों का समावेश है; इसीलिये असंज्ञी जीव संज्ञियों की अपेक्षा अनन्त गुण कहे जाते हैं।
विग्रहगति में वर्तमान, केवलिसमुद्धात के तीसरे, चौथे और पाँचवें समय में वर्तमान, चौदहवें गुणस्थान में वर्तमान और सिद्ध ये सब जीव अनाहारक हैं, शेष सब आहारक हैं। इसी से अनाहारकों की अपेक्षा आहारक जीव असंख्यातगुण कहे जाते हैं। वनस्पतिकायिक जीव सिद्धों से भी अनन्तगुण हैं और वे सभी संसारी होने के कारण आहारक हैं। अतएव यह शङ्का होती है कि आहारक जीव, अनाहारकों की अपेक्षा अनन्तगुण होने चाहिये, असंख्यगुण कैसे? ___इसका समाधान यह है कि एक-एक निगोद-गोलक में अनन्त जीव होते हैं; इनका असंख्यातवाँ भाग प्रतिसमय मरता और विग्रहगति में वर्तमान रहता है। ऊपर कहा गया है कि विग्रहगति में वर्तमान जीव अनाहारक ही होते हैं। ये अनाहारक इतने अधिक होते हैं, जिससे कुल आहारक जीव, कुल अनाहारकों की अपेक्षा अनन्तगुण कभी नहीं होने पाते, किन्तु असंख्यातगुण ही रहते हैं।।४४॥
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चौथा कर्मग्रन्थ
(३) गुणस्थानाधिकार
(१)-गुणस्थानों में जीवस्थान' सब्ब जियठाण मिच्छे, सग सासणि पण अपज्ज सन्निदुगं।
संमे सन्नी दुविहो, सेसेसुं संनिपज्जत्तो।।४५।। सर्वाणि जीवस्थानानि मिथ्यात्वे, सप्त सासादने पञ्चापर्याप्ताः संज्ञिद्विकम्। सम्यक्त्वे संज्ञी द्विविधः, शेषेषु संज्ञिपर्याप्तः।। ४५।।
अर्थ-मिथ्यात्वगुणस्थान में सब जीवस्थान हैं। सासादन में पाँच अपर्याप्त (बादर एकेन्द्रिय, द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय और असंज्ञि-पञ्चेन्द्रिय) तथा दो संज्ञी (अपर्याप्त और पर्याप्त) कुल सात जीवस्थान हैं। आविरतसम्यग्दृष्टिगुणस्थान में दो संज्ञी (अपर्याप्त और पर्याप्त) जीवस्थान हैं। उक्त तीन के अतिरिक्त शेष ग्यारह गुणस्थानों में पर्याप्त संज्ञीजीवस्थान हैं।।४५॥
भावार्थ-एकेन्द्रियादि सब प्रकार के संसारी जीव मिथ्यात्वी पाये जाते हैं; इसलिये पहले गुणस्थान में सब जीवस्थान कहे गये हैं।
दूसरे गुणस्थान में सात जीवस्थान ऊपर कहे गये हैं, उनमें छह अपर्याप्त हैं, जो सभी करण-अपर्याप्त समझने चाहिये; क्योंकि लब्धि-अपर्याप्त जीव, पहले गुणस्थानवाले ही होते हैं।
चौथे गुणस्थान में अपर्याप्त संज्ञी कहे गये हैं, सो भी उक्त कारण से करणअपर्याप्त ही समझने चाहिये।
पर्याप्त संज्ञी के अतिरिक्त अन्य किसी प्रकार के जीव में ऐसे परिणाम नहीं होते, जिनसे वे पहले, दूसरे और चौथे को छोड़कर शेष ग्यारह गुणस्थानों को पा सकें। इसीलिये इन ग्यारह गुणस्थानों में केवल पर्याप्त संज्ञी जीवस्थान माना गया है।।४५।।
गुणस्थान में जीवस्थान का जो विचार- यहाँ है, गोम्मटसार में उससे भिन्न प्रकार का है। उसमें दूसरे, छठे और तेरहवें गुणस्थान में अपर्याप्त और पर्याप्त संज्ञी, ये दो जीवस्थान माने हुए हैं। -जीव. गा. ६६८।। गोम्मटसार का यह वर्णन, अपेक्षाकृत है। कर्मकाण्ड की ११३वी गाथा में अपर्याप्त एकेन्द्रिय, द्वीन्द्रिय आदि को दूसरे गुणस्थान का अधिकारी मानकर उनको जीवकाण्ड में पहले गुणस्थान मात्र का अधिकारी कहा है; सो द्वितीय गुणस्थानवती अपर्याप्त एकेन्द्रिय आदि जीवों की अल्पता की अपेक्षा से। छठे गुणस्थान के अधिकारी को अपर्याप्त कहा है; सो आहारकमिश्रकाययोग की अपेक्षा से। तेरहवें गुणस्थान अधिकारी सयोगी-केवली को अपर्याप्त कहा है, सो योग को अपूर्णता
की अपेक्षा से। -जीवकाण्ड, गा. १२५।।
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गुणस्थानाधिकार (२)-गुणस्थानों में योग
(दो गाथाओं से) मिच्छादुगअजइ जोगा,-हारदुगुणा अपुव्वपणगे उ।
मणवइ उरलं सविउ,-व्वमीसि सविउव्वदुग देसे।।४६।। मिथ्यात्वद्विकायते योगा, आहारकद्विकोना अपूर्वपञ्चके तु। मनोवच औदारिकं सवैक्रियं मिश्रे सवैक्रियद्विकं देशे।।४६।।
अर्थ-मिथ्यात्व, सासादन और अविरत सम्यग्दृष्टि गुणस्थान में आहारकद्विक को छोड़कर तेरह योग हैं। अपूर्वकरण से लेकर पाँच गुणस्थानों में चार मन के, चार वचन के और एक औदारिक, ये नौ योग हैं। मिश्रगुणस्थान में उक्त नौ तथा एक वैक्रिय, ये दस योग हैं। देशविरतगुणस्थान में उक्त नौ तथा वैक्रिय-द्विक, कुल ग्यारह योग हैं।।४६॥
भावार्थ-पहले, दूसरे और चौथे गुणस्थान में तेरह योग इस प्रकार हैंकार्मणयोग, विग्रहगति में तथा उत्पत्ति के प्रथम समय में; वैक्रियमिश्र और
औदारिकमिश्र, ये दो योग उत्पत्ति के प्रथम समय के अनन्तर अपर्याप्त-अवस्था में और चार मन के, चार वचन के, एक औदारिक तथा एक वैक्रिय, ये दस योग पर्याप्त-अवस्था में। आहारक और आहारकमिश्र, ये दो योग चारित्र-सापेक्ष होने के कारण उक्त तीन गुणस्थानों में नहीं होते।
आठवें से लेकर बारहवें तक पाँच गुणस्थानों में छह योग नहीं हैं; क्योंकि ये गुणस्थान विग्रहगति और अपर्याप्त-अवस्था में नहीं पाये जाते। अतएव इनमें कार्मण और औदारिकमिश्र, ये दो योग नहीं होते तथा ये गुणस्थान अप्रमत्तअवस्था-भावी हैं। अतएव इनमें प्रमाद-जन्य लब्धि-प्रयोग न होने के कारण वैक्रिय-द्विक और आहारक-द्विक, ये चार योग भी नहीं होते।
तीसरे गुणस्थान में आहारक-द्विक, औदारिकमिश्र, वैक्रियमिश्र और कार्मण, इन पाँच के अतिरिक्त शेष दस योग हैं। १. गुणस्थानों में योग-विषयक विचार जैसा यहाँ है, वैसा ही पञ्चसंग्रह दा. १, गा.
१६,१८ तथा प्राचीन चतुर्थ कर्मग्रन्थ, गा. ६६-६९ में है। गोम्मटसार में कुछ विचार-भेद है। उसमें पाँचवें और सातवें गुणस्थान में नौ और छठे गुणस्थान में ग्यारह योग माने हैं।
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चौथा कर्मग्रन्थ
आहारक द्विक संयम- सापेक्ष होने के कारण नहीं होता और औदारिकमिश्र आदि तीन योग अपर्याप्त अवस्था भावी होने के कारण नहीं होते; क्योंकि अपर्याप्त-अवस्था में तीसरे गुणस्थान का संभव ही नहीं है।
१००
-
यह शङ्का होती है कि अपर्याप्त अवस्था भावी वैक्रियमिश्र काययोग, जो देव और नारकों को होता है, वह तीसरे गुणस्थान में भले ही न माना जाय, पर जिस वैक्रियमिश्र काययोग का सम्भव वैक्रिय लब्धिधारी पर्याप्त मनुष्य-तिर्यञ्चों में है, वह उस गुणस्थान में क्यों न माना जाय ?
इसका समाधान श्रीमलयगिरिसूरि आदि ने यह दिया है कि सम्प्रदाय नष्ट हो जाने से वैक्रियमिश्र काययोग न माने जाने का कारण अज्ञात है; तथापि यह जान पड़ता है कि वैक्रिय लब्धि वाले मनुष्य - तिर्यञ्च तीसरे गुणस्थान के समय वैक्रिय लब्धि का प्रयोग कर वैक्रियशरीर बनाते न होंगे।
देशविरति वाले वैक्रिय लब्धि - सम्पन्न मनुष्य व तिर्यञ्च वैक्रियशरीर बनाते हैं, इसलिये उनके वैक्रिय और वैक्रियमिश्र, ये दो योग होते हैं।
चार मन के, चार वचन के और एक औदारिक, ये नौ योग मनुष्य- तिर्यञ्च के लिये साधारण हैं। अतएव पाँचवें गुणस्थान में कुल ग्यारह योग समझने चाहिये। उसमें सर्वविरति न होने के कारण दो आहारक और अपर्याप्त अवस्था न होने के कारण कार्मण और औदारिकमिश्र, ये दो, कुल चार योग नहीं होते॥४६॥
साहारदुग पमत्ते, ते विउवाहारमीस विणु इयरे । कम्मुरलदुगंताइम, मणवयण सयोगि न अजोगी ।। ४७ ।। साहारकद्विकं प्रमत्ते, ते वैक्रियाहारकमिश्रं विनेतरस्मिन् । कार्मणौदारिकद्विकान्तादिममनोवचनं सयोगिनि नायोगिनि । । ४७ ।।
अर्थ-प्रमत्तगुणस्थान में देशविरतिगुणस्थान सम्बन्धी ग्यारह और आहारकद्विक, कुल तेरह योग हैं। अप्रमत्तगुणस्थान में उक्त तेरह में से वैक्रियमिश्र और आहारकमिश्र को छोड़कर शेष ग्यारह योग हैं। सयोगिकेवलिगुणस्थान में कार्मण, औदारिक-द्विक, सत्वमनोयोग, असत्यामृषमनोयोग, सत्यवचनयोग और
१. पञ्चसंग्रह द्वा. १, गा. १७ को टीका ।
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गुणस्थानाधिकार
१०१
असत्यामृषवचनयोग, ये सात योग हैं। अयोगिकेवलि गुणस्थान में एक भी योग नहीं होता - योग का सर्वथा अभाव है ॥ ४७ ॥
भावार्थ - छठे गुणस्थान में तेरह योग कहे गये हैं। इनमें से चार मन के, चार वचन के और एक औदारिक, ये नौ योग सब मुनियों के साधारण हैं और वैक्रिय-द्विक तथा आहारक-द्विक, ये चार योग वैक्रियशरीर या आहारकशरीर बनानेवाले लब्धिधारी मुनियों के ही होते हैं।
वैक्रियमिश्र और आहारकमिश्र, ये दो योग, वैक्रियशरीर और आहारकशरीर का आरम्भ तथा परित्याग करने के समय पाये जाते हैं, जब कि प्रमाद-अवस्था होती है। पर सातवाँ गुणस्थान अप्रमत्त अवस्था - भावी है; इसलिये उसमें छठे गुणस्थानवाले तेरह योगों में से उक्त दो योगों को छोड़कर ग्यारह योग माने गये हैं। वैक्रियशरीर या आहारकशरीर बना लेने पर अप्रमत्त-अवस्था का भी संभव है; इसलिये अप्रमत्तगुणस्थान के योगों में वैक्रियकाययोग और आहारक काययोग की गणना है।
सयोगिकेवली को केवलिसमुद्घात के समय कार्मण और औदारिकमिश्र, ये दो योग, अन्य सब समय में औदारिककाययोग, अनुत्तर विमानवासी देव आदि के प्रश्न का मन से उत्तर देने के समय दो मनोयोग और देशना देने के समय दो वचनयोग होते हैं। इसी से तेरहवें गुणस्थान में सात योग माने गये हैं। केवली भगवान सब योगों का निरोध करके अयोगि अवस्था प्राप्त करते हैं; इसीलिये चौदहवें गुणस्थान में योगों का अभाव है || ४७||
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चौथा कर्मग्रन्थ
(३) - गुणस्थानों में उपयोग' । अजइ देसि
तिअनाणदुदंसाइम, - दुगे नाणदंसतिगं । ते मीसि मीसा समणा, जयाइ केवलदु अंतदुगे । । ४८ । । त्र्यज्ञानद्विदर्शमादिमद्विकेऽयते देशे ज्ञानदर्शनत्रिकम् ।
ते मिश्र मिश्राः समनसो, यतादिषु केवलद्विकमन्तद्विके । । ४८ ।।
,
अर्थ-मिथ्यात्व और सासादन, इन दो गुणस्थानों में तीन अज्ञान और दो दर्शन, ये पाँच उपयोग हैं। अविरत सम्यग्दृष्टि, देशविरति इन दो गुणस्थानों में तीन ज्ञान, तीन दर्शन, ये छ: उपयोग हैं। मिश्रगुणस्थान में भी तीन ज्ञान, तीन दर्शन, ये छ: उपयोग हैं, पर ज्ञान, अज्ञान - मिश्रित होते हैं। प्रमत्तसंयत से लेकर क्षीण मोहनीय तक सात गुणस्थानों में उक्त छः और मनःपर्यायज्ञान, ये सात उपयोग हैं। सयोगिकेवली और अयोगिकेवली, इन दो गुणस्थानों में केवलज्ञान और केवलदर्शन, ये दो उपयोग हैं | | ४८ ||
१०२
भावार्थ- पहले और दूसरे गुणस्थान में सम्यक्त्व का अभाव है; इसी से उनमें सम्यक्त्व के सहचारी पाँच ज्ञान, अवधिदर्शन और केवलदर्शन, ये सात उपयोग नहीं होते, शेष पाँच होते हैं।
चौथे और पाँचवें गुणस्थान में मिथ्यात्व न होने से तीन अज्ञान, सर्वविरति न होने से मनःपर्यायज्ञान और घातिकर्म का अभाव न होने से केवल-द्विक, ये कुल छः उपयोग नहीं होते, शेष छः होते हैं।
तीसरे गुणस्थान में भी तीन ज्ञान और तीन दर्शन, ये ही छः उपयोग हैं। पर दृष्टि, मिश्रित (शुद्धाशुद्ध-उभयरूप ) होने के कारण ज्ञान, अज्ञान- मिश्रित होता है।
छठे से बारहवें तक सात गुणस्थानों में मिथ्यात्व न होने के कारण अज्ञानत्रिक नहीं है और घातिकर्म का क्षय न होने के कारण केवलद्विक नहीं है। इस तरह पाँच को छोड़कर शेष सात उपयोग उनमें समझने चाहिये ।
तेरहवें और चौदहवें गुणस्थान में घातिकर्म न होने से छद्मस्य अवस्थाभावी दस उपयोग नहीं होते, सिर्फ केवलज्ञान और केवलदर्शन, ये दो ही, उपयोग होते हैं ॥४८॥
सिद्धान्त के कुछ मन्तव्य सासणभावे नाणं, विउव्वगाहारगे नेगिंदिसु सासाणो, नेहाहिगयं सुयमयं
उरलमिस्सं । पि । । ४९ ।।
१.
यह विषय, पञ्चसंग्रह-द्वा. १ की १९.२०वीं; प्राचीन चतुर्थ कर्मग्रन्थ की ७०.७१वीं और गोम्मटसार - जीवकाण्ड की ७०४वीं गाथा में है।
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गुणस्थानाधिकार
१०३ सासादनभावे ज्ञानं, वैकुर्विकाहारक औदारिकमिश्रम्। नैकेन्द्रियेषु सासादनं, नेहाधिकृतं श्रुतमतमपि।। ४९।।
अर्थ-सासादन-अवस्था में सम्यग्ज्ञान, वैक्रियशरीर तथा आहारकशरीर बनाने के समय औदारिक मिश्रकाययोग और एकेन्द्रिय जीवों में सासादन गुणस्थान का अभाव, ये तीन बातें यद्यपि सिद्धान्त सम्मत हैं तथापि इस ग्रन्थ में इनका अधिकार नहीं है।।४९।।
भावार्थ-कुछ विषयों पर सिद्धान्त और कर्मग्रन्थ का मत-भेद चला आता है। इनमें से तीन विषय इस गाथा में ग्रन्थकार ने दिखाये हैं
___ (क) सिद्धान्त' में दूसरे गुणस्थान के समय मति, श्रुत आदि को ज्ञान माना है, अज्ञान नहीं। इससे उलटा कर्मग्रन्थ में अज्ञान माना है, ज्ञान नहीं। सिद्धान्त का अभिप्राय यह है कि दूसरे गुणस्थान में वर्तमान जीव यद्यपि मिथ्यात्व के सन्मुख है, पर मिथ्यात्वी नहीं; उसमें सम्यक्त्व का अंश होने से कुछ विशुद्धि है; इसलिये उसके ज्ञान को ज्ञान मानना चाहिये। कर्मग्रन्थ का आशय यह है कि द्वितीय गुणस्थानवी जीव मिथ्यात्वी न सही, पर वह मिथ्यात्व के अभिमुख है; इसलिये उसके परिणाम में मालिन्य अधिक होता है; इससे उसके ज्ञान को अज्ञान कहना चाहिये।
१. भगवती में द्वीन्द्रियों को ज्ञानी भी कहा है। इस कथन से यह प्रमाणित होता है कि
सासादन-अवस्था में ज्ञान मान करके ही सिद्धान्तों द्वीन्द्रियों को ज्ञानी कहते हैं, क्योंकि उनमें दूसरे से आगे के सब गुणस्थानों का अभाव ही है। पञ्चेन्द्रियों को ज्ञानी कहा है, उसका समर्थन तो तीसरे, चौथे आदि गुणस्थानों की अपेक्षा से भी किया जा सकता है, पर द्वीन्द्रियों में तीसरे आदि गुणस्थानों का अभाव होने के कारण सिर्फ सासादननुणस्थान की अपेक्षा से ही ज्ञानित्व घटाया जा सकता है। यह बात प्रज्ञापनाटीका में स्पष्ट लिखी हुई है। उसमें कहा है कि द्वीन्द्रिय को दो ज्ञान कैसे घट सकते हैं? उत्तर-उसको अपर्याप्त-अवस्था में सासादनगुणस्थान होता है, इस अपेक्षा से दो ज्ञान घट सकते हैं। 'बेइंदियाणं भंते! किं नाणी अन्नाणी? गोयमा! णाणी वि अण्णाणी वि। जे नाणी ते नियमा दुनाणी। तं जहाँ-आभिणिबोहियनाणी सुयणाणी। जे अण्णाणी ते वि नियमा दुअन्नाणी। तं जहा-मइअन्नाणी सुयअन्नाणी या'
-भगवती-शतक ८, उ. २। 'बेइंदियस्स दो णाणा कहं लब्मंति? भण्णइ, सासायणं पडुच्च तस्सापज्जत्तयस्स दो णाणा लन्मंति।' दूसरे गुणस्थान के समय कर्मग्रन्थ के मतानुसार अज्ञान माना जाता है, सो २० तथा ४८वी गाथा से स्पष्ट है। गोम्मटसार में कार्म ग्रन्थिक ही मत है। इसके लिये देखिये, जीवकाण्ड की ६८६ तथा ७०४वीं गाथा।
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चौथा कर्मग्रन्थ
(ख) सिद्धान्त' का मानना है कि लब्धि द्वारा वैक्रिय और आहारक- शरीर बनाते समय औदारिकमिश्र काययोग होता है; पर त्यागते समय क्रम से वैक्रियमिश्र और आहारकमिश्र होता है। इसके स्थान में कर्मग्रन्थ का मानना है कि उक्त दोनों शरीर बनाते तथा त्यागते समय क्रम से वैक्रियमिश्र और आहारकमिश्र योग ही होता है, औदारिकमिश्र नहीं। सिद्धान्त का आशय यह है कि लब्धि से वैक्रिय या आहारक- शरीर बनाया जाता है, उस समय इन शरीरों के योग्य पुद्गल, औदारिकशरीर के द्वारा ही ग्रहण किये जाते हैं; इसलिये औदारिकशरीर की प्रधानता होने के कारण उक्त दोनों शरीर बनाते समय औदारिकमिश्र काययोग का व्यवहार करना चाहिये । परन्तु परित्याग के समय औदारिकशरीर की प्रधानता नहीं रहती । उस समय वैक्रिय या आहारक - शरीर का ही व्यापार मुख्य होने के कारण वैक्रियमिश्र तथा आहारकमिश्र का व्यवहार करना चाहिये। कार्मग्रन्थिक-मत का तात्पर्य इतना ही है कि चाहे व्यापार किसी शरीर का प्रधान हो, पर औदारिकशरीर जन्म- - सिद्ध है और वैक्रिय या आहारकशरीर लब्धिजन्य है; इसलिये विशिष्ट लब्धि - जन्य शरीर की प्रधानता को ध्यान में रखकर आरम्भ और परित्याग, दोनों समय वैक्रियमिश्र और आहारकमिश्र का व्यवहार करना चाहिये, औदारिकमिश्र का नहीं।
१०४
पर
( ग ) — सिद्धान्ती', एकेन्द्रियों में सासादन गुणस्थान को नहीं मानते, कार्मग्रन्थिक मानते हैं।
उक्त विषयों के अतिरिक्त अन्य विषयों में भी कहीं-कहीं मतभेद है१. यह मत प्रज्ञापना के इस उल्लेख से स्पष्ट है
'ओरालियसरीरकायप्पयोगे ओरालियमीससरीरप्पयोगे वेडव्वियसरीरकायप्पयोगे आहारकसरीरकाय़प्पओगे आहारकमीससरीरकायप्पयोगे ।'
- पद. १६ तथा उसकी टीका, पृ. ३१७/ कर्मग्रन्थ का मत तो ४६ और ४७वीं गाथा में पाँचवें और छठे गुणस्थान में क्रम से ग्यारह और तेरह योग दिखाये हैं, इसी से स्पष्ट है।
गोम्मटसार का मत कर्मग्रन्थ के समान ही जान पड़ता है; क्योंकि उसमें पाँचवें और छठे किसी गुणस्थान में औदारिकमिश्रकाययोग नहीं माना है। देखिये, जीवकाण्डकी ७०३वीं गाथा ।
२. भगवती, प्रज्ञापना और जीवभिगमसूत्र में एकेन्द्रियों को आज्ञानी ही कहा है। इससे सिद्ध है कि उनमें सासादन-भाव सिद्धान्त सम्मत नहीं है। यदि सम्मत होता तो द्वीन्द्रिय आदि की तरह एकेन्द्रियों को भी ज्ञानी कहते।
'एगिंदियाणं भंते! किं नाणी अण्णाणी? गोयमा! नो नाणी, नियमा अन्नाणी । ' - भगवती-: - श. ८, उ. २। एकेन्द्रिय में सासादन-भाव मानने का कार्मग्रन्थिक मत पञ्चसंग्रह में निर्दिष्ट है। यथा'इगिविगिलेसु जुयलं' इत्यादि ।
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गुणस्थानाधिकार
१०५ (१) सिद्धान्ती, अवधिदर्शन को पहले बारह गुणस्थानों में मानते हैं, पर कार्मग्रन्थिक उसे चौथे से बारहवें तक नौ गुणस्थानों में, (२) सिद्धान्त में ग्रन्थिभेद के अनन्तर क्षायोपशमिक सम्यक्त्व का होना माना गया है, किन्तु कर्मग्रन्थ में औपशमिक सम्यक्त्व का होना।।४९।।
(४-५)-गुणस्थानों में लेश्या तथा बन्ध-हेतु। छसु सव्वा तेउतिगं, इगि छसु सुक्का अयोगि अल्लेसा। बंधस्स मिच्छ अविरइ,-कसायजोग त्ति चउ हेऊ।।५।। षट्सु सर्वास्तेजस्त्रिकमेकस्मिन् षट्सु शुक्लाऽयोगिनोऽलेश्याः। बन्यस्य मिथ्यात्वाविरतिकषाययोगा इति चत्वारो हेतवः।।५।।
अर्थ-पहले छ: गणस्थानों में छ: लेश्याएँ हैं। एक (सातवें गुणस्थान में) तेजः, पद्म और शुक्ल, ये तीन लेश्याएँ हैं। आठवें से लेकर तेरहवें तक
दिगम्बर-संप्रदाय में सैद्धान्तिक और कार्मग्रन्थिक दोनों मत संगृहीत हैं। कर्मकाण्ड की ११३ से ११५ तक की गाथा देखने से एकेन्द्रियों में सासादन-भाव का स्वीकार स्पष्ट मालूम होता है। तत्त्वार्थ, अ. १ के ८वें सूत्र की सर्वार्थसिद्धि में तथा जीवकाण्ड
की ६७७वीं गाथा में सैद्धान्तिक मत है। १. गुणस्थान में लेश्या या लेश्या में गुणस्थान मानने के सम्बन्ध में दो मत चले आते
हैं। पहला मत पहले चार गुणस्थानों में छ: लेश्याएँ और दूसरा मत पहले छह गुणस्थानों में छः लेश्याएँ मानता है। पहला मत पञ्चसंग्रह-द्वा. १, गा. ३०; प्राचीन बन्धस्वामित्व, गा. ४०; नवीन बन्धत्वामित्व, गा. २५; सर्वार्थसिद्धि, पृ. २४ और गोम्मटसार-जीवकाण्ड, गा. ७०३ के भावार्थ में हैं। दूसरा मत प्राचीन चतुर्थ कर्मग्रन्थ, ग्रा. ७३ में तथा यहाँ है। दोनों मत अपेक्षा कृत है, अत: इनमें कुछ भी विरोध नहीं है। पहले मत का आशय यह है कि छहों प्रकार की द्रव्यलेश्यावालों को चौथा गुणस्थान प्राप्त होता है, पर पाँचवाँ या छठा गुणस्थान सिर्फ तीन शुभ द्रव्यलेश्यावालों की। इसलिये गुणस्थान प्राप्ति के समय वर्तमान द्रव्यलेश्या की अपेक्षा से चौथे गुणस्थान पर्यन्त छह लेश्याएँ माननी चाहिये और पाँचवें और छठे में तीन है। दूसरे मत का आशय यह है कि यद्यपि छहों लेश्याओं के समय चौथा गुणस्थान और तीन शुभ द्रव्यलेश्याओं के समय पाँचवाँ और छठाँ गुणस्थान प्राप्त होता है, परन्तु प्राप्त होने के बाद चौथे, पाँचवें और छठे, तीनों गुणस्थानवालों में छहों द्रव्यलेश्याएँ पायी जाती हैं। इसलिये गुणस्थान-प्राप्ति के उत्तर-काल में वर्तमान द्रव्यलेश्याओं की अपेक्षा से छठे गुणस्थान पर्यन्त छह लेश्याएँ मानी जाती है। इस जगह यह बात ध्यान में रखनी चाहिये कि चौथा, पाँचवाँ और छठा गुणस्थान प्राप्त होने के समय भावलेश्या तो शुभ ही होती है, अशुभ नहीं, पर प्राप्त होने के बाद भावलेश्या भी अशुभ हो सकती है।
'सम्मत्तसुयं सव्वा स.-लहइ, सुद्धासु तीस य चरित्तं। पुव्वपडिवण्णगो पुण, अण्णयरीए उ लेसाए।'
__ -आवश्यक-नियुक्ति, गा. ८२२।
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चौथा कर्मग्रन्थ
छः गुणस्थानों में केवल शुक्ललेश्या है। चौदहवें गुणस्थान में कोई भी लेश्या
नहीं है।
बन्ध
ध- हेतु - कर्म-बन्ध के चार हेतु हैं - १. मिथ्यात्व, २. अविरति, ३. कषाय और ४. योग ॥ ५० ॥
भावार्थ- प्रत्येक लेश्या,
असंख्यात लोकाकाश-प्रदेश-प्रमाण अध्यवसायस्थान (संक्लेश - मिश्रित परिणाम ) रूप है; इसलिये उसके तीव्र, तीव्रतर, तीव्रतम, मन्द, मन्दतर, मन्दतम आदि उतने ही भेद समझने चाहिये । अतएव कृष्ण आदि अशुभ लेश्याओं को छठे गुणस्थान में अतिमन्दतम और पहले गुणस्थान में अतितीव्रतम मानकर छः गुणस्थानों तक उनका सम्बन्ध कहा गया है। सातवें गुणस्थान में आर्त तथा रौद्रध्यान न होने के कारण परिणाम इतने विशुद्ध रहते हैं, जिससे उस गुणस्थान में अशुभ लेश्याएँ सर्वथा नहीं होती; किन्तु तीन शुभ लेश्याएँ ही होती हैं। पहले गुणस्थान में तेज और पद्म- लेश्या को अतिमन्दतम और सातवें गुणस्थान में अतितीव्रतम, इसी प्रकार शुक्ललेश्या को भी पहले गुणस्थान में अतिमन्दतम और तेरहवें में अतितीव्रतम मानकर उपर्युक्त रीति से गुणस्थानों से उनका सम्बन्ध बतलाया गया है।
इसका विवेचन श्रीजिनभद्रगणि क्षमाश्रमण ने भाष्य की २७४१ से ४२ तक की गाथाओं में, श्रीहरिभद्रसूरि ने अपनी टीका में और मलधारी श्रीहेमचन्द्रसूरि ने भाष्यवृत्ति में विस्तारपूर्वक किया है। इस विषय के लिये लोकप्रकाश के ३ रे सर्ग के ३१३ से ३२३ तक के श्लोक द्रष्टव्य हैं।
चौथा गुणस्थान प्राप्त होने के समय द्रव्यलेश्या शुभ और अशुभ, दोनों मानी जाती हैं और भावलेश्या शुभ ही । इसलिये यह शङ्का होती है कि क्या अशुभ द्रव्यलेश्यावालों को भी शुभ भावलेश्या होती है ?
इसका समाधान यह है कि द्रव्यलेश्या और भावलेश्या सम्बन्ध में यह नियम नहीं है कि दोनों समान ही होनी चाहिये, क्योंकि यद्यपि मनुष्य- तिर्यञ्च, जिनकी द्रव्यलेश्या अस्थिर होती है, उनमें तो जैसी द्रव्यलेश्या वैसी ही भावलेश्या होती है। पर देवनारक, जिनकी द्रव्यलेश्या अवस्थित (स्थिर) मानी गयी है, उनके विषय में इससे उलटा है। अर्थात् नारकों में अशुभ द्रव्यलेश्या के होते हुए भी भावलेश्या शुभ हो सकती है। इसी प्रकार शुभ द्रव्यलेश्यावाले देवों में भावलेश्या अशुभ भी हो सकती है। इस बात को खुलासे से समझने के लिये प्रज्ञापना का १७वाँ पद तथा उसकी टीका देखनी चाहिये ।
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गुणस्थानाधिकार
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चार बन्ध हेतु - (१ ) 'मिथ्यात्व', आत्मा का वह परिणाम है, जो मिथ्यात्वमोहनीयकर्म के उदय से होता है और जिससे कदाग्रह, संशय आदि दोष पैदा होते हैं । (२) 'अविरति', वह परिणाम है, जो अप्रत्याख्यानावरण कषाय के उदय से होता है और जो चारित्र को रोकता है। (३) 'कषाय', वह परिणाम है, जो चारित्रमोहनीय के उदय से होता है और जिससे क्षमा, विनय, सरलता, संतोष, गम्भीरता आदि गुण प्रगट होने नहीं पाते या बहुत कम प्रमाण में प्रकट होते हैं। (४) 'योग', आत्म-प्रदेशों के परिस्पन्द (चाञ्चल्य) को कहते हैं, जो मन, वचन या शरीर के योग्य पुद्गलों के आलम्बन से होता है ॥ ५० ॥
१. ये ही चार बन्ध - हेतु पञ्चसंग्रह-द्वा. ४कीं १ली गाथा तथा कर्मकाण्ड की ७८६वीं गाथा में है। यद्यपि तत्त्वार्थ के ८वें अध्याय के १ले सूत्र में चार हेतुओं के अतिरिक्त प्रमाद को भी बन्ध-हेतु माना है, परन्तु उसका समावेश अविरति, कषाय आदि हेतुओं में हो जाता है। जैसे - विषय - सेवनरूप प्रमाद, अविरति और लब्धि-प्रयोगरूप प्रमाद, योग है। वस्तुतः कषाय और योग, ये दो बन्ध- - हेतु समझने चाहिये; क्योंकि मिथ्यात्व और अविरति, कषाय के ही अन्तर्गत है । इसी अभिप्राय से पाँचवें कर्मग्रन्थ की ६९वीं गाथा में दो ही बन्ध- हेतु माने गये हैं।
इस जगह कर्म-बन्ध के सामान्य हेतु दिखाये हैं, सो निश्चयदृष्टि से; अत एव उन्हें ५४ से ६१ तक की गाथाओं में;
अन्तरङ्ग हेतु समझना चाहिये। पहले कर्मग्रन्थ की तत्त्वार्थ के छठे अध्याय के ११ से २६ तक के सूत्र में तथा कर्मकाण्ड की ८०० से ८१० तक की गाथाओं में हर एक कर्म के अलग-अलग बन्ध-हेतु कहे हुए हैं, सो व्यवहारदृष्टि से; अत एव उन्हें बहिरङ्ग हेतु समझना चाहिये ।
शङ्का – प्रत्येक समय में आयु के सिवाय सात कर्मों का बाँधा जाना प्रज्ञापना के २०वें पद में कहा गया है; इसलिये ज्ञान, ज्ञानी आदि पर प्रद्वेष या उनका निह्नव करते समय भी ज्ञानावरणीव, दर्शनावरणीय की तरह अन्य कर्मों का बन्ध होता ही है। इस अवस्था में 'तत्त्वदोषनिह्नव' आदि तत्त्वार्थ के छठे अध्याय के ११ से २६ तक के सूत्रों में कहे हुए आस्त्रव, ज्ञानावरणीय और दर्शनावरणीय आदि कर्म के विशेष हेतु कैसे कहे जा सकते हैं?
