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प्रस्तावना
निरतिशय ज्ञान, चारित्र आदि का लाभ करती है तथा अनिर्वचनीय स्वाभाविक सुख का अनुभव करती है। जैसे, पूर्णिमा की रात में निरभ्र चन्द्र की सम्पूर्ण कलाएँ प्रकाशमान होती हैं, वैसे ही उस समय आत्मा की चेतना आदि सभी मुख्य शक्तियाँ पूर्ण विकसित हो जाती हैं। इस भूमिका को जैन मान्यतानुसार में तेरहवाँ गुणस्थान कहते हैं ।
इस गुणस्थान में चिरकाल तक रहने के बाद आत्मा दग्ध रज्जु के समान शेष आवरणों की अर्थात् अप्रधानभूत अघातिकर्मों को उड़ाकर फेंक देने के लिये सूक्ष्मक्रिया प्रतिपाति शुक्लध्यान रूप पवन का आश्रय लेकर मानसिक, वाचिक और कायिक व्यापारों को सर्वथा रोक देती है। यही आध्यात्मिक विकास की पराकाष्ठा किंवा चौदहवाँ गुणस्थान है। इसमें आत्मा समुच्छिन्नक्रियाप्रतिपाति शुक्लध्यान द्वारा सुमेरु की तरह निष्प्रकम्प स्थिति को प्राप्त करके अन्त में शरीर - त्याग पूर्वक व्यवहार और परमार्थ दृष्टि से लोकोत्तर स्थान को प्राप्त करता है। यही निर्गुण ब्रह्मस्थिति' है, यही सर्वाङ्गीण पूर्णता है, यही पूर्ण कृतकृत्यता है, यही परम पुरुषार्थ की अन्तिम सिद्धि है और यही अपुनरावृत्ति - स्थान है। क्योंकि संसार का एकमात्र कारण मोह है। जिसके सब संस्कारों का निश्शेष नाश हो जाने के कारण अब उपाधि संभव नहीं है ।
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यह कथा हुई पहले से चौदहवे गुणस्थान तक के बारह गुणस्थान की, इसमें दूसरे और तीसरे गुणस्थान की कथा, जो छूट गई है, वह यों है कि सम्यक्त्व किंवा तत्त्वज्ञान वाली ऊपर की चतुर्थी आदि भूमिकाओं के राजमार्ग से च्युत होकर जब कोई आत्मा तत्वज्ञान - शून्य किंवा मिथ्यादृष्टिवाली प्रथम भूमिका के उन्मार्ग की ओर झुकती है, तब बीच में उस अधःपतनोन्मुख आत्मा की जो कुछ अवस्था होती है, वही दूसरा गुणस्थान है । यद्यपि इस गुणस्थान में प्रथम गुणस्थान की अपेक्षा आत्म-शुद्धि अवश्य कुछ अधिक होती है, इसीलिये इसका नम्बर पहले के बाद रक्खा गया है, फिर भी यह बात ध्यान में रखनी चाहिये कि इस गुणस्थान को उत्क्रान्ति स्थान नहीं कह सकते, क्योंकि प्रथम गुणस्थान को छोड़कर उत्क्रान्ति करनेवाली आत्मा इस दूसरे गुणस्थान को सीधे तौर से प्राप्त नहीं कर सकती, किन्तु ऊपर के गुणस्थान से गिरनेवाली
१. योगसंन्यासतस्त्यागी, योगानप्यखिलाँस्त्यजेत्। इत्येवं निर्गुणं ब्रह्म, परोक्तमुपपद्यते।।७।। वस्तुतस्तु गुणैः पूर्ण, मनन्तर्भासते स्वतः ।
रूपं त्यक्तात्मनः साधो - निरभ्रस्य विधोरिव ||८|| ( ज्ञानसार, त्यागाष्टक
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