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चौथा कर्मग्रन्थ
भावार्थ-क्षायिक-भाव के नौ भेद हैं। इनमें से केवलज्ञान और केवलदर्शन, ये दो भाव क्रम से केवलज्ञानावरणीय और केवलदर्शनावरणीयकर्म के सर्वथा क्षय हो जाने से प्रगट होते हैं। दान, लाभ, भोग, उपभोग और वीर्य, ये पाँच लब्धियाँ क्रमशः दानान्तराय, लाभान्तराय, भोगान्तराय, उपभोगान्तराय और वीर्यान्तराय-कर्म के सर्वथा क्षय हो जाने से प्रगट होती हैं। सम्यक्त्व, अनन्तानुबन्धिचतुष्क और दर्शनमोहनीय के सर्वथा क्षय हो जाने से व्यक्त होता है। चारित्र, चारित्रमोहनीयकर्म की सब प्रकृतियों का सर्वथा क्षय हो जाने पर प्रगट होता है। यही बारहवें गुणस्थान में प्राप्त होने वाला 'यथाख्यातचारित्र' है। सभी क्षायिक-भाव कर्म-क्षय-जन्य होने के कारण 'सादि' और कर्म से फिर आवृत न हो सकने के कारण अनन्त हैं।
क्षायोपशमिक-भाव के अठारह भेद हैं। जैसे—बारह उपयोगों में से केवलद्विक को छोड़कर शेष दस उपयोग, दान आदि पाँच लब्धियाँ, सम्यक्त्व और देशविरति तथा सर्वविरति-चारित्र। मति ज्ञान-मति-अज्ञान, मतिज्ञानावरणीय के क्षयोपशम से; श्रुतज्ञान-श्रुत-अज्ञान, श्रुतज्ञानावरणीयकर्म के क्षयोपशम से, अविधज्ञान-विभङ्गज्ञान, अवधिज्ञानावरणीयकर्म के क्षयोपशम से; मनः पर्यायज्ञान, मन: पर्यायज्ञानावरणीयकर्म के क्षयोपशम से और चक्षुदर्शन, अचक्षुर्दर्शन और अवधिदर्शन, क्रम से चक्षुर्दर्शनावरणीय, अचक्षुर्दर्शनावरणीय और अविधदर्शनावरणीयकर्म के क्षयोपशम से प्रगट होते हैं। दान आदि पाँच लब्धियाँ दानान्तराय आदि पाँच प्रकार के अन्तरायकर्म के क्षयोपशम से होती हैं। अनन्तानुबन्धिकषाय और दर्शनमोहनीय के क्षयोपशम से सम्यक्त्व होता है। अप्रत्याख्यानावरणीय कषाय के क्षयोपशम से देशविरति का आविर्भाव होता है और प्रत्याख्यानावरणीय कषाय के क्षयोपशम से सर्वविरतिका। मति-अज्ञान आदि क्षायोपशमिक-भाव अभव्य के अनादि-अनन्त और विभङ्गज्ञान सादि-सान्त है। मतिज्ञान आदि भाव भव्य के सादि-सान्त और दान आदि लब्धियाँ तथा अचक्षुदर्शन अनादि-सान्त हैं।।६५||
अन्नाणमसिद्धत्ता,-संजमलेसाकसायगइवेया। मिच्छं तुरिए भव्वा,- भव्यत्तजियत्त परिणामे।।६६।।
अज्ञानमसिद्धत्त्वाऽसंयमलेश्याकषायगतिवेदाः। मिथ्यात्त्वं तुर्ये भव्याऽभव्यत्वजीवत्वानि परिणामे।।६६।।
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