समाधान—तत्प्रदोषनिह्नव आदि आस्रवों को प्रत्येक कर्म का विशेष - विशेष हेतु कहा है, सो अनुभागबन्ध की अपेक्षा से, प्रकृतिबन्ध की अपेक्षा से नहीं। अर्थात् किसी भी आस्रव के सेवन के समय प्रकृतिबन्ध सब प्रकार का होता है। अनुभागबन्ध में फर्क है। जैसे— ज्ञान, ज्ञानी, ज्ञानोपकरण आदि पर प्रद्वष करने के समय ज्ञानावरणीय और दर्शनावरणीय की तरह अन्य प्रकृतियों का बन्ध होता है, पर उस समय अनुभागबन्ध विशेष रूप से ज्ञानावरणीय और दर्शनावरणीय कर्म का ही होता है। सारांश, विशेष हेतुओं का विभाग अनुभागबन्ध की अपेक्षा से किया गया है, प्रकृतिबन्ध की अपेक्षा से नहीं।
- तत्त्वार्थ- अ. सू. २७की सर्वार्थसिद्धि ।
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चौथा कर्मग्रन्थ बन्ध-हेतुओं के उत्तरभेद तथा गुणस्थानों में मूल बन्ध-हेतु।
(दो गाथाओं से) अभिगहियमणभिगहिया,-भिनिवेसियसंसइयमणाभोगं। पण मिच्छ बार अविरइ, मणकरणानियम छजियवहो।।५।। आभिग्रहिकमनाभिग्रहिकामिनिवेशिकसांशयिकमनाभोगम्। पञ्चमिथ्यात्वानि द्वादशाविरतयो, मनःकरणानियमः षड्जीववधः।।५१।।
अर्थ-मिथ्यात्व के पाँच भेद हैं-१. आभिग्रहिक, २. अनाभिकग्रहिक, ३. आभिनिवेशिक, ४. सांशयिक और ५. अनाभोग।
___ अविरति के बारह भेद हैं। जैसे—मन और पाँच इन्द्रियाँ, इन छ: को नियम में न रखना, ये छ: तथा पृथ्वीकाय आदि छ: कायों का बध करना, ये छह।।५१॥
भावार्थ-१. तत्त्व की परीक्षा किये बिना ही किसी एक सिद्धान्त का पक्षपात करके अन्य पक्ष का खण्डन करना 'आभिग्रहिक मिथ्यात्व'२ है। २. गुणदोष की परीक्षा बिना किये ही सब पक्षों को बराबर समझना 'अनाभिग्रहिक मिथ्यात्व'३ है। ३. अपने पक्ष को असत्य जानकर भी उसकी स्थापना करने के लिये दरभिनिवेश (दुराग्रह) करना 'आभिनिवेशिक मिथ्यात्व'४ है। ४. ऐसा देव
१. यह विषय, पञ्चसंग्रह-द्वा. ४की २ से ४ तक की गाथाओं में तथा गोम्मटसार-कर्म
काण्ड की ७८६ से ७८८ तक की गाथाओं में है। गोम्मटसार में मिथ्यात्व के १ एकान्त, २ विपरीत, ३ वैनयिक, ४ सांशयिक और ५ अज्ञान, ये पाँच प्रकार है। -जी.,गा. १५। अविरति के लिये जीवकाण्ड की २९ तथा ४७७वीं गाथा और कषाय व योग के लिये क्रमश: उसकी कषाय व योगमार्गणा देखनी चाहिये। तत्त्वार्थ के ८वें अध्याय
के १ ले सूत्र के भाष्य में मिथ्यात्व के अभिगृहीत और अनभिगृहीत, ये दो ही भेद है। २. सम्यक्त्वी, कदापि अपरीक्षित सिद्धान्त का पक्षपात नहीं करता, अत एव जो व्यक्ति तत्त्व
परीक्षापूर्वक किसी एक पक्ष को मानकर अन्य पक्ष का खण्डन करता है, वह 'आभिग्रहिक' नहीं है। जो कुलाचारमात्र से अपने को जैन (सम्यक्त्वी ) मानकर तत्त्व की परीक्षा नहीं करता; वह नाम से 'जैन' परन्तु वस्तुत: 'आभिग्रहिकमिथ्यात्वी' है। माषतुष मुनि आदि की तरह तत्त्व-परीक्षा करने में स्वयं असमर्थ लोग यदि गीतार्थ (यथार्थ-परीक्षक) के आश्रित हों तो उन्हें 'आभिग्रहिकमिथ्यात्वी' नहीं समझना, क्योंकि गीतार्थ के आश्रित रहने से मिथ्या पक्षपातका संभव नहीं रहता।
___-धर्मसंग्रह, पृ. ४०/१। ३. यह मन्दबुद्धि वाले व परीक्षा करने में असमर्थ साधारण लोगों में पाया जाता है। ऐसे
लोग अकसर कहा करते हैं कि सब धर्म बराबर हैं। ४. सिर्फ उपयोग न रहने के कारण या मार्ग-दर्शक की गलती के कारण, जिसकी श्रद्धा विपरीत हो जाती है, वह 'आभिनिवेशिकमिथ्यात्वी'; क्योंकि यथार्थ-वक्ता मिलने पर
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गुणस्थानाधिकार
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होगा या अन्य प्रकार का, इसी तरह गुरु और धर्म के विषय में संदेहशील बने रहना 'सांशयिक मिथ्यात्व'१ है। ५. विचार व विशेष ज्ञान का अभाव अर्थात् मोह की प्रगाढतम अवस्था 'अनाभोग मिथ्यात्व'२ है। इन पाँच में से आभिग्रहिक
और अनाभिग्रहिक, ये दो मिथ्यात्व, गुरु हैं और शेष तीन लघु; क्योंकि वे दोनों विपर्यास रूप होने से तीव्र क्लेश के कारण हैं और शेष तीन विपर्यास रूप न होने से तीव्र क्लेश के कारण नहीं हैं। ____ मन को अपने विषय में स्वच्छन्दतापूर्वक प्रवृत्ति करने देना मन अविरति है। इसी प्रकार त्वचा, जिह्वा आदि पाँच इन्द्रियों की अविरति को भी समझ लेना चाहिए। पृथ्वीकायिक जीवों की हिंसा करना पृथ्वीकाय-अविरति है। शेष पाँच कायों की अविरति को इसी प्रकार समझ लेना चाहिए। ये बारह अविरतियाँ मुख्य हैं। मृषावाद-अविरति, अदत्तादान-अविरति आदि सब अविरतिओं का समावेश इन बारह में ही हो जाता है।
मिथ्यात्व मोहनीयकर्म का औदयिक-परिणाम ही मुख्यतया मिथ्यात्व कहलाता है। परन्तु इस जगह उससे होनेवाली आभिग्रहिक आदि बाह्य प्रवृत्तिओं को मिथ्यात्व कहा है, सो कार्य-कारण के भेद की विवक्षा न करके। इसी तरह अविरति, एक प्रकार का काषायिक परिणाम ही है, परन्तु कारण से कार्य को भिन्न न मानकर इस जगह मनोऽसंयम आदि को अविरति कहा है। देखा जाता है कि मन आदि का असंयम या जीव-हिंसा ये सब कषायजन्य ही हैं।॥५१॥
उसको श्रद्धा तात्त्विक बन जाती है, अर्थात् यथार्थ-वक्ता मिलने पर भी श्रद्धा का विपरीत बना रहना दुरर्भिनिवेश है। यद्यपि श्रीसिद्धसेन दिवाकर, श्रीजिनभद्रगणि क्षमाश्रमण आदि आचार्यों ने अपने-अपने पक्ष का समर्थन करके बहुत-कुछ कहा है, तथापि उन्हें 'आभिनिवेशिकमिथ्यात्वी' नहीं कह सकते; क्योंकि उन्होंने अविच्छिन्न प्रावचनिक परम्परा के आधार पर शास्त्र-तात्पर्य को अपने-अपने पक्ष के अनुकूल समझकर अपने-अपने पक्ष का समर्थन किया है, पक्षपात से नहीं। इसके विपरीत जमालि, गोष्ठामाहिल आदि ने शास्त्र-तात्पर्य को स्व-पक्ष के प्रतिकूल जानते हुए भी निज-पक्ष का समर्थन किया; इसलिये वे 'आभिनिवेशिक' कहे जाते हैं।
-धर्म. पृ. ४०। १. सूक्ष्म विषयों का संशय उञ्च-कोटि के साधुओं में भी पाया जाता है, पर वह मिथ्यात्वरूप नहीं है, क्योंकि अन्तत:_ 'तमेव सच्चं णीसंकं, जं जिणेहिं पवेइयं।' इत्यादि भावना से आगम को प्रमाण मानकर ऐसे संशयों का निवर्तन किया जाता है। इसलिये जो संशय, आगम-प्रामाण्य के द्वारा भी निवृत्त नहीं होता, वह अन्ततः
अनाचार का सम्पादक होने के कारण मिथ्यात्वरूप है। -धर्मसंग्रह पृ. ४१/११ २. यह, एकेन्द्रिय आदि क्षुद्रतम जन्तुओं में और मूढ प्राणियों में होता है।
-धर्मसंग्रह, पृ. ५०/१।
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चौथा कर्मग्रन्थ
नव सोल कसाया पन,- र जोग इय उत्तरा उ सगवन्ना। इगचउपणतिगुणेसु, चउतिदुइगपञ्चओ बंधो।। ५२।।
नव षोडश कषायाः पञ्चदश योगा इत्युत्तरास्तु सप्त्पञ्चाशत्।
एकचतुष्पञ्चत्रिगुणेषु, चतुस्त्रिोकप्रत्ययो बन्यः।। ५२।।
अर्थ-कषाय के नौ और सोलह, कुल पच्चीस भेद हैं। योग के पन्द्रह भेद हैं। इस प्रकार सब मिलाकर बन्ध-हेतुओं के उत्तर-भेद सत्तावन होते हैं।
एक (पहले) गुणस्थान में चारों हेतुओं से बन्ध होता है। दूसरे से पाँचवें तक चार गुणस्थानों में तीन हेतुओं से, छठे से दसवें तक पाँच गुणस्थानों में दो हेतुओं से और ग्यारहवें से तेरहवें तक तीन गुणस्थानों में एक हेतु से बन्ध होता है।।५२।।
भावार्थ-हास्य, रति आदि नौ नोकषाय और अनन्तानुबन्धी क्रोध आदि सोलह कषाय हैं, जो पहले कर्मग्रन्थ में कहे जा चुके हैं। कषाय के सहचारी तथा उत्तेजक होने के कारण हास्य आदि नौ, कहलाते 'नोकषाय' हैं, पर हैं वे कषाय ही।
पन्द्रह योगों का विस्तारपूर्वक वर्णन पहले २४वी गाथा में हो चुका है। पच्चीस कषाय, पन्द्रह योग और पूर्व गाथा में कहे हुए पाँच मिथ्यात्व तथा बारह अविरतियाँ, ये सब मिलाकर सत्तावन बन्ध हेतु हुए। ।
गुणस्थानों में मूल बन्ध-हेतु पहले गुणस्थान के समय मिथ्यात्व आदि चारों हेतु पाये जाते हैं, इसलिये उस समय होनेवाले कर्म-बन्ध में वे चारों कारण हैं। दूसरे आदि चार गुणस्थानों में मिथ्यात्वोदय के सिवाय अन्य सब हेतु रहते हैं; इससे उस समय होनेवाले कर्म-बन्धन में तीन कारण माने जाते हैं। छठे आदि पाँच गुणस्थानों में मिथ्यात्व की तरह अविरति भी नहीं है; इसलिये उस समय होनेवाले कर्म-बन्ध में कषाय और योग, ये दो ही हेतु माने जाते हैं। ग्यारहवें आदि तीन गुणस्थानों में कषाय भी नहीं होता; इस कारण उस समय होनेवाले बन्ध में सिर्फ योग ही कारण माना जाता है। चौदहवें गुणस्थान में योग का भी अभाव हो जाता है; अतएव उसमें बन्ध का एक भी कारण नहीं रहता।।५२।।
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गुणस्थानाधिकार
१११ एक सौ बीस प्रकृतियों के यथासंभव मूल बन्ध हेतु। चउमिच्छमिच्छअविरइ,-पच्चइया सायसोलपणतीसा। जोग विणु तिपच्चइया,-हारगजिणवज्ज सेसाओ।।५३।। चतुर्मिथ्यामिथ्याऽविरतिप्रत्ययिकाः सातषोडशपञ्चत्रिंशतः। योगान् विना त्रिप्रत्ययिका आहारकजिनवर्जशेषाः।। ५३।।
अर्थ-सातावेदनीय का बन्ध मिथ्यात्व आदि चारों हेतुओं से होता है। नरक-त्रिक आदि सोलह प्रकृतियों का बन्ध मिथ्यात्व मात्र से होता है। तिर्यश्चत्रिक आदि पैंतीस प्रकृतियों का बन्ध मिथ्यात्व और अविरति, इन दो हेतुओं से होता है। तीर्थङ्कर और आहारकद्विक को छोड़कर शेष सब (ज्ञानावरणीय आदि पैंसठ) प्रकृतियों का बन्ध, मिथ्यात्व, अविरति और कषाय, इन तीन हेतुओं से होता है।।५३।।
भावार्थ-बन्ध-योग्य प्रकृतियाँ एक सौ बीस हैं। इनमें से सातावेदनीय का बन्ध चतुर्हेतुक (चारों हेतुओं से होनेवाला) कहा गया है। सो इस अपेक्षा से कि वह पहल गुणस्थान में मिथ्यात्व से, दूसरे आदि चार-गुणस्थानों में अविरति से, छठे आदि चार गुणस्थानों में कषाय से और ग्यारहवें आदि तीन गुणस्थानों में योग से होता है। इस तरह तेरह गुणस्थानों में उसके सब मिलाकर चार हेतु होते हैं।
नरक-त्रिक, जाति-चतुष्क, स्थावर-चतुष्क, हुण्डसंस्थान, आठ प्रकृतियों का बन्ध मिथ्यात्व-हेतुक इसलिये कहा गया है कि ये प्रकृतियाँ सिर्फ पहले गुणस्थान में बाँधी जाती हैं।
तिर्यञ्च-त्रिक, स्त्यानर्द्धि-त्रिक, दुर्भग-त्रिक, अनन्तानुबन्धिचतुष्क, मध्यम संस्थान-चतुष्क, मध्यम संहनन-चतुष्क, नीचगोत्र, उद्योतनाम कर्म, अशुभविहायोगति, स्त्रीवेद, वज्रर्षभनाराचसंहनन, मनुष्यत्रिक, अप्रत्याख्यानावरण-चतुष्क और औदारिक-द्विक, इन पैंतीस प्रकृतियों का बन्ध द्वि-हेतुक है; क्योंकि ये प्रकृतियाँ पहले गुणस्थान में मिथ्यात्व से और दूसरे आदि यथासंभव अगले गुणस्थानों में अविरति से बाँधी जाती हैं।
सातावेदनीय, नरक-त्रिक आदि उक्त सोलह, तिर्यश्च-त्रिक आदि उक्त पैंतीस तथा तीर्थङ्करनामकर्म और आहारक-द्विक, इन पचपन प्रकृतियों को एक
१. देखिये, परिशिष्ट 'प'।
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चौथा कर्मग्रन्थ
सौ बीस में से घटा देने पर पैंसठ शेष बचती हैं। इन पैंसठ प्रकृतियों का बन्ध त्रि- हेतुक इस अपेक्षा से समझना चाहिये कि वह पहले गुणस्थान में मिथ्यात्व से, दूसरे आदि चार गुणस्थानों में अविरति से और छठे आदि चार गुणस्थानों में कषाय से होता है।
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यद्यपि मिथ्यात्व के समय अविरति आदि अगले तीन हेतु, अविरति के समय कषाय आदि अगले दो हेतु और कषाय के समय योगरूप हेतु अवश्य पाया जाता है। तथापि पहले गुणस्थान में मिथ्यात्व की दूसरे आदि चार गुणस्थानों में अविरति की और छठे आदि चार गुणस्थानों में कषाय की प्रधानता तथा अन्य हेतुओं की अप्रधानता है, इस कारण इन गुणस्थानों में क्रमशः केवल मिथ्यात्व, अविरति व कषाय को बन्ध-हेतु कहा है।
इस जगह तीर्थङ्कर नामकर्म के बन्ध का कारण सिर्फ सम्यक्त्व और आहारक-द्विक के बन्ध का कारण सिर्फ संयम विवक्षित है; इसलिये इन तीन प्रकृतियों की गणना कषाय-हेतुक प्रकृतियों में नहीं की है || ५३ ॥
गुणस्थानों में उत्तर बन्ध-हेतुओं का सामान्य तथा विशेष वर्णन |
(पाँच गाथाओं से)
पणपन्न पन्न तियछहि, - अचत्त गुणचत्त छचउदुगवीसा | सोलस दस नव नव स, -त्त हेउणो न उ अजोगिंमि । । ५४ ।
१. पञ्चसंग्रह - द्वार ४ की १९वीं गाथा में
'सेसा उ कसाएहिं ।'
इस पद से तीर्थङ्करनामकर्म और आहारक-द्विक, इन तीन प्रकृतियों को कषाय-हेतुक माना है तथा आगे की २० वीं गाथा में सम्यक्त्व को तीर्थङ्करनामकर्म का और संयम को आहारक-द्विक का विशेष हेतु कहा है । तत्त्वार्थ - अ. ९वें के १ ले सूत्र की सर्वार्थसिद्धि में भी इन तीन प्रकृतियों को कषाय-हेतुक माना है । परन्तु श्रीदेवेन्द्रसूरि ने इन तीन प्रकृतियों के बन्ध को कषाय-हेतुक नहीं कहा है। उनका तात्पर्य सिर्फ विशेष हेतु दिखाने जान पड़ता है, कषाय के निषेध का नहीं; क्योंकि सब कर्मप्रकृति और प्रदेश - बन्ध में योग की तथा स्थिति और अनुभाग-बन्ध में कषाय को कारणता निर्विवाद सिद्ध है। इसका विशेष विचार, पञ्चसंग्रह-द्वार ४ की २० वीं गाथा की श्रीमलयगिरि-टीका में देखने योग्य है।
२. यह विषय, पञ्चसंग्रह-द्वार ४की ५वीं गाथा में तथा गोम्मटसार- कर्मकाण्ड की ७८६ और ७९०वीं गाथा में है।
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गुणस्थानाधिकार
पञ्चपञ्चाशत्
पञ्चाशत्
त्रिकषडधिकचत्वारिंशदेकोनचत्वारिंशत्
षट्चतुर्द्विविंशतिः । षोडश दश नव नव सप्त हेतवो नत्वयोगिनि । । ५४ ।।
११३
अर्थ - पहले गुणस्थान में पचपन बन्ध- हेतु हैं, दूसरे में पचास, तीसरे में तैतालीस, चौथे में छयालीस, पाँचवें में उन्तालीस, छठे में छब्बीस, सातवें में चौबीस, आठवें में बाईस, नौवें में सोलह, दसवें में दस, ग्यारहवें और बारहवें में नौ तथा तेरहवें में सात बन्ध - हेतु हैं, चौदहवें गुणस्थान में बन्ध - हेतु नहीं है ॥ ५४ ॥
पणपन्न मिच्छि हारग, दुगूण सासाणि पन्नमिच्छ विणा । मिस्सदुगकंमअणविणु, तिचत्त मीसे अह छचत्ता । । ५५ ।। सदुमिस्सकंम अजए, अविरइकम्मुरलमीसविकसाये। मुत्तुगुणचत्त देसे, छवीस साहारदु पमत्ते।। ५६ ।।
अपमत्ति
अविरइइगारतिकसा, - यवज्ज मीसदुगरहिया । चडवीस अपुव्वे पुण, दुवीस अविउव्वियाहारा । । ५७ ।। पञ्चपञ्चाशन्मिथ्यात्व आहारद्विकोनाः सासादने पञ्चमिथ्यात्वानि विना । मिश्रद्विककार्मणाऽनान्विना, त्रिचत्वारिंशन्मिश्रेऽथ षट्चत्वारिंशत् । । ५५ ।। सद्विमिश्रकर्मा अयतेऽविरतिकमौंदारिकमिश्रद्वितीयकषायान् । मुक्त्वैकोनचत्वारिंशद्देशे, षड्विंशतिः साहारकद्विकाः प्रमत्ते । । ५६ ।। अविरत्येकादशकतृतीयकषायवर्जा अप्रमत्ते मिश्रद्विकरहिता । चतुर्विंशतिरपूर्वे पुनर्द्वाविंशतिरवैक्रियाहाराः । । ५७ ।
अर्थ - मिथ्यादृष्टि गुणस्थान में आहारक- द्विक को छोड़कर पचपन बन्धहेतु हैं। मिश्रदृष्टिगुणस्थान में औदारिकमिश्र, वैक्रियमिश्र, कार्मण और अनन्तानुबन्धि-चतुष्क, इन सात को छोड़कर तैतालीस बन्ध - हेतु हैं ।
उत्तर बन्ध-हेतु के सामान्य और विशेष, ये दो भेद हैं। किसी एक गुणस्थान में वर्तमान सम्पूर्ण जीवों में युगपत् पाये जानेवाले बन्ध- हेतु, 'सामान्य' और एक जीव में युगपत् पाये जानेवाले बन्ध-हेतु, 'विशेष' कहलाते हैं। प्राचीन चतुर्थ कर्मग्रन्थ की ७७वीं गाथा
और इस जगह सामान्य उत्तर बन्ध-हेतु का वर्णन है; परन्तु पञ्चसंग्रह और गोम्मटसार में सामान्य और विशेष, दोनों प्रकार के बन्ध-हेतुओं का । पञ्चसंग्रह की टीका में यह विषय बहुत स्पष्टता से समझाया है। विशेष उत्तर बन्ध हेतु का वर्णन अतिविस्तृत और गम्भीर है।
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११४
चौथा कर्मग्रन्थ अविरतसम्यग्दृष्टि गुणस्थान में पूर्वोक्त तैतालीस तथा कार्मण, औदारिकमिश्र और वैक्रियमिश्र, ये तीन, कुल छयालीस बन्ध-हेतु हैं। देशविरति गुणस्थान में कार्मण, औदारिकमिश्र, वस-अविरति और अप्रत्याख्यानावरणचतुष्क, इन सात के अतिरिक्त शेष उन्तालीस बन्ध हेतु हैं। प्रमत्तसंयत गुणस्थान में ग्यारह अविरतियाँ, प्रत्याख्यानावरण-चतुष्क, इन पन्द्रह को छोड़कर उक्त उन्तालीस में से चौबीस तथा आहारक-द्विक, कुल छब्बीस बन्ध-हेतु हैं।
__ अप्रमत्तसंयत गुणस्थान में पूर्वोक्त छब्बीस में से मिश्र-द्विक (वैक्रियमिश्र और आहारकमिश्र) के अतिरिक्त शेष चौबीस बन्ध-हेतु हैं। अपूर्वकरण गुणस्थान में वैक्रिय काययोग और आहारककाययोग को छोड़कर बाईस हेतु हैं।।५५-५७||
भावार्थ-५१वीं और ५२वी गाथा में सत्तावन उत्तर बन्ध-हेतु कहे गये हैं। इनमें से आहारक-द्विक के अतिरिक्त शेष पचपन बन्ध-हेतु पहले गुणस्थान में पाये जाते हैं। आहारक-द्विक संयम-सापेक्ष है और इस गुणस्थान में संयम का अभाव है, इसलिये इसमें आहारक-द्विक नहीं होता।
दूसरे गुणस्थान में पाँचों मिथ्यात्व नहीं हैं, इसी से उनको छोड़कर शेष पचास हेतु कहे गये हैं। तीसरे गुणस्थान में अनन्तानुबन्धिचतुष्क नहीं है, क्योंकि उसका उदय दूसरे गुणस्थान तक ही है तथा इस गुणस्थान के समय मृत्यु न होने के कारण अपर्याप्त-अवस्था-भावी कार्मण, औदारिकमिश्र और वैक्रियमिश्र, ये तीन योग भी नहीं होते। इस प्रकार तीसरे गुणस्थान में सात बन्ध-हेतु घट जाने से उक्त पचास में से शेष तैतालीस हेतु हैं।
चौथा गुणस्थान अपर्याप्त-अवस्था में भी पाया जाता है, इसलिये इसमें अपर्याप्त-अवस्था-भावी कार्मण, औदारिकमिश्र और वैक्रिय मिश्र, इन तीन योगों का संभव है। तीसरे गुणस्थान सम्बन्धी तैतालीस और ये तीन योग, कुल छयालीस बन्ध-हेतु चौथे गुणस्थान में समझने चाहिये। अप्रत्याख्यानावरण-चतुष्क चौथे गुणस्थान तक ही उदयमान रहता है, आगे नहीं। इस कारण वह पाँचवें गुणस्थान में नहीं पाया जाता। पाँचवाँ गुणस्थान देशविरतिरूप होने से इसमें त्रसहिंसारूप त्रस-अविरति नहीं है तथा यह गुणस्थान केवल पर्याप्त-अवस्था-भावी है; इस कारण इसमें अपर्याप्त-अवस्था-भावी कार्मण और औदारिकमिश्र, ये दो योग भी नहीं होते। इस तरह चौथे गुणस्थानं सम्बन्धी छयालीस हेतुओं में से उक्त सात के अतिरिक्त शेष उन्तालीस बन्ध-हेतु पाँचवें गुणस्थान में हैं। इन
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गुणस्थानाधिकार
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उन्तालीस हेतुओं में वैक्रियमिश्र काययोग शामिल है, पर वह अपर्याप्त अवस्थाभावी नहीं, किन्तु वैक्रियलब्धि - जन्य, जो पर्याप्त अवस्था में ही होता है । पाँचवें गुणस्थान के समय संकल्प - जन्य त्रस - हिंसा का संभव ही नहीं है। आरम्भ-जन्य त्रस-हिंसा संभव है, पर बहुत कम; इसलिये आरम्भ - जन्य अति अल्प त्रस - -हिंसा. की विवक्षा न करके उन्तालीस हेतुओं में त्रस - अविरति की गणना नहीं की है।
छठा गुणस्थान सर्वविरतिरूप है, इसलिये इसमें शेष ग्यारह अविरतियाँ नहीं होतीं। इसमें प्रत्याख्यानावरणकषाय-चतुष्क, जिसका उदय पाँचवें गुणस्थान पर्यन्त ही रहता है, नहीं होता। इस तरह पाँचवें गुणस्थान- सम्बन्धी उन्तालीस हेतुओं में से पन्द्रह घटा देने पर शेष चौबीस रहते हैं। ये चौबीस तथा आहारकद्विक, कुल छब्बीस हेतु छठे गुणस्थान में हैं। इस गुणस्थान में चतुर्दश पूर्वधारी मुनि आहारकलब्धि के प्रयोग द्वारा आहारकशरीर रचते हैं, इसी से छब्बीस हेतुओं में आहारक- द्विक परिगणित हैं।
वैक्रियशरीर के आरम्भ और परित्याग के समय वैक्रियमिश्र तथा आहारशरीर के आरम्भ और परित्याग के समय आहारक मिश्रयोग होता है, पर उस प्रमत्त-भाव होने के कारण सातवाँ गुणस्थान नहीं होता। इस कारण इस गुणस्थान के बन्ध-हेतुओं में ये दो योग नहीं गिने गये हैं।
वैक्रियशरीर वाले को वैक्रियकाययोग और आहारकशरीर वाले को आहारक काययोग होता है। ये दो शरीरवाले अधिक से अधिक सातवें गुणस्थान के ही अधिकारी हैं, आगे के गुणस्थानों के नहीं। इस कारण आठवें गुणस्थान के बन्ध-हेतुओं में इन दो योगों को नहीं गिना है ।। ५५-५७ ।।
अछहास सोल बायरि, सुहमे दस वेयसंजलणति विणा । खीणुवसंति अलोभा, सजोगि पुव्वुत्त सगजोगा । । ५८ ।।
अषड्हासाः षोडश बादरे, सूक्ष्मे दश वेदसज्वलनत्रिकाद्विना । क्षीणोपशान्तेऽलोभाः, सयोगानि पूर्वोक्तास्सप्तयोगा । । ५८ । । अर्थ - अनिवृत्ति बादरसंपराय गुणस्थान में हास्य - षट्क के अतिरिक्त पूर्वोक्त बाईस में से शेष सोलह हेतु हैं। सूक्ष्मसंपराय गुणस्थान में तीन वेद और तीन संज्वलन (लोभ को छोड़कर) के अतिरिक्त दस हेतु हैं । उपशान्तमोह तथा क्षीणमोह-गुणस्थानों में संज्वलनलोभ के अतिरिक्त नौ हेतु तथा सयोगिकेवली गुणस्थान में सात हेतु हैं; जो सभी योगरूप हैं ।। ५८ ।।
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चौथा कर्मग्रन्थ
भावार्थ- हास्य-षट्क का उदय आठवें से आगे के गुणस्थानों में नहीं होता; इसलिये उसे छोड़कर आठवें गुणस्थान के बाईस हेतुओं में से शेष सोलह हेतु नौवें गुणस्थान में समझने चाहिये ।
तीन वेद तथा संज्वलन - क्रोध, मान और माया, इन छह का उदय नौवें गुणस्थान तक ही होता है; इस कारण इन्हें छोड़कर शेष दस हेतु दसवें गुणस्थान में कहे गये हैं।
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संज्वलन लोभ का उदयं दसवें गुणस्थान तक ही रहता है; इसलिये इसके अतिरिक्त उक्त दस में से शेष नौ हेतु ग्यारहवें तथा बारहवें गुणस्थान में पाये जाते हैं। नौ हेतु ये हैं ― चार मनोयोग, चार वचनयोग और एक औदारिक काययोग ।
तेरहवें गुणस्थान में सात हेतु हैं- सत्य और असत्यामृष मनोयोग, सत्य और असत्यामृष वचनयोग, औदारिक काययोग, औदारिकमिश्र काययोग तथा कर्मण काययोग चौदहवें नहीं है ॥५८॥
गुणस्थान में योग का अभाव है; इसलिये इसमें बन्ध
(६) - गुणस्थानों में बन्ध' । मीसअपुव्वबायरा
अपमत्तता
सत्त, ट्ठ
सत्त।
बंधइ छस्सुहुमो ए - गमुवरिमा बंधगाऽजोगी ।। ५९ ।। अप्रमत्तान्तास्सप्ताष्टान् मिश्रापूर्वबादरास्सप्त ।
बध्नाति षट् च सूक्ष्म एकमुपरितना अबन्धकोऽ योगी । । ५९ । । अर्थ - अप्रमत्तगुणस्थान पर्यन्त सात या आठ प्रकृतियों का बन्ध होता है । मिश्र, अपूर्वकरण और अनिवृत्तिबादर - गुणस्थान में सात प्रकृतिओं का, सूक्ष्मसंपराय गुणस्थान में छह प्रकृतिओं का और उपशान्तमोह आदि तीन गुणस्थानों में एक प्रकृति का बन्ध होता है। अयोगिकेवली गुणस्थान में बन्ध नहीं होता ॥५९॥
- हेतु सर्वथा
भावार्थ-तीसरे के अतिरिक्त पहिले से लेकर सातवें तक के छह गुणस्थानों में मूल कर्मप्रकृतियाँ सात या आठ बाँधी जाती हैं। आयु बाँधने के समय आठ का और उसे न बाँधने के समय सात का बन्ध समझना चाहिये ।
१. यहाँ से ६२वीं गाथा तक का विषय, पञ्चसंग्रह के ५ वें द्वार की २री, ३री और ५वीं गाथा में है।
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गुणस्थानाधिकार
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तीसरे, आठवें और नौवें गुणस्थान में आयु का बन्ध न होने के कारण सात का ही बन्ध होता है। आठवें और नौवें गुणस्थान में परिणाम इतने अधिक विशुद्ध हो जाते हैं कि जिससे उनमें आयुबन्ध-योग्य परिणाम ही नहीं रहते और तीसरे गुणस्थान का स्वभाव ही ऐसा है कि उसमें आयु का बन्ध नहीं होता।
दसवें गुणस्थान में आयु और मोहनीय का बन्ध न होने के कारण छह का बन्ध माना जाता है। परिणाम अतिविशुद्ध हो जाने से आयु का बन्ध और बादरकषायोदय न होने से मोहनीय का बन्ध उसमें वर्जित है।
ग्यारहवें आदि तीन गुणस्थानों में केवल सातावेदनीय का बन्ध होता है; क्योंकि उनमें कषायोदय सर्वथा न होने से अन्य प्रकृतिओं का बन्ध असंभव है।
सारांश यह है कि तीसरे; आठवें और नौवें गुणस्थान में सात का ही बन्धस्थान; पहले, दूसरे, चौथे, पाँचवें, छठे और सातवें गुणस्थान में सात का तथा आठ का बन्धस्थान; दसवें में छह का बन्धस्थान और ग्यारहवें, बारहवें और तेरहवें गुणस्थान में एक का बन्धस्थान होता है।।५९।।
(७-८)-गुणस्थानों में सत्ता तथा उदय आसुहुमं संतुदये, अट्ठ वि मोह विणु सत्त खीणंमि। चउ चरिमदुगे अट्ठ उ, संते उवसंति सत्तुदए।।६।।
आसूक्ष्मं सदुदयेऽष्टापि मोहं विना सप्त क्षीणे। चत्वारि चरमद्विकेऽष्ट तु, सत्युपशान्ते सप्तोदये।।६।।
अर्थ-सूक्ष्मसंपराय गुणस्थान पर्यन्त आठ कर्म की सत्ता तथा आठ कर्म का उदय है। क्षीणमोह गुणस्थान में सत्ता और उदय, दोनों सात कर्मों के हैं। सयोगिकेवली और अयोगिकेवली-गुणस्थान में सत्ता और उदय सात कर्म के होते हैं।।६०॥
भावार्थ-पहले दस गुणस्थानों में सत्तागत तथा उदयमान आठ कर्म पाये जाते हैं। ग्यारहवें गुणस्थान में मोहनीयकर्म सत्तागत रहता है, पर उदयमान नहीं; इसलिये उसमें सत्ता आठ कर्म की और उदय सात कर्म का है। बारहवें गुणस्थान
१. यह विचार, नन्दीसूत्र की ३री गाथा की श्रीमलयगिरिवृत्ति के ४१वें पृष्ठ पर है।
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चौथा कर्मग्रन्थ
में मोहनीयकर्म सर्वथा नष्ट हो जाता है, इसलिये सत्ता और उदय दोनों सात कर्म के हैं। तेरहवें और चौदहवें गुणस्थान में सत्ता-गत और उदयमान चार अघातिकर्म ही हैं।
सारांश यह है कि सत्तास्थान पहले ग्यारह गुणस्थानों में आठ का, बारहवें में सात का और तेरहवें और चौदहवें में चार का है तथा उदयस्थान पहले दस गुणस्थानों में आठ का, ग्यारहवें और बारहवें में सात का और तेरहवें और चौदहवें में चार का है।।६०।।।
(९) गुणस्थानों में उदीरणा
__ (दो गाथाओं से) उइरंति पमत्तंता, सगट्ठ मीसट्ट वेयआउ विणा। छग अपमत्ताइ तओ, छ पंच सुहुमो पणुवसंतो।।६१।।
उदीरयन्ति प्रमत्तान्ताः, सप्ताष्टानि मिश्रोऽष्ट वेदायुषी विना।
षट्कमप्रमत्तादयस्ततः, षट् पञ्च सूक्ष्मः पञ्चोपशान्तः।।६१।।
अर्थ-प्रमत्तगुणस्थान पर्यन्त सात या आठ कर्म की उदीरणा होती है। मिश्रगुणस्थान में आठ कर्म की, अप्रमत्त, अपूर्वकरण और अनिवृत्तिबादर, इन तीन गुणस्थानों में वेदनीय तथा आयु के अतिरिक्त छह कर्म की; सूक्ष्मसंपराय गुणस्थान में छ: या पाँच कर्म की और उपशान्तमोह गुणस्थान में पाँच कर्म की उदीरणा होती है।।६१॥
भावार्थ-उदीरणा का विचार समझने के लिये यह नियम ध्यान में रखना चाहिये कि जो कर्म उदयमान हो उसी की उदीरणा होती है, अनुदयमान की नहीं। उदयमान कर्म आवलिका-प्रमाण शेष रहता है, उस समय उसकी उदीरणा रुक जाती है।
तीसरे को छोड़ प्रथम से छठे तक के पहले पाँच गुणस्थानों में सात या आठ कर्म की उदीरणा होती है। आयु की उदीरणा न होने के समय सात कर्म की और होने के समय आठ कर्म की समझनी चाहिये। उक्त नियम के अनुसार आयु की उदीरणा उस समय रुक जाती है, जिस समय वर्तमान भव की आयु आवलिका-प्रमाण शेष रहती है। यद्यपि वर्तमान-भवीय आयु के आवलिकामात्र
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गुणस्थानाधिकार
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बाकी रहने के समय परभवीय आयु की स्थिति आवलिका से अधिक होती है तथापि अनुदयमान होने के कारण उसकी उदीरणा उक्त नियम के अनुसार नहीं होती।
तीसरे गुणस्थान में आठ कर्म की ही उदीरणा मानी जाती है, क्योंकि इस गुणस्थान में मृत्यु नहीं होती। इस कारण आयु की अन्तिम आवलिका में, जब कि उदीरणा रुक जाती है, इस गुणस्थान का संभव ही नहीं है।
सातवें, आठवें और नौवें गुणस्थान में छः कर्म की उदीरणा होती है, आयु और वेदनीय कर्म की नहीं। इसका कारण यह है कि इन दो कर्मों की उदीरणा के लिये जैसे अध्यवसाय आवश्यक है, उक्त तीन गुणस्थानों में अतिविशुद्धि होने के कारण वैसे अध्यवसाय नहीं होते।
दसवें गुणस्थान में छ: अथवा पाँच कर्म की उदीरणा होती है। आयु और वेदनीय की उदीरणा न होने के समय छ: कर्म की तथा उक्त दो कर्म और मोहनीय की उदीरणा न होने के समय पाँच की समझना चाहिये। मोहनीय की उदीरणा दशम गुणस्थान की अन्तिम आवलिका में रुक जाती है। वह इसलिये कि उस समय उसकी स्थिति आवलिका-प्रमाण शेष रहती है।
ग्यारहवें गुणस्थान में आयु, वेदनीय और मोहनीय की उदीरणा न होने के कारण पाँच की उदीरणा होती है। इस गुणस्थान में उदयमान न होने के कारण मोहनीय की उदीरणा निषिद्ध है।।६१।।
(१०) गुणस्थानों में अल्प-बहुत्व'
(दो गाथाओं से) पण दो खीण दु जोगी,-णुदीरगु अजोगि थोव उवसंता। संखगुण खीण, सुहुमा,-नियट्टीअपुव्व सम, अहिया।।६२।।
पञ्च द्वे क्षीणो द्वे योग्यमुदीरकोऽयोगी स्तोका उपशान्ताः। संख्यगुणाः क्षीणाः सूक्ष्माऽनिवृत्यपूर्वाः समा अधिकाः।।६२।।
अर्थ-क्षीणमोहगुणस्थान में पाँच या दो कर्म की उदीरणा है और सयोगिकेवली गुणस्थान में सिर्फ दो कर्म की। अयोगिकेवली गुणस्थान में उदीरणा का अभाव है। १. यह विषय, पञ्चसंग्रह-द्वार २की ८० और ८१वीं गाथा में है गोम्मटसार-जीव. की ६२२ से ६२८ तक की गाथाओं में कुछ भिन्नरूप से है।
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चौथा कर्मग्रन्थ
उपशान्तमोह गुणस्थानवर्ती जीव सबसे थोड़े हैं। क्षीणमोह गुणस्थानवर्ती जीव उनसे संख्यातगुण हैं। सूक्ष्मसंपराय, अनिवृत्तिबादर और अपूर्वकरण, इन तीन गुणस्थानों में वर्तमान जीव क्षीणमोह गुणस्थानवालों से विशेषाधिक हैं, आपस में तुल्य हैं ।। ६२॥
पर
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भावार्थ- बारहवें गुणस्थान में अन्तिम आवलिका को छोड़कर अन्य सब समय में आयु, वेदनीय और मोहनीय के अतिरिक्त पाँच कर्म की उदीरणा होती रहती है । अन्तिम आवलिका में ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय और अन्तराय की स्थिति आवलिका - प्रमाण शेष रहती है। इसलिये उस समय उनकी उदीरणा रुक जाती है। शेष दो (नाम और गोत्र) की उदीरणा रहती है।
तेरहवें गुणस्थान में चार अघातिकर्म ही शेष रहते हैं। इनमें से आयु और वेदनीय की उदीरणा तो पहले से रुकी हुई है। इसी कारण इस गुणस्थान में दो कर्म की उदीरणा मानी गई है।
चौदहवें गुणस्थान में योग का अभाव है। योग के अतिरिक्त उदीरणा नहीं हो सकती, इस कारण इसमें उदीरणा का अभाव है।
सारांश यह है कि तीसरे गुणस्थान में आठ ही का उदीरणास्थान, पहले, दूसरे, चौथे, पाँचवें और छठे में सात तथा आठ का, सातवें से लेकर दसवें गुणस्थान की एक आवलिका शेष रहे तब तक छः का, दसवें की अन्तिम आवलिका से बारहवें गुणस्थान की चरम आवलिका का शेष रहे तब तक पाँच का और बारहवें की चरम आवलिका से तेरहवें गुणस्थान के अन्त तक दो का उदीरणास्थान पाया जाता है।
अल्प- बहुत्व
ग्यारहवें गुणस्थान वाले जीव अन्य प्रत्येक गुणस्थान वाले जीवों से अल्प हैं; क्योंकि वे प्रतिपद्यमान (किसी विवक्षित समय में उस अवस्था को पानेवाले) चौवन और पूर्वप्रतिपन्न (किसी विवक्षित समय के पहिले से उस अवस्था को पाये हुए) एक, दो या तीन आदि पाये जाते हैं। बारहवें गुणस्थानवाले प्रतिपद्यमान उत्कृष्ट एक सौ आठ और पूर्वप्रतिपन्न शत - पृथक्त्व ( दो सौ से नौ सौ तक) पाये जाते हैं, इसलिये ये ग्यारहवें गुणस्थानवालों से संख्यातगुण कहे गये हैं। उपशमश्रेणि के प्रतिपद्यमान जीव उत्कृष्ट चौवन और पूर्वप्रतिपत्र एक, दो, तीन
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गुणस्थानाधिकार
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आदि तथा क्षपकश्रेणि के प्रतिपद्यमान उत्कृष्ट एक सौ आठ और पूर्वप्रतिपन्न शतपृथक्त्व माने गये हैं। उभय-श्रेणिवाले सभी आठवें, नौवें और दसवें गुणस्थान में वर्तमान होते हैं। इसलिये इन तीनों गुणस्थानवाले जीव आपस में समान हैं; किन्तु बारहवें गुणस्थानवालों की अपेक्षा विशेषाधिक हैं।।६२।।
जोगिअपमत्तइयरे, संखगुणा देससासणामीसा। अविरय अजोगिमिच्छा, असंख चउरो दुवे णंता।।६३।।
योग्यप्रमत्तेतराः, संख्यगुणा देशसासादनमिश्राः।
अविरता अयोगिमिथ्यात्वनि असंख्याश्चत्वारो द्वावनन्तौ।।६३।।
अर्थ-सयोगिकेवली, अप्रमत्त और प्रमत्तगुणस्थानवाले जीव पूर्व-पूर्व से संख्यातगुण हैं। देशविरति, सासादन, मिश्र और अविरतसम्यग्दृष्टि-गुणस्थान वाले जीव पूर्व-पूर्व से असंख्यातगुण हैं। अयोगिकेवली और मिथ्यादृष्टि-गुणस्थान वाले जीव पूर्व-पूर्व से अनन्त गुण हैं।।६३॥
भावार्थ-तेरहवें गुणस्थान आठवें गुणस्थान वालो से संख्यातगुण इसलिये कहे गये हैं कि ये जघन्य दो करोड़ और उत्कृष्ट नौ करोड़ होते हैं। सातवें गुणस्थान वाले दो हजार करोड़ पाये जाते हैं, इसलिये ये सयोगिकेवलियों से संख्यातगुण हैं। छठे गुणस्थान वाले नौ हजार करोड़ तक हो जाते हैं; इसी कारण इन्हें सातवें गुणस्थान वालों से संख्यातगुण माना है। असंख्यात गर्भज-तिर्यञ्च भी देशविरति पा लेते हैं, इसलिये पाँचवें गुणस्थान वाले छठे गुणस्थानवालों से असंख्यातगुण हो जाते हैं। दूसरे गुणस्थान वाले देशविरति वालों से असंख्यातगण कहे गये हैं। इसका कारण यह है कि देशविरति, तिर्यञ्च-मनुष्य दो गति में ही होती है, पर सासादन सम्यक्त्व चारों गति में। सासादन सम्यक्त्व और मिश्रदृष्टि ये दोनों यद्यपि चारों गति में होते हैं; परन्तु सासादन सम्यक्त्व की अपेक्षा मिश्रदृष्टि का काल-मान असंख्यातगुण अधिक है; इस कारण मिश्रदृष्टि वाले सासादन सम्यक्त्वियों की अपेक्षा असंख्यातगुण होते हैं। चौथा गुणस्थान चारों गति में सदा ही पाया जाता है और उसका काल-मान भी बहुत अधिक है, अतएव चौथे गुणस्थान वाले तीसरे गुणस्थान वालों से असंख्यातगुण होते हैं। यद्यपि भवस्य अयोगी, क्षपकश्रेणि वालों के बराबर अर्थात् शत-पृथक्त्वप्रमाण ही हैं तथापि अभवस्य अयोगी (सिद्ध) अनन्त हैं, इसी से अयोगिकेवली जीव चौथे गुणस्थानवालों से अनन्तगुण कहे गये हैं। साधारण वनस्पतिकायिक जीव सिद्धों से भी अनन्तगुण हैं और वे सभी मिथ्यादृष्टि हैं; इसी से मिथ्यादृष्टि
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चौथा कर्मग्रन्थ वाले चौदहवें गुणस्थानवालों से अनन्तगुण हैं।
पहला, चौथा, पाँचवाँ, छठा, सातवाँ और तेरहवाँ, ये छह गुणस्थान लोक में सदा ही पाये जाते हैं, शेष आठ गुणस्थान कभी नहीं पाये जाते; पाये जाते हैं तब भी उनमें वर्तमान जीवों की संख्या कभी जघन्य और कभी उत्कृष्ट रहती है। ऊपर कहा हुआ अल्प-बहुत्व उत्कृष्ट संख्या की अपेक्षा से समझना चाहिये, जघन्य संख्या की अपेक्षा से नहीं; क्योंकि जघन्य संख्या के समय जीवों का प्रमाण उपर्युक्त अल्प-बहुत्व के विपरीत भी हो जाता है। उदाहरणार्थ, कभी ग्यारहवें गुणस्थान वाले बारहवें गुणस्थान वालों से अधिक भी हो जाते हैं। सारांश, उपर्युक्त अल्प-बहुत्व सब गुणस्थानों में जीवों के उत्कृष्ट-संख्यक पाये जाने के समय ही घट सकता है।।६३।।
छ: भाव और उनके भेद'
__(पाँच गाथाओं से) उवसमखयमीसोदय, परिणामा दुनवट्ठारइगवीसा। तिय भेय संनिवाइय, संमं चरणं पढमभावे।।६४।।
उपशमक्षयमिश्रोदयपरिणामा द्विनवाष्टादशैकविंशतयः।
त्रया भेदास्सांनिपातिकः, सम्यक्त्वं चरणं प्रथमभावे।। ६४।।
अर्थ-औपशमिक, क्षायिक, मिश्र (क्षायोपशमिक), औदयिक और पारिणामिक, ये पाँच मूल भाव हैं। इनके क्रमश: दो, नौ, अठारह, इक्कीस
और तीन भेद हैं। छठा भाव सांनिपातिक है। पहले (औपशमिक) भाव के सम्यक्त्व और चारित्र, ये दो भेद हैं।६४।।
१. यह विचार, अनुयोगद्वार के ११३ से १२७ तक के पृष्ठ में; तत्त्वार्थ-अ. २ के १
से ७ तक के सूत्र में तथा सूत्रकृताङ्ग-नि.की १०७वीं गाथा तथा उसकी टीका में है। पञ्चसंग्रह द्वा. ३ की २६वी गाथा में तथा द्वा. २की ३री गाथा की टीका तथा सूक्ष्मार्थविचार-सारोद्धार की ५१ से ५७ तक की गाथाओं में भी इसका विस्तारपूर्वक वर्णन है। गोम्मटसार-कर्मकाण्ड में इस विषय का 'भावचूलिका' नामक एक खास प्रकरण है। भावों के भेद-प्रमेद के सम्बन्ध में उसकी ८१२ से ८१९ तक की गाथाएँ द्रष्टव्य हैं। आगे उसमें कई तरह के भङ्ग-बाल दिखाये हैं।
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गुणस्थानाधिकार
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भावार्थ-भाव, पर्याय को कहते हैं। अजीव का पर्याय अजीव का भाव और जीव का पर्याय जीव का भाव है। इस गाथा में जीव के भाव दिखाये हैं। ये मूल भाव पाँच हैं।
१. औपशमिक-भाव वह है, जो उपशम से होता है। प्रदेश और विपाक, दोनों प्रकार के कर्मोदय का रुक जाना उपशम है।
२. क्षायिक भाव वह है, जो कर्म का सर्वथा क्षय हो जाने पर प्रगट होता है।
३. क्षायोपशमिक-भाव क्षयोपशम से प्रगट होता है। कर्म के उदयावलिप्रविष्ट मन्द-रसस्पर्धक का क्षय और अनुदयमान रसस्पर्धक की सर्वघातिनी विपाक-शक्ति का निरोध या देशघातिरूप में परिणमन व तीव्र शक्ति का मन्द शक्तिरूप में परिणमन ( उपशम), क्षयोपशम है।
४. औदयिक भाव कर्म के उदय से होनेवाला पर्याय है।
५. पारिप्रामिक-भाव स्वभाव से ही स्वरूप में परिणत होते रहना है। एक-एक भाव को 'मूलभाव' और दो या दो से अधिक मिले हुए भावों को 'सांनिपातिक - भाव' समझना चाहिये ।
भावों के उत्तर- भेदः - औपशमिक-भाव के सम्यक्त्व और चारित्र ये दो भेद हैं। १. अनन्तानुबन्धि चतुष्क के क्षयोपशम या उपशम और दर्शनमोहनीयकर्म के उपशम से जो तत्त्व - रुचि व्यञ्जक आत्मपरिणाम प्रगट होता है, वह 'औपशमिक सम्यक्त्व' है। (२) चारित्रमोहनीय की पच्चीस प्रकृतियों के उपशम से व्यक्त होनेवाला स्थिरतात्मक परिणाम 'औपशमिक चारित्र' है। यही ग्यारहवें गुणस्थान में प्राप्त होनेवाला 'यथाख्यातचारित्र' है। औपशमिक-भाव सादि - सान्त है ॥ ६४ ॥
बीए केवलजुयलं, संमं दाणाइलद्धि पण चरणं । तइए सेसुवओगा, पण लब्द्धी सम्मविरइदुगं । । ६५ । ।
द्वितीये केवलयुगलं, सम्यग् दानादिलब्धयः पञ्च चरणम्। तृतीये शेषोपयोगाः, पञ्च लब्धयः सम्यग्विरतिद्विकम् । । ६५ । । अर्थ- दूसरे ( क्षायिक) - भाव के केवल द्विक, सम्यक्त्व, दान आदि पाँच लब्धियाँ और चारित्र, ये नौ भेद हैं। तीसरे ( क्षायोपशमिक ) भाव के केवलद्विक को छोड़कर शेष दस उपयोग, दान आदि पाँच लब्धियाँ, सम्यक्त्व और विरति-द्विक, ये अठारह भेद हैं | | ६५ ॥
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चौथा कर्मग्रन्थ
भावार्थ-क्षायिक-भाव के नौ भेद हैं। इनमें से केवलज्ञान और केवलदर्शन, ये दो भाव क्रम से केवलज्ञानावरणीय और केवलदर्शनावरणीयकर्म के सर्वथा क्षय हो जाने से प्रगट होते हैं। दान, लाभ, भोग, उपभोग और वीर्य, ये पाँच लब्धियाँ क्रमशः दानान्तराय, लाभान्तराय, भोगान्तराय, उपभोगान्तराय और वीर्यान्तराय-कर्म के सर्वथा क्षय हो जाने से प्रगट होती हैं। सम्यक्त्व, अनन्तानुबन्धिचतुष्क और दर्शनमोहनीय के सर्वथा क्षय हो जाने से व्यक्त होता है। चारित्र, चारित्रमोहनीयकर्म की सब प्रकृतियों का सर्वथा क्षय हो जाने पर प्रगट होता है। यही बारहवें गुणस्थान में प्राप्त होने वाला 'यथाख्यातचारित्र' है। सभी क्षायिक-भाव कर्म-क्षय-जन्य होने के कारण 'सादि' और कर्म से फिर आवृत न हो सकने के कारण अनन्त हैं।
क्षायोपशमिक-भाव के अठारह भेद हैं। जैसे—बारह उपयोगों में से केवलद्विक को छोड़कर शेष दस उपयोग, दान आदि पाँच लब्धियाँ, सम्यक्त्व और देशविरति तथा सर्वविरति-चारित्र। मति ज्ञान-मति-अज्ञान, मतिज्ञानावरणीय के क्षयोपशम से; श्रुतज्ञान-श्रुत-अज्ञान, श्रुतज्ञानावरणीयकर्म के क्षयोपशम से, अविधज्ञान-विभङ्गज्ञान, अवधिज्ञानावरणीयकर्म के क्षयोपशम से; मनः पर्यायज्ञान, मन: पर्यायज्ञानावरणीयकर्म के क्षयोपशम से और चक्षुदर्शन, अचक्षुर्दर्शन और अवधिदर्शन, क्रम से चक्षुर्दर्शनावरणीय, अचक्षुर्दर्शनावरणीय और अविधदर्शनावरणीयकर्म के क्षयोपशम से प्रगट होते हैं। दान आदि पाँच लब्धियाँ दानान्तराय आदि पाँच प्रकार के अन्तरायकर्म के क्षयोपशम से होती हैं। अनन्तानुबन्धिकषाय और दर्शनमोहनीय के क्षयोपशम से सम्यक्त्व होता है। अप्रत्याख्यानावरणीय कषाय के क्षयोपशम से देशविरति का आविर्भाव होता है और प्रत्याख्यानावरणीय कषाय के क्षयोपशम से सर्वविरतिका। मति-अज्ञान आदि क्षायोपशमिक-भाव अभव्य के अनादि-अनन्त और विभङ्गज्ञान सादि-सान्त है। मतिज्ञान आदि भाव भव्य के सादि-सान्त और दान आदि लब्धियाँ तथा अचक्षुदर्शन अनादि-सान्त हैं।।६५||
अन्नाणमसिद्धत्ता,-संजमलेसाकसायगइवेया। मिच्छं तुरिए भव्वा,- भव्यत्तजियत्त परिणामे।।६६।।
अज्ञानमसिद्धत्त्वाऽसंयमलेश्याकषायगतिवेदाः। मिथ्यात्त्वं तुर्ये भव्याऽभव्यत्वजीवत्वानि परिणामे।।६६।।
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गुणस्थानाधिकार
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अर्थ-अज्ञान, असिद्धत्व, असंयम, लेश्या, कषाय, गति, वेद और मिथ्यात्व, ये भेद चौथे (औदयिक) भाव के हैं। भव्यत्व, अभव्यत्व और जीवत्व ये परिणामिक-भाव हैं।।६६।।
भावार्थ-औदयिक-भाव के इक्कीस' भेद हैं। जैसे-अज्ञान, असिद्धत्व, असंयम, छः लेश्याएँ, चार कषाय, चार गतियाँ, तीन वेद और मिथ्यात्व। अज्ञान का मतलब ज्ञान का अभाव और मिथ्याज्ञान दोनों से है। ज्ञान का अभाव ज्ञानावरणीयकर्म के उदय का और मिथ्याज्ञान मिथ्यात्वमोहनीयकर्म के उदय का फल है; इसलिये दोनों प्रकार का अज्ञान औदयिक है। असिद्धत्व, संसारावस्था को कहते हैं। यह आठ कर्म के उदय का फल है। असंयम, विरति का अभाव है। यह अप्रत्याख्यानावरणीय कषाय के उदय का परिणाम है। मत-भेद से लेश्या के तीन स्वरूप हैं—(१) काषायिक-परिणाम, २. कर्म-परिणति और (३) योगपरिणाम। ये तीनों औदारिक ही हैं; क्योंकि काषायिक-परिणाम कषाय के उदय का, कर्म-परिणति कर्म के उदय का और योग-परिणाम शरीरनाम कर्म के उदय का फल है। कषाय, कषायमोहनीयकर्म के उदय से होता है। गतियाँ गतिनामकर्म के उदय-जन्य हैं। द्रव्य और भाव दोनों प्रकार का वेद औदयिक है। आकृतिरूप द्रव्यवेद अङ्गोपाङ्ग नामकर्म के उदय से और अभिलाषा रूप भाववेद वेदमोहनीय के उदय से होता है। मिथ्यात्व, अविवेकपूर्ण गाढ़तम मोह है, जो मिथ्यात्व मोहनीयकर्म के उदय का परिणाम है। औदयिक-भाव अभव्य के अनादि-अनन्त और भव्य के बहुधा अनादि-सान्त है।
जीवत्व, भव्यत्व और अभव्यत्व, ये तीन पारिणामिक भाव हैं। प्राण धारण करना जीवत्व है। यह भाव संसारी और सिद्ध सब जीवों में मौजूद होने के कारण भव्यत्व और अभव्यत्व की अपेक्षा व्यापक (अधिक-देश-स्थायी) है। भव्यत्व सिर्फ भव्य जीवों में और अभव्यत्व सिर्फ अभव्य जीवों में है। पारिणामिक-भाव अनादि-अनन्त है।
१. निद्रा, सुख, दुःख, हास्य, शरीर आदि असंख्यात भाव जो भिन्न-भिन्न कर्म के उदय
से होते हैं, वे सभी औदयिक हैं, तथापि इस जगह श्रीउमास्वाति आदि पूर्वाचार्यों
के कथन का अनुसरण करके स्थूल दृष्टि से इक्कीस औदयिक-भाव बतलाये हैं। २. मति-अज्ञान, श्रुत-अज्ञान और विभङ्गज्ञान को पिछली गाथा में क्षायोपशमिक और यहाँ
औदयिक कहा है। क्षायोपशिमक इस अपेक्षा से कहा है कि ये उपयोग मतिज्ञानावरणीय आदि कर्म के क्षयोपशम-जन्य हैं और औदयिक इस अपेक्षा से कहा है कि इनकी अयथार्थता का कारण मिथ्यात्वमोहनीयकर्म का उदय है।
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चौथा कर्मग्रन्थ
पाँच भावों के सब मिलाकर त्रेपन भेद होते हैं- औपशमिक के दो, क्षायिक के नौ, क्षायोपशमिक के अठारह, औदयिक के इक्कीस और पारिणामिक के तीन ॥६६॥
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चउ चउगईसु मीसग - परिणामुदएहिं चउ सखइएहिं । उवसमजुएहिं वा चउ, केवलि परिणामुदयखइए ।। ६७ ।। खयपरिणामे सिद्धा, नराण पणजोगुवसमसेढीए । इय पनर संनिवाइय, भेया वीसं असंभविणो ।। ६८ । चत्वारश्चतुर्गतिषु मिश्रकपरिणामोदयैश्चत्वारः सक्षायिकैः । उपशमयुतैर्वा चत्वारः, केवली परिणामोदयक्षायिके ।। क्षयपरिणामे सिद्धा, नराणां पञ्चयोग उपशमश्रेण्याम् । इति पञ्चदश सांनिपातिकभेदा विंशतिरसंभविनः । । ६८ ।। अर्थ - क्षायोपशमिक, पारिणामिक और औदयिक, इन तीन भावों का त्रिकसंयोगरूप सांनिपातिक भाव चार गति में पाये जाने के कारण चार प्रकार का है। उक्त तीन और एक क्षायिक, इन चार भावों का चतु:संयोगरूप सांनिपातिकभाव तथा उक्त तीन और एक औपशमिक, इन चार का चतु:संयोगरूप सांनिपातिक- - भाव चार गति में होता है। इसलिये ये दो सांनिपातिक - भाव भी चारचार प्रकार के हैं। पारिणामिक, औदयिक और क्षायिक का त्रिक- संयोगरूप सांनिपातिक-भाव सिर्फ शरीरधारी केवलज्ञानी को होता है। क्षायिक और पारिणामिक का द्विक-संयोगरूप सांनिपातिक-भाव सिर्फ सिद्ध जीवों में पाया जाता है। पाँचों भाव का पञ्च- संयोगरूप सांनिपातिक-भाव, उपश्रमश्रेणिवाले मनुष्यों में ही होता है। उक्त रीति से छह सांनिपातिक - भावों के पन्द्रह भेद होते हैं। शेष बीस सांनिपातिक-भाव असंभवी अर्थात् शून्य हैं । । ६७-६८ ॥
भावार्थ - औपशमिक आदि पाँच भावों में से दो, तीन, चार या पाँच भावों के मिलने पर सांनिपातिक भाव होता है। दो भावों के मेल से होनेवाला सांनिपातिक 'द्विक-संयोग', तीन भावों के मेल से होनेवाला 'त्रिक-संयोग', चार भावों के मेल से होनेवाला 'चतु:संयोग' और पाँच भावों के मेल से होनेवाला 'पञ्च- संयोग' कहलाता है।
द्विक- संयोग के दस भेदः औपशमिक + क्षायिक ।
१.
