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चौथा कर्मग्रन्थ
पाँच भावों के सब मिलाकर त्रेपन भेद होते हैं- औपशमिक के दो, क्षायिक के नौ, क्षायोपशमिक के अठारह, औदयिक के इक्कीस और पारिणामिक के तीन ॥६६॥
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चउ चउगईसु मीसग - परिणामुदएहिं चउ सखइएहिं । उवसमजुएहिं वा चउ, केवलि परिणामुदयखइए ।। ६७ ।। खयपरिणामे सिद्धा, नराण पणजोगुवसमसेढीए । इय पनर संनिवाइय, भेया वीसं असंभविणो ।। ६८ । चत्वारश्चतुर्गतिषु मिश्रकपरिणामोदयैश्चत्वारः सक्षायिकैः । उपशमयुतैर्वा चत्वारः, केवली परिणामोदयक्षायिके ।। क्षयपरिणामे सिद्धा, नराणां पञ्चयोग उपशमश्रेण्याम् । इति पञ्चदश सांनिपातिकभेदा विंशतिरसंभविनः । । ६८ ।। अर्थ - क्षायोपशमिक, पारिणामिक और औदयिक, इन तीन भावों का त्रिकसंयोगरूप सांनिपातिक भाव चार गति में पाये जाने के कारण चार प्रकार का है। उक्त तीन और एक क्षायिक, इन चार भावों का चतु:संयोगरूप सांनिपातिकभाव तथा उक्त तीन और एक औपशमिक, इन चार का चतु:संयोगरूप सांनिपातिक- - भाव चार गति में होता है। इसलिये ये दो सांनिपातिक - भाव भी चारचार प्रकार के हैं। पारिणामिक, औदयिक और क्षायिक का त्रिक- संयोगरूप सांनिपातिक-भाव सिर्फ शरीरधारी केवलज्ञानी को होता है। क्षायिक और पारिणामिक का द्विक-संयोगरूप सांनिपातिक-भाव सिर्फ सिद्ध जीवों में पाया जाता है। पाँचों भाव का पञ्च- संयोगरूप सांनिपातिक-भाव, उपश्रमश्रेणिवाले मनुष्यों में ही होता है। उक्त रीति से छह सांनिपातिक - भावों के पन्द्रह भेद होते हैं। शेष बीस सांनिपातिक-भाव असंभवी अर्थात् शून्य हैं । । ६७-६८ ॥
भावार्थ - औपशमिक आदि पाँच भावों में से दो, तीन, चार या पाँच भावों के मिलने पर सांनिपातिक भाव होता है। दो भावों के मेल से होनेवाला सांनिपातिक 'द्विक-संयोग', तीन भावों के मेल से होनेवाला 'त्रिक-संयोग', चार भावों के मेल से होनेवाला 'चतु:संयोग' और पाँच भावों के मेल से होनेवाला 'पञ्च- संयोग' कहलाता है।
द्विक- संयोग के दस भेदः औपशमिक + क्षायिक ।
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