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________________ गुणस्थानाधिकार १२३ भावार्थ-भाव, पर्याय को कहते हैं। अजीव का पर्याय अजीव का भाव और जीव का पर्याय जीव का भाव है। इस गाथा में जीव के भाव दिखाये हैं। ये मूल भाव पाँच हैं। १. औपशमिक-भाव वह है, जो उपशम से होता है। प्रदेश और विपाक, दोनों प्रकार के कर्मोदय का रुक जाना उपशम है। २. क्षायिक भाव वह है, जो कर्म का सर्वथा क्षय हो जाने पर प्रगट होता है। ३. क्षायोपशमिक-भाव क्षयोपशम से प्रगट होता है। कर्म के उदयावलिप्रविष्ट मन्द-रसस्पर्धक का क्षय और अनुदयमान रसस्पर्धक की सर्वघातिनी विपाक-शक्ति का निरोध या देशघातिरूप में परिणमन व तीव्र शक्ति का मन्द शक्तिरूप में परिणमन ( उपशम), क्षयोपशम है। ४. औदयिक भाव कर्म के उदय से होनेवाला पर्याय है। ५. पारिप्रामिक-भाव स्वभाव से ही स्वरूप में परिणत होते रहना है। एक-एक भाव को 'मूलभाव' और दो या दो से अधिक मिले हुए भावों को 'सांनिपातिक - भाव' समझना चाहिये । भावों के उत्तर- भेदः - औपशमिक-भाव के सम्यक्त्व और चारित्र ये दो भेद हैं। १. अनन्तानुबन्धि चतुष्क के क्षयोपशम या उपशम और दर्शनमोहनीयकर्म के उपशम से जो तत्त्व - रुचि व्यञ्जक आत्मपरिणाम प्रगट होता है, वह 'औपशमिक सम्यक्त्व' है। (२) चारित्रमोहनीय की पच्चीस प्रकृतियों के उपशम से व्यक्त होनेवाला स्थिरतात्मक परिणाम 'औपशमिक चारित्र' है। यही ग्यारहवें गुणस्थान में प्राप्त होनेवाला 'यथाख्यातचारित्र' है। औपशमिक-भाव सादि - सान्त है ॥ ६४ ॥ बीए केवलजुयलं, संमं दाणाइलद्धि पण चरणं । तइए सेसुवओगा, पण लब्द्धी सम्मविरइदुगं । । ६५ । । द्वितीये केवलयुगलं, सम्यग् दानादिलब्धयः पञ्च चरणम्। तृतीये शेषोपयोगाः, पञ्च लब्धयः सम्यग्विरतिद्विकम् । । ६५ । । अर्थ- दूसरे ( क्षायिक) - भाव के केवल द्विक, सम्यक्त्व, दान आदि पाँच लब्धियाँ और चारित्र, ये नौ भेद हैं। तीसरे ( क्षायोपशमिक ) भाव के केवलद्विक को छोड़कर शेष दस उपयोग, दान आदि पाँच लब्धियाँ, सम्यक्त्व और विरति-द्विक, ये अठारह भेद हैं | | ६५ ॥ For Private & Personal Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.001895
Book TitleKarmagrantha Part 4 Shadshitik
Original Sutra AuthorDevendrasuri
AuthorSukhlal Sanghavi
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year2009
Total Pages290
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size13 MB
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