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२. औपशमिक + क्षायोपशमिक।
३.
औपशमिक + औदयिक |
४.
औपशमिक + पारिणामिक।
क्षायिक क्षायोपशमिक।
क्षायिक
+ औदयिक |
क्षायिक
+ पारिणामिका
८.
क्षायोपशमिक + औदायिक ।
९. क्षायोपशमिक + पारिणामिक ।
५.
६.
७.
१०. औदायिक + पारिणामिक |
त्रिक- संयोग के दस भेद
१. औपशमिक + क्षायिक + क्षायोपशमिक । औपशमिक
२.
३. औपशमिक
४.
५.
+
+ क्षायिक + औदयिक |
क्षायिक + पारिणामिक |
औपशमिक + क्षायोपशमिक + औदयिक |
औपशमिक
+ क्षायोपशमिक + पारिणामिक।
६. औपशमिक
७.
५.
गुणस्थानाधिकार
+
+ औदयिक + पारिणामिक।
क्षायिक + क्षायोपशमिक + औदयिक ।
क्षायिक + क्षायोपशमिक + पारिणामिक |
८.
९. क्षायिक + औदयिक
१०. क्षायोपशमिक
चतुः संयोग के पाँच भेद
१. औपशमिक + क्षायिक + क्षायोपशमिक + औदयिक | २. औपशमिक + क्षायिक + क्षायोपशमिक + पारिणामिक | ३. औपशमिक + क्षायिक + औदयिक + पारिणामिक | औपशमिक + क्षायोपशमिक + औदयिक + पारिणामिक | क्षायिक + क्षायोपशमिक + औदयिक + पारिणामिक।
४.
+
+ पारिणामिक |
पारिणामिक + औदयिक।
१२७
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१२८
पञ्च- संयोग का एक भेद
१. औपशमिक + क्षायिक + क्षायोपशमिक + औदयिक + पारिणामिक सब मिलाकर सांनिपातिक-भाव के छब्बीस भेद हुए । इनमें से जो छह भेद जीवों में पाये जाते हैं, उन्हीं को इन दो गाथाओं में दिखाया है।
चौथा कर्मग्रन्थ
त्रिक-संयोग के उक्त दस भेदों में से दसवाँ भेद, जो क्षायोपशमिक, पारिणामिक और औदयिक के मेल से बना है, वह चारों गति में पाया जाता है। वह इस प्रकार - चारों गति के जीवों में क्षायोपशमिक-भाव भावेन्द्रिय आदिरूप, पारिणामिक-भाव जीवत्व आदिरूप और औदयिक भाव कषाय आदिरूप है। इस तरह इस त्रिक- संयोग के गति रूप स्थान भेद से चार भेद हुए।
चतु:संयोग के उक्त पाँच भेदों में से पाँचवाँ भेद चारों गति में पाया जाता है; इसलिये इसके भी स्थान भेद से चार भेद होते हैं। चारों गति में क्षायिकभाव क्षायिक सम्यक्त्वरूप, क्षायोपशमिक-भाव भावेन्द्रिय आदिरूप, पारिणामिक-भाव जीवत्व आदिरूप और औदयिक भाव कषाय आदिरूप है।
चतुः संयोग के पाँच भेदों में से चौथा भेद चारों गति में पाया जाता है। चारों गति में औपशमिक - भाव सम्यक्त्वरूप, क्षायोपशमिक भाव भावेन्द्रिय आदि रूप, पारिणामिक-भाव जीवत्व आदिरूप और औदयिक भाव कषाय आदि रूप समझना चाहिये। । इस चतुःसंयोग सांनिपातिक के भी गतिरूप स्थान-: -भेद से चार भेद हुए।
त्रिक- संयोग के उक्त दस भेदों में से नौवाँ भेद सिर्फ भवस्थ केवलियों में होता है, इसलिये वह एक ही प्रकार का है। केवलियों में पारिणामिक-भाव जीवत्व आदि रूप, औदयिक भाव गति आदि रूप और क्षायिक भाव केवलज्ञान आदि रूप है।
द्विक-संयोग के उक्त दस भेदों में से सातवाँ भेद सिर्फ सिद्ध जीवों में पाये जाने के कारण एक ही प्रकार का है। सिद्धों में पारिणामिक भाव जीवत्व आदि रूप और क्षायिक भाव केवलज्ञान आदि रूप है।
पञ्च-संयोगरूप सांनिपातिक-भाव सिर्फ उपशमश्रेणि वाले मनुष्यों में होता है। इस कारण वह एक ही प्रकार का है; उपशमश्रेणि वाले मनुष्यों में क्षायिकभाव सम्यक्त्वरूप, औपशमिक - भाव चारित्र रूप, क्षायोपशमिक - भाव भावेन्द्रिय आदिरूप, पारिणामिक-भाव जीवत्व आदि रूप और औदयिक भाव लेश्या आदि रूप है।
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गुणस्थानाधिकार
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इस प्रकार जो छः सांनिपातिक-भाव संभववाले हैं, इनके ऊपर लिखे अनुसार स्थान -भेद से सब मिलाकर पन्द्रह भेद होते हैं ।। ६७-६८ ।।
कर्म के और धर्मास्तिकाय आदि अजीवद्रव्यों के भाव । मोहेव समो मीसो, चउघाड़सु अट्ठसंमसु च सेसा । धम्माइ पारिणामय, भावे खंधा उदइए
-
वि ।। ६९ ।।
शेषाः ।
मोह एव शमो मिश्रश्चतुर्घातिष्वष्टकर्मसु च धर्मादि पारिणामिकभावे स्कन्धा उदयेऽपि ।। ६९ ।।
अर्थ - औपशमिक-भाव मोहनीयकर्म के ही होता है। मिश्र ( क्षायोपशमिक) भाव चार घातिकर्मों के ही होता है। शेष तीन ( क्षायिक, पारिणामिक और औदायिक) भाव आठों कर्म के होते हैं।
धर्मास्तिकाय आदि अजीवद्रव्य के पारिणामिक - भाव हैं, किन्तु पुद्गल - स्कन्ध के औदयिक और पारिणामिक, ये दो भाव हैं ॥६९॥
भावार्थ - कर्म के सम्बन्ध में औपशमिक आदि भावों का मतलब उसकी अवस्था - विशेषों से है । जैसे - कर्म की उपशम- अवस्था उसका औपशमिक-भाव, क्षयोपशम अवस्था क्षायोपशमिक-भाव, क्षय अवस्था क्षायिक-भाव, उदयअवस्था औदयिक भाव और परिणमन- अवस्था पारिणामिक-भाव है।
उपशम-अवस्था मोहनीयकर्म के अतिरिक्त अन्य कर्मों की नहीं होती; इसलिये औपशमिक-भाव मोहनीयकर्म का ही कहा गया है। क्षयोपशम चार
१. कर्म के भाव, पञ्चसंग्र- द्वा. ३ की २५वीं गाथा में वर्णित है।
२. औपशमिक शब्द के दो अर्थ हैं
(१) कर्म की उपशम आदि अवस्थाएँ ही औपशमिक आदि भाव हैं। यह, अर्थ कर्म के भावों में लागू पड़ता है।
(२) कर्म की उपशम आदि अवस्थाओं से होनेवाले पर्याय औपशमिक आदि भाव हैं। यह अर्थ, जीव के भावों में लागू पड़ता है, जो ६४ और ६६वीं गाथा में बतलाय हैं।
३. पारिणामिक शब्द का 'स्वरूप' परिणमन, यह एक ही अर्थ है, जो सब द्रव्यों में लागू पड़ता है। जैसे— कर्म का जीव- प्रदेशों के साथ विशिष्ट सम्बन्ध होना या द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव आदि भिन्न-भिन्न निमित्त पाकर अनेक रूप में संक्रान्त (परिवर्तित ) होते रहना कर्म का पारिणामिक-भाव है। जीव का परिणमन जीवत्वरूप में, भव्यत्व रूप में या अभव्यत्वरूप में स्वतः बने रहना है। इसी तरह धर्मस्तिकाय आदि द्रव्यों में समझ लेना चाहिये ।
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चौथा कर्मग्रन्थ
घातिकर्म का ही होता है; इस कारण क्षायोपशमिक-भाव घातिकर्म का ही माना गया है। विशेषता इतनी है कि केवलज्ञानावरणीय और केवलदर्शनावरणीय, इन दो घातिकर्म-प्रकृतिओं के विपाकोदय का निरोध न होने के कारण इनका क्षयोपशम नहीं होता। क्षायिक, पारिणामिक और औदयिक, ये तीन भाव आठों कर्म के हैं; क्योंकि क्षय, परिणमन और उदय, ये तीन अवस्थाएँ आठों कर्म की होती हैं। सारांश यह है कि मोहनीयकर्म के पाँचों भाव, मोहनीय के अतिरिक्त तीन घातिकर्म के चार भाव और चार अघातिकर्म के तीन भाव हैं।
अजीवद्रव्य के भाव अधर्मास्तिकाय,
धर्मास्तिकाय, आकाशास्तिकाय, काल और पुद्गलास्तिकाय, ये पाँच अजीवद्रव्य हैं । पुद्गलास्तिकाय के अतिरिक्त शेष चार अजीवद्रव्यों के पारिणामिक-भाव ही होता है। धर्मास्तिकाय, जीव- पुद्गलों की गति में सहायक बनने रूप अपने कार्य में अनादि काल से परिणत हुआ करता है । अधर्मास्तिकाय, स्थिति में सहायक बनने रूप कार्य में, आकाशास्तिकाय, अवकाश देने रूप कार्य में और काल, समय-पर्याय रूप स्व-कार्य में अनादि काल से परिणमन किया करता है। पुद्गलद्रव्य के पारिणामिक और औदयिक, ये दो भाव हैं। परमाणु-पुद्गल का तो केवल पारिणामिक - भाव है; पर स्कन्धरूप पुद्गल के पारिणामिक और औदयिक, ये दो भाव हैं। स्कन्धों में भी द्यणुकादि सादि स्कन्ध पारिणामिक - भाववाले ही हैं, लेकिन औदारिक आदि शरीररूप स्कन्ध पारिणामिक-औदयिक दो भाववाले हैं। क्योंकि ये स्व-स्व-रूप में परिणत होते रहने के कारण पारिणामिक - भाववाले और औदारिक आदि शरीरनामकर्म के उदय - जन्य होने के कारण औदयिक भाववाले हैं।
पुद्गलद्रव्य के दो भाव कहे हुए हैं, सो कर्म - पुद्गल से भिन्न पुद्गल को समझने चाहिये। कर्म- पुद्गल के तो औपशमिक आदि पाँचों भाव हैं, जो ऊपर बतलाये गये हैं॥ ६९ ॥
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गुणस्थानाधिकार
१३१ (११) गुणस्थानों में मूल भाव।
(एक जीव की अपेक्षा से) संमाइचउसु तिग चउ, भावा चउ पणुवसामगुवसंते। चउ खीणापुव्व तिन्नि, सेसगुणट्ठाणगेगजिए।।७०।। सम्यगादिचतुर्पु त्रयश्वत्वारो, भावाश्चत्वारः पञ्चोपशमकोपशान्ते। चत्वारः क्षीणाऽपूर्वे त्रयः, शेषगुणस्थानक एकजीवे।।७०।।
अर्थ-एक जीव को सम्यग्दृष्टि आदि चार गुणस्थानों में तीन या चार भाव होते हैं। उपशम (नौवें और दसवें) और उपशान्त (ग्यारहवें) गुणस्थान में चार या पाँच भाव होते हैं। क्षीणमोह तथा अपूर्वकरण-गुणस्थान में चार भाव होते हैं और शेष सब गुणस्थानों में तीन भाव।।७०॥
भावार्थ:-चौथे, पाँचवें, छठे और सातवें, इन चार गुणस्थानों में तीन या चार भाव हैं। तीन भाव ये हैं—(१) औदयिक-मनुष्य आदि गति, (२) पारिणामिक-जीवत्व आदि और (३) क्षायोपशमिक-भावेन्द्रिय, सम्यक्त्व आदि। ये तीन भाव क्षायोपशमिकसम्यक्त्व के समय पाये जाते हैं। परन्तु जब क्षायिक या औपशमिक-सम्यक्त्व हो, तब इन दो में से कोई-एक सम्यक्त्व तथा उक्त तीन, इस प्रकार चार भाव समझने चाहिये।
नौवें, दसवें और ग्यारहवें, इन तीन गुणस्थानों में चार या पाँच भाव पाये जाते हैं। चार भाव उस समय, जब कि औपशमिक सम्यक्त्वी जीव उपशमश्रेणि वाला हो। चार भाव में तीन तो उक्त हैं और चौथा औपशमिक-सम्यक्त्व व चारित्र। पाँच में उक्त तीन, चौथा क्षायिकसम्यक्त्व और पाँचवाँ औपशमिकचारित्र।
आठवें और बारहवें, इन दो गुणस्थानों में चार भाव होते हैं। आठवें में उक्त तीन और औपशमिक और क्षायिक, इन दो में से कोई एक सम्यक्त्व, ये चार भाव समझने चाहिये। बारहवें में उक्त तीन और चौथा क्षायिकसम्यक्त्व व क्षायिकचारित्र, ये चार भाव।
शेष पाँच (पहले, दूसरे, तीसरे, तेरहवें और चौदहवें) गुणस्थानों में तीन भाव हैं। पहले, दूसरे और तीसरे गुणस्थान में औदयिक-मनुष्य आदि गति,
१. देखिये, परिशिष्ट 'फ'। २. देखिये, परिशिष्ट 'ब'।
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चौथा कर्मग्रन्थ
पारिणामिक—जीवत्व आदि और क्षायोपशमिक — भावेन्द्रिय आदि, ये तीन भाव हैं। तेरहवें और चौदहवें गुणस्थान में औदयिक – मनुष्यत्व, पारिणामिकजीवत्व और क्षायिक — ज्ञान आदि, ये तीन भाव हैं ।। ७० ।।
(१२) - संख्या का विचार ।
(सोलह गाथाओं से )
संख्या के भेद - प्रभेद ।
१३२
परित्तजुत्तनियपयजुयं
तिविहं ।
संखिज्जेगमसंखं, एवमणंतं ति तिहा, जहन्नमज्झुक्कसा सव्वे ।।७१।। संख्येयमेकमसंख्यं, परिक्षयुक्तनिजपदयुतं त्रिविधम् ।
एवमनन्तमपि त्रिधा, जघन्यमध्योत्कृष्टानि सर्वाणि । । ७१ । ।
अर्थ- संख्यात एक है। असंख्यात के तीन भेद हैं- ( १ ) परीत्त, (२) युक्त और (३) निजपदयुक्त अर्थात् असंख्यातासंख्यात । इसी तरह अनन्त के भी तीन भेद हैं। इन सब के जघन्य, मध्यम और उत्कृष्ट, ये तीन-तीन भेद हैं । । ७१ ॥
भावार्थ - शास्त्र में संख्या तीन प्रकार की बतलायी है - (१) संख्यात, (२) असंख्यात और (३) अनन्त । संख्यात का एक प्रकार, असंख्यात के तीन और अनन्त के तीन, इस तरह संख्या के कुल सात भेद हैं। प्रत्येक भेद के जघन्य, मध्यम और उत्कृष्ट रूप से तीन-तीन भेद करने पर इक्कीस भेद होते हैं । सो इस प्रकार - १. जघन्य संख्यात, २. मध्यम संख्यात और ३. उत्कृष्ट संख्यात, ४. जघन्य परीत्तासंख्यात, ५. मध्यम परीत्तासंख्यात और ६. उत्कृष्ट
१. संख्या-विषयक विचार, अनुयोग-द्वार के २३४ से लेकर २४१वें पृष्ठ तक है। और लोकप्रकाश- सर्ग १के १२२ से लेकर २१२वें श्लो. तक में है। अनुयोगद्वार सूत्र
सैद्धान्तिक मत है। उसकी टीका में मलधारी श्रीहेमचन्द्रसूरि ने कार्मग्रन्थिक-मत का भी उल्लेख किया है। लोकप्रकाश में दोनों मत संगृहीत है। श्रीनेमिचन्द्र सिद्धान्तचक्रवर्ति-विरचित त्रिलोकसार की १३ से लेकर ५१ तक की गाथाओं में संख्या का विचार है। उसमें पल्य के स्थान में 'कुण्ड' शब्द प्रयुक्त है; वर्णन भी कुछ जुदे ढंग से है। उसका वर्णन कार्मग्रन्थिक मत से मिलता है। 'असंख्यात' शब्द बौद्ध साहित्य में है, जिसका अर्थ '१' के अङ्कपर एक सौ चालीस शून्य जितनी संख्या है। इसके लिये देखिये, चिल्डर्स पाली-अंगरेजी कोष का ५९वाँ पृष्ठ |
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गुणस्थानाधिकार
१३३
परीत्तासंख्यात, ७. जघन्य युक्तासंख्यात, ८. मध्यम युक्तासंख्यात और ९. उत्कृष्ट युक्तासंख्यात, १०. जघन्य असंख्यातासंख्यात, ११. मध्यम असंख्यातासंख्यातं और १२. उत्कृष्ट असंख्यातासंख्यात, १३. जघन्य परीत्तानन्त, १४. मध्यमपरीत्तानन्त और १५. उत्कृष्ट परीत्तानन्त; १६. जघन्य युक्तानन्त, १७. मध्यम युक्तानन्त और १८. उत्कृष्ट युक्तानन्त, १९. जघन्य अनन्तानन्त, २०. मध्यम अनन्तानन्त और २१. उत्कृष्ट अनन्तानन्त॥७१॥
संख्यात के तीन भेदों का स्वरूप
लहु संखिज्जं दुच्चिय, अओ परं मज्झिमं तु जा गुरुअं । जंबूद्दीव पमाणय, - चउपल्लपरुवणाइ इमं । । ७२ । ।
लघु संख्येयं द्वावेवाऽतः परं मध्यमन्तु यावद्गुरुकम् । जम्बूद्वीपप्रमाणकचतुष्पल्यप्ररूपणयेदम्।। ७२ ।
अर्थ-दो की ही संख्या लघु (जघन्य) संख्यात है। इससे आगे तीन से लेकर उत्कृष्ट संख्यात तक की सब संख्याएँ मध्यम संख्यात हैं। उत्कृष्ट संख्यात का स्वरूप जम्बूद्वीप -प्रमाण पल्यों के निरूपण से जाना जाता है ।। ७२ ।।
भावार्थ- संख्या का मतलब भेद (पार्थक्य) से है अर्थात् जिसमें भेद प्रतीत हो, वही संख्या है। एक में भेद प्रतीत नहीं होता; इसलिये सबसे कम होने पर भी एक को जघन्य संख्यात नहीं कहा है। पार्थक्य की प्रतीति दो आदि में होती है; इसलिये वे ही संस्थाएँ हैं। इनमें से दो की संख्या जघन्य संख्यात और तीन से लेकर उत्कृष्ट संख्यात तक बीच की सब संख्याएँ मध्यम संख्यात हैं। शास्त्र में उत्कृष्ट संख्यात का स्वरूप जानने के लिये पल्यों की कल्पना है, जो अगली गाथाओं में दिखायी है । । ७२ ॥
पल्यों के नाम तथा प्रमाण
ग- पडिसलागामहासलागक्खा ।
पल्लाणवट्ठियसला, जोयणसह सोगाढा, सवेइयंता ससिहभरिया ।। ७३ ।।
पल्या अनवस्थितशलाका प्रतिशलाकामहाशलाकाख्याः । योजनसहस्रावगाढाः, सवेदिकान्ताः सशिखभृताः ।। ७३ ।।
अर्थ-चार पल्य के नाम क्रमशः अनवस्थित, शलाका, प्रतिशलाका और महाशलाका है। चारों पल्य गहराई में एक हजार योजन और ऊँचाई में जम्बूद्वीप
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चौथा कर्मग्रन्थ
की पद्मवर वेदिका पर्यन्त अर्थात् साढ़े आठ योजन प्रमाण समझने चाहिये। इन्हें शिखा पर्यन्त सरसों से पूर्ण करने का विधान है || ७३ ॥
भावार्थ-शास्त्र में सत् और असत् दो प्रकार की कल्पना तो है। जो कार्य में परिणत की जा सके, वह 'सत्कल्पना', और जो किसी वस्तु का स्वरूप समझने में उपयोगीमात्र, पर कार्य में परिणत न की जा सके, वह 'असत्कल्पना' है । पल्यों का विचार असत्कल्पना है; इसका प्रयोजन उत्कृष्ट संख्यात का स्वरूप समझाना मात्र है।
शास्त्र में पल्य चार कहे गये हैं- ( १ ) अनवस्थित, (२) शलाका, (३) प्रतिशलाका और (४) महाशलाका । इनकी लम्बाई-चौड़ाई जम्बूद्वीप के बराबरएक-एक लाख योजन की, गहराई एक हजार योजन की और ऊँचाई पद्मवर वेदिका-प्रमाण अर्थात् साढे आठ योजन की कही हुई है । पल्य की गहराई तथा ऊँचाई मेरु की समतल भूमि से समझना चाहिये। सारांश, ये कल्पित पल्य तल से शिखा तक में १०० = १ / २ योजन लिये जाते हैं।
अनवस्थित पल्य अनेक बनते हैं। इन सबकी लम्बाई-चौड़ाई एक सी नहीं है। पहला अनवस्थित (मूलानवस्थित) की लम्बाई-चौड़ाई लाख योजन की और आगे के सब अनवस्थित (उत्तरानवस्थित) की लम्बाई-चौड़ाई अधिकाधिक है। जैसे – जम्बूद्वीपप्रमाण मूलानवस्थित पल्य को सरसों से भर देना और जम्बूद्वीप से लेकर आगे के हर एक द्वीप में तथा समुद्र में उन सरसों में से एक-एक को डालते जाना। इस प्रकार डालते डालते जिस द्वीप में या जिस समुद्र में मूलानवस्थित पल्य खाली हो जाय, जम्बूद्वीप ( मूलस्थान) से उस द्वीप या उस समुद्र तक की लम्बाई-चौड़ाई वाला नया पल्य बना लिया जाय। यही पहला उत्तरावस्थित है।
इस पल्य में भी ठाँस कर सरसों भरना और इन सरसों में से एक-एक को आगे के प्रत्येक द्वीप में तथा समुद्र में डालते जाना। डालते डालते जिस द्वीप में या जिस समुद्र में इस पहले उत्तरानवस्थित पल्य के सब सर्षप समाप्त हो जायें, या मूलस्थान ( जम्बूद्वीप) से उस सर्षप - समाप्ति - कारक द्वीप या समुद्र पर्यन्त लम्बा-चौड़ा पल्य फिर से बना लेना, यह दूसरा उत्तरानवस्थितपल्य है। इसे भी सर्षपों से भर देना और आगे के प्रत्येक द्वीप में तथा समुद्र में एक - एक सर्षप को डालते जाना। ऐसा करने से दूसरे उत्तरा नवस्थितपल्य के सर्षपों की समाप्ति जिस द्वीप में या जिस समुद्र में हो जाय, मूल स्थान से
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गुणस्थानाधिकार
१३५
उस सर्षप-समाप्ति-कारक द्वीप या समुद्र पर्यन्त विस्तृत पल्य फिर से बनाना यह तीसरा उत्तरानवस्थित पल्य है। इसको भी सर्षपों से भरना तथा आगे के द्वीप, समुद्र में एक-एक सर्षप डालकर खाली करना। फिर मूल स्थान से सर्षप - समाप्ति-कारक द्वीप या समुद्र पर्यन्त विस्तृत पल्य बना लेना और उसे भी सर्षपों से भरना तथा उक्त विधि के अनुसार खाली करना। इस प्रकार जितने उत्तरानवस्थित पल्य बनाये जाते हैं, वे सभी प्रमाण में पूर्व - पूर्व की अपेक्षा बड़ेबड़े ही होते जाते हैं। परिमाण की अनिश्चितता के कारण इन पल्यों का नाम 'अनवस्थित' रक्खा गया है। यह ध्यान में रखना चाहिये कि अनवस्थित पल्य लम्बाई-चौड़ाई में अनियत होने पर भी ऊँचाई में नियत ही अर्थात् १००८=१/ २ योजन मान लिये जाते हैं।
अनवस्थित पल्यों को कहाँ तक बनाना? इसका खुलासा आगे की गाथाओं से हो जायगा ।
प्रत्येक अनवस्थित पल्य के खाली हो जाने पर एक-एक सर्षप शलाकापल्य में डाल दिया जाता है। अर्थात् शलाका पल्य में डाले गये सर्षपों की संख्या से यही जाना जाता है कि इतनी दफ़ा उत्तरानवस्थितपल्य खाली हुए ।
हर एक शलाकापल्य के खाली होने के समय एक-एक सर्षप प्रतिशलाका पल्य में डाला जाता है। प्रतिशलाका पल्य के सर्षपों की संख्या से यह विदित होता है कि इतनी बार शलाका पल्य भरा गया और खाली हुआ।
प्रतिशलाका पल्य के एक-एक बार भर जाने और खाली हो जाने पर एक - एक सर्षप महाशलाका पल्य में डाल दिया जाता है, जिससे यह जाना जा सकता है कितनी बार प्रतिशलाका पल्य भरा गया और खाली किया गया । । ७३ ॥
पल्यों के भरने आदि की विधि
तादीवुदहिसु इक्कि, क्कसरिसवं खिबि य निट्ठिए पढमे । पढमं व तदन्तं चिय, पुण भरिए तंमि तह खीणे । । ७४ । । खिप्पड़ सलागपल्ले, -गु सरिसवो इय सलागखवणेणं । पुन्नो बीयो य तओ, पुव्विं पि व तंमि उद्धरिए । । ७५ ।। खीणे सलाग तइए, एवं पढमेहिं बीययं भरसु । तेहिं तइयं तेहिय, तुरियं जा किर फुडा चउरो ।। ७६ ।।
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चौथा कर्मग्रन्थ तावद्वीपोदधिष्वेकैकसर्षपं क्षिप्त्वा निष्ठिते प्रथमे। प्रथममिव तदन्तमेव पुन ते तस्मिन्तथा क्षीणे।।७४।। क्षिप्यते शलाकापल्ये एकस्सर्षप इति शलाकाक्षपणेन। पूर्णो द्वितीयश्च ततः पूर्वमिव तस्मिन्नुघृते।।७५।। क्षीणे शलाका तृतीये एवं प्रथमैर्द्वितीयं भर। तैस्तृतीयं तैश्च तुर्ये यावत्किल स्फुटाश्चत्वारः।।७६।।
अर्थ-पूर्ण अनवस्थित पल्य में से एक-एक सर्षप द्वीप-समुद्र में डालना चाहिये, जिस द्वीप या समुद्र में सर्षप समाप्त हो जाय, उस द्वीप या समुद्र पर्यन्त विस्तीर्ण नया अनवस्थितपल्य बनाकर उसे सर्षपों से भरना चाहिये।
इनमें से एक-एक सर्षप द्वीप-समुद्र में डालने पर जब अनवस्थित पल्य खाली हो जाय, तब शलाका पल्य में एक सर्षप डालना चाहिये। इस तरह एकएक सर्षप डालने से जब दूसरा शलाका पल्य भर जाय, तब उसे पूर्व की तरह उठाना चाहिये।
उठाकर उसमें से एक-एक सर्षप निकालकर उसे खाली करना और प्रतिशलाका में एक सर्षप डालना चाहिये। इस प्रकार अनवस्थित से शलाका को और अनवस्थित-शलाका दोनों से तीसरे (प्रतिशलाका) को और पहले तीन पल्य से चौथे (महाशलाका) पल्य को भर देना चाहिये। इस तरह चारों पल्यों को परिपूर्ण भर देना चाहिये।।७४-७६।।
भावार्थ-सबसे पहले लक्ष-योजन-प्रमाण मूल अनवस्थित पल्य को सर्षपों से भरना और उन सर्षपों में से एक-एक सर्षप को जम्बूद्वीप आदि प्रत्येक द्वीप तथा समुद्र में डालना चाहिये, इस रीति से एक-एक सर्षप डालने से जिस द्वीप या समुद्र में मूल अनवस्थितपल्य बिलकुल खाली हो जाय, जम्बूद्वीप से (मूल स्थान से) उस सर्षप-समाप्ति-कारक द्वीप या समुद्र तक लम्बा-चौड़ा. नया पल्य बना लेना चाहिये, जो ऊँचाई में पहले पल्य के बराबर ही हो। फिर इस उत्तरानवस्थित पल्य को सर्षपों से भर देना और एक-एक सर्षप को आगे के द्वीप-समुद्र में डालना चाहिये। इस प्रकार एक-एक सर्षप निकालने से जब यह पल्य भी खाली हो जाय, तब इस प्रथम उत्तरानवस्थित पल्य के खाली हो जाने का सूचक एक सर्षप शलाका नाम के पल्य में डालना। जिस द्वीप में या जिस समुद्र में प्रथम उत्तरानवस्थित खाली हो जाय, मूल स्थान (जम्बूद्वीप से) उस द्वीप या समुद्र तक विस्तीर्ण अनवस्थित पल्य फिर बनाना तथा उसे सर्षपों से
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गुणस्थानाधिकार
१३७
भरकर आगे के द्वीप-समुद्र में एक-एक सर्षप डालना चाहिए। उसके बिल्कुल खाली हो जाने पर समाप्ति-सूचक एक सर्षप शलाका पल्य में फिर से डालना चाहिये। इस तरह जिस द्वीप में या जिस समुद्र में अन्तिम सर्षप डाला गया हो, मूल स्थान से उस सर्षप समाप्ति-कारक द्वीप या समुद्र तक विस्तीर्ण एकएक अनवस्थित पल्य बनाते जाना और उसे सर्षपों से भर कर उक्त विधि के अनुसार खाली करते जाना और एक-एक अनवस्थित पल्य के खाली हो चुकने पर एक-एक सर्षप शलाका पल्य में डालते जाना। ऐसा करने से जब शलाका पल्य सर्षपों से पूर्ण हो जाय, जब मूल स्थान से अन्तिम सर्षपवाले स्थान तक विस्तीर्ण अनवस्थित पल्य बनाकर उसे सर्षपों से भर देना चाहिये। इससे अब तक में अनवस्थित पल्य और शलाका पल्य सर्षपों से भर गये। इन दो में से शलाका पल्य को उठाना और उसके सर्षपों में से एक-एक सर्षप को उक्त विधि के अनुसार आगे के द्वीप-समुद्र में डालना चाहिये। एक-एक सर्षप निकालने से जब शलाका पल्य बिल्कुल खाली हो जाय, तक शलाका पल्य के खाली हो जाने का सूचक एक सर्षप प्रतिशलाका पल्य में डालना चाहिये। अब तक में अनवस्थित पल्य सर्षपों से भरा पड़ा है, शलाका पल्य खाली हो चुका है और प्रतिशलाका पल्य में एक सर्षप पड़ा हुआ है।
इसके पश्चात् अनवस्थित पल्य के एक-एक सर्षप को आगे के द्वीप-समुद्र में डालकर उसे खाली कर देना चाहिये और उसके खाली हो चुकने का सूचक एक सर्षप पूर्व की तरह शलाका पल्य में, जो खाली हो गया है, डालना चाहिये। इस प्रकार मूल स्थान से अन्तिम सर्षपवाले स्थान तक विस्तीर्ण नया-नया अनवस्थित पल्य बनाते जाना चाहिये और उसे सर्षपों से भरकर उक्त विधि के अनुसार खाली करते जाना चाहिये तथा प्रत्येक अनवस्थित पल्य के खाली हो चुकने पर एक-एक सर्षप शलाका पल्य में डालते जाना चाहिये। ऐसा करने से जब शलाका पल्य सर्षपों से फिर से भर जाय, तब जिस स्थान में अन्तिम सर्षप पड़ा हो, मूल स्थान से उस स्थान तक विस्तीर्ण अनवस्थित पल्य को बनाकर उसे भी सर्षपों से भर देना चाहिये। अब तक में अनवस्थित और शलाका, ये दो पल्य भरे हुए हैं और प्रतिशलाका पल्य में एक सर्षप है।
शलाका पल्य को पूर्व-विधि के अनुसार फिर से खाली कर देना चाहिये और उसके खाली हो चुकने पर एक सर्षप प्रतिशलाका पल्य में रखना चाहिये। अब तक अनवस्थित पल्य भरा हुआ है, शलाका पल्य खाली है और प्रतिशलाका पल्य में दो सर्षप पड़े हुए हैं।
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चौथा कर्मग्रन्थ
इसके आगे फिर भी पूर्वोक्त विधि के अनुसार अनवस्थित पल्य को खाली करना और एक-एक सर्षप को शलाका पल्य में डालना चाहिये। इस प्रकार शलाका पल्य को बार-बार भर कर उक्त विधि के अनुसार खाली करते जाना तथा खाली हो जाने का सूचक एक-एक सर्षप प्रतिशलाका पल्य में डालने चाहिये। जब एक-एक सर्षप के डालने से प्रतिशलाका पल्य भी पूर्ण हो जाय, तब उक्त प्रक्रिया के अनुसार अनवस्थित पल्य द्वारा शलाका पल्य को भरना
और पीछे अनवस्थित पल्य को भी भर कर रखना चाहिये। अब तक अनवस्थित, शकला और प्रतिशलाका, ये तीन पल्य भर गये हैं। इनमें से प्रतिशलाका को उठाकर उसके सर्षपों में से एक-एक सर्षप को आगे के द्वीप-समुद्र में डालना चाहिये। प्रतिशलाका पल्य के खाली हो चुकने पर एक सर्षप जो प्रतिशलाका पल्य की समाप्ति का सूचक है, उसको महाशलाका पल्य में डालना चाहिये। अब तक में अनवस्थित तथा शलाका-पल्य भरे पड़े हैं, प्रतिशलाका पल्य खाली है और महाशलाका पल्य में एक सर्षप पड़ा हुआ है।
इसके अनन्तर शलाका पल्य को खाली कर एक सर्षप प्रतिशलाका पल्य में डालना और अनवस्थित पल्य को खाली कर शलाका पल्य में एक सर्षप डालना चाहिये। इस प्रकार नया-नया अनवस्थित पल्य बनाकर उसे सर्षपों से भरकर तथा उक्त विधि के अनुसार उसे खाली कर एक-एक सर्षप द्वारा शलाका पल्य को भरना चाहिये। हर एक शलाका पल्य के खाली हो चुकने पर एकएक सर्षप प्रतिशलाका पल्य में डालना चाहिये। प्रतिशलाका पल्य भर जाने के बाद अनवस्थित द्वारा शलाका पल्य भर लेना और अन्त में अनवस्थित पल्य भी भर देना चाहिए। अब तक में पहले तीन पल्य भर गये हैं और चौथे में एक सर्षप है। फिर प्रतिशलाका पल्य को उक्त रीति से खाली करना और महाशलाका पल्य में एक सर्षप डालना चाहिये। अब तक पहले दो पल्य पूर्ण हैं। प्रतिशलाका पल्य खाली है और महाशलाका पल्य में दो सर्षप हैं। इस तरह प्रतिशलाका द्वारा महाशलाका को भर देना चाहिए।
__इस प्रकार पूर्व-पूर्व पल्य के खाली हो जाने के समय डाले गये एकएक सर्षप से क्रमशः चौथा, तीसरा और दूसरा पल्य, जब भर जाय तब अनवस्थित पल्य, जो कि मूल स्थान से अन्तिम सर्षप वाले द्वीप या समुद्र तक लम्बा-चौड़ा बनाया जाता है, उसको भी सर्षपों से भर देना चाहिये। इस क्रम से चारों पल्य सर्षपों से ठसा-ठस भरे जाते हैं।।७४-७६॥
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गुणस्थानाधिकार
सर्षप परिपूर्ण पल्यों का उपयोग
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पल्लचउसरिसवा
य।
पढमतिपल्लुद्धरिया, दी दही सव्वो वि एगरासी, रूवूणो परमसंखिज्जं । । ७७ ।। प्रथमत्रिपल्योद्धृता, द्वीपोदधयः पल्यचतुः सर्षपाश्च ।
सर्वोप्येकराशी, रूपानः परमसंख्येयम् । । ७७।।
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अर्थ - जितने द्वीप - समुद्रों में एक-एक सर्षप डालने से पहले तीन पल्य खाली हो गये हैं, वे सब द्वीप - समुद्र और परिपूर्ण चार पल्यों के सर्षप, इन दोनों की संख्या मिलाने से जो संख्या हो, एक कम वही संख्या उत्कृष्ट संख्यात है॥७७॥
भावार्थ-अनवस्थित, शलाका और प्रतिशलाका - पल्य को बार-बार सर्षपों से भर कर उनको खाली करने की जो विधि ऊपर दिखलाई गई है, उसके अनुसार जितने द्वीपों में तथा जितने समुद्रों में एक-एक सर्षप पड़ा हुआ है, उन सब द्वीपों की तथा सब समुद्रों की संख्या में चारों पल्य के भरे हुए सर्षपों की संख्या मिला देने से जो संख्या होती है, एक कम वही संख्या उत्कृष्ट संख्यात है।
उत्कृष्ट संख्यात और जघन्य संख्यात, इन दो के बीच की सब संख्या को मध्यम संख्यात समझना चाहिये। शास्त्रों में जहाँ कहीं संख्यात शब्द का व्यवहार हुआ है, वहाँ सब जगह मध्य संख्यात से ही मतलब है || ७७৷
असंख्यात और अनन्त का स्वरूप
(दो गाथाओं से)
-
रूवजुयं तु परित्ता, संखं लहु अस्स रासि अब्भासे । जुत्तासंखिज्जं लहु आवलियासमयपरिमाणं । । ७८ ।।
रूपयुतं तु परीत्तासंख्यं लध्वस्य राशेरभ्यासे ।
युक्तासंख्येयं लघु, आवलिकासमयपरिमाणम् । । ७८ । ।
अर्थ- उत्कृष्ट संख्यात में रूप (एक की संख्या) मिलाने से जघन्य परीत्तासंख्यात होता है। जघन्य परीत्तासंख्यात का अभ्यास करने से जघन्य
१. दिगम्बर - शास्त्रों में भी 'रूप' शब्द एक संख्या के अर्थ में प्रयुक्त है। जैसे—– जीवकाण्ड की १०७ तथा ११०वीं गाथा आदि तथा प्रवचनसार - ज्ञयाधिकार की ७४वीं गाथा की टीका ।
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चौथा कर्मग्रन्थ
युक्तासंख्यात होता है । जघन्य युक्तासंख्यात ही एक आवलिका के समयों का परिमाण है || ७८ ॥
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भावार्थ - उत्कृष्ट संख्यात में एक संख्या मिलाने से जघन्य परीत्तासंख्यात होता है। अर्थात् एक-एक सर्षप डाले हुए द्वीप समुद्रों की और चार पल्यों के सर्षपों की मिली हुई सम्पूर्ण संख्या ही जघन्य परीत्तासंख्यात है ।
जघन्य परीत्तासंख्यात का अभ्यास करने पर जो संख्या आती है, वह जघन्य युक्तासंख्यात है। शास्त्र में आवलिका के समयों को असंख्यात कहा है, जो जघन्य युक्तासंख्यात समझना चाहिये। एक कम जघन्य युक्तासंख्यात को उत्कृष्ट परीत्तासंख्यात तथा जघन्य परीत्तासंख्यात और उत्कृष्ट परीत्तासंख्यात के बीच की सह संख्याओं को मध्यम परीत्तासंख्यात जानना चाहिये ॥ ७८ ॥ कमा सगासंख पढमचउसत्ता। णंता ते रूवजुया, मज्झा रूवूण गुरु पच्छा । । ७९ ।। द्वितीयतृतीयचतुर्थपञ्चमगुणने क्रमात् सप्तमासंख्यं प्रथमचतुर्थसप्तमाः । अनन्तास्ते रूपयुता, मध्या रूपोना गुरवः पश्चात् ।। ७९ ।।
बितिचउपञ्चमगुणणे,
अर्थ- दूसरे, तीसरे, चौथे और पाँचवें मूल-भेद का अभ्यास करने पर अनुक्रम से सातवाँ असंख्यात और पहला, चौथा और सातवाँ अनन्त होते हैं। एक संख्या मिलाने पर ये ही संख्याएँ मध्यम संख्या और एक संख्या कम करने पर पीछे की उत्कृष्ट संख्या होती है ॥ ७९ ॥
भावार्थ- पिछली गाथा में असंख्यात के चार भेदों का स्वरूप बतलाया गया है। अब उसके शेष भेदों का तथा अनन्त के सब भेदों का स्वरूप लिखा जाता है।
१. जिस संख्या का अभ्यास करना हो, उसके अङ्कको उतनी दफा लिखकर परस्पर गुणना अर्थात् प्रथम अङ्क को दूसरे के साथ गुणना ओर जो गुणनफल आवे, उसको तीसरे अङ्क के साथ गुणना, इसके गुणन - फल को अगले अङ्क के साथ। इस प्रकार पूर्वपूर्व गुणनफल को अगले अगले अङ्क के साथ गुणना, अन्त में जो गुणन-फल प्राप्त हो, वही विवक्षित संख्या का अभ्यास हैं। उदाहरणार्थ - ५ का अभ्यास ३१२५ है । इसकी विधि इस प्रकार है-५को पाँच दफा लिखना – ५, ५, ५, ५। पहले ५ को दूसरे ५ के साथ गुणने से २५ हुए, २५ को तीसरे ५ के साथ गुणने से १२५, १२५ को चौथे ५ के साथ गुणने से ६२५ को पाँचवें ५ के साथ गुणने से ३१२५ हुए। - अनुयोगद्वार - टीका, पृ. २३९ / १ ।
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१४१
गुणस्थानाधिकार असंख्यात और अनन्त के मूल-भेद तीन-तीन हैं, जो मिलने से छः होते हैं। जैसे- १. परीत्तासंख्यात, २. युक्तासंख्यात और ३. असंख्यातासंख्यात, ४. परीत्तानन्त, ५. युक्तानन्त और ६. अनन्तानन्त। असंख्यात के तीनों भेद के जघन्य, मध्यम और उत्कृष्ट भेद करने से नौ और इस तरह अनन्त के भी नौ उत्तर भेद होते हैं, जो ७१ वी गाथा में दिखाये हुए हैं। ____ उक्त छह मूल भेदों से दूसरे का अर्थात् युक्तासंख्यात का अभ्यास करने से नौ उत्तर-भेदों में से सातवाँ असंख्यात अर्थात् जघन्य असंख्यातासंख्यात होता है। जघन्य असंख्यातासंख्यात में से एक घटाने पर पीछे का उत्कृष्ट भेद अर्थात् उत्कृष्ट युक्तासंख्यात होता है। जघन्य युक्तासंख्यात और उत्कृष्ट युक्तासंख्यात के बीच की सब संख्याएँ मध्यम युक्तासंख्यात हैं।
उक्त छह मूल भेदों में से तीसरे का अर्थात् असंख्यातासंख्यात का अभ्यास करने से अनन्त के नौ उत्तर भेदों में से प्रथम अनन्त अर्थात् जघन्य परीत्तानन्त होता है। जघन्य परीत्तानन्त में से एक संख्या घटाने पर उत्कृष्ट असंख्यातासंख्यात होता है। जघन्य असंख्यातासंख्यात और उत्कृष्ट असंख्यातासंख्यात के बीच की सब संख्याएँ मध्यम असंख्यातासंख्यात हैं। ___ चौथे मूल भेद का अर्थात् परीत्तानन्त का अभ्यास करने से अनन्त का चौथा उत्तर भेद अर्थात् जघन्य युक्तानन्त होता है। एक कम जघन्य युक्तानन्त उत्कृष्ट परीत्तानन्त है। जघन्य परीत्तानन्त तथा उत्कृष्ट परीत्तानन्त के बीच की सब संख्याएँ मध्यम परीत्तानन्त हैं।
पाँचवें मूल भेद का अर्थात् युक्तानन्त का अभ्यास करने से अनन्त का सातवाँ उत्तर भेद अर्थात् जघन्य अनन्तानन्त होता है। इसमें से एक कम करने पर उत्कृष्ट युक्तानन्त होता है। जघन्य युक्तानन्त और उत्कृष्ट युक्तानन्त के बीच की सब संख्याएँ मध्यम युक्तानन्त हैं। जघन्य अनन्तानन्त के आगे की सब संख्याएँ मध्यम अनन्तानन्त ही हैं; क्योंकि सिद्धान्त' मत के अनुसार उत्कृष्ट अनन्तानन्त नहीं माना जाता।।७९॥
असंख्यात तथा अनन्त के भेदों के विषय में कार्मग्रन्थिक मत इय सुत्तुत्तं अन्ने, वग्गियमिक्कसि चउत्थयमसंखं। होइ असंखासंखं, लहु रूपजुयं तु तं मझं।।८।।
१. अनुयोगद्वार, पृ. २३४/१ तथा २४१।
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१४२
चौथा कर्मग्रन्थ रूवूणमाइमं गुरु, तिवरिगउं तं इमे दस रक्खेवे। लोगाकासपएसा, धम्माधम्मेगजियदेसा।।८१।। ठिइ बंधज्झवसाया, अणुभागा जोगच्छेयपलिभागा। दुण्ह य समाण समया, पत्तेयनिगोयए खिवसु।।८२।। पुणरवि तंमिति वग्गिय, परित्तणंत लहु तस्स रासीणं। अन्भासे लहु जुत्ता, णंतं अभव्वजियपमाणं।। ८३।। तव्वग्गे पुण जायइ, णंताणंत लहु तं च तिक्खुत्तो। वग्गसु तह वि न तं हो,-इ णंत खेवे खिवसु छ इमे।।८४।। सिद्धा निगोयजीवा, वणस्सई कालपुग्गला चेव। सब्वमलोगनहं पुण, तिवग्गिउं केवलदुगंमि।। ८५।। खित्ते णंताणंतं, हवेइ जिटुं तु ववहरइ मज्झं। इय सुहुमत्थवियारो, लिहिओ देविंदसूरीहिं।।८६।।
इति सूत्रोक्तमन्ये वर्गितं सकृच्चतुर्थकमसंख्यम्। भवत्यसंख्यासंख्यं लघु रूपयुतं तु तन्मध्यम्।।८०।। रूपोनमादिमं गुरु त्रिवर्गयित्वा तदिमान् दश क्षेपान्। लोकाकाशप्रदेशा धर्माधर्मैकजीवप्रदेशाः।।८।। स्थितिबन्धाध्यवसाया अनुभागा योगच्छेदपरिभागाः। द्वयोश्च समयोः समयाः प्रत्येकनिगोदकाः क्षिप।।८२।। पुनरपि तास्मास्त्रिर्वर्गिते परीतानन्तं लघु तस्य राशीनाम्। अभ्यासे लघु युक्तानन्तमभव्यजीवप्रमाणम्।। ८३।। तद्वर्गे पुनर्जायतेऽनन्तानन्तं लघु तञ्च त्रिकृत्वः। वर्गयस्व तथापि न तद्भवत्यनन्तक्षेपान् क्षिप षडिमान्।।८४।। सिद्धा निगोदजीवा वनस्पतिः कालपुद्गलाश्चैव। सर्वमलोकनभः पुनस्त्रिर्वयित्वा केवलद्विके।।८५।।
१. ये ही दस क्षेप त्रिलोकसार की ४२ से ४४ की गाथाओं में निर्दिष्ट हैं। २. ये ही छह क्षेप त्रिलोकसार की ४९वीं गाथा में वर्णित हैं।
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गुणस्थानाधिकार
१४३
क्षिप्तेऽनन्तानन्तं भवति ज्येष्ठं तु व्यवहरति मध्यम्।
झत सूक्ष्माथविचारो लिखितो देवेन्द्रसूरिभिः।। ८६।।
अर्थ-पीछे सूत्रानुसारी मत कहा गया है। अब अन्य आचार्यों का मत कहा जाता है। चतुर्थ असंख्यात अर्थात् जघन्य युक्तासंख्यात का एक बार वर्ग करने से जघन्य असंख्यातासंख्यात होता है। जघन्य असंख्यातासंख्यात में एक संख्या मिलाने से मध्यम असंख्यातासंख्यात होता है।।८०॥
जघन्य असंख्यातासंख्यात में से एक संख्या घटा दी जाय तो पीछे का गुरु अर्थात् उत्कृष्ट युक्तासंख्यात होता है। जघन्य असंख्यातासंख्यात का तीन बार' वर्ग कर नीचे लिखी दसरे असंख्यात संख्यायें उसमें मिलाना। (१) लोकाकाश के प्रदेश, (२) धर्मास्तिकाय के प्रदेश, (३) अधर्मास्तिकाय १. किसी संख्या का तीन वार वर्ग करना हो तो उस संख्या का वर्ग करना, वर्ग-जन्य
संख्या का वर्ग करना और द्वितीय वर्ग-जन्य संख्या का भी वर्ग करना। उदाहरणार्थ५ का तीन बार वर्ग करना हो तो ५का वर्ग २५, २५का वर्ग ६२५का वर्ग ३९०६२५; यह पाँच का तीन बार वर्ग हुआ। लोककाश, धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय और एक जीव, इन चारों के प्रदेश असंख्यात-असंख्यात और आपस में तुल्य है।
ज्ञानावरणीय आदि प्रत्येक कर्म की स्थिति के जघन्य से उत्कृष्ट पर्यन्त समयभेद से असख्यात भेद हैं। जैसे-ज्ञानावरणीय की जघन्य स्थिति अन्तर्मुहूर्त-प्रमाण और उत्कृष्ट स्थिति तीस कोटाकोटी सागरोपम-प्रमाण है। अन्तर्मुहूर्त से एक समय अधिक, दो समय अधिक, तीन समय अधिक, इस तरह एक-एक समय बढ़ते-बढ़ते एक समय कम तीस कोटाकोटी सागरोपम तक की सब स्थितियाँ मध्यम हैं। अन्तर्महर्त
और तीस कोटाकोटी सागरोपम के बीच में असंख्यात समयों का अन्तर हैं, इसलिये जघन्य और उत्कृष्ट स्थिति एक-एक प्रकार की होने पर भी उसमें मध्यम स्थितियाँ मिलाने से ज्ञानावरणीय की स्थिति के असंख्यात भेद होते हैं। अन्य कर्मों की स्थिति के विषय में भी इसी तरह समझ लेना चाहिये। हर एक स्थिति के बन्ध में कारणभूत अध्यवसायों की संख्या असंख्यात लोकाकाश के प्रदेशों के बराबर कही हुई है। 'पइठिइ संखलोगसमा। -गा. ५५, देवेन्द्रसूरि-कृत पञ्चम कर्मग्रन्थ।
इस जगह सब स्थिति-बन्ध के कारणभूत अध्यवसायों की संख्या विवक्षित है।
अनुभाग अर्थात् रस का कारण काषायिक परिणाम है। काषायिक परिणाम अर्थात् अध्यवसाय के तीव्र तीव्रतर, तीव्रतम, मन्द, मन्दतर, मन्दतम आदि रूप से असंख्यात भेद हैं। एक-एक काषायिक परिणाम में एक-एक अनुभाग-स्थान का बन्ध होता है; क्योंकि एक काषायिक परिणाम से गृहीत कर्म परमाणुओं के रस-स्पर्धकों को ही शास्त्र में अनुभाग बन्धस्थान कहा है। देखिये, कम्मपयडीकी ३१वीं गाथा श्रीयशोविजयजीकृत टीका। इसलिये काषायिक परिणाम-जन्य अनुभाग स्थान भी काषायिक परिणाम के तुल्य अर्थात् असंख्यात ही है। प्रसंगत: यह बात जाननी चाहिये कि प्रत्येक स्थिति
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चौथा कर्मग्रन्थ के प्रदेश, (४) एक जीव के प्रदेश, (५) स्थिति-बन्ध-जनक अध्यवसाय-स्थान, (६) अनुभाग-विशेष, (७) योग के निर्विभाग अंश, (८) अवसर्पिणी और उत्सर्पिणी, इन दो काल के समय, (९) प्रत्येक शरीर और (१०) निगोद शरीर।।८१-८२॥ ___ उक्त दस संख्याएँ मिलाकर फिर उसका तीन बार वर्ग करना। वर्ग करने से जघन्य परीत्तानन्त होता है। जघन्य परीत्तानन्त का अभ्यास करने से जघन्य युक्तानन्त होता है। यही अभव्य जीवों का परिमाण है।।८५।।
उसका अर्थात् जघन्य युक्तानन्त का वर्ग करने से जघन्य अनन्तानन्त होता है। जघन्य अनन्तानन्त का तीन बार वर्ग करने से भी वह उत्कृष्ट अनन्तानन्त नहीं बनता। इसलिये तीन बार वर्ग करके उसमें नीचे लिखी छः अनन्त संख्याएँ मिलाना।।८४॥
१. सिद्ध, २. निगोद के जीव, ३. वनस्पतिकायिक जीव, ४. तीनों काल के .समय, ५. सम्पूर्ण पुद्गल-परमाणु और ६. समग्र आकाश के प्रदेश, इन छ: की अनन्त संख्याओं को मिलाकर फिर से तीन बार वर्ग करना और उसमें केवल-द्विक के पर्यायों की संख्या को मिलाना। शास्त्र में अनन्तानन्त का व्यवहार किया जाता है, सो मध्यम श्रवणतानन्त का, जघन्य या उत्कृष्ट का नहीं। इस सूक्ष्मार्थविचार नामक प्रकरण को श्रीदेवेन्द्रसूरि ने लिखा है।।८५-८६॥
