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चौथा कर्मग्रन्थ
दल के इस अन्तर का कारण उनकी आन्तरिक योग्यता की न्यूनाधिकता है। वैसे ही नौवें तथा दसवें गुणस्थान को प्राप्त करनेवाले उक्त दोनों श्रेणिगामी आत्माओं की आध्यात्मिक विशुद्धि न्यूनाधिक होती है। जिसके कारण एक श्रेणिवाले तो दसवें गुणस्थान को पाकर अन्त में म्यारहवें गुणस्थान में मोह से हार खाकर नीचे गिरते हैं और अन्य श्रेणिवाले दसवें गुणस्थान को पाकर इतना अधिक आत्म-बल प्रकट करते हैं कि अन्त में वे मोह को सर्वथा क्षीण कर बारहवें गुणस्थान को प्राप्त कर ही लेते हैं।
जैसे ग्यारहवाँ गुणस्थान अवश्य पुनरावृत्ति का है, वैसे ही बारहवाँ गुणस्थान अपुनरावृत्ति का है। अर्थात् ग्यारहवें गुणस्थान को पानेवाली आत्मा एक बार उससे अवश्य गिरती है और बारहवें गुणस्थान को पानेवाली उससे कदापि नहीं गिरती, बल्कि ऊपर को ही चढ़ती है। किसी एक परीक्षा में नहीं पास होनेवाला विद्यार्थी जिस प्रकार परिश्रम व एकाग्रता से योग्यता बढ़ाकर फिर उस परीक्षा को पास कर लेता है, उसी प्रकार एक बार मोह से हार खाने वाली आत्मा भी अप्रमत्त-भाव व आत्मबल की अधिकता से फिर मोह को अवश्य क्षीण कर देती है। उक्त दोनों श्रेणि की आत्माओं की तरतम-भावापन्न आध्यात्मिक विशुद्धि मानों परमात्म-भाव-रूप सर्वोच्च भूमिका पर चढ़ने की दो नसेनियाँ हैं। जिनमें से एक को जैनशास्त्र में 'उपशमश्रेणि' और दूसरी को 'क्षपकश्रेणि' कहा गया है। पहली कुछ दूर चढ़ाकर गिरानेवाली और दूसरी चढ़ाने वाली ही है। पहली श्रेणि से गिरनेवाला आध्यात्मिक अध:पतन के द्वारा चाहे प्रथम गुणस्थान तक क्यों न चला जाय, पर उसकी वह अध:पतित स्थिति कायम नहीं रहती। कभी-न-कभी फिर वह दूने बल से और दूनी सावधानी से तैयार होकर मोहशत्रु का सामना करता है और अन्त में दूसरी श्रेणि की योग्यता प्राप्त कर मोह का सर्वथा क्षय कर डालता है। व्यवहार में अर्थात् आधिभौतिक क्षेत्र में भी यह देखा जाता है कि जो एक बार हार खाता है, वह पूरी तैयारी करके हरानेवाले शत्रु को फिर से हरा सकता है।
परमात्म-भाव का स्वराज्य प्राप्त करने में मुख्य बाधक मोह ही है। जिसको नष्ट करना अन्तरात्म-भाव के विशिष्ट विकास पर निर्भर है। मोह का सर्वथा नाश हुआ कि अन्य आवरण जो जैनशास्त्र में ‘घातिकर्म' कहलाते हैं, वे प्रधान सेनापति के मारे जाने के बाद अनुगामी सैनिकों की तरह एक साथ तितर-बितर हो जाते हैं। फिर क्या देरी, विकासगामी आत्मा तुरन्त ही परमात्म-भाव का पूर्ण आध्यात्मिक स्वराज्य पाकर अर्थात् सच्चिदानन्द स्वरूप को पूर्णतया व्यक्त करके
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