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________________ मार्गणास्थान - अधिकार को होते हैं। परन्तु परिहारविशुद्ध या सूक्ष्मसम्पराय चारित्रवाला कभी वैक्रियलब्धि का प्रयोग नहीं करता। आहारक और आहारकमिश्र, ये दो योग चतुर्दशपूर्वधर प्रमत्त मुनि को ही होते हैं; किन्तु परिहारविशुद्ध चारित्र का अधिकारी कुछ कम दस पूर्व का ही पाठी होता है और सूक्ष्मसंपराय चारित्रवाला चतुर्दशपूर्वधर होने पर भी अप्रमत्त ही होता है, इस कारण पहिारविशुद्ध और सूक्ष्मसम्पराय में कार्मण, औदारिकमिश्र, वैक्रिय, वैक्रियमिश्र, आहारक और आहारकमिश्र, ये छह योग नहीं होते, शेष नौ होते हैं। मिश्र सम्यक्त्व के समय मृत्यु नहीं होती। इस कारण अपर्याप्त अवस्था में वह सम्यक्त्व नहीं पाया जाता। इसी से उसमें कार्मण, औदारिक मिश्र और वैक्रियमिश्र, ये अपर्याप्त अवस्था भावी तीन योग नहीं होते। तथा मिश्रसम्यक्त्वं के समय चौदह पूर्व के ज्ञान का संभव न होने के कारण दो आहारक योग नहीं होते। इस प्रकार कार्मण आदि उक्त पाँच योगों को छोड़कर शेष दस योग मिश्रसम्यक्त्व में होते हैं। इस जगह यह शङ्का होती है कि मिश्रसम्यक्त्व में अपर्याप्त अवस्था - भावी वैक्रियमिश्रयोग नहीं माना जाता, सो तो ठीक है; परन्तु वैक्रियलब्धि का प्रयोग करते समय मनुष्य और तिर्यञ्च को पर्याप्त अवस्था में जो वैक्रिय मिश्रयोग होता है, वह मिश्रसम्यक्त्व में क्यों नहीं माना जाता ? इसका समाधान इतना ही दिया जाता है कि मिश्र सम्यक्त्व और लब्धि-जन्य वैक्रिय मिश्रयोग, ये दोनों पर्याप्त अवस्था - भावी हैं; किन्तु इनका साहचर्य नहीं होता । अर्थात् मिश्र सम्यक्त्व के समय लब्धि का प्रयोग न किये जाने के कारण वैक्रिय मिश्र काययोग नहीं होता। ७५ व्रतधारी श्रावक, चतुर्दश-पूर्वी और अपर्याप्त नहीं होता; इस कारण देशविरति में दो आहारक और अपर्याप्त अवस्था भावी कार्मण और औदारिक मिश्र, इन चार के सिवाय शेष ग्यारह योग माने जाते हैं, ग्यारह में वैक्रिय और वैक्रियमिश्र, ये दो योग गिने हुए हैं, सो इसलिये कि 'अम्बड' आदि श्रावक द्वारा वैक्रियलब्धि से वैक्रिय शरीर बनाये जाने की बात शास्त्र में प्रसिद्ध है। यथाख्यातचारित्र वाला अप्रमत्त ही होता है, इसलिये उस चारित्र में दो वैक्रिय और दो आहारक, ये प्रमाद - सहचारी चार योग नहीं होते; शेष ग्यारह होते हैं। ग्यारह में कार्मण और औदारिकमिश्र, ये दो योग गिने गये हैं, सो १. देखिये, औपपातिक पृ. ९६ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001895
Book TitleKarmagrantha Part 4 Shadshitik
Original Sutra AuthorDevendrasuri
AuthorSukhlal Sanghavi
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year2009
Total Pages290
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size13 MB
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