भावार्थ-गा. ७१ से ७९ तक में संख्या का वर्णन किया है, वह सैद्धान्तिक मत के अनुसार है। अब कार्मग्रन्थिक मत के अनुसार वर्णन किया जाता है। संख्या के इक्कीस भेदों में से पहले सात भेदों के स्वरूप के विषय
बन्ध में असंख्यात अनुभाग-स्थान होते हैं। क्योंकि जितने अध्यवसाय उतने ही अनुभागस्थान होते हैं और प्रत्येक स्थिति बन्ध में कारणभूत अध्यवसाय असंख्यात लोकाकाशप्रदेश-प्रमाण है।
बोग के निर्विभाग अंश असंख्यात हैं। जिस अंश का विभाग केवलज्ञान से भी न किया जा सके, उसको निर्विभाग अंश कहते हैं। इस जगह निगोद से संज्ञी पर्यन्त सब जीवों के योग सम्बन्धी निर्विभाग अंशों की संख्या इष्ट हैं। ___ जिस शरीर का स्वामी एक ही जीव हो, वह 'प्रत्येक शरीर' है। प्रत्येक शरीर असंख्यात हैं; क्योंकि पृथ्वीकायिक से लेकर त्रसकायिक अर्पन्त सब प्रकार के प्रत्येक जीव मिलाने से असंख्यात ही हैं।
जिस एक शरीर के धारण करने वाले अनन्त जीव हों, वह 'निगोदशरीर'। ऐसे निगोदशरीर असंख्यात ही हैं। १. मूल के 'अलोक' पद से लोक और अलोक दोनों प्रकार का आकाश विवक्षित है। २. शेयपर्याय अनन्त होने से ज्ञानपर्याय भी अनन्त है।
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गुणस्थानाधिकार
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में सैद्धान्तिक और कार्मग्रन्थिक आचार्यों का कोई मतभेद नहीं है; आठवें आदि सब भेदों के स्वरूप के विषय में मतभेद है।
कार्मग्रन्थिक आचार्यों का कथन है कि जघन्य युक्तासंख्यात का वर्ग करने से जघन्य असंख्यातासंख्यात होता है । जघन्य असंख्यातासंख्यात का तीन बार वर्ग करना और उसमें लोकाकाश-प्रदेश आदि की उपर्युक्त दस असंख्यात संख्याएँ मिलाना, मिलाकर फिर तीन बार वर्ग करना। वर्ग करने से जो संख्या होती है, वह जघन्य परीत्तानन्त है।
जघन्य परीत्तानन्त का अभ्यास करने से जघन्य युक्तानन्त होता है। शास्त्र में अभव्य जीव अनन्त कहे गये हैं, सो जघन्य युक्तानन्त समझना चाहिये ।
जघन्य युक्तानन्त का एक बार वर्ग करने से अनन्तानन्त होता है। जघन्य अनन्तानन्त का तीन बार वर्ग कर उसमें सिद्ध आदि की उपर्युक्त छः संख्याएँ मिलानी चाहिये। फिर उसका तीन बार वर्ग करके उसमें केवलज्ञान और केवलदर्शन के सम्पूर्ण पर्यायों की संख्या को मिलाना चाहिये। मिलाने से जो संख्या होती है, वह 'उत्कृष्ट अनन्तानन्त' है।
मध्यम या उत्कृष्ट संख्या का स्वरूप जानने की रीति में सैद्धान्तिक और कार्मग्रन्थिकों में मतभेद नहीं है, पर ७९ वीं तथा ८०वीं गाथा में बतलाये हुए दोनों मत के अनुसार जघन्य असंख्यातासंख्यात का स्वरूप भिन्न-भिन्न हो जाता है, अर्थात् सैद्धान्तिक मत से जघन्य युक्तासंख्यात का अभ्यास करने पर जघन्य असंख्यातासंख्यात बनता है और कार्मग्रन्थिक मत से जघन्य युक्तासंख्यात का वर्ग करने पर जघन्य असंख्यातासंख्यात बनता है; इसलिये मध्यम युक्तासंख्यात, उत्कृष्ट युक्तासंख्यात आदि आगे की सब मध्यम और उत्कृष्ट संख्याओं का स्वरूप भिन्न-भिन्न बन जाता है। जघन्य असंख्यातासंख्यात में से एक घटाने पर उत्कृष्ट युक्तासंख्यात होता है । जघन्य युक्तासंख्यात और उत्कृष्ट युक्तासंख्यात के बीच की सब संख्याएँ मध्यम युक्तासंख्यात हैं। इसी प्रकार आगे भी किसी जघन्य संख्या में से एक घटाने पर उसके पीछे की उत्कृष्ट संख्या बनती है और जघन्य में एक, दो आदि की संख्या मिलाने से उसके सजातीय उत्कृष्ट तक की बीच की संख्याएँ मध्यम होती हैं।
सभी जघन्य और सभी उत्कृष्ट संख्याएँ एक-एक प्रकार की हैं; परन्तु मध्य संख्याएँ एक प्रकार की नहीं हैं। मध्यम संख्यात के संख्यात भेद, मध्यम असंख्यात के असंख्यात भेद और मध्यम अनन्त के अनन्त भेद हैं, क्योंकि
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चौथा कर्मग्रन्थ
जघन्य या उत्कृष्ट संख्या का मतलब किसी एक नियत संख्या से ही है, पर मध्यम के विषय में यह बात नहीं। जघन्य और उत्कृष्ट संख्यात के बीच संख्यात इकाइयाँ हैं, जघन्य और उत्कृष्ट संख्यात के बीच असंख्यात इकाइयाँ हैं एवं जघन्य और उत्कृष्ट अनन्त के बीच अनन्त इकाइयाँ हैं, जो क्रमश: 'मध्यम संख्यात', 'मध्यम असंख्यात' और 'मध्यम अनन्त' कहलाती हैं।
शास्त्र में जहाँ कहीं अनन्तानन्त का व्यवहार किया गया है, वहाँ सब जगह मध्यम अनन्तानन्त से ही मतलब है।
(उपसंहार) इस प्रकरण का नाम 'सूक्ष्मार्थविचार' रक्खा है; क्योंकि इसमें अनेक सूक्ष्म विषयों पर विचार प्रगट किये गये हैं।।८०-८६।।
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प्रथमाधिकार के परिशिष्ट
परिशिष्ट 'क' पृष्ठ ५ के 'लेश्या' शब्द पर
१. लेश्या के (क) द्रव्य और (ख) भाव, इस प्रकार दो भेद हैं।
(क) द्रव्यलेश्या, पुद्गल-विशेषात्मक है। इसके स्वरूप के सम्बन्ध में मुख्यतया तीन मत हैं। (१) कर्मवर्गणा-निष्पन्न, (२) कर्म-निष्यन्द और (३) योग-परिणाम।
पहले मत का यह मानना है कि लेश्या-द्रव्य, कर्म-वर्गणा से बने हुये हैं; फिर भी वे आठ कर्म से भिन्न ही हैं, जैसा कि कार्मणशरीर। यह मत उत्तराध्ययन, अ. ३४ की टीका, पृ. ६५० पर उल्लिखित है।
दूसरे मत का आशय यह है कि लेश्या-द्रव्य, कर्म-निष्यन्दरूप (बध्यमान कर्म-प्रवाहरूप) है। चौदहवें गुणस्थान में कर्म के होने पर भी उसका निष्यन्द न होने से लेश्या के अभाव की उपपत्ति हो जाती है। यह मत उक्त पृष्ठ पर ही निर्दिष्ट है, जिसको टीकाकार वादिवैताल श्रीशान्तिसूरि ने 'गुरवस्तु व्याचक्षते' कहकर लिखा है।
पूरा मत श्रीहरिभद्रसूरि आदि का है। इस मत का आशय श्रीमलयगिरिजी ने पन्नवणा पद १७ की टीका, पृ. ३३० पर स्पष्ट बतलाया है। वे लेश्याद्रव्य को योगवर्गणा-अन्तर्गत स्वतन्त्र द्रव्य मानते हैं। उपाध्याय श्रीविजयविजय जी ने अपने आगम-दोहनरूप लोकप्रकाश, सर्ग ३, श्लोक २८५ में इस मत को ही ग्राह्य ठहराया है।
(ख) भावलेश्या, आत्मा का परिणाम-विशेष है, जो सक्लेश और योग से अनुगत है। सक्लेश के तीव्र, तीव्रतर, तीव्रतम, मन्द, मन्दतर, मन्दतम आदि अनेक भेद होने से वस्तुत: भावलेश्या, असंख्य प्रकार की है तथापि संक्षेप में छह विभाग करके शास्त्र में उसका स्वरूप दिखाया है। देखिये, गा. १२वीं। छह भेदों का स्वरूप समझने के लिये शास्त्र में नीचे लिखे दो दृष्टान्त किये गये हैं
- न
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चौथा कर्मग्रन्थ
___ पहला--कोई छः पुरुष जम्बूफल (जामुन) खाने की इच्छा करते हुये चले जा रहे थे, इतने में जम्बूवृक्ष को देख उनमें से एक पुरुष बोला-'लीजिये, जम्बवृक्ष तो आ गया। अब फलों के लिये ऊपर चढ़ने की अपेक्षा फलों से लदी हुई बड़ी-बड़ी शाखावाले इस वृक्ष को काट गिराना ही अच्छा है।'
यह सुनकर दूसरे ने कहा—'वृक्ष काटने से क्या लाभ? केवल शाखाओं को काट दो।'
तीसरे पुरुष ने कहा—'यह भी ठीक नहीं, छोटी-छोटी शाखाओं के काट लेने से भी तो काम निकाला जा सकता है।'
चौथे ने कहा- 'शाखाएँ भी क्यों काटना? फलों के गुच्छों को तोड़ लीजिये।'
पाँचवाँ बोला— 'गुच्छों से क्या प्रयोजन। उनमें से कुछ फलों को ही लेना अच्छा है।'
अन्त में छठे पुरुष ने कहा—'ये सब विचार निरर्थक हैं; क्योंकि हम लोग जिन्हें चाहते हैं, वे फल तो नीचे भी गिरे हये हैं, क्या उन्हीं से अपनी प्रयोजनसिद्धि नहीं हो सकती है?'
दूसरा--कोई छः पुरुष धन लूटने के इरादे से जा रहे थे। रास्ते में किसी गाँव को पाकर उनमें से एक बोला-'इस गाँव को तहस-नहस कर दो-मनुष्य, पशु, पक्षी, जो कोई मिले, उन्हें मारो और धन लूट लो।'
यह सुनकर दूसरा बोला-'पशु, पक्षी आदि क्यों मारना? केवल विरोध करनेवाले मनुष्यों को मारो।'
तीसरे ने कहा- 'बेचारी स्त्रियों की हत्या क्यों करना? पुरुषों को मार दो।' चौथे ने कहा-'सब पुरुषों को नहीं; जो सशस्त्र हों, उन्हीं को मारो।'
पाँचवें ने कहा- 'जो सशस्त्र पुरुष भी विरोध नहीं करते, उन्हें क्यों मारना।' ___अन्त में छठे पुरुष ने कहा-'किसी को मारने से क्या लाभ? जिस प्रकार से धन अपहरण किया जा सके, उस प्रकार से उसे उठा लो और किसी को मारो मत। एक तो धन लूटना और दूसरे उसके मालिकों को मारना, यह ठीक नहीं।'
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इन दो दृष्टान्तों से लेश्याओं का स्वरूप स्पष्ट जाना जाता है। प्रत्येक दृष्टान्त के छ:-छ: पुरुषों से पूर्व-पूर्व पुरुष के परिणामों की अपेक्षा उत्तर-उत्तर पुरुष के परिणाम शुभ, शुभतर और शुभतम पाये जाते हैं-उत्तर-उत्तर पुरुष के परिणामों में संक्लेश की न्यूनता और मृदुता की अधिकता पाई जाती है। प्रथम पुरुष के परिणाम को 'कृष्णलेश्या', दूसरे के परिणाम को 'नीललेश्या', इस प्रकार क्रम से छठे पुरुष के परिणाम को 'शुक्लेश्या' समझना चाहिये। आवश्यक हारिभद्रीय वृत्ति पृ. २४५/१ तथा लोक.प्र., स. ३, श्लो. ३६३-३८०। ___लेश्या-द्रव्य के स्वरूपसम्बन्धी उक्त तीनों मत के अनुसार तेरहवें गुणस्थान पर्यन्त भावलेश्या का सद्भाव चाहिये। यह सिद्धान्त गोम्मटसार-जीवकाण्ड को भी मान्य है, क्योंकि उसमें योग-प्रवृत्ति को लेश्या कहा है। यथा
'अयदोत्ति छलेस्साओ, सुहतियलेस्सा दु देसविरदतिये। तत्तो सुक्का लेस्सा, अजोगिठाणं अलेस्सं तु।।५३१।।'
सर्वार्थसिद्धि में और गोम्मटसार के स्थानान्तर में कषायोदय-अनुरञ्जितयोगप्रवृत्ति को लेश्या' कहा है। यद्यपि इस कथन से दसवें गुणस्थान पर्यन्त ही लेश्या होना पाया जाता है, पर यह कथन अपेक्षा-कृत होने के कारण पूर्व-कथन के विरुद्ध नहीं है। पूर्व कथन में केवल प्रकृति-प्रदेशबन्ध के निमित्तभूत परिणाम लेश्यारूप से विवक्षित हैं और इस कथन में स्थिति-अनुभाग आदि चारों बन्धों के निमित्तभूत परिणाम लेश्यारूप से विवक्षित हैं, केवल प्रकृति-प्रदेश-बन्ध के निमित्त भूत परिणाम नहीं। यथा
'भावलेश्या कषायोदयरञ्जिता योग-प्रवृत्तिरिति कृत्वा औदयिकीत्युच्यते।'
'जोगपउत्ती लेस्सा, कसायउदयाणुरंजिया होइ। तत्तो दोण्णं कज्जं, बंधचउक्कं समुट्ठि।।४८९।।'
-जीवकाण्ड। द्रव्यलेश्या के वर्ण-गन्ध आदि का विचार तथा भावलेश्या के लक्षण आदि का विचार उत्तराध्ययन, अ. ३४ में है। इसके लिये प्रज्ञापना-लेश्यापद, आवश्यक, लोकप्रकाश आदि आकर ग्रन्थ श्वेताम्बर-साहित्य में हैं। उक्त दो दृष्टान्तों में से पहला दृष्टान्त, जीवकाण्ड गा. ५०६-५०७ में है। लेश्या की कुछ विशेष बातें जानने के लिये जीवकाण्ड का लेश्यामार्गणाधिकार (गा. ४८८५५५) देखने योग्य है।
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__जीवों के आन्तरिक भावों की मलिनता तथा पवित्रता के तर-तम-भाव का सूचक, लेश्या का विचार, जैसा जैनशास्त्र में है; कुछ उसी के समान, छः जातियों का विभाग, मङ्खलीगोशालपुत्र के मत में है, जो कर्म की शुद्धि-अशुद्धि को लेकर कृष्ण-नील आदि छ: वर्गों के आधार पर किया गया है। इसका वर्णन, 'दीघनिकाय-सामञफलसुत्त' में है। _ 'महाभारत' के १२,२८६ में भी छ: 'जीव-वर्ण' दिये हैं, जो उक्त विचार से कुछ मिलते-जुलते हैं।
'पातञ्जलयोगदर्शन' के ४,७ में भी ऐसी कल्पना है; क्योंकि उसमें कर्म के चार विभाग करके जीवों के भावों की शुद्धि-अशुद्धि का पृथक्करण किया है। इसके लिये देखिये, दीघनिकाय का मराठी-भाषान्तर, पृ. ५६।
परिशिष्ट 'ख' पृ. १०, पंक्ति १८ के ‘पञ्चेन्द्रिय' शब्द पर
जीव के एकेन्द्रिय आदि पाँच भेद किये गये हैं, जो द्रव्येन्द्रिय के आधार पर है; क्योंकि भावेन्द्रियाँ तो सभी संसारी जीवों में पाँचों ही होती हैं। यथा'अहवा पडुच्च लद्धिं,-दियं पि पंचेंदिया सव्वे।। २९९९।।'
–विशेषावश्यक। अर्थात् लब्धीन्द्रिय की अपेक्षा से सभी संसारी जीव पञ्चेन्द्रिय हैं। 'पंचेदिउव्व बउलो, नरो व्व सव्व-विसओवलंभाओ।' इत्यादि।
-विशेषावश्यक, गा. ३००१। अर्थात् बस विषय का ज्ञान होने की योग्यता के कारण बहुल-वृक्ष मनुष्य की तरह पाँच इन्द्रियों वाला है।
यह ठीक है कि द्वीन्द्रिय आदि की भावेन्द्रिय, एकेन्द्रिय आदि की भावेन्द्रिय से उत्तरोत्तर व्यक्त-व्यक्ततर ही होती है। पर इसमें कोई सन्देह नहीं कि जिनको द्रव्येन्द्रियाँ, पाँच पूरी नहीं हैं, उन्हें भी भावेन्द्रियाँ तो सभी होती ही हैं। यह बात आधुनिक विज्ञान से भी प्रमाणित है। डॉ. जगदीशचन्द्र बसु की खोज ने वनस्पति में स्मरणशक्ति का अस्तित्व सिद्ध किया है। स्मरण, जो कि मानसशक्ति का कार्य है, वह यदि एकेन्द्रिय में पाया जाता है तो फिर उसमें अन्य इन्द्रियाँ,
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परिशिष्ट
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जो कि मन से नीचे की श्रेणि की मानी जाती है, उनके होने में कोई बाधा नहीं । इन्द्रिय के सम्बन्ध में प्राचीन काल में विशेष - दशीं महात्माओं ने बहुत विचार किया है, जो अनेक जैन-ग्रन्थों में उपलब्ध है। उसका कुछ अंश इस प्रकार है
इन्द्रियाँ दो प्रकार की हैं- १. द्रव्यरूप और २. भावरूप। द्रव्येन्द्रिय, पुद्गल - जन्य होने से जड़रूप है; पर भावेन्द्रिय, ज्ञानरूप है, क्योंकि वह चेतनाशक्ति पर्याय है।
(१) द्रव्येन्द्रिय, अङ्गोपाङ्ग और निर्माण नामकर्म के उदय-जन्य है। इसके दो भेद हैं
(क) निर्वृत्ति और (ख) उपकरण ।
(क) इन्द्रिय के आकार का नाम 'निर्वृत्ति' है। निर्वृत्ति के भी (१) बाह्य और (२) आभ्यन्तर, ये दो भेद हैं। (१) इन्द्रिय के बाह्य आकार को 'बाह्यनिवृत्ति' कहते हैं और (२) भीतरी आकार को 'आभ्यन्तरनिर्वृत्ति' । बाह्य भाग तलवार के समान है और आभ्यन्तर भाग तलवार की तेजधार के समान, जो अत्यन्त स्वच्छ परमाणुओं का बना हुआ होता है। आभ्यन्तरनिर्वृत्ति का यह पुद्गल स्वरूप प्रज्ञापनासूत्र - इन्द्रियपद की टीका पृ. २९४ / १ के अनुसार है। आचाराङ्गवृत्ति पृ. १०४ में उसका स्वरूप चेतनामय बतलाया है।
आकार के सम्बन्ध में यह बात जाननी चाहिये कि त्वचा की आकृति अनेक प्रकार की होती है, पर उसके बाह्य और आभ्यन्तर आकार में जुदाई नहीं है। किसी प्राणी की त्वचा का जैसा बाह्य आकार होता है, वैसा ही आभ्यन्तर आकार होता है । परन्तु अन्य इन्द्रियों के विषय में ऐसा नहीं है - त्वचा को छोड़ अन्य सब इन्द्रियों के आभ्यन्तर आकार, बाह्य आकार से नहीं मिलते। सब जाति के प्राणियों की सजातीय इन्द्रियों के आभ्यन्तर आकार, एक तरह के माने हुये हैं। जैसे - कान का आभ्यन्तर आकार, कदम्ब - पुष्प - जैसा, आँख का मसूर के दानाजैसा, नाक का अतिमुक्तक के फूल - जैसा और जीभ का छुरा जैसा है। किन्तु बाह्य आकार, सब जाति में भिन्न-भिन्न देखे जाते हैं। उदाहरणार्थ – मनुष्य, हाथी, घोड़ा, बैल, बिल्ली, चूहा आदि के कान, आँख, नाक, जीभ को देखिये ।
(ख) आभ्यन्तरनिर्वृत्ति की विषय- ग्रहण - शक्ति को 'उपकरणेन्द्रिय' कहते हैं। (२) भावेन्द्रिय दो प्रकार की है- १. लब्धिरूप और २. उपयोगरूप।
(१) मतिज्ञानावरण के क्षयोपशम को — चेतना - शक्ति की योग्यता- विशेष को— 'लब्धिरूप भावेन्द्रिय' कहते हैं । (२) इस लब्धिरूप भावेन्द्रिय के अनुसार
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चौथा कर्मग्रन्थ
आत्मा की विषय-ग्रहण में जो प्रवृत्ति होती है, उसे 'उपयोगरूप भावेन्द्रिय' कहते हैं।
इस विषय को विस्तारपूर्वक जानने के लिये प्रज्ञापना-पद १५, पृ. २९३; तत्त्वार्थ-अध्याय २, सू. १७ - १८ तथा वृत्ति; विशेषाव., गा. २९९३-३००३ तथा लोकप्रकाश-सर्ग ३, श्लोक ४६४ से आगे देखना चाहिये।
परिशिष्ट 'ग'
पृ. १०, पंक्ति १९ के 'संज्ञा' शब्द पर
संज्ञा का मतलब आभोग (मानसिक क्रिया - विशेष ) से है। इसके (क) ज्ञान और (ख) अनुभव, ये दो भेद हैं।
(क) मति, श्रुत आदि पाँच प्रकार का ज्ञान 'ज्ञानसंज्ञा' है।
(ख) अनुभवसंज्ञा के (१) आहार, (२) भय, (३) मैथुन, (४) परिग्रह, (५) क्रोध, (६) मान, (७) माया, (८) लोभ, (९) ओघ, (१०) लोक, (११) मोह, (१२) धर्म, (१३) सुख, (१४) दुःख, (१५) जुगुप्सा और (१६) शोक, ये सोलह भेद हैं। आचाराङ्गनिर्युक्ति, गा. ३८-३९ में तो अनुभवसंज्ञा के ये सोलह भेद किये गये हैं। लेकिन भगवती - शतक ७, उद्देश ८ में तथा प्रज्ञापनापद ८ में इनमें से पहले दस ही भेद, निर्दिष्ट हैं।
ये संज्ञाये सब जीवों में न्यूनाधिक प्रमाण में पाई जाती हैं; वे अन्य संज्ञाओं की अपेक्षा से । एकेन्द्रिय से लेकर पञ्चेन्द्रिय पर्यन्त के जीवों में चैतन्य का विकास क्रमशः अधिकाधिक है। इस विकास के तर-तम-भाव को समझाने के लिये शास्त्र में इसके स्थूल रीति पर चार विभाग किये गये हैं ।
(१) पहले विभाग में ज्ञान का अत्यन्त अल्प विकास विवक्षित है। यह विकास, इतना अल्प है कि इस विकास से युक्त जीव, मूच्छित की तरह चेष्टारहित होते हैं। इस अव्यक्ततर चैतन्य को 'ओषसंज्ञा' कहा गया है। एकेन्द्रिय जीव, ओघसंज्ञा वाले ही हैं।
(२) दूसरे विभाग में विकास की इतनी मात्रा विवक्षित है कि जिससे कुछ भूतकाल — सुदीर्घ भूतकाल का नहीं - स्मरण किया जाता है और जिससे इष्ट विषयों में प्रवृत्ति तथा अनिष्ट विषयों से निवृत्ति होती है। इस प्रवृत्ति - निवृत्तिकारी ज्ञान को 'हेतुवादोपदेशिकी संज्ञा' कहा है। द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय और सम्मूच्छिम पञ्चेन्द्रिय जीव, हेतुवादोपदेशिक्री संज्ञा वाले हैं।
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(३) तीसरे विभाग में इतना विकास विवक्षित है कि जिससे सुदीर्घ भूतकाल में अनुभव किये हुये विषयों का स्मरण और स्मरण द्वारा वर्तमान काल के कर्त्तव्यों का निश्चय किया जाता है। यह ज्ञान, विशिष्ट मन की सहायता से होता है। इस ज्ञान को 'दीर्घकालोपदेशिकी संज्ञा' कहा गया है। देव, नारक और गर्भज मनुष्य- तिर्यञ्च, दीर्घकालोपदेशिकी संज्ञावाले हैं।
(४) चौथे विभाग में विशिष्ट श्रुतज्ञान विवक्षित है। यह ज्ञान इतना शुद्ध होता है कि सम्यक्त्वयों के अतिरिक्त अन्य जीवों में इसका संभव नहीं है। इस विशुद्ध ज्ञान को 'दृष्टिवादोपदेशिकी संज्ञा' कहा है।
शास्त्र में जहाँ कहीं संज्ञी - असंज्ञी का उल्लेख है, वहाँ सब जगह असंज्ञी का मतलब ओघसंज्ञावाले और हेतुवादोपदेशिका की संज्ञावाले जीवों से है तथा संज्ञी का मतलब सब जगह दीर्घ कालोपदेशिकी संज्ञा वालों से है।
इस विषय का विशेष विचार तत्त्वार्थ- अ. २, सू. २५ वृत्ति, नन्दी सू. ३९, विशेषावश्यक गा. ५०४ - ५२६ और लोकप्र., - स. ३, श्लो. ४४२४६३ में है।
संज्ञी - असंज्ञी के व्यवहार के विषय में दिगम्बर - सम्प्रदाय में श्वेताम्बर की अपेक्षा थोड़ा-सा भेद है । उसमें गर्भज-तिर्यञ्चों को संज्ञीमात्र न मानकर संज्ञी तथा असंज्ञी माना है। इसी तरह सम्मूच्छिम तिर्यञ्च को सिर्फ असंज्ञी न मानकर संज्ञी - असंज्ञी उभयरूप माना है । ( जीव, गा. ७९) इसके सिवाय यह बात ध्यान देने योग्य है कि श्वेताम्बर - ग्रन्थों में हेतुवादोंपदेशिकी आदि जो तीन संज्ञायें वर्णित हैं, उनका विचार दिगम्बरीय प्रसिद्ध ग्रन्थों में दृष्टि गोचर नहीं होता ।
परिशिष्ट 'घ'
पृ. ११ के 'अपर्याप्त' शब्द पर
(क) अपर्याप्त के दो प्रकार हैं- (१) लब्धि- अपर्याप्त और (२) करणअपर्याप्त। वैसे ही (ख) पर्याप्त के भी दो भेद हैं- (१) लब्धि - पर्याप्त और (२) करण- पर्याप्त।
(क) १ जो जीव, अपर्याप्त नामकर्म के उदय के कारण ऐसी शक्तिवाले हों, जिससे कि स्वयोग्य पर्याप्तियों को पूर्ण किये बिना ही मर जाते हैं, वे 'लब्धिअपर्याप्त' हैं।
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२. परन्तु करण-अपर्याप्त के विषय में यह बात नहीं, वे पर्याप्त नामकर्म के भी उदयवाले होते हैं। अर्थात् चाहे पर्याप्त नामकर्म का उदय हो या अपर्याप्त नामकर्म का, पर जब तक करणों की (शरीर, इन्द्रिय आदि पर्याप्तियों की) समाप्ति न हो, तब तक जीव 'करञ्च-अपर्याप्त' कहे जाते हैं।
(ख) १. जिनको पर्याप्त नामकर्म का उदय हो और इससे जो स्वयोग्य पर्याप्तियों को पूर्ण करने के बाद ही मरते हैं, पहले नहीं, वे 'लब्धि-पर्याप्त' हैं।
२. करण-पर्याप्तों के लिये यह नियम नहीं है कि वे स्वयोग्य पर्याप्तियों को पूर्ण करके ही मरते हैं। जो लब्धि-अपर्याप्त हैं, वे भी करण-पर्याप्त होते ही हैं; क्योंकि आहारपर्याप्ति बन चुकने के बाद कम से कम शरीरपर्याप्ति बन जाती है, तभी से जीव 'करण-पर्याप्त' माने जाते हैं। यह तो नियम ही है कि लब्धि अपर्याप्त भी कम से कम अहार, शरीर और इन्द्रिय, इन तीन पर्याप्तियों को पूर्ण किये बिना मरते नहीं। इस नियम के सम्बन्ध में श्रीमलयगिरिजी ने नन्दीसूत्र की टीका, पृ. १०५ में यह लिखा है
'यस्मादागामिभवायुर्बध्वा स्रियन्ते सर्व एव देहिनः तच्चाहारशरीरेन्द्रियपर्याप्तिपर्याप्तानामेव बध्यत इति'
अर्थात् सभी प्राणी अगले भव की आयु को बाँधकर ही मरते हैं, बिना बाँधे नहीं मरते। आयु तभी बाँधी जा सकती है, जब कि आहार, शरीर और इन्द्रिय, ये तीन पर्याप्तियाँ पूर्ण हो चुकी हों।
इसी बात का खुलासा श्रीविनयविजय जी ने लोकप्रकाश, सर्ग ३, श्लो. ३१ में इस प्रकार किया है-जो जीव लब्धि-अपर्याप्त है, वह भी पहली तीन पर्याप्तियों को पूर्ण करके ही अग्रिम भव की आयु बाँधता है। अन्तर्मुहूर्त तक आयु-बन्ध करके फिर उसका जघन्य अबाधाकाल, जो अन्तर्मुहूर्त का माना गया है, उसे वह बिताता है; इसके बाद मरके वह गत्यन्तर में जा सकता है। जो अग्रिम आयु को नहीं बाँधता और उसके अबाधाकाल को पूरा नहीं करता, वह मर ही नहीं सकता।
दिगम्बर-साहित्य में करण-अपर्याप्त के बदले 'निर्वृत्ति अपर्याप्तक' शब्द मिलता है। अर्थ में भी थोड़ा-सा फर्क है। 'निवृत्ति' शब्द का अर्थ शरीर ही किया हुआ है। अतएव शरीरपर्याप्ति पूर्ण न होने तक ही दिगम्बरीय साहित्य जीव को निर्वृत्ति अपर्याप्त कहता है। शरीरपर्याप्ति पूर्ण होने के बाद वह, निवृत्तिअपर्याप्त का व्यवहार करने की सम्मति नहीं देता। यथा
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'पज्जत्तस्सय उदये, णियणियपज्जतिणिट्ठिदो होदि। जाव सरीरमपुण्णं, णिव्वत्तिअपुण्णगो ताव।।१२०।।' -जीवकाण्ड।
सारांश यह कि दिगम्बर-साहित्य में पर्याप्त नामकर्म का उदयवाला ही शरीर-पर्याप्ति पूर्ण न होने तक 'निवृत्ति-अपर्याप्त' शब्द से अभिमत है।
परन्तु श्वेताम्बरीय साहित्य में 'करण' शब्द का ‘शरीर, इन्द्रिय आदि पर्याप्तियाँ', इतना अर्थ किया हुआ मिलता है। यथा
'करणानि शरीराक्षादीनि'। -लोकप्र., स. ३, श्लो. १०।।
अतएव श्वेताम्बरीय सम्प्रदाय के अनुसार जिसने शरीर-पर्याप्ति पूर्ण की है, पर इन्द्रिय पर्याप्ति पूर्ण नहीं की है, वह भी ‘करण-अपर्याप्त' कहा जा सकता है। अर्थात् शरीररूप करण पूर्ण करने से 'करण-पर्याप्त' और इन्द्रियरूप करण पूर्ण न करने से 'करण-अपर्याप्त' कहा जा सकता है। इस प्रकार श्वेताम्बरीय सम्प्रदाय की दृष्टि से शरीरपर्याप्ति से लेकर मन:पर्याप्ति पर्यन्त पूर्व-पूर्व पर्याप्ति के पूर्ण होने पर ‘करण पर्याप्त' और 'उत्तरोत्तर पर्याप्ति' के पूर्ण न होने से 'करण अपर्याप्त' कह सकते हैं। परन्तु जब जीव, स्वयोग्य सम्पूर्ण पर्याप्तियों को पूर्ण कर लेवें, तब उसे 'करण-अपर्याप्त' नहीं कह सकते।
पर्याप्ति का स्वरूप-पर्याप्ति, वह शक्ति है, जिसके द्वारा जीव, आहारश्वासोच्छ्वास आदि के योग्य पद्गलों को ग्रहण करता है और गृहीत पदगलों को आहार-आदि रूप में परिणत करता है। ऐसी शक्ति जीव में पुद्गलों के उपचय से बनती है। अर्थात् जिस प्रकार पेट के भीतर के भाग में वर्तमान पुद्गलों में एक तरह की शक्ति होती है, जिससे कि खाया हुआ आहार भिन्न-भिन्न रूप में बदल जाता है; इसी प्रकार जन्मस्थान प्राप्त जीव के द्वारा गृहीत पुद्गलों से ऐसी शक्ति बन जाती है, जो कि आहार आदि पुद्गलों को खल-रस आदि रूप में बदल देती है। वही शक्ति पर्याप्ति है। पर्याप्तिजनक पुद्गलों में से कुछ तो ऐसे होते हैं, जो कि जन्मस्थान में आये हुये जीव के द्वारा प्रथम समय में ही ग्रहण किये हुये होते हैं और कुछ ऐसे भी होते हैं, जो पीछे से प्रत्येक समय में ग्रहण किये जाकर, पूर्व-गृहीत पुद्गलों के संसर्ग से तद्रूप बने हुये होते हैं।
कार्य-भेद से पर्याप्ति के छ: भेद हैं-१. आहारपर्याप्ति, २. शरीरपर्याप्ति, ३. इन्द्रियपर्याप्ति, ४. श्वासोच्छ्वासपर्याप्ति, ५. भाषापर्याप्ति और ६. मनः पर्याप्ति। इनकी व्याख्या पहले कर्मग्रन्थ की ४९वीं गाथा के भावार्थ में पृ. ९७वें से देख लेनी चाहिये।
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इन छ: पर्याप्ति में से पहली चार पर्याप्ति के अधिकारी एकेन्द्रिय ही हैं। द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय और असंज्ञि - पञ्चेन्द्रिय जीव, मनः पर्याप्ति के अतिरिक्त शेष पाँच पर्याप्तियों के अधिकारी हैं। संज्ञि-पञ्चेन्द्रिय जीव छहों पर्याप्तियों के अधिकारी हैं। इस विषय की गाथा, श्री जिनभद्रगणि क्षमाश्रमणकृत बृहत्संग्रहणी में है
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'आहारसरीरिंदिय, - पज्जत्ती आणपाणभासमणो ।
चत्तारि पंच छप्पिय, एगिंदियविगलसंनीणं । । ३४९ । । '
यही गाथा गोम्मटसार - जीवकाण्ड में ११८वें नम्बर पर दर्ज है। प्रस्तुत विषय का विशेष स्वरूप जानने के लिये ये स्थल देखने योग्य हैं
नन्दी, पृ. १०४ - १०५; पञ्चसं, द्वा. १, गा. ५ वृत्ति; लोकप्र., स. ३, श्लो. ७-४२ तथा जीवकाण्ड, पर्याप्ति अधिकार, गा. ११७-१२७/
परिशिष्ट 'च' |
पृष्ठ २१ के 'क्रमभावी' शब्द पर
छद्मस्थ के उपयोग क्रमभावी हैं, इसमें मतभेद नहीं है, पर केवली के उपयोग के सम्बन्ध में मुख्य तीन पक्ष हैं
(१) सिद्धान्त - पक्ष, केवलज्ञान और केवलदर्शन को क्रमभावी मानता है। इसके समर्थक श्रीजिनभद्रगणि क्षमाश्रमण आदि हैं।
(२) दूसरा पक्ष, केवलज्ञान - केवलदर्शन, उभय उपयोग को सहभावी मानता है। इसके पोषक श्रीमल्लवादी तार्किक आदि हैं।
(३) तीसरा पक्ष, उभय उपयोगों का भेद न मानकर उनका ऐक्य मानता है। इसके स्थापक श्रीसिद्धसेन दिवाकर हैं।
तीनों पक्षों की कुछ मुख्य दलीलें क्रमशः नीचे दी जाती हैं
१. (क) सिद्धान्त ( भगवती - शतक १८ और २५ के ६ उद्देश, तथा प्रज्ञापना- पद ३० ) में ज्ञान दर्शन दोनों का अलग-अलग कथन है तथा उनका क्रमभावित्व स्पष्ट वर्णित है। (ख) निर्युक्ति (आ.नि.गा. ९७७-९७६) में केवलज्ञान-केवलदर्शन दोनों का भिन्न-भिन्न लक्षण, उनके द्वारा सर्व विषयक ज्ञान
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तथा दर्शन का होना और युगपत् दो उपयोगों का निषेध स्पष्ट बतलाया है। (ग) केवलज्ञान-केवलदर्शन के भिन्न-भिन्न आवरण और उपयोगों की बारह संख्या शास्त्र में (प्रज्ञापना, २९, पृ. ५२५ / १ आदि में ) जगह-जगह वर्णित है। (घ) केवलज्ञान और केवलदर्शन अनन्त कहे जाते हैं, वह लब्धि की अपेक्षा से है, उपयोग की अपेक्षा से नहीं | उपयोग की अपेक्षा से उनकी स्थिति एक समय ही है; क्योंकि उपयोग की अपेक्षा से अनन्तता शास्त्र में कहीं भी प्रतिपादित नहीं है। (ङ) उपयोगों का स्वभाव ही ऐसा है, जिससे कि वे क्रमशः प्रवृत्त होते हैं। इसलिये केवलज्ञान और केवलदर्शन को क्रमभावी और अलग-अलग मानना चाहिये।
-
२. (क) आवरण-क्षयरूप निमित्त और सामान्य विशेषात्मक विषय, समकालीन होने से केवलज्ञान और केवलदर्शन युगपत् होते हैं। (ख) छाद्म स्थिक- उपयोगों में कार्य करता है या परस्पर प्रतिबन्ध्य - प्रतिबन्धक भाव घट सकता है, क्षायिक उपयोगों में नहीं; क्योंकि बोध स्वभाव शाश्वत आत्मा, जब निरावरण हो, तब उसके दोनों क्षायिक उपयोग निरन्तर ही होने चाहिये (ग) केवलज्ञान- केवलदर्शन की सादि - अपर्यवसितता, जो शास्त्र में कही है, वह भी युगपत् पक्ष में ही घट सकती है; क्योंकि इस पक्ष में दोनों उपयोग युगपत् और निरन्तर होते रहते हैं। इसलिए द्रव्यार्थिकनय से उपयोग-द्वय के प्रवाह को अपर्यवसित (अनन्त) कहा जा सकता है। (घ) केवलज्ञान - केवलदर्शन के सम्बन्ध में सिद्धान्त में जहाँ-कहीं जो कुछ कहा गया है, वह सब दोनों के व्यक्ति भेद का साधक है, क्रमभावित्व का नहीं। इसलिये दोनों उपयोग को सहभावी मानना है।
३. (क) जैसे सामग्री मिलने पर एक ज्ञान - पर्याय में अनेक घटपटादि विषय भासित होते हैं, वैसे ही आवरण-क्षय, विषय आदि सामग्री मिलने पर एक ही केवल - उपयोग, पदार्थों के सामान्य- विशेष उभय स्वरूपक जान सकता है । (ख) जैसे केवलज्ञान के समय, मतिज्ञानावरणादि का अभाव होने पर भी मति आदि ज्ञान, केवलज्ञान से अलग नहीं माने जाते, वैसे ही केवलदर्शनावरण का क्षय होने पर भी केवलदर्शन को, केवलज्ञान से अलग मानना उचित नहीं है। (ग) विषय और क्षयोपशम की विभिन्नता के कारण, छाद्मस्थिक ज्ञान और दर्शन में परस्पर भेद माना जा सकता है, पर अनन्त - विषयकता और क्षायिकभाव समान होने से केवलज्ञान - केवलदर्शन में किसी तरह भेद नहीं माना जा सकता। (घ) यदि केवलदर्शन केवलज्ञान से अलग माना जाय तो वह सामान्यमात्र
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चौथा कर्मग्रन्थ
को विषय करनेवाला होने से अल्प-विषयक सिद्ध होगा, जिससे उसका शास्त्र कथित अनन्त-विषयकत्व नहीं घट सकेगा। (ङ) केवली का भाषण, केवलज्ञानकेवलदर्शन-पूर्वक होता है, यह शास्त्र - कथन अभेद - पक्ष ही में पूर्णतया घट सकता है। (च) आवरण- भेद कथञ्चित् है; अर्थात् वस्तुतः आवरण एक होने पर भी कार्य और उपाधि-भेद की अपेक्षा से उसके भेद समझने चाहिये इसलिये एक उपयोग-व्यक्ति में ज्ञानत्व - दर्शनत्व दो धर्म अलग-अलग मानने चाहिये । उपयोग, ज्ञान- दर्शन दो अलग-अलग मानना युक्त नहीं; अतएव ज्ञान- दर्शन दोनों शब्द पर्यायमात्र (एकार्थवाची) हैं।
उपाध्याय श्री यशोविजय ने अपने ज्ञानबिन्दु पृ. १६४ / १ में नय - दृष्टि से तीनों पक्षों का समन्वय किया है — सिद्धान्त - पक्ष, शुद्ध ऋजुसूत्रनय की अपेक्षा से; श्रीमल्लवादी जी का पक्ष, व्यवहारनय की अपेक्षा से और श्रीसिद्धसेन दिवाकर का पक्ष संग्रहनय की अपेक्षा से जानना चाहिये। इस विषय का सविस्तार वर्णन, सन्मतितर्क; जीवकाण्ड गा. ३ से आगे; विशेषावश्यकभाष्य, गा. ३०८८३१३५; श्रीहरिभद्रसूरिकृत धर्मसंग्रहणं गा. १३३६-१३५६; श्रीसिद्धसेनगणिकृत तत्त्वार्थटीका अ. १, सू. ३१, पृ. ७७ / १; श्रीमलयगिरिनन्दीवृत्ति पृ. १३४-१३८ और ज्ञानबिन्दु पृ. १५४ - १६४ से जान लेना चाहिये । दिगम्बर-सम्प्रदाय में उक्त तीन पक्ष में से दूसरा अर्थात् युगपत् उपयोगद्वय का पक्ष ही प्रसिद्ध है
जुगवं वट्टइ णाणं, केवलणाणिस्स दंसणं च तहा । दिणयरपयासतापं, जह वट्टइ तह मुणेयव्वं । । १६० ।।
सिद्धाणं सिद्धगई, केवलणाणं च दंसणं खयियं । सम्मत्तमणाहारं, उवजोगाणक्कमपउत्ती । । ७३० ।। '
दंसणपुव्वं णाणं, छदमत्थाणं ण दोण्णि उवउग्गा । जुगवं जम्हा केवलि - गाहे जुगवं तु ते दो वि । । ४४ ।। '
-नियमसार ।
- जीवकाण्ड |
- द्रव्यसंग्रह |
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परिशिष्ट
परिशिष्ट 'छ' ।
पृष्ठ २२ के 'एकेन्द्रिय' शब्द पर
एकेन्द्रियों में तीन उपयोग माने गये हैं। इसलिये यह शङ्का होती है कि 'स्पर्शनेन्द्रिय- मतिज्ञानावरणकर्म का क्षयोपशम होने से एकेन्द्रियों में मति - उपयोग मानना ठीक है, परन्तु भाषालब्धि (नेकी शक्ति) तथा श्रवणलब्धि (सुनने की शक्ति) न होने के कारण उनमें श्रुत- उपयोग कैसे माना जा सकता है; क्योंकि शास्त्र में भाषा तथा श्रवणलब्धि वालों का ही श्रुतज्ञान माना है। यथा— 'भावसुयं भासासो, - यलद्धिणो जुज्जए न इयरस्स ।
भासाभिमुहस्स जयं, सोऊण य जं हविज्जाहि । । १०२ । । '
- विशेषावश्यक।
बोलने व सुनने की शक्तिवाले ही को भावश्रुत है, दूसरे को नहीं। क्योंकि 'श्रुतज्ञान' उस ज्ञान को कहते हैं, जो बोलने की इच्छावाले या वचन सुननेवाले को होता है।
इसका समाधान यह है कि स्पर्शनेन्द्रिय के अतिरिक्त अन्य द्रव्य ( बाह्य) इन्द्रियाँ न होने पर भी वृक्षादि जीवों में पाँच भावेन्द्रिय- जन्य ज्ञानों का होना, जैसा शास्त्र सम्मत है; वैसे ही बोलने और सुनने की शक्ति न होने पर भी एकेन्द्रियों में भावश्रुतज्ञान का होना शास्त्र सम्मत है । यथा
'जह सुहुमं भाविंदिय, नाणं दव्विंदियावरोहे वि।
तह दव्वसुयाभोव, भावसुयं पत्थिवाईणं । । १०३ ।।'
१५९
·
- विशेषावश्यक ।
जिस प्रकार द्रव्य-इन्द्रियों के अभाव में भावेन्द्रिय-जन्य सूक्ष्म ज्ञान होता है, इसी प्रकार द्रव्यश्रुत के भाषा आदि बाह्य निमित्त के अभाव में भी पृथ्वीकायिक आदि जीवों को अल्प भावश्रुत होता है। यह ठीक है कि औरों को जैसा स्पष्ट ज्ञान होता है, वैसा एकेन्द्रियों को नहीं होता। शास्त्र में एकेन्द्रियों को आहार का अभिलाष माना है, यही उनके अस्पष्ट ज्ञान मानने में हेतु है ।
आहार का अभिलाष, क्षुधावेदनीयकर्म के उदय से होनेवाला आत्मा का परिणाम- विशेष (अध्यवसाय) है। यथा—
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चौथा कर्मग्रन्थ 'आहारसंज्ञा आहाराभिलाषः क्षुद्धदनीयोदयप्रभवः खल्वात्मपरिणाम
इति।
-आवश्यक, हारिभद्री वृत्ति पृ. ५८०।
इस अभिलाषरूप अध्यवसाय में 'मुझे अमुक वस्तु मिले तो अच्छा', इस प्रकार का शब्द और अर्थ का विकल्प होता है। जो अध्यवसाय विकल्पसहित होता है, वही श्रुत कहलाता है। यथा
'इंदियमणोनिमित्तं, जं विण्णाणं सुयाणुसारेणं। निययत्थुत्तिसमत्थं तं भावसुयं मई सेसं।।१०।।'
-विशेषावश्यक। अर्थात् इन्द्रिय और मन के निमित्त से उत्पन्न होनेवाला ज्ञान, जो नियत अर्थ का कथन करने में समर्थ और श्रुतानुसारी (शब्द तथा अर्थ के विकल्प से युक्त) है, उसे 'भावश्रुत' तथा उससे भिन्न ज्ञान को ‘मतिज्ञान' समझना चाहिये। अब यदि एकेन्द्रियों में श्रुत-उपयोग न माना जाय तो उनमें आकार का अभिलाष, जो शास्त्र-सम्मत है, वह कैसे घट सकेगा? इसलिये बोलने और सुनने की शक्ति न होने पर भी उनमें अत्यन्त सूक्ष्म श्रुत-उपयोग अवश्य ही मानना चाहिये।
भाषा तथा श्रवणलब्धि वाले ही भावश्रुत होते हैं, दूसरे को नहीं, इस शास्त्र-कथन का तात्पर्य इतना ही है कि उक्त प्रकार की शक्तिवाले को स्पष्ट भावश्रुत होता है और दूसरों को अस्पष्ट।
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परिशिष्ट द्वितीयाधिकार के परिशिष्ट।
परिशिष्ट 'ज'। पृष्ठ, ५२, पङ्क्ति २३ के 'योगमार्गणा' शब्द पर
तीन योगों के बाह्य और आभ्यन्तर कारण दिखा कर उनकी व्याख्या राजवार्तिक में बहुत ही स्पष्ट की गई है। उसका सारांश इस प्रकार है
(क) बाह्य और आभ्यन्तर कारणों से होनेवाला जो मनन के अभिमुख आत्मा का प्रदेश-परिस्पन्द है, वह ‘मनोयोग' है। इसका बाह्य कारण, मनोवर्गणा का आलम्बन और आभ्यन्तर कारण, वीर्यान्तराय कर्म का क्षय-क्षयोपशम तथा नो-इन्द्रियावरणकर्म का क्षय-क्षयोपशम (मनोलब्धि) है।
(ख) बाह्य और आभ्यन्तर कारण-जन्य. आत्मा का भाषाभिमुख प्रदेशपरिस्पन्द 'वचनयोग' है। इसका बाह्य कारण पुद्गलविपाकी शरीर-नामकर्म के उदय से होनेवाला वचनवर्गणा का आलम्बन है और आभ्यन्तर कारण वीर्यान्तराय कर्म का क्षय-क्षयोपशम तथा मतिज्ञानावरण और अक्षरश्रुतज्ञानावरण आदि कर्म का क्षय-क्षयोपशम (वचनलब्धि) है।
(ग) बाह्य और आभ्यन्तर कारण-जन्य गमनादि-विषयक आत्मा का प्रदेशपरिस्पन्द 'काव्ययोग' है। इसका बाह्य कारण किसी-न-किसी प्रकार की शरीरवर्गणा का आलम्बन है और आभ्यन्तर कारण वीर्यान्तरायकर्म का क्षयक्षयोपशम है।
यद्यपि तेरहवें और चौदहवें, इन दोनों गुणस्थानों के समय वीर्यान्तराय कर्म का क्षयरूप आभ्यन्तर कारण समान ही है, परन्तु वर्गणालम्बन रूप बाह्य कारण समान नहीं है। अर्थात् वह तेरहवें गुणस्थान के समय पाया जाता है, पर चौदहवें गुणस्थान के समय नहीं पाया जाता। इसी से तेरहवें गुणस्थान में योग-विधि होती है, चौदहवें में नहीं। इसके लिये देखिये, तत्त्वार्थ अध्याय ६, सू. १, राजवार्तिक १०।
योग के विषय में शङ्का-समाधान
(क) यह शङ्का होती है कि मनोयोग और वचनयोग, काययोग ही हैं; क्योंकि इन दोनों योगों के समय, शरीर का व्यापार अवश्य रहता ही है और इन योगों के आलम्बनभूत मनोद्रव्य तथा भाषाद्रव्य का ग्रहण भी किसी-न-किसी
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चौथा कर्मग्रन्थ
प्रकार के शारीरिक-योग से ही होता है।
इसका समाधान यही है कि मनोयोग तथा वचनयोग, काययोग से जुदा नहीं हैं; किन्तु काययोग-विशेष ही है। जो काययोग, मनन करने में सहायक होता है, वही उस समय 'मनोयोग' और जो काययोग भाषा के बोलने में सहकारी होता है, वही उस समय 'वचनयोग' माना गया है। सारांश यह है कि व्यवहार के लिये ही काययोग के तीन भेद किये हैं।
(ख) यह भी शङ्का होती है कि उक्त रीति से श्वासोच्छ्वास में सहायक होनेवाले काययोग को 'श्वासोच्छ्वासयोग' कहना चाहिये और तीन की जगह चार योग मानने चाहिये।
इसका समाधान यह दिया गया है कि व्यवहार में, जैसा भाषा का और मन का विशिष्ट प्रयोजन दीखता है, वैसा श्वासोच्छ्वास का नहीं। अर्थात् श्वासोच्छ्वास और शरीर का प्रयोजन वैसा भिन्न नहीं है, जैसा शरीर और मनवचन का। इसी से तीन ही योग माने गये हैं। इस विषय के विशेष विचार के लिये विशेषावश्यकभाष्य, गा. ३५६-३६४ तथा लोकप्रकाश-सर्ग ३, श्लो. १३५४-१३५५ के बीच का गद्य देखना चाहिये।
द्रव्यमन, द्रव्यवचन और शरीर का स्वरूप
(क) जो पुद्गल मन बनने के योग्य हैं, जिनको शास्त्र में 'मनोवर्गणा' कहते हैं, वे जब मनरूप से परिणत हो जाते हैं-विचार करने में सहायक हो सकें, ऐसी स्थिति को प्राप्त कर लेते हैं तब उन्हें 'मन' कहते हैं। शरीर में द्रव्यमन के रहने का कोई खास स्थान तथा उसका नियत आकार श्वेताम्बरीय ग्रन्थों में नहीं है। श्वेताम्बर-सम्प्रदाय के अनुसार द्रव्यमन को शरीर-व्यापी और शरीरकार समझना चाहिये। दिगम्बर-सम्प्रदाय में उसका स्थान हृदय तथा आकार कमल जैसा माना है।
(ख) वचन रूप में परिणत एक प्रकार के पुद्गल, जिन्हें भाषावर्गणा कहते हैं, वे ही 'वचन' कहलाते हैं।
(ग) जिससे चलना-फिरना, खाना-पीना आदि हो सकता है, जो सुखदुःख भोगने का स्थान है और जो औदारिक, वैक्रिय आदि वर्गणाओं से बनता है, वह 'शरीर' कहलाता है।
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परिशिष्ट
परिशिष्ट 'झ'
पृष्ठ ६४, पङ्कि ८ के 'सम्यक्त्व' शब्द पर
इसका स्वरूप, विशेष प्रकार से जानने के लिये निम्नलिखित विचार करना बहुत उपयोगी है—
(१) सम्यक्त्व सहेतुक है या निर्हेतुक?
