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चौथा कर्मग्रन्थ
केवलिसमुद्धात की अपेक्षा से। केवलिसमुद्धात के दूसरे, छठे और सातवें समय में औदारिकमिश्र और तीसरे, चौथे और पाँचवें समय में कार्मणयोग होता . है।।२९॥
(४) मार्गणाओं में उपयोग।
(छह गाथाओं से।) ति अनाण नाण पण चउ, दंसण बार जियलक्खणुवओगा।
विणु मणनाणदुकेवल, नव सुरतिरिनिरयअजएसु।।३०।। त्रीण्यज्ञानानि ज्ञानानि पञ्च चत्वारि, दर्शनानि द्वादश जीवलक्षणमुपयोगाः। बिना मनोज्ञानद्विकेवलं, नव सुरतिर्यनिरयायतेषु।।३०।।
अर्थ-तीन अज्ञान, पाँच ज्ञान और चार दर्शन ये बारह उपयोग हैं, जो जीव के लक्षण हैं। इनमें से मनःपर्यायज्ञान और केवल-द्विक, इन तीन के सिवाय शेष नौ उपयोग देवगति, तिर्यञ्च गति, नरकगति और अविरत में पाये जाते हैं।॥३०॥
भावार्थ-किसी वस्तु का लक्षण, उसका असाधारण धर्म है; क्योंकि लक्षण का उद्देश्य, लक्ष्य को अन्य वस्तुओं से भिन्न बतलाना है; जो असाधारण धर्म में ही घट सकता है। उपयोग, जीव के असाधारण (खास) धर्म हैं और अजीव से उसकी भिन्नता को दरसाते हैं; इसी कारण वे जीव के लक्षण कहे जाते हैं।
मनः पर्याय और केवल-द्विक, ये तीन उपयोग सर्वविरति-सापेक्ष हैं; परन्तु देवगति, तिर्यञ्चगति, नरकगति और अविरति, इन चार मार्गणाओं में सर्वविरति का संभव नहीं है; इस कारण इनमें तीन उपयोगों को छोड़कर शेष नौ उपयोग माने जाते हैं।
अविरति वालों में से शुद्ध सम्यक्त्वी को तीन ज्ञान, तीन दर्शन, ये छह उपयोग और शेष सबको तीन अज्ञान और दो दर्शन, ये पाँच उपयोग समझने चाहिये।॥३०॥
१. देखिये, परिशिष्ट 'द।
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