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________________ मार्गणास्थान-अधिकार ५९ तेज:काय और वायुकाय, जो गतित्रस या लब्धित्रस कहे जाते हैं, उनमें न तो औपशमिक सम्यक्त्व प्राप्त होता है और न औपशमिक सत्यक्त्व को वमन करनेवाला जीव ही उनमें जन्म ग्रहण करता है, इसी से उनमें पहला ही गुणस्थान कहा गया है। __ अभव्यों में सिर्फ प्रथम गुणस्थान, इस कारण माना जाता है कि वे स्वभाव से ही सम्यक्त्व-लाभ नहीं कर सकते और सम्यक्त्व प्राप्त किये बिना दूसरे आदि गुणस्थान असम्भव हैं।।१९।। वेयतिकसाय नव दस, लोभे चउ अजय दु ति अनाणतिगे। बारस अचक्खु चक्खुसु, पढमा अहखाइ चरम चउ।।२०।। वेदात्रिकषाये नव दश, लोभे चत्वार्ययते द्वे त्रीण्यज्ञानत्रिके। द्वादशाचक्षुश्चक्षुषोः, प्रथमानि यथाख्याते चरमाणि चत्वारि।।२०।। अर्थ-तीन वेद तथा तीन कषाय (संज्वलन-क्रोध, मान और माया) में पहले नौ गुणस्थान पाये जाते हैं। लोभ में (संज्वलनलोभ) दस गुणस्थान होते हैं। अयत (अविरति-) में चार गणस्थान हैं। तीन अज्ञान (मति-अज्ञान, श्रतः अज्ञान और विभङ्गज्ञान-) में पहले दो या तीन गुणस्थान माने जाते हैं। अचक्षुर्दर्शन और चक्षुर्दर्शन में पहले बारह गुणस्थान होते हैं। यथाख्यातचारित्र में अन्तिम चार गुणस्थान हैं।।२०।। भावार्थ-तीन वेद और तीन संज्वलन-कषाय में नौ गुणस्थान कहे गये हैं, सो उदय की अपेक्षा से समझना चाहिये; क्योंकि उनकी सत्ता ग्यारहवें गुणस्थान पर्यन्त पाई जा सकती है। नौवें गुणस्थान के अन्तिम समय तक में तीन वेद और तीन सज्वलनकषाय या तो क्षीण हो जाते हैं या उपशान्त, इस कारण आगे के गुणस्थानों में उनका उदय नहीं रहता। सवलनलोभ में दस गुणस्थान उदय की अपेक्षा से ही समझने चाहिये; क्योंकि सत्ता तो उसकी ग्यारहवें गुणस्थान तक पाई जा सकती है। अविरति में पहले चार-गुणस्थान इसलिये कहे हुए हैं कि पाँचवें से लेकर आगे से सब गुणस्थान विरतिरूप हैं। अज्ञान-त्रिक में गुणस्थानों की संख्या के विषय में दो मत' हैं। पहला उसमें दो गुणस्थान मानना है और दूसरा तीन गुणस्था। ये दोनों मत कार्मग्रन्थिक हैं। १. इनमें से पहला मत ही गोम्मटसार-जीवकाण्ड की ६८६वीं गाथा में उल्लिखित है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001895
Book TitleKarmagrantha Part 4 Shadshitik
Original Sutra AuthorDevendrasuri
AuthorSukhlal Sanghavi
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year2009
Total Pages290
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size13 MB
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