(२) क्षायोपशमिक आदि भेदों का आधार क्या है ?
(३) औपशमिक और क्षायोपशमिक- सम्यक्त्व आपस में अन्तर तथा क्षायिक सम्यक्त्व की विशेषता ।
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(४) शङ्का-समाधान, विपाकोदय और प्रदेशोदय का स्वरूप ।
(५) क्षयोपशम और उपशम की व्याख्या तथा खुलासावार विचार |
(१) सम्यक्त्व-परिणाम सहेतुक है या निर्हेतुक? इस प्रश्न का उत्तर यह है कि उसको निर्हेतुक नहीं मान सकते; क्योंकि जो वस्तु निर्हेतुक हो, वह सब काल में, सब जगह, एक-सी होनी चाहिये अथवा उसका अभाव होना चाहिये। सम्यक्त्व - परिणाम, न तो सबमें समान है और न उसका अभाव है। इसलिये उसे सहेतुक मानना ही चाहिये। सहेतुक मान लेने पर यह प्रश्न होता है कि उसका हेतु क्या है; प्रवचन- श्रवण, भगवत्पूजन आदि जो-जो बाह्य निमित्त माने जाते हैं, वे तो सम्यक्त्व के नियत कारण हो ही नहीं सकते; क्योंकि इन बाह्य निमित्तों के होते हुए भी अभव्यों की तरह अनेक भव्यों को सम्यक्त्व - प्राप्ति नहीं होती। परन्तु इसका उत्तर इतना ही है कि सम्यक्त्व - परिणाम प्रकट होने में नियत कारण जीव का तथाविध भव्यत्व - नामक अनादि पारिणामिक - स्वभाव - विशेष ही है। जब इस पारिणामिक भव्यत्व का परिपाक होता है, तभी सम्यक्त्व - लाभ होता है। भव्यत्व परिणाम, साध्य रोग के समान है। कोई साध्य रोग, स्वयमेव ( बाह्य उपाय के बिना ही) शान्त हो जाता है। किसी साध्य रोग के शान्त होने में वैद्य का उपचार भी दरकार है और कोई साध्य रोग ऐसा भी होता है, जो बहुत दिनों के बाद मिटता है। भव्यत्व-स्वभाव, ऐसा ही है। अनेक जीवों का भव्यत्व, बाह्य निमित्त के बिना ही परिपाक प्राप्त करता है। ऐसे भी जीव हैं, जिनके भव्यत्व - स्वभाव का परिपाक होने में शास्त्र - श्रवण आदि बाह्य निमित्तों की आवश्यकता पड़ती है। और, अनेक जीवों का भव्यत्व परिणाम दीर्घ-काल व्यतीत हो चुकने पर, स्वयं ही परिपाक प्राप्त करता है। शास्त्र श्रवण, अर्हत्पूजन आदि
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चौथा कर्मग्रन्थ
जो बाह्य निमित्त हैं, वे सहकारीमात्र हैं। उनके द्वारा कभी-कभी भव्यत्व का परिपाक होने में मदद मिलती है, इसी से व्यवहार में वे सम्यक्त्व के कारण माने गये हैं और उनके आलम्बन की आवश्यकता दिखायी जाती है । परन्तु निश्चय-दृष्टि से तथाविध- भव्यत्व के विपाक को ही सम्यक्त्व का अव्यभिचारी (निश्चित) कारण मानना चाहिये। इससे शास्त्र - श्रवण, प्रतिमा पूजन आदि बाह्य क्रियाओं की अनैकान्तिकता, जो अधिकारी भेद पर अवलम्बित है, उसका खुलासा हो जाता है। यही भाव, भगवान् उमास्वाति ने 'तन्निसर्गादधिगमाद्वा'तत्त्वार्थ- अ. १, सूत्र ३ से प्रकट किया है । और, यही बात पञ्चसंग्रह - द्वार १, गा. ८ की मलयगिरि - टीका में भी है।
―
(२) सम्यक्त्व गुण, प्रकट होने के आभ्यन्तर कारणों की जो विविधता है, वही क्षायोपशमिक आदि भेदों का आधार है - अनन्तानुबन्धि चतुष्क और दर्शनमोहनीय - त्रिक, इन सात प्रकृतियों क्षयोपशम, क्षायोपशमिक - सम्यक्त्व का; उपशम, औपशमिक- सम्यक्त्व का और क्षय क्षायिकसम्यक्त्व का कारण है तथा सम्यक्त्व से गिरा कर मिथ्यात्व की ओर झुकने वाला अनन्तानुबन्धी कषाय का उदय, सासादन सम्यक्त्व का कारण और मिश्रमोहनीय का उदय, मिश्र सम्यक्त्व का कारण है। औपशमिक सम्यक्त्व में काललब्धि आदि अन्य क्या २ निमित्त अपेक्षित हैं और वह किस-किस गति में किन - २ कारणों से होता है, इसका विशेष वर्णन तथा क्षायिक और क्षायोपशमिक सम्यक्त्व का वर्णन क्रमश:तत्त्वार्थ अ. २, सू. ३ के प्रथम और द्वितीय राजवार्तिक में तथा सू. ४ और ५ के ७ वें राजवार्तिक में है।
(३) – औपशमिक सम्यक्त्व के समय, दर्शनमोहनीय का किसी प्रकार का उदय नहीं होता; पर क्षायोपशमिक सम्यक्त्व के समय, सम्यक्त्व मोहनीय विपाकोदय और मिथ्यात्वमोहनीय का प्रदेशोदय होता है। इसी भिन्नता के कारण शास्त्र में औपशमिक सम्यक्त्व को, 'भावसम्यक्त्व' और क्षायोपशमिक सम्यक्त्व को, 'द्रव्य सम्यक्त्व' कहा है। इन दोनों सम्यक्त्वों से क्षायिकसम्यक्त्व विशिष्ट है; क्योंकि वह स्थायी है और ये दोनों अस्थायी हैं।
(४) यह शङ्का होती है कि मोहनीयकर्म घातिकर्म है। वह सम्यक्त्व और चारित्रपर्याय का घात करता है, इसलिये सम्यक्त्वमोहनीय के विपाकोदय और मिथ्यात्वमोहनीय के प्रदेशोदय के समय, सम्यक्त्व - परिणाम व्यक्त कैसे हो सकता है? इसका समाधान यह है कि सम्यक्त्वमोहनीय, मोहनीयकर्म है सही, पर उसके दलिक विशुद्ध होते हैं; क्योंकि शुद्ध अध्यवसाय से जब मिथ्यात्वमोहनीय कर्म
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परिशिष्ट
१६५ के दलिकों का सर्वघाती रस नष्ट हो जाता है, तब वे ही एक-स्थान रसवाले और द्वि-स्थान अतिमन्द रसवाले दलिक ‘सम्यक्त्वमोहनीय' कहलाते हैं। जैसेकाँच आदि पारदर्शक वस्तुएँ नेत्र के दर्शन-कार्य में रुकावट नहीं डालती, वैसे ही मिथ्यात्व मोहनीय के शुद्ध दलिकों का विपाकोदय सम्यक्त्व-परिणाम के आविर्भाव में प्रतिबन्ध नहीं करता। अब रहा मिथ्यात्व का प्रदेशोदय, सो वह भी, सम्यक्त्व-परिणाम का प्रतिबन्धक नहीं होता; क्योंकि नीरस दलिकों का ही प्रदेशोदय होता है। जो दलिक, मन्द रसवाले हैं, उनका विपाकोदय भी, जब गुण का घात नहीं करता, तब नीरस दलिकों के प्रदेशोदय से गुण के घात होने की सम्भावना ही नहीं की जा सकती। देखिये, पञ्चसंग्रह-द्वार १, १५वीं गाथा की टीका में ग्यारहवें गुणस्थान की व्याख्या।
(५) क्षयोपशम-जन्य पर्याय 'क्षायोपशमिक' और उपशम-जन्य पर्याय 'औपशमिक' कहलाता है। इसलिये किसी भी क्षायोपशमिक और औपशमिक भाव का यथार्थ ज्ञान करने के लिये पहले क्षयोपशम और उपशम का ही स्वरूप जान लेना आवश्यक है। अतः इनका स्वरूप शास्त्रीय प्रक्रिया के अनुसार लिखा जाता है_ (क) क्षयोपशम शब्द में दो पद है-क्षय तथा उपशम। 'क्षयोपशम' शब्द का मतलब, कर्म के क्षय और उपशम दोनों से है। क्षय का मतलब आत्मा से कर्म का विशिष्ट सम्बन्ध छूट ज़ाना और उपशम का मतलब कर्म का अपने स्वरूप में आत्मा के साथ संलग्न रह कर भी उस पर असर न डालना है। यह तो हआ सामान्य अर्थ; पर उसका पारिभाषिक अर्थ कुछ अधिक है। बन्धावलिका पूर्ण हो जाने पर किसी विवक्षित कर्म का जब क्षयोपशम शुरू होता है, तब विवक्षित वर्तमान समय से आवलिका-पर्यन्त के दलिक, जिन्हें उदयावलिकाप्राप्त या उदीर्ण-दलिक कहते हैं, उनका तो प्रदेशोदय व विपाकोदय द्वारा क्षय (अभाव) होता रहता है और जो दलिक, विवक्षित वर्तमान समय से आवलिका तक में उदय पाने योग्य नहीं है जिन्हें उदयावलिका बहिर्भूत या अनुदीर्ण दलिक कहते हैं-उनका उपशम (विपाकोदय की योग्यता का अभाव या तीव्र रस से मन्द रस में परिणमन) हो जाता है, जिससे वे दलिक, अपनी उदयावलिका प्राप्त होने पर, प्रदेशोदय या मन्द विपाकोदय द्वारा क्षीण हो जाते हैं अर्थात् आत्मा पर अपना फल प्रकट नहीं कर सकते या कम प्रकट करते हैं।
इस प्रकार आवलिका पर्यन्त के उदय-प्राप्त कर्मदलिकों का प्रदेशोदय व विपाकोदय द्वारा क्षय और आवलिका के बाद के उदय पाने योग्य कर्मदलिकों
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चौथा कर्मग्रन्थ
की विपाकोदय सम्बन्धिनी योग्यता का अभाव या तीव्र रस का मन्द रस में परिणमन होते रहने से कर्म का क्षयोपशम कहलाता है।
क्षयोपशम-योग्य कर्म-क्षयोपशम, सब कर्मों का नहीं होता; सिर्फ घातिकर्मों का होता है। घातिकर्म के देशघाति और सर्वघाति, ये दो भेद हैं। दोनों के क्षयोपशम में कुछ विभिनता है।
(क) जब देशघातिकर्म का क्षयोपशम प्रवृत्त होता है, तब उसके मन्द रसयुक्त कुछ दलिकों का विपाकोदय साथ ही रहता है। विपाकोदय-प्राप्त दलिक, अल्प रस-युक्त होने से स्वावार्य गुण का घात नहीं कर सकते, इससे यह सिद्धान्त माना गया है कि देशघाति कर्म के क्षयोपशम के समय, विपाकोदय विरुद्ध नहीं है, अर्थात् वह क्षयोपशम के कार्य को-स्वावार्यगुण के विकास को रोक नहीं सकता। परन्तु यह बात ध्यान में रखनी चाहिये कि देशघाति कर्म के विपाकोदयमिश्रित क्षयोपशम के समय, उसका सर्वघाति-रस-युक्त कोई भी दलिक, उदयमान नहीं होता। इससे यह सिद्धान्त मान लिया गया है कि जब, सर्वघाति-रस, शुद्धअध्यवसाय से देशघातिरूप में परिणत हो जाता है, तभी अर्थात् देशघाति-स्पर्धक के ही विपाकोदय-काल में क्षयोपशम-अवश्य प्रवृत्त होता है।
घातिकर्म की पच्चीस प्रकृतियाँ देशघातिनी हैं, जिनमें से मतिज्ञानावरण, श्रुतज्ञानावरण, अचक्षुर्दर्शनावरण और पाँच अन्तराय, इन आठ प्रकृतियों का क्षयोपशम तो सदा से ही प्रवृत्त है; क्योंकि आवार्य मतिज्ञान आदि पर्याय, अनादि काल से क्षायोपशमिकरूप में रहते ही हैं। इसलिये यह मानना चाहिये कि उक्त प्रकृतियों के देशघाति-रसस्पर्धक का ही उदय होता है, सर्व घाति-रसस्पर्धक का कभी नहीं।
अवधिज्ञानावरण, मनःपर्यायज्ञानावरण, चक्षुर्दर्शनावरण और अवधिदर्शनावरण, इन चार प्रकृतियों का क्षयोपशम कादाचित्क (अनियत) है, अर्थात् जब उनके सर्वघाति-रसस्पर्धक, देशघातिरूप में परिणत हो जाते हैं; तभी उनका क्षयोपशम होता है और जब सर्वघाति-रसस्पर्धक उदयमान होते हैं, तब अवधिज्ञान आदि का घात ही होता है। उक्त चार प्रकृतियों का क्षयोपशम भी देशघाति-रसस्पर्धक के विपाकोदय से मिश्रित ही समझना चाहिये।
उक्त बारह के अतिरिक्त शेष तेरह (चार संज्वलन और नौ नोकषाय) प्रकृतियाँ जो मोहनीय की हैं, वे अध्रुवोदयिनी है। इसलिये जब उनका क्षयोपशम, प्रदेशोदयमात्र से युक्त होता है, तब तो वे स्वावार्य गुण का लेश भी घात नहीं
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करती और न देशघातिनी ही मानी जाती हैं; पर जब उनका क्षयोपशम विपाकोदय से मिश्रित होता है, तब वे स्वावार्य गुण का कुछ घात करती हैं और देशघातिनी कहलाती हैं।
(ख) घातिकर्म की बीस प्रकृतियाँ सर्वघातिनी हैं। इनमें से केवलज्ञानावरण और केवल दर्शनावरण, इन दो का तो क्षयोपशम होता ही नहीं; क्योंकि उनके दलिक कभी देशघाति-रसयुक्त बनते ही नहीं और न उनका विपाकोदय ही रोका जा सकता है। शेष अठारह प्रकृतियाँ ऐसी हैं, जिनका क्षयोपशम हो सकता है; परन्तु यह बात, ध्यान में रखनी चाहिये कि देश घातिनी प्रकृतियों के क्षयोपशम के समय, जैसे विपाकोदय होता है, वैसे इन अठारह सर्वघातिनी प्रकृतियों के क्षयोपशम के समय नहीं होता, अर्थात् इन अठारह प्रकृतियों का क्षयोपशम, तभी सम्भव है, जब उनका प्रदेशोदय ही हो। इसलिये यह सिद्धान्त माना है कि ‘विपाकोदयवती प्रकृतियों का क्षयोपशम, यदि होता है तो देशघातिनी ही का, सर्वघातिनी का नहीं ।
अतएव उक्त उठारह प्रकृतियाँ, विपाकोदय के निरोध के योग्य मानी जाती हैं; क्योंकि उनके आवार्य गुणों का क्षायोपशमिक स्वरूप में व्यक्त होना माना गया है, जो विपाकोदय के निरोधके सिवाय घट नहीं सकता।
(२) उपशम - क्षयोपशम की व्याख्या में, उपशम शब्द का जो अर्थ किया गया है, उससे औपशमिक के उपशम शब्द का अर्थ कुछ उदार है। अर्थात् क्षयोपशम के उपशम शब्द का अर्थ सिर्फ विपाकोदयसम्बन्धिनी योग्यता का अभाव या तीव्र रस का मन्द रस में परिणमन होना है; पर औपशमिक के उपशम शब्द का अर्थ प्रदेशोदय और विपाकोदय दोनों का अभाव है; क्योंकि क्षयोपशम में कर्म का क्षय भी जारी रहता है, जो कम से कम प्रदेशोदय के अतिरिक्त हो ही नहीं सकता। परन्तु उपशम में यह बात नहीं, जब कर्म का उपशम होता है, तभी से उसका क्षय रुक ही जाता है, अतएव उसके प्रदेशोदय होने की आवश्यकता ही नहीं रहती। इसी से उपशम अवस्था तभी मानी जाती है, जब कि अन्तरकरण होता है । अन्तरकरण के अन्तर्मुहूर्त में उदय पाने के योग्य दलिकों में से कुछ तो पहले ही भोग लिये जाते हैं और कुछ दलिक पीछे उदय पाने के योग्य बना दिये जाते हैं, अर्थात् अन्तरकरण में वेध- दलिकों का अभाव होता है।
अतएव क्षयोपशम और उपशम की संक्षिप्त व्याख्या इतनी ही की जाती है कि क्षयोपशम के समय, प्रदेशोदय का या मन्द विपाकोदय होता है, पर उपशम
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चौथा कर्मग्रन्थ
के समय, वह भी नहीं होता। यह नियम याद रखना चाहिये कि उपशम भी घातिकर्म का ही हो सकता है, सो भी सब घाति कर्म का नहीं, किन्तु केवल मोहनीयकर्म का। अर्थात् प्रदेश और विपाक दोनों प्रकार का उदय, यदि रोका जा सकता है तो मोहनीयकर्म का ही। इसके लिये देखिये, नन्दी, सू. ८ की टीका, पृ. ७७ कम्मपयडी, श्रीयशोविजयजी-कृत टीका, पृ. १३; पञ्च.द्वा. १, गा. ३९ की मलयगिरि व्याख्या। सम्यक्त्व के स्वरूप, उत्पत्ति और भेदप्रभेदादिका सविस्तर विचार देखने के लिये देखिये, लोकप्र.-सर्ग ३, श्लोक ५६९-७००।
परिशिष्ट 'ट' पृ. ७४, पङ्क्ति २१ के 'सम्भव' शब्द पर
अठारह मार्गणा में अचक्षुर्दर्शन परिगणित है, अतएव उसमें भी चौदह जीवस्थान समझने चाहिये। परन्तु इस पर प्रश्न यह होता है कि अचक्षदर्शन में जो अपर्याप्त जीवस्थान माने जाते हैं, सो क्या अपर्याप्त-अवस्था में इन्द्रियपर्याप्ति पूर्ण होने के बाद अचक्षुर्दर्शन मान कर या इन्द्रियपर्याप्ति पूर्ण होने के पहले भी अचक्षुर्दर्शन होता है यह मान कर?
यदि प्रथम पक्ष माना जाय तब तो ठीक है; क्योंकि इन्द्रियपर्याप्ति पूर्ण होने के बाद अपर्याप्त-अवस्था में ही चक्षुरिन्द्रिय द्वारा सामान्य बोध मान कर जैसे-चक्षदर्शन में तीन अपर्याप्त जीवस्थान १७वीं गाथा में मतान्तर से बतलाये हुए हैं, वैसे ही इन्द्रियपर्याप्ति पूर्ण होने के बाद अपर्याप्त-अवस्था में चक्षु भिन्न इन्द्रिय द्वारा सामान्य बोध मान कर अचक्षुर्दर्शन में सात अपर्याप्त जीवस्थान घटाये जा सकते हैं।
परन्तु श्रीजयसोमसूरि ने इस गाथा के अपने टबे में इन्द्रियपर्याप्ति पूर्ण होने के पहले भी अचक्षुर्दर्शन मानकर उसमें अपर्याप्त जीवस्थान माने हैं और सिद्धान्त के आधार से बतलाया है कि विग्रहगति और कार्मणयोग में अवधिदर्शन रहित जीव को अचक्षुर्दर्शन होता है। इस पक्ष में प्रश्न यह होता है कि इन्द्रियपर्याप्ति पूर्ण होने के पहले द्रव्येन्द्रिय न होने पर अचक्षुर्दर्शन कैसे मानना? इसका उत्तर दो तरह से दिया जा सकता है।
(१) द्रव्येन्द्रिय होने पर द्रव्य और भाव, उभय इन्द्रिय-जम्य उपयोग और द्रव्येन्द्रिय के अभाव में केवल भावेन्द्रिय-जन्य उपयोग, इस तरह दो प्रकार का
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परिशिष्ट
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उपयोग है । विग्रहगति में और इन्द्रियपर्याप्ति होने के पहले, पहले प्रकार का उपयोग, नहीं हो सकता; पर दूसरे प्रकार का दर्शनात्मक सामान्य उपयोग माना जा सकता है। ऐसा मानने में तत्त्वार्थ- अ. २, सू. ९ की वृत्तिका -
'अथवेन्द्रियनिरपेक्षमेव तत्कस्यचिद्भवेद् यतः पृष्ठत उपसर्पन्तं सर्पे बुद्धयैवेन्द्रियव्यापारनिरपेक्षं पश्यतीति ।'
यह कथन प्रमाण है। सारांश, इन्द्रियपर्याप्ति पूर्ण होने के पहले उपयोगात्मक अचक्षुर्दर्शन मान कर समाधान किया जा सकता है।
(२) विग्रहगति में और इन्द्रियपर्याप्ति पूर्ण होने के पहले अचक्षुर्दर्शन माना जाता है, सो शक्तिरूप अर्थात् क्षयोपशमरूप, उपयोगरूप नहीं। यह समाधान, प्राचीन चतुर्थ कर्मग्रन्थ की ४९वीं गाथा की टीका के
'त्रयाणामप्यचक्षुर्दर्शनं तस्यानाहारकावस्थायामपि लब्धिमाश्रित्वाभ्युपगमात्।' इस उल्लेख के आधार पर दिया गया है।
प्रश्न – इन्द्रियपर्याप्ति पूर्ण होने के पहले जैसे उपयोगरूप या क्षयोपशमरूप अचक्षुर्दर्शन माना जाता है, वैसे ही चक्षुर्दर्शन क्यों नहीं माना
जाता।
उत्तर - चक्षुर्दर्शन, नेत्ररूप विशेष- इन्द्रिय-जन्य दर्शन को कहते हैं। ऐसा दर्शन उसी समय माना जाता है, जब कि द्रव्यनेत्र हो । अतएव चक्षुर्दर्शन को इन्द्रियपर्याप्ति होने के बाद ही माना है। अचक्षुर्दर्शन किसी एक इन्द्रिय-जन्य सामान्य उपयोग को नहीं कहते; किन्तुं नेत्र- भिन्न किसी द्रव्येन्द्रिय से होने वाले, द्रव्यमन से होनेवाले या द्रव्येन्द्रिय तथा द्रव्यमन के अभाव में क्षयोपशम मात्र से होने वाले सामान्य उपयोग को कहते हैं। इसी से अचक्षुर्दर्शन को इन्द्रिय पर्याप्ति पूर्ण होने के पहले और पीछे, दोनों अवस्थाओं में माना है।
परिशिष्ट 'ठ'
पृ. ७८, पङ्गि ११ के 'अनाहारक' शब्द पर
अनाहारक जीव दो प्रकार के होते हैं—छद्मस्थ और वीतराग । वीतराग में जो अशरीरी (मुक्त) हैं, वे सभी सदा अनाहारक ही हैं; परन्तु जो शरीरधारी हैं, वे केवलिसमुद्धात के तीसरे, चौथे और पाँचवें समय में ही अनाहारक
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चौथा कर्मग्रन्थ
होते हैं। छद्मस्थ जीव, अनाहारक तभी होते हैं, जब वे विग्रहगति में वर्तमान
हों
जन्मान्तर ग्रहण करने के लिये जीव को पूर्व-स्थान छोड़कर दूसरे स्थान में जाना पड़ता है। दूसरा स्थान पहले स्थान से विश्रेणि-पतित (वक्र-रेखा) में हो, तब उसे वक्र-गति करनी पड़ती है। वक्र-गति के सम्बन्ध में इस जगह तीन बातों पर विचार किया जाता है
(१) वक्र-गति में विग्रह (घुमाव) की संख्या, (२) वक्र-गति का कालपरिमाण और (३) वक्र गति में अनाहारकत्व का काल-मान।
(१) कोई उत्पत्ति-स्थान ऐसा होता है कि जिसको जीव एक विग्रह करके ही प्राप्त कर लेता है। किसी स्थान के लिये दो विग्रह करने पड़ते हैं और किसी के लिये तीन भी। नवीन उत्पत्ति-स्थान, पूर्व-स्थान से कितना ही विश्रेणि-पतित क्यों न हो, पर वह तीन विग्रह में तो अवश्य ही प्राप्त हो जाता है।
इस विषय में दिगम्बर-साहित्य में विचार-नजर नहीं आता; क्योंकि'विग्रहवती च संसारिणः प्राक् चतुर्थ्यः।' (तत्त्वार्थ अ. २, सू. २८)
इस सूत्र को सर्वार्थसिद्धि-टीका में श्रीपूज्यपादस्वामी ने अधिक से अधिक तीन विग्रहवाली गति का ही उल्लेख किया है। तथा
'एकं द्वौ त्रीन्वाऽनाहारकः।' (तत्त्वार्थ-अ. २, सूत्र ३।
इस सूत्र के ६ठे राजवार्तिक में भट्टारक श्री अकलङ्कदेव ने भी अधिक से अधिक त्रि-विग्रह-गति का ही समर्थन किया है। नेमिचन्द्र सिद्धान्तचक्रवर्ती भी गोम्मटसार-जीवकाण्ड की ६६९ की गाथा में उक्त मत का ही निर्देश करते हैं।
श्वेताम्बरीय ग्रन्थों में इस विषय पर मतान्तर उल्लिखित पाया जाता है'विग्रहवती च संसारिणः प्राक् चतुर्थ्यः।' (तत्त्वार्थ-अ. २, सूत्र २९) 'एकं द्वौ वाऽनाहारकः।' (तत्त्वार्थ-अ. २, सू. ३०)
श्वेताम्बर-प्रसिद्ध तत्त्वार्थ-अ. २ के मध्य में भगवान् उमास्वाति ने तथा उसकी टीका में श्री सिद्धसेनगणि ने त्रि-विग्रहगति का उल्लेख किया है। साथ ही उक्त भाष्य की टीका में चतुर्विग्रहमति का मतान्तर भी दर्शाया है। इस मतान्तर का उल्लेख बृहत्संग्रहणी की ३२५वी गाथा में और श्री भगवती-शतक ७, उद्देशक १ की तथा शतक १४, उद्देशक १ की टीका में भी है। किन्तु इस मतान्तर का जहाँ-कहीं उल्लेख है, वहाँ सब जगह यही लिखा है कि
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परिशिष्ट
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चतुर्विग्रहगति का निर्देश किसी मूल सूत्र में नहीं है। इससे जान पड़ता है कि ऐसी गति करनेवाले जीव ही बहुत कम है। उक्त सूत्रों के भाष्य में तो यह स्पष्ट लिखा है कि त्रि-विग्रह से अधिक विग्रहवाली गति संभव ही नहीं है।
'अविग्रहा एकविग्रहा द्विविग्रहा त्रिविग्रहा इत्येताश्चतुस्समयपराश्चतुर्विधा गतयो भवन्ति, परतो न सम्भवन्ति । '
भाष्य के इस कथन से तथा दिगम्बर- ग्रन्थों में अधिक त्रि-त्रिग्रहगति का ही निर्देश पाये जाने से और भगवती - टीका आदि में जहाँ-कहीं चतुविग्रहगति का मतान्तर है, वहाँ सब जगह उसकी अल्पता दिखायी जाने के कारण अधिक से अधिक तीन विग्रहवाली गति ही का पक्ष बहुमान्य समझना चाहिये ।
(२) वक्र गति के काल-परिमाण के सम्बन्ध में यह नियम है कि वक्रगति का समय विग्रह की अपेक्षा एक अधिक ही होता है। अर्थात् जिस गति में एक विग्रह हो, उसका काल-मान दो समयों का, इस प्रकार द्वि विग्रहगति का काल-मान, तीन समयों का और त्रि-विग्रहगति का काल-मान चार समयों का है। इस नियम में श्वेताम्बर - दिगम्बर का कोई मतत-भेद नहीं। हाँ, ऊपर चतुर्विग्रह गति के मतान्तर का जो उल्लेख किया है, उसके अनुसार उस गति का काल - मान पाँच समयों का बतलाया गया है।
(३) विग्रहगति में अनाहार के काल-मान का विचार व्यवहार और निश्चय, दो दृष्टियों से किया हुआ पाया जाता है। व्यवहारवादियों का अभिप्राय यह है कि पूर्व - शरीर छोड़ने का समय, जो वक्र गति का प्रथम समय है, उसमें पूर्वशरीर - योग्य कुछ पुद्गल लाभाहार द्वारा ग्रहण किये जाते हैं। बृहत्संग्रहणी गा. ३२६ तथा उसकी टीका; लोक. सर्ग ३, श्लो. ११०७ से आगे। परन्तु निश्चयवादियों का अभिप्राय यह है कि पूर्व शरीर छूटने के समय में, अर्थात् वक्र - गति के प्रथम समय में न तो पूर्व- शरीर का ही सम्बन्ध है और न नया शरीर बना है; इसलिये उस समय किसी प्रकार के आहार का संभव नहीं । लोक. स. ३, श्लो. १११५ से आगे । व्यवहारवादी हो या निश्चयवादी, दोनों इस बात को बराबर मानते हैं कि वक्र गति का अन्तिम समय, जिसमें जीव नवीन स्थान में उत्पन्न होता है, उसमें अवश्य आहार ग्रहण होता है। व्यवहारनय के अनुसार अनाहारकत्व का काल - मान इस प्रकार समझना चाहिए।
एक विग्रहवाली गति, जिसकी काल मर्यादा दो समय की है, उसके दोनों समय में जीव आहारक ही होता है, क्योंकि पहले समय में पूर्व शरीर- योग्य लोमाहार ग्रहण किया जाता है और दूसरे समय में नवीन शरीर योग्य आहार |
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दो विग्रहवाली गति, जो तीन समय की है और तीन विग्रहवाली गति, जो चार समय की है, उसमें प्रथम तथा अन्तिम समय में आहारकत्व होने पर भी बीच के समय में अनाहारक - अवस्था पायी जाती है। अर्थात् द्वि-विग्रहगति के मध्य में एक समय तक और त्रि - विग्रहगति में प्रथम तथा अन्तिम समय को छोड़, बीच के दो समय पर्यन्त अनाहारक स्थिति रहती है। व्यवहारनय का यह मत कि विग्रह की अपेक्षा अनाहारकत्व का समय एक कम ही होता है, तत्त्वार्थअध्याय २ के ३१वें सूत्र में तथा उसके भाष्य और टीका में निर्दिष्ट है। साथ ही टीका में व्यवहारनय के अनुसार उपर्युक्त पाँच समय- परिमाण चतुर्विग्रहवती गति के मतान्तर को लेकर तीन समय का अनाहारकत्व भी बतलाया गया है। सारांश, व्यवहारनय की अपेक्षा से तीन समय का अनाहारकत्व, चतुर्विग्रहवती गति के मतान्तर से ही घट सकता है, अन्यथा नहीं। निश्चयदृष्टि के अनुसार यह बात नहीं है। उसके अनुसार तो जितने विग्रह उतने ही समय अनाहारकत्व के होते हैं। अतएव उस दृष्टि के अनुसार एक विग्रहवाली वक्र-गति में एक समय, दो विग्रहवाली गति में दो समय और तीन विग्रहवाली गति में तीन समय अनाहारकत्व के समझने चाहिये। यह बात दिगम्बर- प्रसिद्ध तत्त्वार्थ - अ. २ के ३० वें सूत्र तथा उसकी सर्वार्थसिद्धि और राजवार्तिक- टीका में है।
श्वेताम्बर -ग्रन्थों में चतुर्विग्रहवती गति के मतान्तर का उल्लेख है, उसको लेकर निश्चयदृष्टि से विचार किया जाय तो अनाहारकत्व के चार समय भी कहे जा सकते हैं।
सारांश, श्वेताम्बरीय तत्त्वार्थ भाष्य आदि में एक या दो समय के अनाहारकत्व का जो उल्लेख है, वह व्यवहारदृष्टि से और दिगम्बरीय तत्त्वार्थ आदि ग्रन्थों में जो एक, दो या तीन समय के अनाहारकत्व उल्लेख है, वह निश्चयदृष्टि से । अतएव अनाहारकत्व के काल-मान के विषय में दोनों सम्प्रदाय में वास्तविक विरोध को अवकाश ही नहीं है।
प्रसङ्गवश यह बात जानने योग्य है कि पूर्व - शरीर का परित्याग, पर- भव की आयु का उदय और गति (चाहे ऋजु हो या वक्र), ये तीनों एक समय में होते हैं। विग्रहगति के दूसरे समय में पर-भव की आयु के उदय का कथन है, सो स्थूल व्यवहारनय की अपेक्षा से - पूर्व-भव का अन्तिम समय, जिसमें जीव विग्रहगति के अभिमुख हो जाता है, उसको उपचार से विग्रहगति का प्रथम समय मानकर - समझना चाहिये । - बृहत्संग्रहणी, गा. ३२५, मलयगिरि -टीका।
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परिशिष्ट
परिशिष्ट 'ड'
पृष्ठ ८५, पङ्गि ११ के 'अवधिदर्शन' शब्द पर
अवधिदर्शन और गुणस्थान का सम्बन्ध विचारने के समय मुख्यतया दो बातें जानने की हैं - १. पक्ष - भेद और २. उनका तात्पर्य ।
१. पक्ष - भेद । प्रस्तुत विषय में मुख्य दो पक्ष हैं— (क) कार्म ग्रन्थिक और (ख) सैद्धान्तिक ।
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(क) कार्मग्रन्थिक पक्ष भी दो हैं। इनमें से पहला पक्ष चौथे आदि नौ गुणस्थानों में अवधिदर्शन मानता है । यह पक्ष, प्राचीन चतुर्थ कर्मग्रन्थ की २९वीं गाथा में निर्दिष्ट है, जो पहले तीन गुणस्थानों में अज्ञान माननेवाले कार्मग्रन्थिकों को मान्य है। दूसरा पक्ष, तीसरे आदि दस गुणस्थानों में अवधिदर्शन मानता है। यह पक्ष आगे की ४८वीं गाथा में तथा प्राचीन चतुर्थ कर्मग्रन्थ की ७० और ७१वीं गाथा में निर्दिष्ट है, जो पहले दो गुणस्थान तक अज्ञान माननेवाले कार्मग्रन्थिकों को मान्य हैं। ये दोनों पक्ष, गोम्मटसार - जीवकाण्ड की ६९० और ७०४ थी गाथा में है। इनमें से प्रथम पक्ष, तत्त्वार्थ- अ. १ के ८वें सूत्र की सर्वार्थसिद्धि में भी है। वह यह है
'अवधिदर्शने असंयतसम्यग्दृष्ट्यादीनि क्षीणकषायान्तानि' ।
(ख) सैद्धान्तिक पक्ष बिल्कुल भिन्न है। वह पहले आदि बारह गुणस्थानों में अवधिदर्शन मानता है, जो भगवतीसूत्र से मालूम होता है। इस पक्ष को श्रीमलयगिरिसूरि ने पञ्चसंग्रह - द्वार १ की ३१वीं गाथा की टीका में तथा प्राचीन चतुर्थ कर्मग्रन्थ की ३९वीं गाथा की टीका में स्पष्टता से दिखाया है ।
'ओहिदंसणअणगारोवउत्ताणं भंते! किं नाणी अन्नाणी? गोयमा! णाणी व अन्नाणी वि। जइ नाणी ते अत्थेगइआ तिण्णाणी, अत्येगइआ चणाणी । जे तिण्णाणी, ते अभिविणबोहियणाणी सुयणाणी ओहिणाणी मणपज्जवणाणी । जे अण्णाणी ते णियमा मइअण्णाणी सुयअण्णाणी विभंगनाणी । '
२. उनका (उक्त पक्षों का) तात्पर्य
(क) पहले तीन गुणस्थानों में अज्ञान माननेवाले और पहले दो गुणस्थानों में अज्ञान मानने वाले, दोनों प्रकार के कार्मग्रन्थिक विद्वान् अवधिज्ञान से अवधिदर्शन को अलग मानते हैं, पर विभङ्गज्ञान से नहीं। वे कहते हैं कि
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चौथा कर्मग्रन्थ विशेष अवधि-उपयोग से सामान्य अवधि-उपयोग भिन्न है; इसलिये जिस प्रकार अवधि उपयोगवाले सम्यक्त्व में अवधिज्ञान और अवधिदर्शन, दोनों अलग-अलग हैं, इसी प्रकार अवधि उपयोगवाले अज्ञानी में भी विभङ्गज्ञान और अवधिदर्शन, ये दोनों वस्तुत: भिन्न हैं सही, तथापि विभङ्गज्ञान और अवधिदर्शन, इन दोनों के पारस्परिक भेद की अविवक्षामात्र है। भेद विवक्षित न रखने का सबब दोनों का सादृश्यमात्र है। अर्थात् जैसे विभङ्गज्ञान विषय का यथार्थ निश्चय नहीं कर सकता, वैसे ही अवधिदर्शन सामान्यरूप होने के कारण विषय का निश्चय नहीं कर सकता।
इस अभेद-विवक्षा के कारण पहले मत के अनुसार चौथे आदि नौ गुणस्थानों में और दूसरे मत के अनुसार तीसरे आदि दस गुणस्थानों में अवधिदर्शन समझना चाहिये।
(ख) सैद्धान्तिक विद्वान् विभङ्गज्ञान और अवधिदर्शन, दोनों के भेद की विवक्षा करते हैं, अभेद की नहीं। इसी कारण वे विभङ्गज्ञानों में अवधिदर्शन मानते हैं। उनके मत से केवल पहले गुणस्थान में विभङ्गज्ञान संभव है, दूसरे आदि में नहीं। इसलिये वे दूसरे आदि ग्यारह गुणस्थानों में अवधिज्ञान के साथ और पहले गुणस्थान में विभङ्गज्ञान के साथ अवधिज्ञानी के और विभङ्गज्ञानी के दर्शन में निराकारता-अंश समान ही है। इसलिये विभङ्गज्ञानी के दर्शन की 'विभङ्गदर्शन' ऐसी अलग संज्ञा न रखकर 'अवधिदर्शन' ही संज्ञा रक्खी है।
सारांश, कार्मग्रन्थिक-पक्ष, विभङ्गज्ञान और अवधिदर्शन, इन दोनों के भेद की विवक्षा नहीं करता और सैद्धान्तिक-पक्ष करता है।
-लोकप्रकाश सर्ग ३, श्लो. १०५७ से आगे। इस मत-भेद का उल्लेख विशेषणवती ग्रन्थ में श्रीजिनभद्रगणि क्षमाश्रमण ने किया है, जिसकी सूचना प्रज्ञापना-पद १८, वृत्ति पृ. (कलकत्ता) ५६६ पर है।
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परिशिष्ट
परिशिष्ट 'ढ'
पृष्ठ ८३, पंक्ति २० के 'आहारक' शब्द पर
(केवलज्ञानी के आहार पर विचार )
तेरहवें गुणस्थान के समय आहारकत्व का अङ्गीकार यहाँ के समान दिगम्बरीय ग्रन्थों में है । - तत्त्वार्थ अ. १, सू. ८की सर्वार्थसिद्धि ।
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'आहारानुवादेन आहारकेषु मिथ्यादृष्ट्यादीनि सयोग केवल्यन्तानि' । इस तरह गोम्मटसार-जीवकाण्ड ६६५ और ६९७वीं गाथा भी इसके लिये देखने योग्य है।
उक्त गुणस्थान में असातावेदनीय का उदय भी दोनों सम्प्रदाय के ग्रन्थों ( दूसरा कर्मग्रन्थ गा. २२, कर्मकाण्ड, गा. २७१) में माना हुआ है। इसी तरह उस समय आहारसंज्ञा न होने पर भी कार्मणशरीर नामकर्म के उदय से कर्म पुद्गलों की तरह औदारिकशरीर नामकर्म के उदय से औदारिक- पुद्गलों का ग्रहण दिगम्बरीय ग्रन्थ (लब्धिसार गा. ६१४ ) में भी स्वीकृत है। आहारकत्व की व्याख्या गोम्मटसार में इतनी अधिक स्पष्ट है कि जिससे केवली के द्वारा औदारिक, भाषा और मनोवर्गणा के पुद्गल ग्रहण किये जाने के सम्बन्ध में कुछ भी सन्देह नहीं रहता (जीव. गा. ६६३ - ६६४) । औदारिक पुद्गलों का निरन्तर ग्रहण भी एक प्रकार का आहार है, जो 'लोमाहार' कहलाता है। इस आहार के लिये जाने तक शरीर का निर्वाह और इसके अभाव में शरीर का अनिर्वाह अर्थात् योग-प्रवृत्ति पर्यन्त औदारिक पुद्गलों का ग्रहण अन्वयव्यतिरेक से सिद्ध है। इस तरह केवलज्ञानी में आहारकत्व, उसका कारण असातावेदनीय का उदय और औदारिक पुद्गलों का ग्रहण, दोनों सम्प्रदाय को समानरूप से मान्य है । दोनों सम्प्रदाय की यह विचार - समता इतनी अधिक है कि इसके सामने कवलाहार का प्रश्न विचारशीलों की दृष्टि में आप ही आप हल हो जाता है।
केवलज्ञानी कवलाहार को ग्रहण नहीं करते, ऐसा माननेवाले भी उनके द्वारा अन्य सूक्ष्म औदारिक पुद्गलों का ग्रहण किया जाना निर्विवाद मानते ही हैं। जिनके मत में केवलज्ञानी कवलाहार ग्रहण करते हैं; उनके मत से वह स्थूल औदारिक पुद्गल के अतिरिक्त और कुछ भी नहीं है। इस प्रकार कवलाहार माननेवाले- न माननेवाले उभय के मत में केवलज्ञानी के द्वारा किसी-न-किसी प्रकार के औदारिक पुद्गलों का ग्रहण किया जाना समान है। ऐसी दशा में कवलाहार के प्रश्न को विरोध का साधन बनाना अर्थहीन है।
