SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 32
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ प्रस्तावना xvii शुद्धिवाला कोई दूसरा व्यक्ति ऐसा भी होता है, जो मोह के संस्कारों को क्रमश: जड़ मूल से उखाड़ता हुआ आगे बढ़ता है तथा अन्त में उन सब संस्कारों को सर्वथा निर्मूल कर डालता है। इस प्रकार आठवें गुणस्थान से आगे बढ़नेवाले अर्थात् अन्तरात्म-भाव के विकास द्वारा परमात्म-भाव-रूप सर्वोपरि भूमिका के निकट पहुँचने वाली आत्मा दो श्रेणियों में विभक्त हो जाती है। एक श्रेणिवाली आत्माएँ ऐसी होती हैं, जो मोह को एक बार सर्वथा दबा तो लेती हैं, पर उसे निर्मूल नहीं कर पातीं। अतएव जिस प्रकार किसी बर्तन में भरी हुई भाफ कभी-कभी अपने वेग से उस बर्तन को उड़ा ले भागती है या नीचे गिरा देती है अथवा जिस प्रकार राख के नीचे दबी हुआ अग्नि हवा का झोंका लगते ही अपना कार्य करने लगती है; किंवा जिस प्रकार जल के तल में बैठा हुआ मल थोड़ा-सा क्षोभ पाते ही ऊपर उठकर जल को गन्दा कर देता है, उसी प्रकार पहले दबा हुआ मोह भी आन्तरिक युद्ध में थके हुए उन प्रथम श्रेणिवाली आत्माओं को अपने वेग के द्वारा नीचे पटक देता है। एक बार सर्वथा दबाये जाने पर भी मोह, जिस भूमिका से आत्मा को हार दिलाकर नीचे की ओर पटक देता है, वही ग्यारहवाँ गुणस्थान है। मोह को क्रमश: दबातेदबाते सर्वथा दबाने तक में उत्तरोत्तर अधिक-अधिक विशुद्धिवाली दो भूमिकाएँ अवश्य प्राप्त करनी पड़ती हैं, जो नौवाँ तथा दसवाँ गुणस्थान कहलाता है। ग्यारहवाँ गुणस्थान अध:पतन का स्थान है; क्योंकि उसे पानेवाली आत्मा आगे न बढ़कर एक बार तो अवश्य नीचे गिरती है। दूसरी श्रेणिवाली आत्माएँ मोह को क्रमश: निर्मूल करते-करते अन्त में उसे सर्वथा निर्मूल कर ही डालती हैं। सर्वथा निर्मूल करने की जो उच्च भूमिका है, वही बारहवाँ गुणस्थान है। इस गुणस्थान को पाने तक में अर्थात् मोह को सर्वथा निर्मूल करने से पहले बीच में नौवाँ और दसवाँ गुणस्थान प्राप्त करना पड़ता है। इस प्रकार देखा जाय तो चाहे पहली श्रेणिवाली हों, चाहे दूसरी श्रेणिवाली, पर वे सब नौवाँ-दसवाँ गुणस्थान प्राप्त करती ही हैं। दोनों श्रेणियों में अन्तर इतना ही होता है कि प्रथम श्रेणि की अपेक्षा दूसरी श्रेणि में आत्मशुद्धि व आत्म-बल विशिष्ट प्रकार का पाया जाता है। जैसे.-किसी एक दर्जे के विद्यार्थी भी दो प्रकार के होते हैं। एक प्रकार के तो ऐसे होते हैं, जो सौ कोशिश करने पर भी एक बारगी अपनी परीक्षा में पास होकर आगे नहीं बढ़ सकते। पर दूसरे प्रकार के विद्यार्थी अपनी योग्यता के बल से सब कठिनाईयों को पार कर उस कठिनतम परीक्षा को बेधड़क पास कर ही लेते हैं। उन दोनों Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001895
Book TitleKarmagrantha Part 4 Shadshitik
Original Sutra AuthorDevendrasuri
AuthorSukhlal Sanghavi
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year2009
Total Pages290
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size13 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy