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गुणस्थानाधिकार
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अर्थ-अज्ञान, असिद्धत्व, असंयम, लेश्या, कषाय, गति, वेद और मिथ्यात्व, ये भेद चौथे (औदयिक) भाव के हैं। भव्यत्व, अभव्यत्व और जीवत्व ये परिणामिक-भाव हैं।।६६।।
भावार्थ-औदयिक-भाव के इक्कीस' भेद हैं। जैसे-अज्ञान, असिद्धत्व, असंयम, छः लेश्याएँ, चार कषाय, चार गतियाँ, तीन वेद और मिथ्यात्व। अज्ञान का मतलब ज्ञान का अभाव और मिथ्याज्ञान दोनों से है। ज्ञान का अभाव ज्ञानावरणीयकर्म के उदय का और मिथ्याज्ञान मिथ्यात्वमोहनीयकर्म के उदय का फल है; इसलिये दोनों प्रकार का अज्ञान औदयिक है। असिद्धत्व, संसारावस्था को कहते हैं। यह आठ कर्म के उदय का फल है। असंयम, विरति का अभाव है। यह अप्रत्याख्यानावरणीय कषाय के उदय का परिणाम है। मत-भेद से लेश्या के तीन स्वरूप हैं—(१) काषायिक-परिणाम, २. कर्म-परिणति और (३) योगपरिणाम। ये तीनों औदारिक ही हैं; क्योंकि काषायिक-परिणाम कषाय के उदय का, कर्म-परिणति कर्म के उदय का और योग-परिणाम शरीरनाम कर्म के उदय का फल है। कषाय, कषायमोहनीयकर्म के उदय से होता है। गतियाँ गतिनामकर्म के उदय-जन्य हैं। द्रव्य और भाव दोनों प्रकार का वेद औदयिक है। आकृतिरूप द्रव्यवेद अङ्गोपाङ्ग नामकर्म के उदय से और अभिलाषा रूप भाववेद वेदमोहनीय के उदय से होता है। मिथ्यात्व, अविवेकपूर्ण गाढ़तम मोह है, जो मिथ्यात्व मोहनीयकर्म के उदय का परिणाम है। औदयिक-भाव अभव्य के अनादि-अनन्त और भव्य के बहुधा अनादि-सान्त है।
जीवत्व, भव्यत्व और अभव्यत्व, ये तीन पारिणामिक भाव हैं। प्राण धारण करना जीवत्व है। यह भाव संसारी और सिद्ध सब जीवों में मौजूद होने के कारण भव्यत्व और अभव्यत्व की अपेक्षा व्यापक (अधिक-देश-स्थायी) है। भव्यत्व सिर्फ भव्य जीवों में और अभव्यत्व सिर्फ अभव्य जीवों में है। पारिणामिक-भाव अनादि-अनन्त है।
१. निद्रा, सुख, दुःख, हास्य, शरीर आदि असंख्यात भाव जो भिन्न-भिन्न कर्म के उदय
से होते हैं, वे सभी औदयिक हैं, तथापि इस जगह श्रीउमास्वाति आदि पूर्वाचार्यों
के कथन का अनुसरण करके स्थूल दृष्टि से इक्कीस औदयिक-भाव बतलाये हैं। २. मति-अज्ञान, श्रुत-अज्ञान और विभङ्गज्ञान को पिछली गाथा में क्षायोपशमिक और यहाँ
औदयिक कहा है। क्षायोपशिमक इस अपेक्षा से कहा है कि ये उपयोग मतिज्ञानावरणीय आदि कर्म के क्षयोपशम-जन्य हैं और औदयिक इस अपेक्षा से कहा है कि इनकी अयथार्थता का कारण मिथ्यात्वमोहनीयकर्म का उदय है।
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