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चौथा कर्मग्रन्थ
परिशिष्ट 'त'
पृष्ठ ९६, पंक्ति २० के 'दृष्टिवाद' शब्द पर
(स्त्री को दृष्टिवाद नामक बारहवाँ अङ्ग पढ़ने का निषेध है, इस पर विचार | ) समानता - व्यवहार और शास्त्र, ये दोनों, शारीरिक और आध्यात्मिकविकास में स्त्री को पुरुष के समान सिद्ध करते हैं । कुमारी ताराबाई का शारीरिकबल में प्रो. राममूर्ति से कम न होना, विदुषी ऐनी बीसेन्ट का विचार व वक्तृत्वशक्ति में अन्य किसी विचारक वक्ता - पुरुष से कम न होना एवं विदुषी सरोजिनी नाइडू का कवित्व शक्ति में किसी प्रसिद्ध पुरुष - कवि से कम न होना, इस बात का प्रमाण है कि समान साधन और अवसर मिलने पर भी स्त्री भी पुरुष - - जितनी योग्यता प्राप्त कर सकती है। श्वेताम्बर आचार्यों ने स्त्री को पुरुष के बराबर योग्य मान कर उसे कैवल्य व मोक्ष की अर्थात् शारीरिक और आध्यात्मिक पूर्ण विकास की अधिकारिणी सिद्ध किया है। इसके लिये देखिये, प्रज्ञापना- सूत्र. ७, पृ. १८; नन्दी-सू. २१, पृ. १३०/१।
इस विषय में मतभेद रखने वाले दिगम्बर - आचार्यों के विषय में उन्होंने बहुत कुछ लिखा है। इसके लिये देखिये, नन्दी - टीका, पृ. १३१/१-१३३/ १; प्रज्ञापना- टीका, २०-२२ / १; पृ. शास्त्रवार्तासमुच्चय-टीका, पृ. ४२५
२३०|
आलङ्कारिक पण्डित राजशेखर ने मध्यस्थ भावपूर्वक स्त्रीजाति को पुरुषजाति के तुल्य बलताया है
'पुरुषवत् योषितोऽपि कवीभवेयुः । संस्कारो ह्यात्मनि समवैति, न स्त्रैणं पौरुषं वा विभागमपेक्षते । श्रूयन्ते दृश्यन्ते च राजपुत्र्यो महामात्यदुहितरो गणिकाः कौतुकिभार्याश्च शास्त्रप्रतिबुद्धाः कवयश्च । ' -काव्यमीमांसा-अध्याय १० ।
( विरोध: ) - स्त्री को दृष्टिवाद के अध्ययन का जो निषेध किया है, इसमें दो तरह से विरोध आता है - १. तर्क- दृष्टि और २. शास्त्रोक्त मर्यादा से।
१. एक ओर स्त्री को केवलज्ञान व मोक्ष तक की अधिकारिणी मानना और दूसरी ओर उसे दृष्टिवाद के अध्ययन के लिये - श्रुतज्ञान-विशेष के लिये - अयोग्य बतलाना, ऐसा विरुद्ध जान पड़ता है, जैसे किसी को रत्न सौंपकर कहना कि तुम कौड़ी की रक्षा नहीं कर सकते।
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परिशिष्ट
२. दृष्टिवाद के अध्ययन का निषेध करने से शास्त्र - कथित कार्य-कारणभाव की मर्यादा भी बाधित हो जाती है। जैसे— शुक्लध्यान के पहले दो पाद प्राप्त किये बिना केवलज्ञान प्राप्त नहीं होता; 'पूर्व' के ज्ञान के बिना शुक्लध्यान के प्रथम दो पाद प्राप्त नहीं होते और 'पूर्व', दृष्टिवाद एक हिस्सा है। यह मर्यादा शास्त्र में निर्विवाद स्वीकृत है। - तत्त्वार्थ- अ. ९, सू. ३९।
'शुक्ले चाद्ये पूर्वविदः । '
इस कारण दृष्टिवाद के अध्ययन की अनधिकारिणी स्त्री को केवलज्ञान की अविकारिणी मान लेना स्पष्ट विरुद्ध जान पड़ता है।
दृष्टिवाद अनधिकार के कारणों के विषय में दो पक्ष हैं
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(क) पहला पक्ष, श्रीजिनभद्रगणि क्षमाश्रमण आदि का है। इस पक्ष में स्त्री में तुच्छत्व, अभिमान, इन्द्रिय- चाञ्चल्य, मति- मान्द्य आदि मानसिक दोष दिखाकर उसको दृष्टिवाद के अध्ययन का निषेध किया है। इसके लिये देखिये, विशे. भा., ५५२वीं गाथा ।
(ख) दूसरा पक्ष, श्रीहरिभद्रसूरि आदि का है । इस पक्ष में अशुद्धि रूप शारीरिक- दोष दिखाकर उसका निषेध किया है। यथा
'कथं द्वादशाङ्गप्रतिषेधः ? तथाविधविग्रहे ततो दोषात्' ।
- ललितविस्तरा, पृ. १११ / १ ।
(नय दृष्टि से विरोध का परिहार ) – दृष्टिवाद के अनधिकार से स्त्री को केवलज्ञान के पाने में जो कार्य-कारण-भाव का विरोध दीखता है, वह वस्तुतः विरोध नहीं है; क्योंकि शास्त्र, स्त्री में दृष्टिवाद के अर्थ - ज्ञान की योग्यता मानता है; निषेध सिर्फ शाब्दिक-अध्ययन का है।
'श्रेणिपरिणतौ तु कालगर्भवद्भावतो भावोऽविरुद्ध एव । '
- ललितविस्तरा तथा इसकी श्रीमुनिभद्रसूरि - कृत पञ्चिका, पृ. १११। तप, भावना आदि से जब ज्ञानावरणीय का क्षयोपशम तीव्र हो जाता है, तब स्त्री शाब्दिक - अध्ययन के अतिरिक्त ही दृष्टिवाद का सम्पूर्ण अर्थ - ज्ञान कर लेती है और शुक्लध्यान के ही पाद पाकर केवलज्ञान को भी पा लेती है
'यदि च 'शास्त्रयोगागम्यसामर्थ्ययोगावसेयभावेष्वतिसूक्ष्मेष्वपि तेषां - विशिष्ट क्षयोपशमप्रभवप्रभावयोगात् पूर्वधरस्येव बोधातिरेकसद्भावादाद्य
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चौथा कर्मग्रन्थ
शुक्लध्यानद्वयप्राप्तेः केवलावाप्तिक्रमेण मुक्तिप्राप्तिरिति न दोषः, अध्ययनमन्तरेणापि भावतः पूर्ववित्त्वसंभवात् इति विभाव्यते, तदा निर्ग्रन्थीनामप्येवं द्वितयसंभवे दोषाभावात् । ' - शास्त्रवार्ता, पृ. ४२६ ।
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यह नियम नहीं है कि गुरु- मुख से शाब्दिक - अध्ययन बिना किये अर्थज्ञान न हो। अनेक लोग ऐसे देखे जाते हैं, जो किसी से बिना पढ़े ही मननचिन्तन- द्वारा अपने अभीष्ट विषय का गहरा ज्ञान प्राप्त कर लेते हैं।
अब रहा शाब्दिक - अध्ययन का निषेध, तो इस पर अनेक तर्क-वितर्क उत्पन्न होते हैं। यथा — जिसमें अर्थ - ज्ञान की योग्यता मान ली जाय, उसको सिर्फ शाब्दिक - अध्ययन के लिये अयोग्य बतलाना क्या संगत है ? शब्द, अर्थ-ज्ञान का साधनमात्र है। तप, भावना आदि अन्य साधनों से जो अर्थ- ज्ञान संपादन कर सकता है, वह उस ज्ञान को शब्द द्वारा संपादन करने के लिये अयोग्य है, यह कहना कहाँ तक संगत है। शाब्दिक - अध्ययन के निषेध के लिये तुच्छत्व, अभिमान आदि जो मानसिक दोष दिखाये जाते हैं, वे क्या पुरुषजाति में नहीं होते? यदि विशिष्ट पुरुषों में उक्त दोषों का अभाव होने के कारण पुरुष-सामान्य के लिये शाब्दिक - अध्ययन का निषेध नहीं किया है तो क्या पुरुष-तुल्य विशिष्ट स्त्रियों का संभव नहीं है? यदि असंभव होता तो स्त्री मोक्ष का वर्णन क्यों किया जाता ? शाब्दिक - अध्ययन के लिये जो शारीरिक दोषों की संभावना की गयी है, वह भी क्या सब स्त्रियों पर लागू होती है? यदि कुछ स्त्रियों पर लागू होती है तो क्या कुछ पुरुषों में भी शारीरिक अशुद्धि की संभावना नहीं है? ऐसी दशा में पुरुषजाति को छोड़ स्त्री जाति के लिये शाब्दिक - अध्ययन का निषेध किस अभिप्राय से किया है? इन तर्कों के सम्बन्ध में संक्षेप में इतना ही कहना है कि मानसिक या शारीरिक दोष दिखाकर शाब्दिक - अध्ययन का जो निषेध किया गया है, वह प्रायिक जान पड़ता है, अर्थात् विशिष्ट स्त्रियों के लिये अध्ययन का निषेध नहीं है। इसके समर्थन में यह कहा जा सकता है कि जब विशिष्ट स्त्रियाँ, दृष्टिवाद का अर्थ- ज्ञान वीतरागभाव, केवलज्ञान और मोक्ष तक पाने में समर्थ हो सकती हैं, तो फिर उनमें मानसिक दोषों की संभावना ही क्या है ? तथा वृद्ध, अप्रमत्त और परम पवित्र आचारवाली स्त्रियों में शारीरिक- अशुद्धि कैसे बतलायी जा सकती है? जिनको दृष्टिवाद के अध्ययन के लिये योग्य समझा जाता है, वे पुरुष भी, वैसे— स्थूलभद्र, दुर्बलिका पुष्यमित्र आदि, तुच्छत्व, स्मृति - दोष आदि कारणों से दृष्टिवाद की रक्षा न कर सके।
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परिशिष्ट
'तेण चिन्तियं भगिणीणं इहिं दरिसेमित्ति सीहरूवं विउव्वइ।'
-आवश्यकवृत्ति, पृ. ६९८। 'ततो आयरिएहिं दुब्बलियपुस्समित्तो तस्स वायणायरिओ दिण्णो, ततो सो कइवि दिवसे वायणं दाऊण आयरियमुवट्ठितो भणइ मम वायणं देंतस्स नासति, जं च सण्णायघरे नाणुप्पेहियं, अतो मम अज्झरंतस्स नवमं पुव्वं नासिहिति, ताहे आयरिया चिन्तेति-जइ ताव एयस्स परममेहाविस्स एवं झरंतस्स नासइ अन्नस्स चिरनटुं चेवा' -आवश्यकवृत्ति, पृ. ३०८।
ऐसी वस्तु-स्थिति होने पर भी स्त्रियों को ही अध्ययन का निषेध क्यों किया गया? इस प्रश्न का उत्तर दो तरह से दिया जा सकता है-१. समान सामग्री मिलने पर भी पुरुषों की तुलना में स्त्रियों का कम संख्या में योग्य होना और २. ऐतिहासिक-परिस्थिति।
(१) जिन पश्चिमीय देशों में स्त्रियों को पढ़ने आदि की सामग्री पुरुषों के समान प्राप्त होती है, वहाँ का इतिहास देखने से यही जान पड़ता है कि स्त्रियाँ पुरुषों के तुल्य हो सकती हैं सही, पर योग्य व्यक्तियों की संख्या, स्त्रीजाति की अपेक्षा पुरुषजाति में अधिक पायी जाती है।
(२) कुन्दकुन्द-आचार्य जैसे प्रतिपादक दिगम्बर आचार्यों ने स्त्री-जाति को शारीरिक और मानसिक-दोष के कारण दीक्षा तक के लिये अयोग्य ठहराया।
"लिंगम्मि य इत्थीणं, थणंतरे णाहिकक्खदेसम्मि। भणिओ सुहमो काओ, तासं कह होइ पव्वज्जा।।'
-षट्पाहुड-सूत्रपाहुड गा. २४-२५। और वैदिक विद्वानों ने शारीरिक-शुद्धि को अग्र-स्थान देकर स्त्री और शूद्रजाति को सामान्यतः वेदाध्ययन के लिये अनधिकारी बतलाया
'स्त्रीशूद्रौ नाधीयातां'
इन विपक्षी सम्प्रदायों का इतना असर पड़ा कि उससे प्रभावित होकर पुरुषजाति के समान स्त्रीजाति की योग्यता मानते हुए भी श्वेताम्बर-आचार्य उसे विशेष-अध्ययन के लिये अयोग्य बतलाने लगे होंगे।
ग्यारह अङ्ग आदि पढ़ने का अधिकार मानते हुए भी सिर्फ बारहवें अग के निषेध का सबब यह भी जान पड़ता है कि दृष्टिवाद का व्यवहार में महत्त्व बना रहे। उस समय विशेषतया शारीरिक-शुद्धि पूर्वक पढ़ने में वेद आदि ग्रन्थों
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चौथा कर्मग्रन्थ की महत्ता समझी जाती थी। दृष्टिवाद सब अङ्गों में प्रधान था, इसलिये व्यवहारदृष्टि से उसकी महत्ता रखने के लिये अन्य बड़े पड़ोसी समाज का अनुकरण कर लेना स्वाभाविक है। इस कारण पारमार्थिक-दृष्टि से स्त्री को संपूर्णतया योग्य मानते हुए भी आचार्यों ने व्यावहारिक दृष्टि से शारीरिक-अशद्धि का खयाल कर उसको, शाब्दिक-अध्ययन मात्र के लिये अयोग्य बतलाया होगा।
भगवान् गौतम बुद्ध ने स्त्रीजाति को भिक्षुपद के लिये अयोग्य निर्धारित किया था, परन्तु भगवान् महावीर ने तो प्रारम्भ से ही उसको पुरुष के समान भिक्षपद की अधिकारिणी निश्चित किया था। इसी से जैनशासन में चतुर्विध सङ्घ प्रारम्भ से ही स्थापित है और साधु तथा श्रावकों की अपेक्षा साध्वियों तथा श्रविकाओं की संख्या आरम्भ से ही अधिक रही है, परन्तु अपने प्रधान शिष्य 'आनन्द' के आग्रह से भगवान् बुद्ध ने जब स्त्रियों को भिक्षु पद दिया, तब उनकी संख्या धीरे-धीरे बढ़ी और कुछ शताब्दियों के बाद अशिक्षा, कुप्रबन्ध आदि कई कारणों से उनमें बहुत-कुछ आचार-भ्रंश हुआ, जिससे कि बौद्धसङ्घ एक तरह से दूषित समझा जाने लगा। सम्भव है, इस परिस्थिति का जैनसम्प्रदाय पर भी कुछ असर पड़ा हो, जिससे दिगम्बर आचार्यों ने स्त्री को भिक्षपद के लिये ही अयोग्य करार दिया हो और श्वेताम्बर-आचार्यों ने ऐसा न करके स्त्रीजाति का उच्च अधिकार कायम रखते हुए भी दुर्बलता, इन्द्रिय-चपलता आदि दोषों को उस जाति में विशेष रूप से दिखाया हो; क्योंकि सहचर-समाजों के व्यवहारों का एक-दूसरे पर प्रभाव पड़ना अनिवार्य है।
__ परिशिष्ट 'थ' पृष्ठ १०१, पङ्क्ति १२ के 'भावार्थ' पर
इस जगह चक्षुर्दर्शन में तेरह योग माने गये हैं, पर श्रीमलयगिरिजी ने उसमें ग्यारह योग बतलाये हैं। कार्मण, औदारिकमिश्र, वैक्रियमिश्र और आहारकमिश्र ये चार योग छोड़ दिये हैं।
-पञ्च. द्वा. १ की १२वी गाथा की टीका। ग्यारह मानने का तात्पर्य यह है कि जैसे अपर्याप्त-अवस्था में चक्षुर्दर्शन न होने से उसमें कार्मण और औदारिकमिश्र, ये दो अपर्याप्त-अवस्था-भावी योग नहीं होते, वैसे ही वैक्रियमिश्र या आहारकमिश्र-काययोग रहता है, तब तक अर्थात् वैक्रियशरीर या आहारकशरीर अपूर्ण हो तब तक चक्षुर्दर्शन नहीं होता, इसलिये उसमें वैक्रियमिश्र और आहारकमिश्र-योग भी न मानने चाहिये।
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इस पर यह शङ्का हो सकती है कि अपर्याप्त-अवस्था में इन्द्रियपर्याप्ति पूर्ण बन जाने के बाद १७वीं गाथा में उल्लेखित मतान्तर के अनुसार यदि चक्षुर्दर्शन मान लिया जाय तो उसमें औदारिक मिश्र काययोग जो कि अपर्याप्तअवस्था-भावी है, उसका अभाव कैसे माना जा सकता है।
इस शङ्का का समाधान यह किया जा सकता है कि पञ्चसंग्रह में एक ऐसा मतान्तर है, जो कि अपर्याप्त-अवस्था में शरीरपर्याप्ति पूर्ण न बन जाय तब तक मिश्रयोग मानता है, बन जाने के बाद नहीं मानता। -पञ्च. द्वा. १ की ७वीं गाथा की टीका। उस मत के अनुसार अपर्याप्त अवस्था में जब चक्षुर्दर्शन होता है तब मिश्रयोग न होने के कारण चक्षुर्दर्शन में औदारिकमिश्र काययोग का वर्जन विरुद्ध नहीं है।
इस जगह मन:पर्यायज्ञान में तेरह योग माने हुए हैं, जिनमें आहारक द्विक का समावेश है, पर गोम्मटसार-कर्मकाण्ड यह नहीं मानता; क्योंकि उसमें लिखा है कि परिहारविशुद्ध चारित्र और मन:पर्यायज्ञान के समय आहारक शरीर तथा आहारक-अङ्गोपाङ्ग नामकर्म का उदय नहीं होता। कर्मकाण्ड गा. ३२४। जब तक आहारक-द्विक का उदय न हो, तब तक आहारक शरीर रचा नहीं जा सकता
और उसकी रचना के अतिरिक्त आहारकमिश्र और आहारक, ये दो योग असम्भव हैं। इससे सिद्ध है कि गोम्मटसार, मनःपर्यायज्ञान में दो आहारकयोग नहीं मानता। इसी बात की पुष्टि जीवकाण्ड की ७२८वीं गाथा से भी होती है। उसका मतलब इतना ही है कि मन:पर्यायज्ञान, परिहारविशद्धसंयम, प्रथमोपशमसम्यक्त्व और आहारक-द्विक, इन भावों में से किसी एक के प्राप्त होने पर शेष भाव प्राप्त नहीं होते।
परिशिष्ट 'द' पृष्ठ १०४, पति ६ के 'केवलिसमुद्धात' शब्द पर
(केवलिसमुद्धात के सम्बन्ध की कुछ बातों पर विचार) (क) पूर्वभावी क्रिया-केवलिसमुद्धात रचने के पहले एक विशेष क्रिया की जाती है, जो शुभयोग रूप है, जिसकी स्थिति अन्तर्मुहूर्त प्रमाण है और जिसका कार्य उदयावलिका में कर्मदलिकों का निक्षेप करना है। इस क्रिया-विशेष को 'आयोजिकाकरण' कहते हैं। मोक्ष की ओर आवर्जित (झुके हुए) आत्मा के
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चौथा कर्मग्रन्थ द्वारा किये जाने के कारण इसको 'आवर्जितकरण' कहते हैं और सब केवलज्ञानियों के द्वारा अवश्य किये जाने के कारण इसको 'आवश्यककरण' भी कहते हैं। श्वेताम्बर-साहित्य में आयोजिकाकरण आदि तीनों संज्ञायें प्रसिद्ध हैं। -विशे.आ., गा. ३०५०/५१ तथा पञ्च. द्वा. १, गा. १६ की टीका।
दिगम्बर-साहित्य में सिर्फ 'आवर्जितकरण' संज्ञा प्रसिद्ध है। लक्षण भी उसमें स्पष्ट है
'हेट्ठा दंडस्संतो,- मुहुत्तमावज्जिदं हवे करणं। तं च समुग्धादस्स य, अहिमुहभावो जिणिदस्स।।'
-लब्धिसार, गा. ६१७। (ख) केवलिसमुद्धात का प्रयोजन और विधान-समय
जब वेदनीय आदि अघातिकर्म की स्थिति तथा दलिक, आयुकर्म की स्थिति तथा दलिक से अधिक हों तब उनको आपस में बराबर करने के लिये केवलिसमुद्धात करना पड़ता है। इसका विधान, अन्तर्मुहूर्त-प्रमाण आयु बाकी रहने के समय होता है।
(ग) स्वामी–केवलज्ञानी ही केवलिसमुद्धात को रचते हैं। (घ) काल-मान-केवलिसमुद्धात का काल-मान आठ समय का है।
(ङ) प्रक्रिया-प्रथम समय में आत्मा के प्रदेशों को शरीर से बाहर निकालकर फैला दिया जाता है। उस समय उनका आकार, दण्ड जैसा बनता है। आत्मप्रदेशों का यह दण्ड, ऊँचाई में लोक के ऊपर से नीचे तक, अर्थात् चौदह रज्जु-परिमाण होता है, परन्तु उसकी मोटाई सिर्फ शरीर के बराबर होती है। दूसरे समय में उक्त दण्ड को पूर्व-पश्चिम या उत्तर-दक्षिण फैलाकर उसका आकार, कपाट (किवाड़) जैसा बनाया जाता है। तीसरे समय में कपाटाकार आत्म-प्रदेशों को मन्थाकार बनाया जाता है, अर्थात् पूर्व-पश्चिम, उत्तर-दक्षिण, दोनों तरह फैलाने से उनका आकार रई (मथनी) का सा बन जाता है। चौथे समय में विदिशाओं के खाली भागों को आत्म-प्रदेशों से पूर्ण करके उनसे सम्पूर्ण लोक को व्याप्त किया जाता है। पाँचवें समय में आत्मा के लोक-व्यापी प्रदेशों को संहरण-क्रिया द्वारा फिर मन्थाकार बनाया जाता है। छठे समय में मन्थाकार से कपाटाकार बना लिया जाता है। सातवें समय में आत्म-प्रदेश फिर दण्ड रूप बनाये जाते हैं और आठवें समय में उनको असली स्थिति में शरीरस्थ-किया जाता है।
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(च) जैन- दृष्टि के अनुसार आत्म-व्यापकता की सङ्गति — उपनिषद्, भगवद्गीता आदि ग्रन्थों में भी आत्मा की व्यापकता का वर्णन किया है। 'विश्वतश्चक्षुरुत विश्वतो मुखो विश्वतो बहुरुप विश्वतस्स्यात् । ' -श्वेताश्वतरोपनिषद् ३.३, ११.१५।
'सर्वतः पाणिपादं तत्, सर्वतोऽक्षिशिरोमुखं । सर्वतः श्रुतिमल्लोके, सर्वमावृत्य तिष्ठति । ।'
- भगवद्गीता, १३.१३।
जैन- दृष्टि के अनुसार यह वर्णन अर्थवाद है, अर्थात् आत्मा की महत्ता व प्रशंसा का सूचक है। इस अर्थवाद का आधार केवलिसमुद्धात के चौथे समय में आत्मा का लोक-व्यापी बनना है। यही बात उपाध्याय श्रीयशोविजय जी ने शास्त्रवार्त्तासमुच्चय के ३३८वें पृष्ठ पर निर्दिष्ट की है।
जैसे वेदनीय आदि कर्मों को शीघ्र भोगने के लिये समुद्धात - क्रिया मानी जाती है, वैसे ही पातञ्जल योगदर्शन में 'बहुकायनिर्माण क्रिया' मानी है, जिसको तत्त्वसाक्षात्कर्ता योगी, सोपक्रम कर्म शीघ्र भोगने के लिये करता है। - पाद ३, सू. २२ का भाष्य तथा वृत्ति; पाद ४, सूत्र ४ का भाष्य तथा वृत्ति ।
परिशिष्ट 'ध'
पृष्ठ ११७, पङ्कि १८ के 'काल' शब्द पर
'काल' के सम्बन्ध में जैन और वैदिक, दोनों दर्शनों में करीब ढाई हजार वर्ष पहले से दो पक्ष चले आ रहे हैं। श्वेताम्बर - ग्रन्थों में दोनों पक्ष वर्णित हैं। दिगम्बर-ग्रन्थों में एक ही पक्ष नजर आता है ।
(१) पहला पक्ष, काल को स्वतन्त्र द्रव्य नहीं मानता। वह मानता है कि जीव और अजीव द्रव्य का पर्याय-प्रवाह ही 'काल' है। इस पक्ष के अनुसार जीवाजीव- द्रव्य का पर्याय परिणमन ही उपचार से काल माना जाता है। इसलिये वस्तुतः जीव और अजीव को ही काल- द्रव्य समझना चाहिये। वह उनसे अलग तत्त्व नहीं है। यह पक्ष 'जीवाभिगम' आदि आगमों में है।
(२) दूसरा पक्ष काल को स्वतन्त्र द्रव्य मानता है। वह कहता है कि जैसे जीव- पुद्गल आदि स्वतन्त्र द्रव्य हैं; वैसे ही काल भी । इसलिये इस पक्ष के
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अनुसार काल को जीवादि के पर्याय प्रवाहरूप न समझकर जीवादि से भिन्न तत्त्व ही समझना चाहिये। यह पक्ष 'भगवती' आदि आगमों में है।
आगम के बाद के ग्रन्थों में, जैसे - तत्त्वार्थसूत्र में वाचक उमास्वाति ने, द्वात्रिंशिका में श्री सिद्धसेन दिवाकर ने, विशेषावश्यकभाष्य में, श्री जिनभद्रगणि क्षमाश्रमण ने धर्मसंग्रहणी में, श्री हरिभद्रसूरि ने योगशास्त्र में, श्री हेमचन्द्रसूरि ने, द्रव्य-गुण- पर्याय के रास में श्री उपाध्याय यशोविजय जी ने, लोकप्रकाश में श्री विनय - विजय जी ने और नयचक्रसार तथा आगमसार में श्री देवचन्द्र जी ने आगमगत उक्त दोनों पक्षों का उल्लेख किया है। दिगम्बर- सम्प्रदाय में सिर्फ दूसरे पक्ष का स्वीकार है, जो सबसे पहले श्री कुन्दकुन्दाचार्य के ग्रन्थों में मिलता है। इसके बाद पूज्यपादस्वामी, भट्टारक श्री अकलङ्कदेव, विद्यानन्दस्वामी, नेमिचन्द्र सिद्धान्तचक्रवर्ती और बनारसीदास आदि ने भी उस एक ही पक्ष का उल्लेख किया है।
पहले पक्ष का तात्पर्य - पहला पक्ष कहता है कि समय, आवलिका, मुहूर्त, दिन-रात आदि जो व्यवहार, काल- साध्य बतलाये जाते हैं या नवीनतापुराणता, ज्येष्ठता- कनिष्ठता आदि जो अवस्थाएँ, काल - साध्य बतलायी जाती हैं, वे सब क्रिया - विशेष (पर्याय - विशेष) के ही संकेत हैं। जैसे—- जीव या अजीव का जो पर्याय, अविभाज्य है, अर्थात् बुद्धि से भी जिसका दूसरा हिस्सा नहीं हो सकता, उस आखिरी अतिसूक्ष्म पर्याय को 'समय' कहते हैं। ऐसे असंख्यात पर्यायों के पुञ्ज को 'आवलिका' कहते हैं। अनेक आवलिकाओं को 'मुहूर्त' और तीस मुहूर्त को 'दिन-रात' कहते हैं। दो पर्यायों में से जो पहले हुआ हो, वह 'पुराण' और जो पीछे से हुआ हो, वह 'नवीन' कहलाता है। दो जीवधारियों में से जो पीछे से जन्मा हो, वह 'कनिष्ठ' और जो पहले जन्मा हो, वह 'ज्येष्ठ' कहलाता है। इस प्रकार विचार करने से यही जान पड़ता है कि समय, आवलिका आदि सब व्यवहार और नवीनता आदि सब अवस्थाएँ, विशेष - विशेष प्रकार के पर्यायों के ही अर्थात् निर्विभाग पर्याय और उनके छोटे-बड़े बुद्धि-कल्पित समूहों के ही संकेत हैं। पर्यायें, जीव अजीव की क्रिया हैं, जो किसी तत्त्वान्तर की प्रेरणा के अतिरिक्त ही हुआ करती हैं। अर्थात् जीव-अजीव दोनों अपनेअपने पर्यायरूप में आप ही परिणत हुआ करते हैं। इसलिये वस्तुतः जीव- अजीव • के पर्याय- पुञ्ज को ही काल कहना चाहिये। काल कोई स्वतन्त्र द्रव्य नहीं है।
दूसरे पक्ष का तात्पर्य - जिस प्रकार जीव- पुद्गल में गति - स्थिति करने का स्वभाव होने पर भी उस कार्य के लिये निमित्तकारणरूप से 'धर्म-अस्तिकाय '
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और 'अधर्म-अस्तिकाय' तत्त्व माने जाते हैं। इसी प्रकार जीव अजीव में पर्यायपरिणमन का स्वभाव होने पर भी उसके लिये निमित्तकारण रूप से काल-द्रव्य मानना चाहिये। यदि निमित्तकारणरूप से काल न माना जाय तो धर्म-अस्तिकाय और अधर्म-अस्तिकाय मानने में कोई युक्ति नहीं।
दूसरे पक्ष में मत-भेद-काल को स्वतन्त्र द्रव्य मानने वालों में भी उसके स्वरूप के सम्बन्ध में दो मत हैं
१. कालद्रव्य, मनुष्य-क्षेत्रमात्र में ज्योतिष्-चक्र के गति-क्षेत्र मेंवर्तमान है। वह मनुष्य-क्षेत्र-प्रमाण होकर भी सम्पूर्ण लोक परिवर्तनों का निमित्त बनता है। काल, अपना कार्य ज्योतिष्-चक्र की गति की मदद से करता है। इसलिये मनुष्य-क्षेत्र से बाहर कालद्रव्य न मानकर उसे मनुष्य-क्षेत्र-प्रमाण ही मानना युक्त है। यह मत धर्मसंग्रहणी आदि श्वेताम्बर-ग्रन्थों में है।
२. कालद्रव्य, मनुष्य-क्षेत्रमात्र वर्गी नहीं है; किन्तु लोक-व्यापी है। वह लोक-व्यापी होकर भी धर्म-अस्तिकाय की तरह स्कन्ध नहीं है; किन्तु अणुरूप है। इसके आणुओं की संख्या लोकाकाश के प्रदेशों के बराबर है। वे अणु, गतिहीन होने से जहाँ के तहाँ अर्थात् लोकाकाश के प्रत्येक प्रदेश पर स्थित रहते हैं। इनका कोई स्कन्ध नहीं बनता। इस कारण इनमें तिर्यक्-प्रचय (स्कन्ध) होने की शक्ति नहीं है। इसी सब के कालद्रव्य को अस्तिकाय में नहीं गिना है। तिर्यक् प्रचय न होने पर भी ऊर्ध्व-प्रचय है। इससे प्रत्येक काल-अणु में लगातार पर्याय हुआ करते हैं। ये ही पर्याय, 'समय' कहलाते हैं। एक-एक काल-अणु के अनन्त समय-पर्याय समझने चाहिये। समय-पर्याय ही अन्य द्रव्यों के पर्यायों का निमित्तकारण है। नवीनता-पुराणता, ज्येष्ठता-कनिष्ठता आदि सब अवस्थाएँ, काल-अणु के समय-प्रवाह की बदौलत ही समझनी चाहिये। पुद्गल-परमाणु को लोक-आकाश के एक प्रदेश से दूसरे प्रदेश तक मन्दगति से जाने में जितनी देर होती है, उतनी देर में काल-अण का एक समय-पर्याय व्यक्त होता है। अर्थात् समय-पर्याय और एक प्रदेश से दूसरे प्रदेश तक की परमाणु की मन्द गति, इन दोनों का परिमाण बराबर है। यह मन्तव्य दिगम्बर-ग्रन्थों में है।
वस्तु-स्थिति क्या है—निश्चय-दृष्टि से देखा जाय तो काल को अलग द्रव्य मानने की कोई जरूरत नहीं है। उसे जीवाजीव के पर्यारूप मानने से ही सब कार्य व सब व्यवहार उपपन्न हो जाते हैं। इसलिये यही पक्ष, तात्त्विक है। अन्य पक्ष, व्यावहारिक व औपचारिक हैं। काल को मनुष्य-क्षेत्र-प्रमाण मानने का पक्ष
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चौथा कर्मग्रन्थ
स्थूल लोक व्यवहार पर निर्भर है और उसे अणुरूप मानने का पक्ष, औपचारिक है, ऐसा स्वीकार न किया जाय तो यह प्रश्न होता है कि जब मनुष्य-क्षेत्र से बाहर भी नवत्व पुराणत्व आदि भाव होते हैं, तब फिर काल को मनुष्य-क्षेत्र में ही कैसे माना जा सकता है ? दूसरे यह मानने में क्या युक्ति है कि काल, ज्योतिष - चक्र के संचार की अपेक्षा से है? यदि अपेक्षा रखता भी हो तो क्या वह लोक-व्यापी होकर ज्योतिष-चक्र के संचार की मदद नहीं ले सकता ? इसलिये उसकी मनुष्य-क्षेत्र - प्रमाण मानने की कल्पना, स्थूल लोक व्यवहार निर्भर है— काल को अणुरूप मानने की कल्पना औपचारिक है। प्रत्येक पुद्गल - परमाणु को ही चार से कालाणु समझना चाहिये और कालाणु के अप्रदेशत्व के कथन की सङ्गति इसी तरह कर लेनी चाहिये ।
ऐसा न मानकर कालाणु को स्वतन्त्र मानने में प्रश्न यह होता है कि यदि काल स्वतन्त्र द्रव्य माना जाता है तो फिर वह धर्म - अस्तिकाय की तरह स्कन्धरूप क्यों नहीं माना जाता है ? इसके अतिरिक्त एक यह भी प्रश्न है कि जीव- अजीव के पर्याय में तो निमित्तकारण समय-पर्याय है। पर समय पर्याय में निमित्तकारण क्या है ? यदि वह स्वाभाविक होने से अन्य निमित्त की अपेक्षा नहीं रखता तो फिर जीव- अजीव के पर्याय भी स्वाभाविक क्यों न माने जायें? यदि समयपर्याय के वास्ते अन्य निमित्त की कल्पना की जाय तो अनवस्था आती है। इसलिये अणु-पक्ष को औपचारिक मानना ही ठीक है ।
वैदिक दर्शन में काल का स्वरूप - वैदिक दर्शनों में भी काल के सम्बन्ध में मुख्य दो पक्ष हैं - वैशेषिक दर्शन - अ. २, आ. २, सूत्र ६.१० तथा न्यायदर्शन, काल को सर्व व्यापी स्वतन्त्र द्रव्य मानते हैं। सांख्य- अ. २, सूत्र १२, योग तथा वेदान्त आदि दर्शन, काल को स्वतन्त्र द्रव्य न मानकर उसे प्रकृति-पुरुष (जड़-चेतन) का ही रूप मानते हैं। यह दूसरा पक्ष, निश्चय-दृष्टिमूलक है और पहला पक्ष, व्यवहार - मूलक।
जैन दर्शन में जिसको 'समय' और दर्शनान्तरों में जिसको 'क्षण' कहा है, उसको स्वरूप जानने के लिये तथा 'काल' नामक कोई स्वतन्त्र वस्तु नहीं है, वह केवल लौकिक दृष्टि का व्यवहार - निर्वाह के लिये क्षणानुक्रम के विषय में की हुई कल्पनामात्र है। इस बात को स्पष्ट समझने के लिये योगदर्शन, पा. ३, सू. ५२ का भाष्य देखना चाहिये। उक्त भाष्य में कालसम्बन्धी जो विचार है, वही निश्चय - दृष्टि - मूलक; अतएव तात्त्विक जान पड़ता है।
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विज्ञान की सम्मति — आजकल विज्ञान की गति सत्य दिशा की ओर है। इसलिये काल सम्बन्धी विचारों को उस दृष्टि के अनुसार भी देखना चाहिये । वैज्ञानिक लोग भी काल को दिशा की तरह काल्पनिक मानते हैं, वास्तविक नहीं ।
अतः सब तरह से विचार करने पर यही निश्चय होता है कि काल को अलग स्वतन्त्र द्रव्य मानने में दृढ़तर प्रमाण नहीं है।
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चौथा कर्मग्रन्थ तृतीयाधिकार के परिशिष्ट
परिशिष्ट 'प' पृ. १७९, पति १० के 'मूल बन्य-हेतु' पर
यह विषय, पञ्चसंग्रह द्वा. ४ की १९ और २०वीं गाथा में है, किन्तु उसके वर्णन में यहाँ की अपेक्षा कुछ भेद है। उसमें सोलह प्रकृतियों के बन्ध को मिथ्या-हेतुक, पैंतीस प्रकृतियों के बन्ध को अविरति-हेतुक, अरसठ प्रकृतियों के बन्ध को कषाय-हेतुक और सातावेदनीय के बन्ध को योग-हेतुक कहा है। यह कथन अन्वय-व्यतिरेक, उभय-मूलक कार्य-कारण-भाव को लेकर किया गया है। जैसे-मिथ्यात्व के सद्भाव में सोलह का बन्ध और उसके अभाव में सोलह के बन्ध का अभाव होता है; इसलिये सोलह के बन्ध का अन्वय-व्यतिरेक मिथ्यात्व के साथ घट सकता है। इसी प्रकार पैंतीस के बन्ध का अविरति के साथ, अरसठ के बन्ध का कषाय के साथ और सातावेदनीय के बन्ध का योग के साथ अन्वय-व्यतिरेक समझना चाहिये।
परन्तु इस जगह केवल अन्वय-मूलक कार्य:कारण-भाव को लेकर बन्ध का वर्णन किया है, व्यतिरेक की विवक्षा नहीं की है; इसी से यहाँ का वर्णन पञ्चसंग्रह के वर्णन से भिन्न मालूम पड़ता है। अन्वय-जैसे, मिथ्यात्वक समय, अविरति के समय, कषाय के समय और योग के समय सातावेदनीय का बन्ध अवश्य होता है; इसी प्रकार मिथ्यात्व के समय सोलह का बन्ध, मिथ्यात्व के समय तथा अविरति के समय पैंतीस का बन्ध और मिथ्यात्व के समय, अविरति के समय तथा कषाय के समय शेष प्रकृतियों का बन्ध अवश्य होता है। इस अन्वयमात्र को लक्ष्य में रखकर श्री देवेन्द्रसूरि ने एक, सोलह, पैंतीस और अरसठ के बन्ध को क्रमशः चतुर्हेतुक, एक-हेतुक, द्वि-हेतुक और त्रि-हेतुक कहा है। उक्त चारों बन्धों का व्यतिरेक तो पञ्चसंग्रह के वर्णनानुसार केवल एक-एक हेतु के साथ घट सकता है। पञ्चसंग्रह और यहाँ की वर्णन-शैली में भेद है, तात्पर्य में नहीं।
तत्त्वार्थ-अ. ८ सू. १ में बन्ध के हेतु पाँच कहे हुए हैं, उसके अनुसार अ. ९ सू. १ की सर्वार्थसिद्धि में उत्तर प्रकृतियों के बन्ध-हेतु के कार्य-कारणभाव का विचार किया है। उसमें सोलह के बन्ध को मिथ्यात्व-हेतुक, उन्तालीस के बन्ध को अविरति-हेतुक, छह के बन्ध को प्रमाद-हेतुक, अट्ठावन के बन्ध
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परिशिष्ट
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को कषाय- हेतुक और एक के बन्ध को योग-हेतुक बतलाया है। अविरति के अनन्तानुबन्धिकषाय-जन्य, अप्रत्याखनावरणकषाय-जन्यं और प्रत्याख्यानावरणकषाय-जन्य, ये तीन भेद किये हैं। प्रथम अविरति को पच्चीस के बन्ध का, दूसरी को दस के बन्ध का और तीसरी को चार के कारण दिखाकर कुल उन्तालीस के बन्ध को अविरति हेतुक कहा है । पञ्चसंग्रह में जिन अरसठ प्रकृतियों के बन्ध को कषाय-हे - हेतुक माना है, उनमें से चार के बन्ध को प्रत्याख्यानावरणकषाय-जन्य अविरति हेतुक और छ: के बन्ध को प्रमाद - हेतुक सर्वार्थसिद्धि में बतलाया है; इसलिये उसमें कषाय- - हेतुक बन्धवाल अट्ठावन प्रकृतियाँ ही कही हुई हैं।
परिशिष्ट 'फ'
पृ. २०६, पङ्गि १४ के 'मूल भाव' पर
गुणस्थानों में एक-जीवाश्रित भावों की संख्या जैसी इस गाथा में है, वैसी ही पञ्चसंग्रह के द्वार २ की ६४वीं गाथा में है; परन्तु इस गाथा की टीका और टब्बा में तथा पञ्चसंग्रह की उक्त गाथा की टीका में थोड़ा-सा व्याख्या - भेद है।
