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मार्गणास्थान-अधिकार
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सवे।
तसजोयवेयसुक्का, - हारनरपणिंदिसंनिभवि नयणेयरपणलेसा,- कसाइ दस केवलदुगूणा।।३१।।
त्रसयोगवेदशुक्लाहारकनरपञ्चेन्द्रियसंज्ञिभव्ये सर्वे। नयनेतरपञ्चलेश्याकषाये दश केवलद्विकोनाः।।३१।।
अर्थ-त्रसकाय, तीन योग, तीन वेद, शुक्ललेश्या, आहारक, मनुष्यगति, पञ्चेन्द्रियजाति, संज्ञी और भव्य, इन तेरह मार्गणाओं में सब उपयोग होते हैं। चक्षुर्दर्शन, अचक्षुर्दर्शन, शुक्ल के सिवाय शेष पाँच लेश्याएँ और चार कषाय, इन ग्यारह मार्गणाओं में केवल-द्विक को छोड़कर शेष दस उपयोग पाये जाते हैं।।३१।।
भावार्थ-त्रसकाय आदि उपर्युक्त तेरह मार्गणाओं में से योग, शुक्ललेश्या और आहारकत्व, ये तीन मार्गणाएँ तेरहवें गुणस्थान पर्यन्त और शेष दस, चौदहवें गुणस्थान पर्यन्त पायी जाती हैं; इसलिये इन सब में बारह उपयोग माने जाते हैं। चौदहवें गुणस्थान पर्यन्त वेद पाये जाने का मतलब, द्रव्यवेद से है; क्योंकि भाववेद तो नौवें गुणस्थान तक ही रहता है।
चक्षुर्दर्शन और अचक्षुर्दर्शन, ये दो बारहवें गुणस्थान पर्यन्त, कृष्ण-आदि तीन लेश्याएँ छठे गुणस्थान पर्यन्त, तेज:-पद्म, दो लेश्याएँ सातवें गुणस्थान पर्यन्त और कषायोदय अधिक से अधिक दसवें गुणस्थान पर्यन्त पाया जाता है; इस कारण चक्षुर्दर्शन आदि उक्त ग्यारह मार्गणाओं में केवल-द्विक के सिवाय शेष दस उपयोग होते हैं।।३१।।
चउरिंदिअसंनि दुअना,-णदंसण इगिबितिथावरिप अचक्खु। तिअनाण दंसणदुर्ग, अनाणतिगअभवि मिच्छदुगे।। ३२।।
चतुरिन्द्रियासंज्ञिनि घ्यज्ञानदर्शनमेकद्वित्रिस्थावरेऽचक्षुः। व्यज्ञानं दर्शनद्विकमज्ञानत्रिकाभव्ये मिथ्यात्वद्विके।। ३२।।
अर्थ-चतुरिन्द्रिय और असंज्ञि-पञ्चेन्द्रिय में मति और श्रुत दो अज्ञान तथा चक्षुः और अचक्षः दो दर्शन, कुल चार उपयोग होते हैं। एकेन्द्रिय, द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय और पाँच प्रकार के स्थावर में उक्त चार में से चक्षुर्दर्शन के सिवाय, शेष तीन उपयोग होते हैं। तीन अज्ञान, अभव्य, और मिथ्यात्व-द्विक (मिथ्यात्व तथा सासादन), इन छह मार्गणाओं में तीन अज्ञान और दो दर्शन, कुल पाँच उपयोग होते हैं।॥३२॥
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