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________________ चौथा कर्मग्रन्थ (२) मार्गणाओं में गुणस्थान । ( पाँच गाथाओं से । ) पण तिरि चउ सुरनरए नरसंनिपणिदिभव्वतसि सव्वं । इगविगल भूदगवणे, दु दु एगं गइतसअभव्वे ।। १९ । । पञ्च तिरिश्च चत्वारि सुरनरके, नरसंज्ञिपञ्चेन्द्रियभव्यत्रस सर्वाणि । एकविकलभूदकवने, द्वे द्वे एकं गतित्रसाभव्ये ।। १९ । । अर्थ-तिर्यञ्चगति में पाँच गुणस्थान हैं। देव तथा नरकगति में चार गुणस्थान हैं। मनुष्यगति, संज्ञी, पञ्चेन्द्रियजाति, भव्य और त्रसकाय, इन पाँच मार्गणाओं में सब गुणस्थान हैं। एकेन्द्रिय, विकलेन्द्रिय, पृथ्वीकाय, जलकाय और वनस्पतिकाय में पहला और दूसरा, ये दो गुणस्थान हैं। गतित्रस (तेज:काय और वायुकाय) और अभव्य में एक (पहला ) ही गुणस्थान है || १९ ॥ ५८ भावार्थ - तिर्यञ्चगति में पहले पाँच गुणस्थान हैं; क्योंकि जाति-स्वभाव से सर्वविरति का संभव नहीं होता और सर्वविरति के अतिरिक्त छठे आदि गुणस्थानों का संभव नहीं है। देवगति और नरकगति में पहले चार गुणस्थान माने जाने का सबब यह है कि देव या नारक स्वभाव से ही विरतिरहित होते हैं और विरति के बिना अन्य गुणस्थानों का संभव नहीं है। मनुष्यगति आदि उपर्युक्त पाँच मार्गणाओं में हर प्रकार के परिणामों के संभव होने के कारण सब गुणस्थान पाये जाते हैं । एकेन्द्रिय, विकलेन्द्रिय, पृथ्वीकाय, जलकाय और वनस्पतिकाय में दो गुणस्थान कहे हैं। इनमें से दूसरा गुणस्थान अपर्याप्त अवस्था में ही होता है। एकेन्द्रिय आदि की आयु का बन्ध हो जाने के बाद जब किसी को औपशमिक सम्यक्त्व प्राप्त होता है, तब वह उसे त्याग करता हुआ सासादन सम्यक्त्व सहित एकेन्द्रिय आदि में जन्म ग्रहण करता है। उस समय अपर्याप्त अवस्था में कुछ काल तक दूसरा गुणस्थान पाया जाता है। पहला गुणस्थान तो एकेन्द्रिय आदि के लिये सामान्य है; क्योंकि वे सब अनाभोग (अज्ञान) के कारण तत्त्व - श्रद्धा - हीन होने से मिथ्यात्वी होते हैं। जो अपर्याप्त एकेन्द्रिय आदि, दूसरे गुणस्थान के अधिकारी कहे गये हैं, वे करण अपर्याप्त हैं, लब्धि अपर्याप्त नहीं, क्योंकि लब्धि - अपर्याप्त तो सभी जीव, मिथ्यात्वी ही होते हैं। - For Private & Personal Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.001895
Book TitleKarmagrantha Part 4 Shadshitik
Original Sutra AuthorDevendrasuri
AuthorSukhlal Sanghavi
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year2009
Total Pages290
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size13 MB
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