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चौथा कर्मग्रन्थ
आत्मा ही इसकी अधिकारी बनती है। अध: पतन मोह के उद्वेक से होता है । अतएव इस गुणस्थान के समय मोह की तीव्र काषायिक शक्ति का आविर्भाव पाया जाता है। खीर आदि मिष्ट भोजन करने के बाद जब वमन हो जाता है, तब मुख में एक प्रकार का विलक्षण स्वाद अर्थात् न अति- मधुर न अति अम्ल जैसे प्रतीत होता है। इसी प्रकार दूसरे गुणस्थान के समय आध्यात्मिक स्थिति विलक्षण पाई जाती है। क्योंकि उस समय आत्मा न तो तत्त्व - ज्ञान की निश्चित भूमिका पर होती है और न तत्त्व - ज्ञान - शून्य निश्चित भूमिका पर । अथवा जैसे कोई व्यक्ति चढ़ने की सीढ़ियों से खिसक कर जब तक जमीन पर आकर नहीं ठहर जाता, तब तक बीच में एक विलक्षण अवस्था का अनुभव करता है, वैसे ही सम्यक्त्व से गिरकर मिथ्यात्व को पाने तक में अर्थात् बीच में आत्मा एक विलक्षण आध्यात्मिक अवस्था का अनुभव करती है। यह बात हमारे इस व्यावहारिक अनुभव से भी सिद्ध है कि जब किसी निश्चित उन्नत - व्यवस्था से गिरकर कोई निश्चित अवनत अवस्था प्राप्त की जाती है, तब बीच में एक विलक्षण परिस्थिति खड़ी होती है।
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तीसरा गुणस्थान आत्मा की उस मिश्रित अवस्था का नाम है, जिसमें न तो केवल सम्यक् - दृष्टि होती है और न केवल मिथ्या दृष्टि, किन्तु आत्मा उसमें दोलायमान आध्यात्मिक स्थिति वाली बन जाती है। अतएव उसकी बुद्धि स्वाधीन न होने के कारण सन्देहशील होती है अर्थात् उसके सामने जो कुछ आया, वह सब सच। न तो वह तत्त्व को एकान्त अतत्त्वरूप से ही जानती है और न तत्त्वअतत्त्व का वास्तविक पूर्ण विवेक ही कर सकती है।
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तीसरे
कोई उत्क्रान्ति करनेवाली आत्मा प्रथम गुणस्थान से निकलकर सीधे ही गुणस्थान को प्राप्त कर सकती है और कोई अपक्रान्ति करनेवाली आत्मा भी चतुर्थ आदि गुणस्थान से गिरकर तीसरे गुणस्थान को प्राप्त कर सकती है। इस प्रकार उत्क्रान्ति करनेवाली और अपक्रान्ति करनेवाली — दोनों प्रकार की आत्माओं का आश्रय-स्थान तीसरा गुणस्थान है। यही तीसरे गुणस्थान की दूसरे गुणस्थान से विशेषता है।
ऊपर आत्मा की जिन चौदह अवस्थाओं का विचार किया है, उनका तथा उनके अन्तर्गत अवान्तर संख्यातीत अवस्थाओं का बहुत संक्षेप में वर्गीकरण करके शास्त्र में शरीरधारी आत्मा की सिर्फ तीन अवस्थाएँ बतलाई हैं१. बहिरात्म - अवस्था, २. अन्तरात्म- अवस्था और ३. परमात्म- अवस्था ।
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