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________________ xvi चौथा कर्मग्रन्थ चारित्रमोह को अधिकांश में शिथिल करके पहले की अपेक्षा भी अधिक स्वरूपस्थिरता व स्वरूप-लाभ प्राप्त करने की चेष्टा करती है। इस चेष्टा में कृतकृत्य होते ही उसे सर्व-विरति संयम प्राप्त होता है। जिसमें पौदगलिक भावों पर मुर्छा बिल्कुल नहीं रहती, और उसका सारा समय स्वरूप की अभिव्यक्ति करने के काम में ही खर्च होता है। यह ‘सर्व-विरति' नामक षष्ठ गुणस्थान है। इसमें आत्मकल्याण के अतिरिक्त लोक-कल्याण की भावना और तदनुकूल प्रवृत्ति भी होती है जिससे कभी-कभी थोड़ी बहुत मात्रा में प्रमाद आ जाता है। ___पाँचवे गुणस्थान की अपेक्षा इस छठे गुणस्थान में स्वरूप अभिव्यक्ति अधिक होने के कारण यद्यपि विकासगामी आत्मा को आध्यात्मिक शान्ति पहले से अधिक ही मिलती है तथापि बीच-बीच में अनेक प्रमाद उसे शान्ति अनुभव में जो बाधा पहुँचाते हैं, उसको वह सहज नहीं कर सकता। अतएव सर्व-विरतिजनित शान्ति के साथ अप्रमाद-जनित विशिष्ट शान्ति का अनुभव करने की प्रबल लालसा से प्रेरित होकर वह विकासगामी आत्मा प्रमाद का त्याग करती है और स्वरूप की अभिव्यक्ति के अनुकूल मनन-चिन्तन के अतिरिक्त अन्य सब व्यापारों का त्याग कर देती है। यही 'अप्रमत्तसंयत' नामक सातवाँ गुणस्थान है। इसमें एक ओर अप्रमाद-जन्य उत्कट सुख का अनुभव आत्मा को उस स्थिति में बने रहने के लिये उत्तेजित करता है और दूसरी ओर प्रमाद-जन्य पूर्व वासनाएँ उसे अपनी ओर खींचती हैं। इस खींचातानी में विकासगामी आत्मा कभी प्रमाद की तन्द्रा और कभी अप्रमाद की जागृति अर्थात् छठे और सातवें गुणस्थान में अनेक बार जाती आती रहती है। भँवर या वातभ्रमी में पड़ा हुआ तिनका इधर से उधर और उधर-से इधर जिस प्रकार चलायमान होता रहता है, उसी प्रकार छठे और सातवें गुणस्थान के समय विकासगामी आत्मा अनवस्थित बन जाती है। प्रमाद के साथ होनेवाले इस आन्तरिक युद्ध के समय विकासगामी आत्मा यदि अपना विशेष चारित्र-बल प्रकाशित करती है तो फिर वह प्रमादों-प्रलोभनों को पार कर विशेष अप्रमत्त-अवस्था प्राप्त कर लेती है। इस अवस्था को पाकर वह ऐसी शक्ति-वृद्धि की तैयारी करती है कि जिससे शेष रहे-सहे मोह-बल को नष्ट किया जा सके। मोह के साथ होनेवाले भावी युद्ध के लिये की जानेवाली तैयारी की इस भूमिका को आठवाँ गुणस्थान कहते हैं। पहले कभी न हुई ऐसी आत्म-शुद्धि इस गुणस्थान में हो जाती है। जिससे कोई विकासगामी आत्मा मोह के संस्कारों के प्रभाव को क्रमशः दबाती हई आगे बढ़ती है तथा अन्त में उसे बिल्कुल ही उपशान्त कर देती है और विशिष्ट आत्म Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001895
Book TitleKarmagrantha Part 4 Shadshitik
Original Sutra AuthorDevendrasuri
AuthorSukhlal Sanghavi
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year2009
Total Pages290
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size13 MB
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