टीका - टबे में 'उपशमक' - 'उपशान्त' दो पदों से नौवाँ, दसवाँ और ग्यारहवाँ, ये तीन गुणस्थान ग्रहण किये गये हैं और 'अपूर्व' पद से आठवाँ गुणस्थानमात्र। नौवें आदि तीन गुणस्थानों में उपशमश्रेणि वाले औपशमिक सम्यक्त्वी को या क्षायिक सम्यक्त्वी को चारित्र औपशमिक माना है। आठवें गुणस्थान में औपशमिक या क्षायिक किसी सम्यक्त्व वाले को औपशमिक चारित्र इष्ट नहीं है, किन्तु क्षायोपशमिक । इसका प्रमाण गाथा में 'अपूर्व' शब्द का अलग ग्रहण करना है; क्योंकि यदि आठवें गुणस्थान में भी औपशमिक चारित्र इष्ट होता तो 'अपूर्व' शब्द अलग ग्रहण न करके उपशमक शब्द से ही नौवें आदि गुणस्थान की तरह आठवें का भी सूचन किया जाता। नौवें और दसवें गुणस्थान के क्षपक श्रेणि गत- जीव-सम्बन्धी भावों का व चारित्र का उल्लेख टीका या टबें में नहीं है।
पञ्चसंग्रह की टीका में श्रीमलयगिरि ने 'उपशमक' - 'उपशान्त' पद से आठवें से ग्यारहवें तक उपशमश्रेणि वाले चार गुणस्थान और 'अपूर्व' तथा 'क्षीण' पद से आठवाँ, नौवाँ, दसवाँ और बारहवाँ, ये क्षपकश्रेणि वाले चार गुणस्थान ग्रहण किये हैं। उपशमश्रेणि वाले उक्त चारों गुणस्थान में उन्होंने
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चौथा कर्मग्रन्थ
औपशमिक चारित्र माना है, पर क्षपकश्रेणि वाले चारों गुणस्थान के चारित्र के सम्बन्ध में कुछ उल्लेख नहीं किया है।
ग्यारहवें गुणस्थान में सम्पूर्ण मोहनीय का उपशम हो जाने के कारण सिर्फ औपशमिकचारित्र है। नौवें और दसवें गुणस्थान में औपशमिक - क्षायोपशमिक दो चारित्र हैं; क्योंकि इन दो गुणस्थानों में चारित्रमोहनीय की कुछ प्रकृतियाँ उपशान्त होती है, सब नहीं। उपशान्त प्रकृतियों की अपेक्षा से औपशमिक और अनुपशान्त प्रकृतियों की अपेक्षा से क्षायोपशमिक - चारित्र समझना चाहिये । यद्यपि वह बात इस प्रकार स्पष्टता से नहीं कही गई है परन्तु पञ्च द्वा. ३ की २५ वीं गाथा की टीका देखने से इस विषय में कुछ भी संदेह नहीं रहता, क्योंकि उसमें सूक्ष्मसंपराय चारित्र को, जो दसवें गुणस्थान में ही होता है, क्षायोपशमिक कहा गया है।
उपशमश्रेणि वाले आठवें, नौवें और दसवें गुणस्थान में चारित्रमोहनीय के उपशम का आरम्भ या कुछ प्रकृतियों का उपशम होने के कारण औपशमिक चारित्र, जैसे पञ्चसंग्रह - टीका में माना गया है, वैसे ही क्षपकश्रेणि वाले आठवें आदि तीनों गुणस्थानों में चारित्रमोहनीय के क्षय का आरम्भ या कुछ प्रकृतियों का क्षय होने के कारण क्षायिकचारित्र मानने में कोई विरोध नहीं दीख पड़ता ।
गोम्मटसार में उपशमश्रेणि वाले आठवें आदि चारों गुणस्थान में चारित्र औपशमिक ही माना है और क्षायोपशमिक का स्पष्ट निषेध किया है। इसी तरह क्षपकश्रेणिवाले चार गुणस्थानों में क्षायिकचारित्र ही मानकर क्षायोपशमिक का निषेध किया है। यह बात कर्मकाण्ड की ८४५ और ८४६वीं गाथाओं के देखने से स्पष्ट हो जाती है।
परिशिष्ट 'ब'
पृ. २०७, पङ्कि ३ के 'भावार्थ' शब्द पर
यह विचार एक जीव में किसी विवक्षित समय में पाये जानेवाले भावों का है। एक जीव में भिन्न-भिन्न समय में पाये जाने वाले भाव और अनेक जीव में एक समय में या भिन्न-भिन्न समय में पाये जानेवाले भाव प्रसङ्गवश लिखे जाते हैं। पहले तीन गुणस्थानों में औदयिक, क्षायोपशमिक और पारिणमिक, ये तीन भाव चौथे से ग्यारहवें तक आठ गुणस्थानों में पाँचों भाव बारहवें गुणस्थान में औपशमिक के अतिरिक्त चार भाव और तेरहवें तथा चौदहवें गुणस्थान औपशमिक-क्षायोपशमिक के अतिरिक्त तीन भाव होते हैं।
में
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अनेक जीवों का अपेक्षा से गुणस्थानों में भावों के उत्तर-भेद
क्षायोपशमिक-पहले दो गुणस्थानों में तीन अज्ञान, चक्षु आदि दो दर्शन, दान आदि पाँच लब्धियाँ, ये १०; तीसरें में तीन ज्ञान, तीन दर्शन, मिश्रदृष्टि, पाँच लब्धियाँ, ये १२; चौथे में तीसरे गुणस्थानवाले १२ किन्तु मिश्रदृष्टि के स्थान में सम्यक्त्व; पाँचवें में चौथे गुणस्थान वाले बारह तथा देशविरति, कुल १३; छठे, सातवें में उक्त तेरह में से देश-विरति को घटाकर उनमें सर्वविरति
और मन:पर्यवज्ञान मिलाने से १४; आठवें, नौवें और दसवें गुणस्थान में उक्त चौदहवें से सम्यक्त्व के अतिरिक्त शेष १३, ग्यारहवें-बारहवें गुणस्थान में उक्त तेरह में से चारित्र को छोड़कर शेष १२ क्षायोपशमिक भाव हैं। तेरहवें और चौदहवें में क्षायोशमिकभाव नहीं हैं।
औदयिक-पहले गुणस्थान में अज्ञान आदि २१; दूसरे में मिथ्यात्व के अतिरिक्त २०; तीसरे-चौथे में अज्ञान को छोड़ १६; पाँचवें में देवगति, नारकगति के अतिरिक्त उक्त उन्नीस में से शेष १७, छठे में तिर्यञ्चगति और असंयम घटाकर १५; सातवें में कृष्ण आदि तीन लेश्याओं को छोड़कर उक्त पन्द्रह में से शेष १२; आठवें-नौवें में तेजः और पद्म-लेश्या के अतिरिक्त १०; दसवें में क्रोधः मान, माया और तीन वेद के अतिरिक्त उक्त दस में से शेष ४, ग्यारहवें, बारहवें
और तेरहवें गुणस्थान में संज्वलनलोभ को छोड़ शेष ३ और चौदहवें; गुणस्थान में शुक्ललेश्या के अतिरिक्त तीन में से मनुष्यगति और असिद्धत्व, ये दो औदयिकभाव हैं।
क्षायिक-पहले तीन गणस्थानों में क्षायिकभाव नहीं हैं। चौथे से ग्यारहवें तक आठ गुणस्थानों में सम्यक्त्व, बारहवें में सम्यक्त्व और चारित्र दो और तेरहवें-चौदहवें दो गुणस्थानों में नौ क्षायिकभाव हैं। ___औपशमिक-पहले तीन और बारहवें आदि तीन, इन छ: गुणस्थानों में
औपशमिकभाव नहीं हैं। चौथे से आठवें तक पाँच गुणस्थानों में सम्यक्त्व, नौवें से ग्यारहवें तक तीन गुणस्थानों में सम्यक्त्व और चारित्र, ये दो औपशमिकभाव हैं। __पारिणामिक-पहले गुणस्थान में जीवत्व आदि तीनों; दूसरे से बारहवें तक ग्यारह गुणस्थानों में जीवत्व, भव्यत्व दो तेरहवें-चौदहवें में जीवत्व ही पारिणामिकभाव है। भव्यत्व अनादि-सान्त है। क्योंकि सिद्ध-अवस्था में उसका अभाव हो जाता है। घातिकर्म क्षय होने के बाद सिद्ध-अवस्था प्राप्त होने में
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१९२
चौथा कर्मग्रन्थ
बहुत विलम्ब नहीं लगता, इस अपेक्षा से तेरहवें - चौदहवें गुणस्थान में भव्यत्व पूर्वाचार्यों ने नहीं माना है।
गोम्मटसार- कर्मकाण्ड की ८२० से ८७५ तक की गाथाओं में स्थानगत तथा पद-गत भङ्ग द्वारा भावों का बहुत विस्तारपूर्वक वर्णन किया है। एक जीवाश्रित भावों के उत्तर भेद क्षायोपशमिक - पहले दो गुणस्थान में मति- -श्रुत दो या विभङ्गसहित तीन अज्ञान, अचक्षु एक या चक्षु अचक्षु दो दर्शन, दान आदि पाँच लब्धियाँ, तीसरे में दो या तीन ज्ञान, दो या तीन दर्शन, मिश्रदृष्टि, पाँच लब्धियाँ, चौथे में दो या तीन ज्ञान, अपर्याप्त अवस्था में अचक्षु एक या अवधिसहित दो दर्शन और पर्याप्त अवस्था में दो या तीन दर्शन, सम्यक्त्व, पाँच लब्धियाँ पाँचवे में दो या तीन ज्ञान, दो या तीन दर्शन, सम्यक्त्व देशविरति, पाँच लब्धियाँ, छठे सातवें में दो तीन या मन: पर्यायपर्यन्त चार ज्ञान, दो या तीन दर्शन, सम्यक्त्व, चारित्र, पाँच लब्धियाँ, आठवें, नौवें और दसवें में सम्यक्त्व को छोड़ छठे और सातवें गुणस्थानवाले सब क्षायोपशमिक भाव । ग्यारहवें - बारहवें में चारित्र को छोड़ दसवें गुणस्थानवाले सब भाव।
औदयिक - पहले गुणस्थान में अज्ञान, असिद्धत्व, असंयम, एक लेश्या, एक कषाय, एक गति, एक वेद और मिथ्यात्व, दूसरे में मिथ्यात्व को छोड़ पहले गुणस्थान वाले सब औदयिक, तीसरे, चौथे और पाँचवें में अज्ञान को छोड़ दूसरे वाले सब; छठे से लेकर नौवें तक में असंयम के अतिरिक्त पाँचवें वाले सब; दसवें में वेद के अतिरिक्त नौवें वाले सब; ग्यारहवें - बारहवें में कषाय के अतिरिक्त दसवें वाले सब; तेरहवें में असिद्धत्व, लेश्या और गति; चौदहवें में गति और असिद्धत्व।
क्षायिक - चौथे से ग्यारहवें गुणस्थान तक में सम्यक्त्व; बारहवें में सम्यक्त्व और चारित्र दो और तेरहवें चौदहवें में― नौ क्षायिकभाव।
औपशमिक - चौथे से आठवें तक सम्यक्त्व; नौवें से ग्यारहवें तक सम्यक्त्व और चारित्र ।
पारिणामिक - पहले में तीनों; दूसरे से बारहवें तक में जीवत्व और भव्यत्व दो; तेरहवें और चौदहवें में एक जीवत्व।
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परिशिष्ट
परिशिष्ट नं. १
श्वेताम्बरीय तथा दिगम्बरीय सम्प्रदाय के (कुछ) समान तथा असमान मन्तव्य
१९३
(क)
निश्चय और व्यवहार -दृष्टि से जीव शब्द की व्याख्या दोनों सम्प्रदाय में है। पृ. ४ पर देखें। इस सम्बन्ध में जीवकाण्ड का 'प्राणाधिकार' प्रकरण और उसकी टीका देखने योग्य है।
तुल्य
मार्गणास्थान शब्द की व्याख्या दोनों सम्प्रदाय में समान है । पृ. ४ पर देखें | गुणस्थान शब्द की व्याख्या - शैली कर्मग्रन्थ और जीवकाण्ड में भिन्न- सी है, पर उसमें तात्त्विक अर्थ भेद नहीं है। पृ. ४ पर देखें ।
उपयोग का स्वरूप दोनों सम्प्रदायों में समान माना गया है । पृ. ५ पर देखें |
कर्मग्रन्थ में अपर्याप्त संज्ञी को तीन गुणस्थान माने हैं, किन्तु गोम्मटसार में पाँच माने हैं। इस प्रकार दोनों का संख्याविषयक मतभेद है, तथापि वह अपेक्षाकृत है, इसलिये वास्तविक दृष्टि से उसमें समानता ही है। पृ. १२ पर देखें।
केवलज्ञानी के विषय में संज्ञित्व तथा असंज्ञित्व का व्यवहार दोनों सम्प्रदाय के शास्त्रों में समान है। पृ. १३ पर देखें।
वायुकाय के शरीर की ध्वजाकारता दोनों सम्प्रदाय को मान्य है। पृ. २० पर देखें।
छाद्मस्थिक उपयोगों का काल - मान अन्तर्मुहूर्त - प्रमाण दोनों सम्प्रदायों को मान्य है। पृ. २०, नोट देखें।
भावलेश्या के सम्बन्ध में स्वरूप, दृष्टान्त आदि अनेक बातें दोनों सम्प्रदाय तुल्य हैं। पृ. ३३।
में
चौदह मार्गणाओं का अर्थ दोनों सम्प्रदाय में समान हैं तथा उनकी मूल गाथाएँ भी एक-सी हैं। पृ. ४७, नोट देखें।
सम्यक्त्व की व्याख्या दोनों सम्प्रदाय में तुल्य है। पृ. ५०, नोट । व्याख्या कुछ भिन्न-सी होने पर भी आहार के स्वरूप में दोनों सम्प्रदाय का तात्त्विक भेद नहीं है। श्वेताम्बर - ग्रन्थों में सर्वत्र आहार के तीन भेद हैं और दिगम्बर-ग्रन्थों में कहीं छः भेद भी मिलते हैं। पृ. ५०, नोट देखें।
परिहारविशुद्धसंयम का अधिकारी कितनी उम्र का होना चाहिये, उसमें वह संयम किसके समीप ग्रहण किया जा सकता
कितना ज्ञान आवश्यक है और
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१९४
चौथा कर्मग्रन्थ
और उसमें विहार आदि का कालनियम कैसा है, इत्यादि उसके सम्बन्ध की बातें दोनों सम्प्रदाय में बहुत अंशों में समान हैं। पृ. ५९, नोट देखें।
क्षायिक सम्यक्त्व जिनकालिक मनुष्य को होता है, यह बात दोनों सम्प्रदाय को इष्ट है। पृ. ६६, नोट।
केवली में द्रव्यमन का सम्बन्ध दोनों सम्प्रदाय में इष्ट है। पृ. १०१, नोट
देखें।
मिश्रसम्यग्दृष्टि गुणस्थान में मति आदि उपयोगों की ज्ञान-अज्ञान उभयरूपता गोम्मटसार में भी है। पृ. १०९, नोट देखें।
गर्भज मनुष्यों की संख्या के सूचक उन्तीस अङ्क दोनों सम्प्रदाय में तुल्य हैं। पृ. ११७, नोट देखें।
इन्द्रियमार्गणा में द्वीन्द्रिय आदि का और कायमार्गणा में तेजकाय आदि का विशेषाधिकत्व दोनों सम्प्रदाय में समान इष्ट है। पृ. १२२, नोट देखें।
वक्रगति में विग्रहों की संख्या दोनों सम्प्रदाय में समान है। फिर भी श्वेताम्बरीय ग्रन्थों में कहीं-कहीं जो चार विग्रहों का मतान्तर पाया जाता है, वह दिगम्बरीय ग्रन्थों में देखने में नहीं आता। तथा वक्रगति का काल-मान दोनों सम्प्रदाय में तुल्य है। वक्रगति में अनाहारकत्व का काल मान, व्यवहार और निश्चय, दो दृष्टियों से विचारा जाता है। इनमें से व्यवहार-दृष्टि के अनुसार श्वेताम्बर-प्रसिद्ध तत्त्वार्थ में विचार है और निश्चय-दृष्टि के अनुसार दिगम्बर-प्रसिद्ध तत्त्वार्थ में विचार है। अतएव इस विषय में भी दोनों सम्प्रदाय का वास्तविक मतभेद नहीं है। पृ. १४३ देखें।
___ अवधिदर्शन में गुणस्थानों की संख्या के विषय में सैद्धान्तिक एक और कार्मग्रन्थिक दो, ऐसे जो तीन पक्ष हैं, उनमें से कार्मग्रन्थिक दोनों ही पक्ष दिगम्बरीय ग्रन्थों में मिलते हैं। पृ. १४६ देखें। __केवलज्ञानी में आहारकत्व, आहार का कारण असातावेदनीय का उदय और औदारिक पुद्गलों का ग्रहण, ये तीनों बातें दोनों सम्प्रदाय में समान मान्य हैं। पृ. १४८ देखें।
गुणस्थान में जीवस्थान का विचार गोम्मटसार में कर्मग्रन्थ की अपेक्षा कुछ भिन्न जान पड़ता है। पर वह अपेक्षाकृत होने से वस्तुत: कर्मग्रन्थ के समान ही है। पृ. १६१, नोट देखें।
गुणस्थान में उपयोग की संख्या कर्मग्रन्थ और गोम्मटसार में तुल्य है। पृ. १६७, नोट देखें।
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परिशिष्ट
एकेन्द्रिय में सासादनभाव मानने और न माननेवाले, ऐसे जो दो पक्ष श्वेताम्बर-ग्रन्थों में हैं, दिगम्बर-ग्रन्थों में भी हैं। पृ. १७१, नोट देखें।
श्वेताम्बर ग्रन्थों में जो कहीं कर्मबन्ध के चार हेतु, कहीं दो हेतु और कहीं पाँच हेतु कहे हुए हैं; दिगम्बर-ग्रन्थों में भी वे सब वर्णित हैं। पृ. १७४, नोट देखें।
बन्ध-हेतुओं के उत्तर-भेद आदि दोनों सम्प्रदाय में समान हैं। पृ. १७४, नोट देखें।
सामान्य तथा विशेष बन्ध-हेतुओं का विचार दोनों सम्प्रदाय के ग्रन्थों में है। पृ. १८१, नोट देखें।
एक संख्या के अर्थ में रूप शब्द दोनों सम्प्रदाय के ग्रन्थों में मिलता है। पृ. २१८, नोट देखें।
कर्मग्रन्थ में वर्णित दस तथा छः क्षेप त्रिलोकसार में भी हैं। पृ. २२१, नोट देखें।
उत्तर प्रकृतियों के मूल बन्ध-हेतु का विचार जो सर्वार्थसिद्धि में है, वह पञ्चसंग्रह में किये हुए विचार से कुछ भिन्न-सा होने पर भी वस्तुत: उसके समान ही है। पृ. २२७ देखें।
कर्मग्रन्थ तथा पञ्चसंग्रह में एक-जीवाश्रित भावों का जो विचार है, गोम्मटसार में बहुत अंशों में उसके समान ही वर्णन है। पृ. २२९ देखें।
श्वेताम्बर-ग्रन्थों में तेजःकाय को वैक्रियशरीर का कथन नहीं है, पर दिगम्बर-ग्रन्थों में है। पृ. १९, नोट देखें।
श्वेताम्बर सम्प्रदाय की अपेक्षा दिगम्बर सम्प्रदाय में संज्ञी-असंज्ञी का व्यवहार कुछ भिन्न है तथा श्वेताम्बर-ग्रन्थों में हेतुवादोपदेशिकी आदि संज्ञाओं का विस्तृत वर्णन है, पर दिगम्बर-ग्रन्थों में नहीं है। पृ. ३९ देखें।
श्वेताम्बर-शास्त्र-प्रसिद्ध करणपर्याप्त शब्द के स्थान में दिगम्बरशास्त्र में निर्वृत्त्यपर्याप्त शब्द है। व्याख्या भी दोनों शब्दों की कुछ भिन्न है। पृ. ४१ देखें।
श्वेताम्बर-ग्रन्थों में केवलज्ञान तथा केवलदर्शन का क्रमभावित्व, सहभावित्व और अभेद, ये तीन पक्ष हैं, परन्तु दिगम्बर-ग्रन्थों में सहभावित्व का एक ही पक्ष है। पृ. ४३ देखें।
लेश्या तथा आयु के बन्धाबन्ध की अपेक्षा से कषाय के जो चौदह और बीस भेद गोम्मटसार में हैं, वे श्वेताम्बर-ग्रन्थों में नहीं देखे गये। पृ. ५५, नोट देखें।
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चौथा कर्मग्रन्थ
अपर्याप्त अवस्था में औपशमिक सम्यक्त्व पाये जाने और न पाये जाने के सम्बन्ध में दो पक्ष श्वेताम्बर - ग्रन्थों में हैं, परन्तु गोम्मटसार में उक्त दो में से पहला पक्ष ही है । पृ. ७०, नोट देखें।
१९६
अज्ञान-त्रिक में गुणस्थानों की संख्या के सम्बन्ध में दो पक्ष कर्मग्रन्थ में मिलते हैं, परन्तु गोम्मटसार में एक ही पक्ष है। पृ. ८२, नोट देखें।
गोम्मटसार में नारकों की संख्या कर्मग्रन्थ- वर्णित संख्या से भिन्न है। पृ. ११९, नोट देखें।
द्रव्यमन का आकार तथा स्थान दिगम्बर सम्प्रदाय में श्वेताम्बर की अपेक्षा भिन्न प्रकार का माना है और तीन योगों के बाह्याभ्यन्तर कारणों का वर्णन राजवार्तिक में बहुत स्पष्ट किया है। पृ. १३४ देखें ।
मनः पर्यायज्ञान के योगों की संख्या दोनों सम्प्रदाय में तुल्य नहीं है । पृ. १५४ देखें।
श्वेताम्बर -ग्रन्थों में जिस अर्थ के लिये आयोजिकाकरण, आवर्जितकरण और आवश्यककरण, ऐसी तीन संज्ञाएँ मिलती हैं, दिगम्बर ग्रन्थों में उस अर्थ के लिये सिर्फ आवर्जितकरण, यह एक संख्या है। पृ. १५५ देखें ।
श्वेताम्बर -ग्रन्थों में काल को स्वतन्त्र द्रव्य भी माना है और उपचरित भी। किन्तु दिगम्बर ग्रन्थों में उसको स्वतन्त्र ही माना है । स्वतन्त्र पक्ष में भी काल का स्वरूप दोनों सम्प्रदाय के ग्रन्थों में एक-सा नहीं है। पृ. १५७ देखें।
किसी-किसी गुणस्थान में योगों की संख्या गोम्मटसार में कर्मग्रन्थ की अपेक्षा भिन्न है। पृ. १६३, नोट देखें।
दूसरे गुणस्थान के समय ज्ञान तथा अज्ञान माननेवाले ऐसे दो पक्ष श्वेताम्बर ग्रन्थों में हैं, परन्तु गोम्मटसार में सिर्फ दूसरा पक्ष है। पृ. १६९, नोट देखें। गुणस्थानों में लेश्या की संख्या के सम्बन्ध में श्वेताम्बर -ग्रन्थों में दो पक्ष हैं और दिगम्बर-ग्रन्थों में सिर्फ एक पक्ष है। पृ. १७२, नोट देखें।
जीव सम्यक्त्व सहित मरकर स्त्रीरूप में पैदा नहीं होता, यह बात दिगम्बर सम्प्रदाय को मान्य है, परन्तु श्वेताम्बर सम्प्रदाय को यह मन्तव्य इष्ट नहीं हो सकता; क्योंकि उसमें भगवान् मल्लिनाथ का स्त्रीवेद तथा सम्यक्त्व सहित उत्पन्न होना माना गया है।
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परिशिष्ट
परिशिष्ट नं. २
कार्मग्रन्थिकों और सैद्धान्तिकों का मत - भेद
सूक्ष्म एकेन्द्रिय आदि दस जीवस्थानों में तीन उपयोगों का कथन कार्मग्रन्थिक मत का फलित है। सैद्धान्तिक मत के अनुसार त छः जीवस्थानों में ही तीन उपयोग फलित होते हैं और द्वीन्द्रिय आदि शेष चार जीवस्थानों में पाँच उपयोग फलित होते हैं। पृ. २२, नोट देखें।
अवधिदर्शन में गुणस्थानों की संख्या के सम्बन्ध में कार्मग्रन्थिकों तथा सैद्धान्तिकों का मतभेद है। कार्मग्रन्थिक उसमें नौ तथा दस गुणस्थान मानते हैं और सैद्धान्तिक उसमें बारह गुणस्थान मानते हैं। पृ. १४६ देखें।
सैद्धान्तिक दूसरे गुणस्थान में ज्ञान मानते हैं, पर कार्मग्रन्थिक उसमें अज्ञान मानते हैं। पृ. १६९, नोट देखें।
१९७
वैक्रिय तथा आहारक शरीर बनाते और त्यागते समय कौन-सा योग मानना चाहिये, इस विषय में कार्मग्रन्थिकों का और सैद्धान्तिकों का मतभेद है । पृ. १७०, नोट देखें।
सिद्धान्ती एकेन्द्रिय में सासादनभाव नहीं मानते, पर कार्मग्रन्थिक मानते हैं। पृ. १७१, नोट देखें।
ग्रन्थि-भेद के अनन्तर कौन - सा सम्यक्त्व होता है, इस विषय में सिद्धान्त तथा कर्मग्रन्थ का मतभेद है। पृ. १७१ देखें।
परिशिष्ट नं. ३
चौथा कर्मग्रन्थ तथा पञ्चसंग्रह
जीवस्थानों में योग का विचार पञ्चसंग्रह में भी है। पृ. १५, नोट देखें। अपर्याप्त जीवस्थान के योगों के सम्बन्ध का मत-भेद जो इस कर्मग्रन्थ में है, वह पञ्चसंग्रह की टीका में विस्तारपूर्वक है। पृ. १६ देखें।
जीवस्थानों में उपयोगों का विचार पञ्चसंग्रह में भी है। पृ. २०, नोट देखें। कर्मग्रन्थकार ने विभङ्गज्ञान में दो जीवस्थानों का और पञ्चसंग्रहकार ने एक जीवस्थान का उल्लेख किया है । पृ. ६८, नोट देखें।
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चौथा कर्मग्रन्थ
अपर्याप्त अवस्था में औपशमिक सम्यक्त्व पाया जा सकता है, यह बात पञ्चसंग्रह में भी है। पृ. ७०, नोट देखें।
पुरुषों से स्त्रियों की संख्या अधिक होने का वर्णन पञ्चसंग्रह में है। पृ. १२५, नोट देखें।
पञ्चसंग्रह में भी गुणस्थानों को लेकर योगों का विचार है । पृ. १६३, नोट
१९८
देखें।
गुणस्थान में उपयोग का वर्णन पञ्चसंग्रह में है। पृ. १६७, नोट देखें। बन्ध हेतुओं के उत्तर-भेद तथा गुणस्थानों में मूल बन्ध-हेतुओं का विचार पञ्चसंग्रह में है । पृ. १७५, नोट देखें।
सामान्य तथा विशेष बन्ध-हेतुओं का वर्णन पञ्चसंग्रह में विस्तृत है। पृ. १८१, नोट देखें।
गुणस्थानों में बन्ध, उदय आदि का विचार पञ्चसंग्रह में है। पृ. १८७, नोट देखें।
गुणस्थानों में अल्प - बहुत्व का विचार पञ्चसंग्रह में है । पृ. १५२, नोट । कर्म के भाव पञ्चसंग्रह में हैं। पृ. २०४, नोट देखें।
उत्तर
र- प्रकृतिओं के मूल बन्ध हेतु का विचार कर्मग्रन्थ और पञ्चसंग्रह में भिन्न-भिन्न शैली का है। पृ. २२७ देखें।
एक जीवाश्रित भावों की संख्या मूल कर्मग्रन्थ तथा मूल पञ्चसंग्रह में भिन्न नहीं है, किन्तु दोनों की व्याख्याओं में देखने योग्य थोड़ा-सा विचार - भेद है। पृ. २२९ देखें।
परिशिष्ट नं. ४
ध्यान देने योग्य कुछ विशेष - विशेष स्थल
जीवस्थान, मार्गणास्थान और गुणस्थान का पारस्परिक अन्तर। पृ. ५ देखें। परभव की आयु बाँधने का समय-विभाग अधिकारी- भेद के अनुसार किसकिस प्रकार का है? इसका खुलासा । पृ. २५, नोट देखें।
उदीरणा किस प्रकार के कर्म की होती है और वह कब तक हो सकती है ? इस विषय का नियम । पृ. २६, नोट देखें।
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परिशिष्ट
१९९
द्रव्य - लेश्या के स्वरूप के सम्बन्ध में कितने पक्ष हैं ? उन सबका आशय क्या है? भावलेश्या क्या वस्तु है और महाभारत में, योगदर्शन में तथा गोशालक के मत में लेश्या के स्थान में कैसी कल्पना है ? इत्यादि का विचार पृ. ३३ पर देखें।
शास्त्र में एकेन्द्रिय, द्वीन्द्रिय आदि जो इन्द्रिय-सापेक्ष प्राणियों का विभाग है, वह किस अपेक्षा से? तथा इन्द्रिय के कितने भेद-प्रभेद हैं और उनका क्या स्वरूप है ? इत्यादि का विचार पृ. ३६ पर देखें।
संज्ञा का तथा उसके भेद - प्रभेदों का स्वरूप और संज्ञित्व तथा असंज्ञित्व के व्यवहार का नियामक क्या है ? इत्यादि पर विचार पृ. ३८ पर देखें | अपर्याप्त तथा पर्याप्त और उसके भेद आदि का स्वरूप तथा पर्याप्ति का स्वरूप पृ. ४० पर देखें ।
केवलज्ञान तथा केवलदर्शन के क्रमभावित्व, सहभावित्व और अभेद, इन तीन पक्षों की मुख्य-मुख्य दलीलें तथा उक्त तीन पक्ष किस-किस नय की अपेक्षा से हैं ? इत्यादि का वर्णन पृ. ४३ पर देखें ।
बोलने तथा सुनने की शक्ति न होने पर भी एकेन्द्रिय में श्रुत-उपयोग स्वीकार किया जाता है, सो किस तरह? इस पर विचार पृ. ४५ पर देखें । पुरुष व्यक्ति में स्त्री-योग्य और स्त्री व्यक्ति में पुरुष - योग्य भाव पाये जाते हैं और कभी तो किसी एक ही व्यक्ति में स्त्री- - पुरुष दोनों के बाह्याभ्यन्तर लक्षण होते हैं। इसके विश्वस्त प्रमाण पृ. ५३ पर देखें, नोट ।
श्रावकों की दया जो सवा विश्वा कही जाती है, उसका स्पष्टीकरण पृ. ६१, नोट देखें।
मनः पर्याय उपयोग को कोई आचार्य दर्शनरूप भी मानते हैं, इसका प्रमाण पृ. ६२ पर देखें, नोट ।
जातिभव्य किसको कहते हैं? इसका स्पष्टीकरण पृ. ६५ पर देखें, नोट देखें।
औपशमिक सम्यक्त्व में दो जीवस्थान माननेवाले और एक जीवस्थान माननेवाले आचार्य अपने - अपने पक्ष की पुष्टि के लिये अपर्याप्त अवस्था में औपशमिक सम्यक्त्व पाये जाने और न पाये जाने के विषय में क्या-क्या युक्ति देते हैं ? इसका सविस्तर वर्णन । पृ. ७० पर देखें, नोट ।
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चौथा कर्मग्रन्थ
संमूच्छिम मनुष्यों की उत्पत्ति के क्षेत्र और स्थान तथा उनकी आयु और योग्यता जानने के लिये आगमिक प्रमाण पृ. ७२ पर देखें, नोट ।
२००
स्वर्ग से च्युत होकर देव किन स्थानों में पैदा होते हैं ? इसका कथन । पृ. ७३ पर देखें, नोट ।
चक्षुर्दशन में कोई तीन ही जीवस्थान मानते हैं और कोई छः | यह मतभेद इन्द्रियपर्याप्ति की भिन्न-भिन्न व्याख्याओं पर निर्भर है। इसका सप्रमाण कथन पृ. ७६ पर है, नोट ।
कर्मग्रन्थ में असंज्ञी पञ्चेन्द्रिय को स्त्री और पुरुष, ये दो वेद माने हैं और सिद्धान्त में एक नपुंसक, सो किस अपेक्षा से ? इसका प्रमाण पृ. ७८ पर देखें, नोट ।
अज्ञान-त्रिक में दो गुणस्थान माननेवालों का तथा तीन गुणस्थान माननेवालों का आशय क्या है ? इसका स्पष्टीकरण पृ. ८२ पर देखें |
कृष्ण आदि तीन अशुभ लेश्याओं में छह गुणस्थान इस कर्मग्रन्थ में माने हुए हैं और पञ्चसंग्रह आदि ग्रन्थों में उक्त तीन लेश्याओं में चार गुणस्थान माने हैं । सो किस अपेक्षा से? इसका प्रमाणपूर्वक प्रस्तुतीकरण पृ. ८८ पर देखें ।
जब मरण के समय ग्यारह गुणस्थान पाये जाने का कथन है, तब विग्रहगति में तीन ही गुणस्थान कैसे माने गये ? इसका प्रामाणिक विवरण पृ. ८९ है ।
स्त्रीवेद में तेरह योगों का तथा वेद सामान्य में बारह उपयोगों का और नौ गुणस्थानों का जो कथन है, सो द्रव्य और भावों से किस-किस प्रकार के वेद को लेने से घट सकता है ? इसका विवेचन पृ. ९७ पर है, नोट ।
उपशम सम्यक्त्व के योगों में औदारिकमिश्रयोग का परिगणन है, जो किस तरह सम्भव है ? इसका विवरण पृ. ९८ पर है।
मार्गणाओं में जो अल्प- बहुत्व का विचार कर्मग्रन्थ में है, वह आगम आदि किन प्राचीन ग्रन्थों में है ? इसकी सूचना पृ. ११५ पर दी गई है, नोट ।
काल की अपेक्षा क्षेत्र की सूक्ष्मता का सप्रमाण कथन पृ. १७७ पर है, नोट ।
शुक्ल, पद्म और तेजोलेश्यावालों के संख्यातगुण अल्प-बहुत्व पर शङ्कासमाधान तथा उस विषय में टबाकार का मन्तव्य पृ. १३० पर है, नोट ।
तीन योगों का स्वरूप तथा उनके बाह्य आभ्यन्तर कारणों का स्पष्ट कथन और योगों की संख्या के विषय में शङ्का समाधान तथा द्रव्यमन, द्रव्यवचन और शरीर का स्वरूप पृ. १३४, नोट ।
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परिशिष्ट
२०१
सम्यक्त्व सहेतुक है या निर्हेतुक? क्षायोपशमिक आदि भेदों का आधार, औपशमिक और क्षायोपशमिक-सम्यक्त्व का आपस में अन्तर, क्षायिकसम्यक्त्व की उन दोनों से विशेषता, कुछ शङ्का-समाधान, विपाकोदय और प्रदेशोदय का स्वरूप, क्षयोपशम तथा उपशम-शब्द की व्याख्या एवं अन्य प्रासङ्गिक विचार पृ. १३६ पर है।
अपर्याप्त-अवस्था में इन्द्रियपर्याप्ति पूर्ण होने के पहले चक्षुर्दर्शन नहीं माने जाने और चक्षुर्दर्शन माने जाने पर प्रमाणपूर्वक विचार पृ. १४१ पर है।
वक्रगति के सम्बन्ध तीन बातों पर सविस्तार विचार-१. वक्रगति के विग्रहों की संख्या, २. वक्रगति का कालमान और ३. वक्रगति में अनाहारकत्व का काल-मान पृ. १४३ विवेचित है।
अवधिदर्शन में गुणस्थानों की संख्या के विषय में पक्ष-भेद तथा प्रत्येक पक्ष का तात्पर्य अर्थात् विभङ्गज्ञान से अवधिदर्शन का भेदाभेद पृ. १४६ पर उल्लेखित है।
श्वेताम्बर दिगम्बर सम्प्रदाय में कवलाहार-विषयक मत-भेद का समन्वय पृ. १४८ पर विवेचित है।
केवलज्ञान प्राप्त कर सकने वाली स्त्री जाति के लिये श्रुतज्ञान विशेष का अर्थात् दृष्टिवाद के अध्ययन का निषेध करना, यह एक प्रकार से विरोध है। इस सम्बन्ध में विचार तथा नय-दृष्टि से विरोध का परिहार पृ. १४९ व्याख्यायित है।
चक्षुर्दर्शन के योगों में से औदारिकमिश्र योग का वर्जन किया है, सो किस तरह सम्भव है? इस विषय पर विचार पृ. १५४ किया गया है।
केवलिसमुद्धात सम्बन्धी अनेक विषयों का वर्णन, उपनिषदों में तथा गीता में जो आत्मा की व्यापकता का वर्णन है, उसका जैन-दृष्टि से मिलान और केवलिसमुद्धात जैसी क्रिया का वर्णन अन्य किस दर्शन में है? इसकी सूचना पृ. १५५ पर दी गई है।
जैन दर्शन में तथा जैनेतर दर्शन में काल का स्वरूप किस-किस प्रकार का माना है? तथा उसका वास्तविक स्वरूप कैसा मानना चाहिये? इसका प्रमाणपूर्वक विचार पृ. १५७ पर उल्लेखित हैं।
छः लेश्या का सम्बन्ध चार गुणस्थान तक मानना चाहिये या छ: गुणस्थान तक? इस सम्बन्ध में जो पक्ष हैं, उनका आशय तथा शुभ भावलेश्या के समय अशुभ द्रव्यलेश्या और अशुभ द्रव्यलेश्या के समय शुभ भावलेश्या, इस प्रकार
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२०२
चौथा कर्मग्रन्थ लेश्याओं की विषमता किन जीवों में होती है? इत्यादि विचार पृ. १७२ उद्धृत है, नोट।
कर्मबन्ध के हेतुओं की भिन्न-भिन्न संख्या तथा उसके सम्बन्ध में कुछ विशेष ऊहापोह पृ. १७४ पर दिया गया है, नोट।
आभिग्रहिक, अनाभिग्रहिक और आभिनिवेशिक-मिथ्यात्व का शास्त्रीय विवेचन पृ. १७६ किया गया है, नोट।
तीर्थंकरनाम कर्म और आहारक-द्विक, इन तीन प्रकृतियों के बन्ध को कहीं कषाय-हेतुक कहा है और कहीं तीर्थंकरनाम कर्म के बन्ध को सम्यक्त्व हेतुक तथा आहारक द्विक के बन्ध को संयम-हेतुक, सो किस अपेक्षा से? इसका स्पष्टीकरण। पृ. १८१ पर देखें, नोट।
___ छ: भाव और उनके भेदों का वर्णन अन्यत्र कहाँ-कहाँ मिलता है? इसकी सूचना पृ. १९६ पर है, नोट।
मति आदिमम अज्ञानों को कहीं क्षायोपशमिक और कहीं औदयिक कहा है, सो किस अपेक्षा से? इसका स्पष्टीकरण पृ. १९९ पर है, नोट।
संख्या का विचार अन्य कहाँ-कहाँ और किस-किस प्रकार है? इसका निर्देश पृ. २०८ पर दिया गया है, नोट।
युगपद् तथा भिन्न-भिन्न समय में एक या अनेक जीवाश्रित पाये जाने वाले भाव और अनेक जीवों की अपेक्षा से गुणस्थानों में भावों के उत्तर-भेद पृ. २३१ पर देखें।
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--------------------------------------------------------------------------
________________
गाथाङ्क
७२
४८
४७
२३, २८
७३
३६,३८
१२,१६,२०,२५, ३२, ४२
५८
३,१२,१६,२०,२१,२३,२६, ३०,४२,४६,४८, ५६
चौथे कर्मग्रन्थ का कोष
प्राकृत
अओपर
अतदुग
अंताइम
अंतिम
अक्खा
अग्गि
अचक्खु
अछहास
अजय
अ
संस्कृत
अतः पर
अन्तद्विक
अन्तादिम
अन्तिम
आख्या
अग्नि
अचक्षुष्
अषट्हास
अयत
हिन्दी
इससे अगाड़ी ।
'सयोगकेवली' और अयोगकेवली' नाम के दो
तेरहवाँ और चौदहवाँ गुणस्थान।
आखीर का और शुरू का
आखीर का ।
नाम।
अग्निकायिक नामक जीव - विशेष
'अचक्षुर्दर्शन' नामक दर्शन विशेष (६२-६) १ छः हास्यादि को छोड़कर ।
'अयत' नामक चौथा गुणस्थान तथा उत्तम मार्गणा - विशेष (६२-१)
१. इस क्रेचिट के अन्दर के अङ्क, पृष्ठ और पङ्क्तियोंके अङ्क हैं, उस जगह उन शब्दों का विशेष अर्थ उल्लिखित है।
Page #257
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________________
संस्कृत अयोगिन्
२०४
प्राकृत अजो (यो गिन् अज्झवसाय अट्ठ (ड)
गाथाङ्क ४७,५०,५४,५९,६२,६३
८२ ७-२,८-३,३३,३५,५९,६०,२,
६१-२
६९
हिन्दी चौदहवें गुणस्थानवाला जीव परिणामों के दर्जे। आठ।
अध्यवसाय
अष्ट
५५
७३ १८,२३,२४,३४,४४
अट्ठकम्म अट्ठार अण अणवट्ठिय अणहार अणागार अणभिगहि अणाभोग अणुभाग अणंत
अष्टकर्म अष्टादश अन अनवस्थित अनाहार अनाकार अनाभिग्रहिक अनाभोग अनुभाग अनन्त
आठ कर्म। अठारह। 'अनन्तानुबन्धी' नामक कषायविशेष। 'अनवस्थित' नामक पल्य-विशेष। (२११-४) 'अनाहारक' नामक उत्तर मार्गणा विशेष। विशेषता-रहिता (६३-५) । 'अनाभिग्रहिक' नामक मिथ्यात्व-विशेष। (१७५-६) 'अनाभोग' नामक मिथ्यात्व विशेष। (१७७-२) 'अनुभाग' नामक बन्ध-विशेष। 'अनन्त' नामक संख्या-विशेष।
चौथा कर्मग्रन्थ
१२
५१
८२.
३८,४२,४३-२,४४-२,६३,
७१,७९,८३,८४ ३७,३८,३९-२,४१-२,४२
८४,८६
अणंतगुण अणंताणंत
अनन्तगुण
अनन्तगुना। 'अनन्तानन्त' नामक संख्या विशेष।
अनन्तानन्त
Page #258
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्राकृत अधम्मदेस अना(त्राण अनाणतिग अनियट्टी अनिल अनुदीरगु अन्न अन्नाणमीस
संस्कृत अधर्म देश अज्ञान अज्ञान त्रिक अनिवृत्ति अनिल अनुदीरक
गाथाङ्क
८१ ६,११,२६,३०,६६
२०,३२
६२ १०,३८
६२ '४,३५,८०
३३
२,३,४ ३,४,६,७,१५-२,१८-२,४५
५७,६१,६३
५९ ५७,५९,६२,७०
अन्य
अपजत्त
हिन्दी 'अधर्म' नामक द्रव्य के प्रदेश। मिथ्या ज्ञान। 'कुमति', 'कुश्रुति' और 'विभङ्ग' नामक तीन अज्ञान। 'अनिवृत्तिबादरसंपराय' नामक नौवाँ गुणस्थान। 'वायुकायिक' नामक जीवविशेष। (५२-१६) 'उदारणी न करनेवाला जीव।
और-दूसरे। अज्ञान-मिश्रित ज्ञान। 'अपर्याप्त' नामक जीव विशेष। (११-२) 'अपर्याप्त' नामक जीव विशेष। (११-२) 'अप्रमत्त' नामक सातवाँ गुणस्थान। 'अप्रमत्त' नामक सातवें गुणस्थान तक। 'अपूर्वकरण' नामक आठवाँ गुणस्थान। 'अपूर्वकरण' नामक आठवें से लेकर बारहवें तक पाँच गुणस्थान। कम और ज्याद: (७-४)। बन्धन करनेवाला जीव विशेष।
परिशिष्ट
अपज्ज
अज्ञानमिश्र अपर्याप्त अपर्याप्त अप्रमत्त अप्रमत्तान्त अपूर्व अपूर्वपञ्चक
अपमत्त अपमत्ततं अपुव्व अपुव्वपणग
अर
४६
अप्पबहू अबंधग
अल्पबहु अबन्धक
५९
२०५
,
Page #259
--------------------------------------------------------------------------
________________
हिन्दी
२०६
गाथाङ्क
७८,८३ १९,२६,३२
४३
प्राकृत अब्भास अभव (व्व) अभवियर अभव्यजिय अभव्वत्त अभिगहिय अभिनिवेसिय
संस्कृत अभ्यास अभव्य अभव्येतर अभव्यजीव अभव्यत्व आभिग्रहिक आभिनिवेशिक
ur
विशेष (२१८-१८)। सिद्ध न होनेवाला जीव विशेष। 'अभव्य' और 'भव्य' नामक जीव विशेष। 'अभव्य' नामक जीव विशेष। 'अभव्यत्व' नामक मार्गणा विशेष। 'आभिग्रहिक' नामक मिथ्यात्वविशेष (१७६-४)। 'आभिनिवेशिक' नामक मिथ्यात्व विशेष (१७६-७)। अलोकाकाश। लोभ का छोड़कर। लेश्या-रहित। 'अवधिज्ञान' नामक ज्ञान विशेष। (५६-११)
५१
८५
शा
चौथा कर्मग्रन्थ
५८
५०
११ ३७,८३
५७
अलोगनह अलोभ अलेसा अवहि अवि अविउब्वियाहार
अलोकनभस् अलोभ अलेश्य अवधि अपि अवैक्रियाहार
'वैक्रिय' और 'आहारक' नामक काययोग विशेष को छोड़कर। पापों से विरक्त न होना। चौथे गुणस्थान वाला जीवा
५०,५१,५६,५७
अविरइ
अविरति अविरत
अविरय
Page #260
--------------------------------------------------------------------------
________________
गाथाङ्क
२४
६६
२, ३,१५ - २,२३, २७, ३२, ३६
३८,
४०-२,४२,४४,६३,७१,८०
८०
३७,३९,४२,४४
६६
६८
५५
१२,२०,२९,३३
४९
३८,२,४०, ६२
प्राकृत असच्चमोस
असिद्धत्त
संस्कृत
असत्यमूष
असिद्धत्व
अस (स्स) श्रि
असंख
असंखासंख
असंखगुण
असंजम (२०० - १) असंयम
असंभविन्
असंभविन्
अह
अथ
अहखाय
यथाख्यात
(६१-१२)
अहिगय
अहिय
असंज्ञी
असंख्य
असंख्यासंख्य
असंख्यगुण
अधिकृत
अधिक
हिन्दी
'असत्यमृष' नामक मन तथा वचनयोग विशेष
(९१-३)।
'असिद्धत्व' नामक औदयिक भाव विशेष (१९९
९७)।
मनरहित जीव ( १०-१९)।
'असंख्य' नामक गणना विशेष ।
'असंख्यासंख्य' नामक गणना विशेष ।
असंख्यात गुना ।
'असंयम' नामक औदयिक भाव विशेष । न हो सकनेवाली बात ।
प्रारम्भ में।
'यथाख्यात' नामक चरित्र विशेष ।
अधिकार में आया हुआ।
ज्यादा
परिशिष्ट
२०७
Page #261
--------------------------------------------------------------------------
________________
गाथाङ्क
१,२१ - २,६१,६९,७०
८१
४८
६१
७८
६०
९, १६, २२, २४, २५,३१,४९,
५३
२६, ४६, ४७,५५,५६
४७
१४
८०
२२,५७
प्राकृत
संस्कृत
आ
आइ (ई)
आइम
आइमदुग
आउ
आवलिया
आसुहुम
आहार (ग)
(५०-६, ९२-२५) आहार ( क )
आहार (ग)
आहार (क)
दु (ग)
द्वि (क)
आहारमीस
आहारकमिश्र
आहारेयर
आहारेतर
(६८,१३)
इंदिय (४८- १)
इक्कसि
इक्का (गा) र
आदि
आदिम
आदिमद्विक
आयुष् आवलिका
आसूक्ष्म
इन्द्रिय
सकृत्
एकादश
हिन्दी
प्रथम ।
प्राथमिक |
पहिले दो-पहिला और दूसरा गुणस्थान । 'आयुष्' नामक कर्म - विशेष।
'आवलिका' नामक काल का भाग विशेष | 'सूक्ष्मसंपण्य' नामक दसवें गुणस्थान तक। 'आहारक' नामक मार्गणा, शरीर तथा कर्म - विशेष ।
'आहार क' और 'आहारक मिश्र' नामक योगविशेष ।
'आहारक मिश्र' नामक काययोगविशेष। 'आहारक' और 'अनाहारक' नामक दो मार्गणा
विशेष |
'इन्द्रिय' नामक मार्गणाविशेष ।
एक बार ।
ग्यारह |
२०८
चौथा कर्मग्रन्थ
Page #262
--------------------------------------------------------------------------
________________
गाथाङ्क
७४ १०,१९,२७,३२,५०
५२
५२
६४
१८ ११,२६,३९
७२ ८१,८४
प्राकृत
संस्कृत इक्किक्क एकैक इग(५२-२) एक इगगुण
एकगुण इगपच्चअ एकप्रत्ययक इगबीस एकविंशति इत्तो
इन इत्थि(५३-१५) स्त्री
( इमं इदम् इम इमान
अस्स अस्य । एसु
हिन्दी एक-एक। एक तथा 'एकेन्द्रिय' नामक जीवजाति विशेष। पहिला गुणस्थान। एक कारण से होनेवाला बन्धविशेष। इक्कीस। यहाँ से। 'स्त्रीवेद' नामक वेद-विशेष। यह इनको इसका इनमें समाप्त और इस प्रकार। उलटा-प्रतिपक्षी। यहाँ।
इदम्
परिशिष्ट
इय
२४,५२,६८,७५,८०,८६
४४,४७,६३
२,४९
इयर
इतर
4
२९,३६,४६,५२,५४,६०
उ
तु
२०९
Page #263
--------------------------------------------------------------------------
________________
गाथाङ्क
२१०
६१ ७१
५२ ६,८,६०-२,६७-२,६९
७,८
प्राकृत
संस्कृत हिन्दी उइरंति' उदीरयन्ति उदित होते हैं। उकस्स
उत्कृष्ट . सबसे बड़ा। उत्तर उत्तर
अवान्तर विशेष तथा 'औदयिक नामक भावविशेष। उदय (इअ) उदय
'उदय' नामक कर्मों की अवस्थाविशेष। (६-१,१९७-६, २०५-३) उदीरणा (६-५) उदीरणा 'उदीरणा' नामक कर्मों की अवस्था विशेष। उद्धरिअ उद्धरित निकाल लेना। उरल(९३-८ औदारिक 'औदारिक' नामक काययोग विशेष। उरलदुग औदारिक द्विक ___'औदारिक' और औदारिकमिश्र' नामक कामयोग
विशेष। उरलमीस (मिस्स) औदारिकमिश्र 'औदारिकमिश्रयोग' नामक काय योगविशेष। (जोग) (योग) उवओग(५-८) उपयोग 'उपयोग' नामक मार्गणाविशेष। उवरिम
उपरिम
৩৭,৬৩ ४,५,२४,२९,४६,४७
२६,२७,२८
चौथा कर्मग्रन्थ
४,२८,२९,४९,५६.
१,५,३०,३५,६५
५९,७०
ऊपर का।
१. क्रियापद शब्द विभक्तिसहित रक्खे गये हैं।
Page #264
--------------------------------------------------------------------------
________________
हिन्दी
गाथाङ्क १३,२२,२६,३४,४३,६४,६७
उपशम नामक सम्यक्त्व तथा १
प्राकृत संस्कृत उवसम(६५-९ उपशम १९६-२४,२०५-१ उवसमसेढी उपशम श्रेणि उवसामग
उपशामक उवसंत
उपशान्त
६८
७० ५८,६०,६१,६२,७०
'उपशम श्रेणि' नामक श्रेणिविशेष। नौवाँ और दसवाँ गुणस्थान। 'उपशान्त मोह' नामक ग्यारहवाँ गुणस्थान।
ऊण
ऊन
कम।
२६-२,२७,३१,४६,५५,७७,
७९,८१
परिशिष्ट
८,५९,७०,७१,७५
एग एगजियदेस एगरासी ए(इ)गिदि १०-११ एव एवं
एक एकजीवदेश एकराशि एकेन्द्रिय
एक। एक जीव के प्रदेश। एक समुदाय। एक इन्द्रियवाला जीवविशेष।
99. २,१५,३६,३८,४९
एव
६९,८५ ७१,७६
२११
एवम्
इस प्रकार
Page #265
--------------------------------------------------------------------------
________________
गाथाङ्क
प्राकृत
संस्कृत
हिन्दी
ओ
२१२
७३ १४,२१,२५
ओगाढ ओहिदुग
अवगाढ अवधिद्विक
को
गहराई। 'अवधिज्ञान' और 'अवधिदर्शन' नामक उपमार्गणाविशेष। 'अवधिदर्शन' नामक दर्शनविशेष। 'अवधिदर्शन' तथा 'अवधिज्ञान'।
३४
ओहिदंस ओही(६३-१)
अवधिदर्शन अवधि
१२,४०,४२
कम कम्म(-ण)
क्रम कार्मण
बारी-बारी। 'कार्मणशरीर' नामक योग तथा शरीरविशेष।
चौथा कर्मग्रन्थ
कसाय(४९-१२)
कषाय
'कषाय' नामक मार्गणाविशेष तथा कषाय।
२,३५,७९ ४,२४-२,२७,२८-२,२९,४७
५५,५६-२ ९,११,१६,२५,३१,५०,२०,
५७,५२,६६
१३ ९,३५,३९
८५
काऊ(६४-६) रापोत काय(४९-३) काय काल
काल किण्हा(६३-१९) कृष्णा
'कापोत' नामक लेश्याविशेष। 'काय' नामक मार्गणा तथा योगविशेष। 'काल' नामक द्रव्यविशेष। 'कृष्णा' नामक लेश्याविशेष।
Page #266
--------------------------------------------------------------------------
________________
गाथाङ्क
१
७६
३९
११,४२
६५
६, १७, २१, २८, ३१, ३३,३७,
४८,८५
१२
४१,६७
११
४०
१३
२२,३३,४४,६७ - २,६४,६८
प्राकृत
किम
किर
कीव
केवल (५६-१६)
केवल जुयल
केवलदु(ग)
केवलदंसण
(६३-३)
केवलिन्
कोह (५५-२)
कोहिन् खइग (६६-१२)
ख(-इ)य(१९६
१६, २०५-२
संस्कृत
किम्
किल
क्लीब
केवल
केवळ युगल
केवलद्विक
केवलदर्शन
केवलिन्
क्रोध
क्रोधिन्
क्षायिक
क्षायिक
हिन्दी
कुछ।
पादपूर्त्यर्थ ।
'नपुंसकवेद' नामक उपमार्गणाविशेष ।
'केवलज्ञान नामक ज्ञानविशेष तथा 'केवलदर्शन' नामक दर्शनविशेष |
'केवलज्ञान नामक ज्ञानविशेष तथा 'केवलदर्शन' नामक दर्शनविशेष।
'केवलज्ञान नामक ज्ञानविशेष तथा 'केवलदर्शन' नामक दर्शनविशेष |
'केवलदर्शन' नामक दर्शनविशेष |
केवलज्ञानी भगवान्। 'क्रोध' नामक कषायविशेष क्रोधवाला जीव ।
'क्षायिक' नामक सम्यक्त्व - विशेष ।
'क्षायिक' नामक सम्यक्त्व तथा भाव - विशेष ।
परिशिष्ट
२१३
Page #267
--------------------------------------------------------------------------
________________
गाथाङ्क
७५ ८६
२१४
७५
७४
प्राकृत खवण खित्त खिप्पड़ खिबिय खिवसु खीण । खे(क्खे) व खंध
संस्कृत क्षपण क्षिप्त क्षिप्यते क्षिप्त्वा क्षिप क्षीण क्षेप स्कन्ध
हिन्दी डालना। डाला हुआ। डाला जाता है। डालकर। डालो। 'क्षीणमोह' नामक बारहवाँ गुणस्थान तथा नष्ट। 'क्षेप' नामक संख्या-विशेष। पुद्गलों का समूह।
८२,८४ ५८,६०,६२-२,७०,७४,७५,७६
८१,८४
६९
ग
चौथा कर्मग्रन्थ
गुण
१९ ३,१८,२३,३५,५२
५४,५६
१,७०
गई(४७-११) गति गइतस
गतित्रस
गुण गुणचत्त एकोनचत्वारिंशत् गुणठा(ट्ठा)ण(-ग) गुणस्थान(-क) (४७) गुणण गुणन
'गति' नामक मार्गणा-विशेष। 'तेज:काय' और 'वायुकाय' नामक स्थावर-विशेष। गुणस्थान। उन्तालीस। गुणस्थान।
७९
गुणा करना।
Page #268
--------------------------------------------------------------------------
________________
गाथाङ्क ७२,७९,८१
प्राकृत गुरु(-अ)
संस्कृत गुरु(-क)
हिन्दी उत्कृष्ट
और, फिर।
२३,६९,८४,८५ २,५,७,१०,१५,१८,१९,२० न २,२१,२७,३०,३४-२,३५-३ हूँ ३८,५०,५२,६०,६७-३,७०-४
७७,७९-२
चउ(५२-८) चउगइ
चतुर चतुर्गति
परिशिष्ट
चउघाइन्
चतुर्धातिन्
चार। 'मनुष्यगति', 'देवगति', 'तिर्यग्गति' और नरकगति' नामक चार गतियाँ। 'ज्ञानावरण, 'दर्शनावरण, 'मोहनीय' और 'अन्तराय' नामक चार कर्म। चौथा। चौदह। चार कारणों से होनेवाला बन्धविशेष। चार ‘पल्यों' का वर्णन।
८०
चउत्थय
चउदस
५२,५३
७२ ८,३६,६३,७६
चतुर्थक चतुर्दश चतुःप्रत्ययक चतुष्पल्यप्ररूपणा चतुर्
चउपञ्च चउपल्लपरुवणा चउर्
चार।
२१५
Page #269
--------------------------------------------------------------------------
________________
२१६
गाथाङ्क ६,३२
५४,५७ ६-२,१२,१७,२०,२८,३४
६४,६५ १६,१७,१८,२०,२१,२२,२७
प्राकृत चतुरिंदि चउवीस चक्खु(६२-४) चरण चरम चरिमदुग चिय
संस्कृत चतुरिन्द्रिय चतुर्विंशति चक्षुष् चारित्र चरिम चरिमदिळक
हिन्दी
चार इन्द्रियोंवाला जीव-विशेष। चौबीस। 'चक्षुर्दर्शन' नामक दर्शन-विशेष! 'चारित्र'। अखीरका। अन्त के दो (तेरहवाँ और चौदहवाँ गुणस्थान।)
६०
७४
एव
ही।
चौथा कर्मग्रन्थ
४,८-२,१७,१८,२३,२७,३६, ३७,५९,६१,५०-२,६१
१०
छः।
छक्क,ग) षट् (-क) छक्काय (५१-९) षट्काय छचत्त
षट्चत्वारिंशत् छजियवह षड्जीववधः (१७७-१०) छलेस षड्लेश्या
و
पाँच 'स्थावर' और एक 'बस', इस तरह छ: काय। छयालीसा पाँच 'स्थावर' और एक 'बस' इस तरह छः प्रकार के जीवों का वधा कृष्ण, नील, कापोत, पीत, पद्म और शुक्ल' नामक छ: लेश्याएँ।
७,२५
Page #270
--------------------------------------------------------------------------
________________
गाथाङ्क ५४,५६
५४ १२,२१,४२
प्राकृत छवीस छहिअचत्त छेअ (५८-१२)
संस्कृत हिन्दी षड्विंशति
छब्बीस। षधिकचत्वारिंसत् छयालीस। छेद।
'छेदोपस्थानीय' नामक संयम विशेष।
यत
छठा गुणस्थान। 'जलकाय' नामक स्थावर जीव-विशेष। 'अग्निकाय' नामक स्थावर जीव-विशेष। सबसे छोटा।
परिशिष्ट
४८ १०,३८
१०
७१ ७२,७६
८४ ३५,७० १,२,४५
३० ८६ १,५३
६६
जीव
जय जल(५२-१५) जल उलण (५२-१६) ज्वलन जहन्न
जघन्य जा
यावत् जबतका जायइ
जायते जिअ (य) जिआय)ठाण(३-१) जीवस्थान जिअलक्खण जीवलक्षण
ज्येष्ठ जिण
जिन जियत्त(२००-१४) जीवत्व
होता है। जीव। 'जीवस्थान'। जीव का लक्षण।
बड़ा। राग-द्वेष को जीतनेवाला। 'जीवत्व' नामक पारिमाणिक भाव-विशेष।
जिट्ठ
२१७
Page #271
--------------------------------------------------------------------------
________________
. २१८
गाथाङ्क ३,१५,२७,६७,७८,७९,८०
७१,८३
७८ १,९,२२,२४,३१,३९,४६,५०
५२,५३,५८,६८
संस्कृत युत युक्त युक्तासंख्यात योग
हिन्दी सहित। सहित। 'युक्तासंख्यात' नामक संख्या-विशेष। 'योग' नामक मार्गणा-विशेष।
प्राकृत जु(य) जुत्त जुत्तासंखिज्ज जोग(अ)(य) (५-११,४९-६) जोगछेय जोगिन् जोयणसहस जंबूद्वीवपमाणय
८र
६२,६३
७३ ७२
योगच्छेद योगिन् योजनसहस्र जम्बूद्वीपप्रमाणक
योग के निर्विभाग अंश। तेरहवें गुणस्थानवाला जीव। हजार योजना 'जम्बू' नामक द्वीप के बराबर।
चौथा कर्मग्रन्थ
३७
ठाण ठिइबंध
स्थान स्थितिबन्ध
गुणस्थान या मार्गणास्थान। कर्म-बन्ध की काल-मर्यादा।
६५,७६-२ ७४,७५,८३
तृतीय
तइय तस्मि तस्स
तीसरा। उसमें।
तस्मिन्
८३
तस्य
उसका।
Page #272
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्राकृत
संस्कृत
हिन्दी
गाथाङ्क १८,२६,२७-२,२९,४७,४८,
७९
७६-२ ५,३३,८०,८१,८४-२
६१,७५
७४ १०,१६,२५
तद् ते तेहि(हि)
तं
वे। उनके द्वारा। वह। उससे। उसके आखीर में। 'काय-योग' नामक योग-विशेष।
तओ
तत:
तदंत
तदन्त
तणु(जोग) तनु(योग) (५३-४,१३४-१४) तणुपज्ज तनुपर्याप्त तब्वग्ग तद्वर्ग तस (५२-२०) त्रस
परिशिष्ट
'पर्याप्त' शरीर। उसका वर्ग। 'वस' नामक जीव-विशेष। उसी प्रकार। तबतक।
तथा
तत
तथा
तावत्
८४ १०,१६,१९,२५,३१,३८
७४,८४
७४ २,७,२०,२१,३०,३२,३३, ३८,४८,५२,५७,७०,७७, ७९,३४,३५,३६,३८,७०
३२,३३,४८
त्रि(क)
ति(ग) तिअनाण
तीन। 'कुमति', 'कुश्रुत' और 'विभङ्ग' नामक अज्ञान।
यज्ञान
Page #273
--------------------------------------------------------------------------
________________
गाथा
हिन्दी
२२०
८४
५५ ५२,५३ १०,१७,६४
५४
प्राकृत संस्कृत तिक्खुत्तो त्रिकृत्व:
तीन बार। तिचत्त त्रिचत्वारिंसत् तेतालीस। तिपच्चअ
त्रिप्रत्ययक तीनं कारणों से होनेवाला बन्धविशेष। तिय(गइर५२-६) त्रिक
तीन, तीन इन्द्रियोवाला जीव-विशेष। तियहिअचत्त विकाधिकचत्वारिंशत् तेंतालीस। तिरि(-य)र-गई) तिर्यञ्च(-गति) 'तिर्यग्गति' नामक गति-विशेष। (५१-१७) तिवग्गिउं त्रिवगितुम् तीन बार वर्ग करने के लिये। तिवग्गिय त्रिवर्गित तीन बार वर्ग किया हुआ। तिविह त्रिविध
तीन प्रकार। तीन प्रकार।
१०,१६,१९,२६,३०,३७
८१,८५
८३
चौथा कर्मग्रन्थ
७१
तिहा
त्रिधा
तुरिय
तुरीय
चौथा।
बराबर
७२,८०,८६ ६६,७६
४१
५०
१३,१५ २६,३५-२,७,२२
तुल्ल तेउतिग तेऊ६४-१२) तेर(-स)
तुल्य तेजस्त्रिक तेजः त्रयोदशन्
'तेजः', 'पद्म' और शुक्ल' ये तीन लेश्याएँ। 'तेजः' नामक लेश्या-विशेष। तेरह।
Page #274
--------------------------------------------------------------------------
________________
गाथाङ्क ११,५०,
प्राकृत ति
संस्कृत इति
हिन्दी समाप्त तथा इस प्रकार।
थ
१५,२७,३२
थावर
स्थावर
'स्थावर' नामक जीवों की जाति विशेष। 'स्त्री वेद' नामक मार्गणा विशेष।
१८
स्त्री
.३७,३८-२,३९-२,४०,४१,४२,
४३-३,४४-२,६२
थोव
स्तोक
थोड़ा।
दक
१९,३६ ६,१६,२०,३१,५४,५८,८१
परिशिष्ट
दश
६५
दाणाइलद्धि दीवुदही
'जलकाय' नामक स्थावरजीव विशेष। दस। दान आदि पाँच लब्धियाँ। द्वीप और समुद्र।
दानादिलब्धि द्वीपोदधि
७४,७७ ६-२,८,१५-२,१८,१९-२,२०, २१,२३-२,३५-२,३७,३८, ४२,४४,४७,६२-२,६४,८२
१६,३२
५२
दु(-ग) दुअनाण दुपञ्चअ
द्वि अज्ञान द्विप्रत्ययक
दो। 'मत्यज्ञान' और 'श्रुतज्ञान' नामक दो अज्ञान। दो कारणों से होनेवाला बन्धविशेष।
२२१
Page #275
--------------------------------------------------------------------------
________________
गाथाङ्क ३०
प्राकृत दुकेवल
संस्कृत द्विकेवल
५४,५७
दु(-ग)बीस दुच्चिय
७२
हिन्दी 'केवलज्ञान' और 'केवलदर्शन' नामक उपयोग विशेष। बाईस। दो ही। 'औदारिकमिश्र' और वैक्रियमिश्र'-नामक योगविशेष। दो तरह से। 'चक्षुर्दर्शन' और 'अचक्षुर्दर्शन' नामक दर्शनविशेष। देवगति। देवेन्द्रसूरि (इस ग्रन्थ के कर्ता)।
५६
४५ ३२,४८
द्वाविंशति द्वावेव द्विमिश्र द्विविध द्विदर्श(-न)
दुमिस्स दुविह
३७
दुदंस(-ण) देव देविंदसूरि
देव
देवेन्द्रसूरि
८६ १२,१७,२२,२९,३३,४२,४६
४८,५६,६३
चौथा कर्मग्रन्थ
देश
'देशविरति' नामक पाँचवाँ गुणस्थान
'चक्षुर्दशन' नामक उपयोगविशेष।
देस(-जय) (६१-२३) नयण
नयन दो
द्वि दंस(-ण)(४९-२०) दर्शन दंसणदुग दर्शनद्विक दंस(-ण)तिरा दर्शनत्रिक
दो।
४२ २१,३५,४३-२,६२ ६,९,३०,३४,४८-२
३२ ३३,४८
'दर्शन' नामक उपयोग विशेष।। 'चक्षुदर्शन' और 'अचक्षुर्दर्शन' नामक दर्शन-विशेष। 'चक्षुर्दर्शन' और 'अचक्षुर्दर्शन' और अवधिदर्शन' नामक दर्शन विशेष।
Page #276
--------------------------------------------------------------------------
________________
गाथाङ्क
प्राकृत
संस्कृत
हिन्दी
८१ ६९
धम्मदेस धम्म
धर्मदेश धर्मादि
'धर्म' नामक द्रव्य के प्रदेश। 'धर्म' नामक अजीव द्रव्य-विशेष।
४७,४९-२,५४,८४
११,१६,२५
नपुंसक
नहीं। नपुंसक।
नपु(पुंx-स) (६३-१६) नमिय यिणेयर
नत्वा
नमस्कार करके। . 'चक्षुर्दर्शन' और 'अचक्षुर्दर्शन' नामक उपयोगविशेष।
परिशिष्ट
नयनतर
१५,१८,१९,२५,३१,३७
६८
नर(५३-१५)
'पुरुषवेद' और 'मनुष्यगति' नामक मार्गणा-विशेष तथा मनुष्य। 'मनुष्यगति' नामक उपमार्गणाविशेष। 'नरकगति' नामक उपमार्गणाविशेष।
नरगइ(५१-१५) नरय
१०,२५
१४,१९,२६ २०,२१,२९,३०,३३,५२,
५४-२,६४
नरगति नरक
नव
नव
२२३
Page #277
--------------------------------------------------------------------------
________________
हिन्दी
गाथाङ्क ९,३०,३४-२,४९,३३,४८
प्राकृत नाणतिग
संस्कृत ज्ञानत्रिक
२२४
८५ ७४
३३
'मतिज्ञान', श्रुतज्ञान' और 'अवधिज्ञान' नामक तीन ज्ञानविशेष। . 'निगोद' नामक जीव-विशेष। पूरा हो जाना। अपने दो। अपने पद से युक्त। 'नरकगति' नामक गतिविशेष।
निगोदजीव निष्ठित निजद्विक निजपदयुत निरयगति
निगोयजीव निट्टिय नियदुग नियपयजुय नि(ना)रय(-गइ) (५१,१८) नीला(६४-१)
७१ १०,३०,३६,३७
१३
नीला
'नीला' नामक लेश्या विशेष।
चौथा कर्मग्रन्थ
७९
पच्छा
४३ .
पश्चात् पश्चानुपूर्वी पर्याप्त |
फिर। पीछे के क्रम से। 'पर्याप्त' नामक जीवविशेष।
२,३,५-२,६,८,१७-२,४५
पच्छाणुपुव्वि पज्ज(ज)-त) (११-३) पज्जियर पडिसलागा (२१२-१६)
१७
पर्याप्तेतर प्रतिशलाका
'पर्याप्त' और 'अपर्याप्त' नामक जीव विशेष। 'प्रतिशलाका' नामक पल्यविशेष।
७३
Page #278
--------------------------------------------------------------------------
________________
गाथाङ्क
३,७,१५,२०,२३-२,२८,३६,
७४-२,७६,७७, ७९ १६, २३ ६४
१७,१९,३०, ३१, ३५, ३८,४५ ५१,५२,६१,६२,६५ - २,६८
७०
५३
५४,५५
१०,१८,१९,२५, ३१
८२
५२,६८
५४
४७, ५६
६१
८३
१३, १४
प्राकृत
पढम
पढमतिलेसा
पढमभाव
पण
पणतीस
पणपत्र
पणिंदि(५२-१०) पत्तेयनिगोयअ
पनर
पन्न
पमत्त
पमत्तंत
पमाण
पम्हा (६४-१७)
संस्कृत
प्रथम
प्रथमत्रिलेश्या
प्रथमभाव
पञ्च
पञ्चत्रिंशत्
पञ्चपञ्चाशत् पञ्चेन्द्रिय
प्रत्येकनिगोदस
पञ्चदश
पञ्चाशत्
प्रमत्त
प्रमत्तान्त
प्रमाण
पद्मा
हिन्दी
पहला ।
पहिली तीन (कृष्ण, नील और कापोत) लेश्याएँ ।
पहिला
( औपशमिक) भाव।
पाँच ।
पैंतीस ।
पचपन।
पाँच इन्द्रियों वाला जीव । 'प्रत्येकनिगोद' नामक जीव - विशेष ।
पन्द्रह ।
पचासा
'प्रमत्त' नामक छठा गुणस्थान।
'प्रमत्त' नामक छठे गुणस्थान तक।
प्रमाणा
'पद्मा' नामक लेश्या - विशेष ।
परिशिष्ट
२२५
Page #279
--------------------------------------------------------------------------
________________
गाथाङ्क
७७
हिन्दी 'उत्कृष्टसंख्यात' नामक संख्याविशेष।
२२६
६४,६६,६७-२,६८
णाम
"पारिणामिक' नामक भावविशेष।
७१,८३ ७१,७८
प्राकृत
संस्कृत परमसंखिज्ज परमसंख्येय (२१७-१६) परिणाम (१९७-३, परिणाम २०५-३) परित्तणंत
परित्तानन्त परित्तासंख परित्तासंख्यात (२१८-११) परिहार (५९-७) परिहार पलिभाग परिभाग पल्ल
पल्य
'परित्तानन्त' नामक संख्याविशेष। ___परित्तासंख्य' नामक संख्या-विशेष।
चौथा कर्मग्रन्थ
पवण
पवन
१२,२१,२९,४१
८२ ७२,७७-२ २७,३६
६९ ४९,७१,७५
८५ ५७,७४,८३,८४,८५
७४
'परिहारविशुद्ध' नामक संयमविशेष। निर्विभागी अंश। 'पल्य' नामक प्रमाणविशेष। 'वायुकाय' नामक जीव-विशेष। 'पारिणामिक' नामक भाव-विशेष। भी 'पुद्गल' नामक द्रव्य विशेष। फिर।
पारिणामियभाव
पारिणामिकभाव अपि
पुद्गल
पुग्गल पुण
पूरा।
पुस
३९
'पुरुषवेद' नामक उपमार्गणा-विशेष
Page #280
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्राकृत
संस्कृत
हिन्दी पहला।
पुवि
गाथाङ्क
७५
५८ ८,२७,६१
पुवुत्त पूर्वोक्त पहिले कहा हुआ। पंच पंचम पंचिंदि(१०-१७) पञ्चेन्द्रिय
७९
पञ्चम
पाँच। पाँचवाँ। पाँच इन्द्रियोंवाला जीव।
७६
फुड
स्फुट
स्पष्ट।
ब
परिशिष्ट
२,३,५,७,१५,५८,५९ ५,१५,२०,३०,३५,५१ २,१०,२,७९
५६ ६५,७५,७६ १,७७,८,५०,५२
बायर(१०-३) बार(-स) बि(-य) बिकसाय बीय(-य) बंध(५-१६)
बादर द्वादश द्वि, द्वितीय द्वितीयकषाय द्वितीय बन्ध बध्नाति
स्थूल और ‘अनिवृत्तिवादर' नामक नौवाँ गुणस्थान। बारह। दो (द्वीन्द्रिय जीव) और दूसरा। 'अप्रत्याख्यानावरण' नामक कषायविशेष। दूसरा। कर्मबन्ध। बाँधता है।
५९
बंघइ
२२७
Page #281
--------------------------------------------------------------------------
________________
गाथाङ्क
७६
७४
९,२५,७४
१३, १६
१,७०
५
१०,१९,३६,३८
१४,६४,६८
११,१४,२१,२५,४०
४१
१
२३
प्राकृत
भरसु
भरिय
भव (व्व)
(४९-२४)
भवि(व्वि) यर
(६५-४)
भाव (७-५)
भास
भू( ५२ - १४)
भेय
मइ ( - नाण)
मइअन्नाण
मग्गणठाण (४-३)
मग्गणा
संस्कृत
भ
भर
भरित
भव्य
भव्येतर
भाव
भाषा
मैं
म
मति (-ज्ञान)
मत्यज्ञान
मार्गणास्थान मार्गणा
हिन्दी
भरो।
भरा हुआ।
'भव्य' नामक जीवों का वर्गविशेष।
'भव्य' और 'अभव्य' नामक जीवों के वर्गविशेष ।
जीवों के परिणाम |
'असत्यामृष' नामक वचन - योगविशेष |
पृथ्वीका |
प्रकारा
'मति' नामक ज्ञान - विशेष ।
'मत्यज्ञान' नामक अज्ञानविशेष |
'मार्गणास्थान'।
'मार्गणास्थान' ।
२२८
चौथा कर्मग्रन्थ
Page #282
--------------------------------------------------------------------------
________________
गाथाङ्क
७१,७९,८०,८६
७२
१०,१७,२४,२८-२,२९,३५,
३९,४६,४७
५१
११,६,१७,२१,२८, ३०, ४८,
३४
४०
७३
४०
४०
११
३,१३,१६,२६,४४,४५, ५०,
५१,५५-२,६३,६६
५३
प्राकृत
संस्कृत
माज्झ
मध्य
मज्झिम
मध्यम
मण(-जोग) (५२- मन: (-योग)
२४,५६-१४,१३४-६)
मणकरणानियम मनःकरणानियम
(१७७-८)
मणनाण
मनोज्ञान
मनोज्ञानिन्
महाशलाका
मणनाणिन्
महासलागा
(२१२-२० )
माइन् माणिन्
माय (५६-१)
मिच्छ( ६७-११)
मायिन्
मानिन्
माया
मिथ्यात्व
मिच्छअविरइपच्चइअ मिथ्यात्वाविरति
प्रत्ययक
हिन्दी
मध्यम।
मध्यम।
'मनोयोग' नामक योगविशेष ।
'मन' और 'इन्द्रियों' को मर्यादा के अन्दर न रखना।
'मनः पर्यव' नामक ज्ञान - विशेष ।
'मनः पर्यवज्ञान' वाला जीव
'महाशलाका' नामक पल्यविशेष।
मायाकषाय वाले जीव ।
मानकषाय वाले जीव ।
'मायाकषाय'।
'मिथ्यात्व' नामक पहिला गुणस्थान।
'मिथ्यात्व' और 'अविरति' से उत्पन्न होनेवाला बन्धविशेष |
परिशिष्ट
२२९
Page #283
--------------------------------------------------------------------------
________________
गाथ ३२,४४
२२
५३
५५,५७
१३, १७, २४ - २,२९,३३,४४,
४६, ४८- २,५५,५९,६१,६३,
६४,६७,६९
५६.
६०,६९
९,१०,१३,२२,३४, ७५, ७६,
७७,८२
प्राकृत
मिच्छदुग
मिच्छतिग
मिच्छपश्चइय मिस्स (मीस) युग मीस ( - ग X ६७-८,
९०-२०, ९१ २२,
.९३ - १,१९७-१,
२०५-२)
मुत्तु
मोह
य
संस्कृत
मिथ्यात्वद्विक
मिथ्यात्वत्रिक
मिथ्यात्वप्रत्ययक
मिश्राद्विक
मिश्र (-क)
मुक्त्वा
मोह
च
य
हिन्दी
'मिथ्यात्व और 'सास्वादन' नामक पहला और दूसरा
गुणस्थान।
'मिथ्यात्व' 'सास्वादन' और मिश्रदृष्टि' नामक तीन
गुणस्थान।
'मिथ्यात्व' से होनेवाला बन्धविशेष।
'औदारिकमिश्र' और 'वैक्रियमिश्र' नामक योगविशेष । तीसरा गुणस्थान, योगविशेष, अज्ञान सम्यक्त्वविशेष और भावविशेष ।
छोड़कर।
'मोहनीय' नामक कर्मविशेष ।
और।
J
20
चौथा कर्मग्रन्थ
Page #284
--------------------------------------------------------------------------
________________
गाथाङ्क
प्राकृत
संस्कृत
हिन्दी
रहित
रहित।
५७
७८,८३ ७७,७८,७९-२,८०,८१
समूह।
रहिय रासि रूप(प) (२१८-१६)
पि
एका
ल
लद्धी
लब्धि
६५ ७८-२,८०,८३-२,८४
लहु
लघू
पाँच लब्धियाँ। जघन्य। 'जघन्य संख्यात' नामक संख्याविशेष।
परिशिष्ट
७२
लघुसंख्येय
८६
लिखित लेश्या
लिखा। छः लेश्याएँ।
१,९,३१,३६,४३,६६
लहुसंखिज्ज (२०९-२४) लिहिअ लेसा(५-१३, ४९-२२) लोगगासपएस लोम(५६-२) लोभिन्
८१ ११,२०
लोकाकाशप्रदेश लोभ लोभिन्
लोक-आकाश के प्रदेश। लोभकषाय। लोभकषायवाले जीवा
४०
२३१
Page #285
--------------------------------------------------------------------------
________________
गाथाङ्क
१७,६७,७४,७५ २४, २७, २८- २,२९,४६
८४
८०
३४,५३,५७ १०,१९,३६,३८
८५
१०,१७,३५, ३९, ४०.
८६
१६,६०,६९,७७, ८४
२९,४६,४९
५, २७ - २,२९,४६
४,४७
२४
प्राकृत
व (वा)
वइ
वग्गसु
वग्गिय
वज्ज
वण(५२-१७)
वणस्सइ
वयण (५३-२,
१३४- १० )
ववहरइ
वि
विउव्व(-ग)
विउव्व(व) दुग विउव्व(व) मीस
(९२-१८)
विडव्विय
संस्कृत
व
वा, इव
वचस्
वर्गयस्व
वर्गित
वर्ज
वन
वनस्पति
वचन
व्यवहरति
अपि
वैक्रिय(-क)
वैक्रियद्विक
वैक्रियमिश्र
वैक्रिय
हिन्दी
अथवा और जैसे।
वचन।
वर्ग करो।
वर्ग किया हुआ । छोड़कर । वनस्पतिकाय ।
वनस्पतिकाय ।
शब्दा
कहा जाता है।
ही और भी ।
'वैक्रिय' नामक शरीर तथा योगविशेष | 'वैक्रिय' और 'वैक्रियमिश्र' नामक योग विशेष ।
'वैक्रियमिश्र' नामक योगविशेष।
'वैक्रिय' नामक योग विशेष।
~ RW
~
चौथा कर्मग्रन्थ
Page #286
--------------------------------------------------------------------------
________________
गाथाङ्क
प्राकृत विगल विणा
३,१५,१९,२७,३६
६,१८,५५,५८,६१ २८,३०,३३,४७,५३,५५,६०
१४,४०
३५
संस्कृत विघल बिना बिना विभङ्ग विरतिद्विक
विणु
विभ(ब्म) ग विरइदुग
हिन्दी दो, तीन और चार इन्द्रियवाले जीव। •अतिरिक्त।
अतिरिक्त। मिथ्या अवधिज्ञान। 'देशावरति' और 'सर्वविरति' नामक पाँचवें और छठे गुणस्थान। रहित। बीस। कहूँगा। 'वेद' नामक मार्गणाविशेष। वेदिका तक। क्षयोपशमसम्यग्दृष्टि जीवा स्त्रीवेद,पुरुषवेद और नपुंसकवेद।
६८
परिशिष्ट
१,१८ ९,११,२०,३१,६१,६६
विहुण विहीन वीस
विंशति वुच्छं
वक्ष्ये वेआय)(४९,१०) वेद वेइयंत
वेदिकान्त वेयग(६६-१०) वेदक वेयति वदत्रि
७३
१३,२२,३४,४४
५८
स
सग
सप्त
साता
२१,४५,५८,६१
५२
६८
सगवन्न
सत्तावन।
सप्तपञ्चाशत्
Page #287
--------------------------------------------------------------------------
________________
गाथाङ्क
७९ २४
२२,३६
७, ८-३,२३,५४, ५९-२,
६०-२,७९
२, ३- २, ४, ५, ६, ८, ९, १४, १७,
१८, १९, २५, ३१,४५ - २
७,१४,४५
१३,४५
६४,६८
४०,६२,६९,८२
२१,२८,४२
८२
७८
९,४५, ६४, ६५-२,७०
१४
प्राकृत
सगासंख
सच्चेयर(९०-१४) सत्येतर
१७,९१-१६,१९)
सठाण
सत्त
सन्नि(१०-१९, ५०-४)
सन्निदुग
सन्नियर (६७-१६)
सन्निवाइय
संस्कृत सप्तमासंख्यं
सम
समइ (ई) य
समय
समयपरिमाण
सम्म (४९-२५) सम्मत्ततिग
स्वस्थान
सप्तन्
संज्ञिन्
संज्ञिद्विक
संज्ञीतर
सान्निपातिक
सम
सामायिक
समय
समयपरिमाण
सम्यग्
सम्यक्त्वत्रिक
हिन्दी सातवाँ असंख्यात ।
सत्य और असत्य |
अपना-अपना गुणस्थान।
सात।
मनवाला प्राणी ।
पर्याप्त और अपर्याप्तसंज्ञी |
मनवाला और बेमन प्राणी ।
'सान्निपातिक' नामक एक भावविशेष ।
बराबर ।
'सामायिक' नामक संयमविशेष। कालका निर्विभागी अंश ।
समयों की मिकदार।
'सम्यग्दर्शन' |
'औपशमिक', 'क्षायिक' और 'क्षायोपशमिक' नामक
तीन सम्यक्त्व विशेष ।
२३४
चौथा कर्मग्रन्थ
Page #288
--------------------------------------------------------------------------
________________
गाथाङ्क
२५ ४७,५८ ७४, ७५, ७७
७३, ७५, ७६
७५
३,५,१६,१९,२५,४५,५०,७१,
७७,८५
७३
११
१२
५१
४९
६८,८५
११-२,१४,२१,२५,४०, ४९
१३,१४,२२,३१,३७,५०
प्राकृत
सम्मदुग सयो (जो ) गि सरिसव सलाग(२१२-१२)
८०
४१
सलागपल्ल
सव्व
साय
१३,१८,२६,४३,४५,४९,५५,६३ सासा ( स ) ण (६७-१)
सासणभाव
सशिखभृत
ससिहभरिय सागार(५७-८)
साकार
सामाइय(५७-२०) सामायिक
सिद्ध
सुअ(य) (५६-६) सुक्का(६४-२२)
संस्कृत सम्यक्त्वदिक
सयोगिन्
सर्षप
शलाका
शलाकापल्य
सर्व
सुत्तत्त
सुयअन्राण
सात
सासादन
सासादनभाव
सिद्ध
श्रुत
शुक्ला
सूत्रोक्त
श्रुताज्ञान
हिन्दी
'क्षयिक' और 'क्षायोपशमिक'।
'सयोगी' नामक तेरहवाँ गुणस्थान।
सरसों ।
'शलाका' नामक पल्यविशेष ।
शलाकापल्या
सब ।
शिखा ऊपर तक भरा हुआ। आकारवाले विशेष उपयोग । 'सामायिक' नामक संयमविशेष।
सातावेदनीय कर्म ।
'सासादन' नामक दूसरा गुणस्थान 'सासादन' की अवस्था । मुक्त जीव।
शास्त्र ।
'शुक्ल' नामक लेश्याविशेष ।
सूत्रों में कहा हुआ।
'श्रुताज्ञान' नामक मिथ्याज्ञानविशेष |
परिशिष्ट
२३५
Page #289
--------------------------------------------------------------------------
________________
संस्कृत सुरगति सूक्ष्म
हिन्दी देवगति। 'सूक्ष्म' नामक वनस्पतिकाय के जीवविशेष।
२३६
गाथाङ्क १०,४१,१८,२६,३० २,५,१२,१८,२२,२९,३७, ४१,५८,५९,६१,६२
८६ ३,७,३७,४५,५३,६५,६९,७०
५२,५३,५४,५८ ४१,४२,४३-२,४४ ३९,४१,६२,६३
१,७१ ९,३४
५८ ७,८,६०
६०
प्राकृत सुरगइ(५१-१३) सुहुम(९-१८, ६०-२३) सुहुमत्थवियार सेस सोल(-स) संख संखगुण संखिज्ज संजम(४९-१८) संजलणति संत(६-८) संतुदय संसइय(१७६-९)
सूक्ष्मार्थविचार शेष . षोडश संख्य संख्यगुण संख्येय संयम संज्वलनत्रिक
'सूक्ष्मार्थविचार' अपरनामक यह ग्रन्थ। बाकी। सोलह। संख्यातगुना। संख्यातगुना। संख्या।
'संयम'। . संज्वलन क्रोध, मान और माया।
'सत्ता। 'सत्ता' और 'उदय। 'सांशयिक' नामक मिथ्यात्वविशेष।
चौथा कर्मग्रन्थ
सत्तोदय सांशयिक
८६ ५०,५४ ८०,८४
भवति हेतु भवति
होता है। सबबा होता है।
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________________ Our Important Publications 1. Studies in Jaina Philosophy Dr. Nathamal Tatia 200.00 2. Jaina Temples of Western India Dr. Harihar Singh 300.00 3. Jaina Epistemology Dr.I.C. Shastri 150.00 4. Jaina Theory of Reality Dr.J.C. Sikdar 300.00 5. Jaina Perspective in Philosophy & Religion Dr. Ramji Singh 300.00 6. Aspects of Jainology (Complete Set: Vols. 1 to 7) 2500.00 7. An Introduction to Jaina Sadhana Prof. Sagarmal Jain 40.00 8. Pearls of Jaina Wisdom Dulichand Jain 120.00 9. Scientific contents in Prakrit Canons Dr.N.L.Jain 400.00 10. The Heritage of the Last Arhat: Mahavira Dr.C.Krause 25.00 11. Multi-Dimensional Application of Anekantavada Ed. Prof. S.M. Jain & Dr. S.P. Pandey 500.00 12. The World of Non-living Dr.N.L.Jain 400.00 13. Jains Today in the World Pierre Paul AMIEL 500.00 14. Jaina Religion: its Historical Journey of Evolution Dr. Kamla Jain 100.00 15. जैन धर्म और तान्त्रिक साधना प्रो. सागरमल जैन 350.00 16. सागर जैन-विद्या भारती (पाँच खण्ड) प्रो. सागरमल जैन 500.00 17. गुणस्थान सिद्धान्त : एक विश्लेषण प्रो. सागरमल जैन 60.00 18. अहिंसा की प्रासंगिकता डॉ.सागरमल जैन 100.00 19. अष्टकप्रकरण डॉ. अशोक कुमार सिंह 120.00 20. दशाश्रुतस्कन्धनियुक्ति : एक अध्ययन डॉ. अशोक कुमार सिंह 125.00 21. जैन तीर्थों का ऐतिहासिक अध्ययन डॉ. शिवप्रसाद 300.00 22. अचलगच्छ का इतिहास डॉ. शिवप्रसाद 250.00 23. तपागच्छ का इतिहास डॉ. शिवप्रसाद 500.00 24. सिद्धसेन दिवाकर : व्यक्तित्व एवं कृतित्व डॉ. श्री प्रकाश पाण्डेय 100.00 25. जैन एवं बौद्ध योग : एक तुलनात्मक अध्ययन डॉ. सुधा जैन 300.00 26. जैन एवं बौद्ध शिक्षा-दर्शन एक तुलनात्मक अध्ययन डॉ. विजय कुमार 200.00 27. जैन साहित्य का बृहद् इतिहास (सम्पूर्ण सेट सात खण्ड) 1400.00 28. हिन्दी जैन साहित्य का इतिहास (सम्पूर्ण सेट चार खण्ड) 760.00 29. जैन प्रतिमा विज्ञान डॉ. मारुति नन्दन तिवारी 300.00 30. वज्जालग्गां (हिन्दी अनुवाद सहित) पं. विश्वनाथ पाठक 160.00 31. प्राकृत हिन्दी कोश सम्पा.- डॉ. के.आर. चन्द्र 400.00 32. भारतीय जीवन मूल्य प्रो. सुरेन्द्र वर्मा 75.00 33. समाधिमरण डॉ. रज्जन कुमार 260.00 34. पञ्चाशक-प्रकरणम् (हिन्दी अनुवाद सहित) अनु. डॉ दीनानाथ शर्मा 250.00 35. जैन धर्म में अहिंसा डॉ. वशिष्ठ नारायण सिन्हा 300.00 36. बौद्ध प्रमाण-मीमांसा की जैन दृष्टि से समीक्षा डॉ. धर्मचन्द्र जैन 350.00 37. महावीर की निर्वाणभूमि पावा : एक विमर्श भगवतीप्रसाद खेतान 150.00 38. स्थानकवासी जैन परम्परा का इतिहास प्रो. सागरमल जैन एवं डॉ. विजय कुमार 500.00 39. सर्वसिद्धान्तप्रवेशक सम्पा. प्रो. सागरमल जैन 30.00 40. जीवन का उत्कर्ष श्री चित्रभानु 200.00 Parshwanath Vidyapeeth, I.T.I. Road, Karaundi, Varanasi - 5 Jain Eduron International www.jainelibre ore