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परिशिष्ट
१८३
(च) जैन- दृष्टि के अनुसार आत्म-व्यापकता की सङ्गति — उपनिषद्, भगवद्गीता आदि ग्रन्थों में भी आत्मा की व्यापकता का वर्णन किया है। 'विश्वतश्चक्षुरुत विश्वतो मुखो विश्वतो बहुरुप विश्वतस्स्यात् । ' -श्वेताश्वतरोपनिषद् ३.३, ११.१५।
'सर्वतः पाणिपादं तत्, सर्वतोऽक्षिशिरोमुखं । सर्वतः श्रुतिमल्लोके, सर्वमावृत्य तिष्ठति । ।'
- भगवद्गीता, १३.१३।
जैन- दृष्टि के अनुसार यह वर्णन अर्थवाद है, अर्थात् आत्मा की महत्ता व प्रशंसा का सूचक है। इस अर्थवाद का आधार केवलिसमुद्धात के चौथे समय में आत्मा का लोक-व्यापी बनना है। यही बात उपाध्याय श्रीयशोविजय जी ने शास्त्रवार्त्तासमुच्चय के ३३८वें पृष्ठ पर निर्दिष्ट की है।
जैसे वेदनीय आदि कर्मों को शीघ्र भोगने के लिये समुद्धात - क्रिया मानी जाती है, वैसे ही पातञ्जल योगदर्शन में 'बहुकायनिर्माण क्रिया' मानी है, जिसको तत्त्वसाक्षात्कर्ता योगी, सोपक्रम कर्म शीघ्र भोगने के लिये करता है। - पाद ३, सू. २२ का भाष्य तथा वृत्ति; पाद ४, सूत्र ४ का भाष्य तथा वृत्ति ।
परिशिष्ट 'ध'
पृष्ठ ११७, पङ्कि १८ के 'काल' शब्द पर
'काल' के सम्बन्ध में जैन और वैदिक, दोनों दर्शनों में करीब ढाई हजार वर्ष पहले से दो पक्ष चले आ रहे हैं। श्वेताम्बर - ग्रन्थों में दोनों पक्ष वर्णित हैं। दिगम्बर-ग्रन्थों में एक ही पक्ष नजर आता है ।
(१) पहला पक्ष, काल को स्वतन्त्र द्रव्य नहीं मानता। वह मानता है कि जीव और अजीव द्रव्य का पर्याय-प्रवाह ही 'काल' है। इस पक्ष के अनुसार जीवाजीव- द्रव्य का पर्याय परिणमन ही उपचार से काल माना जाता है। इसलिये वस्तुतः जीव और अजीव को ही काल- द्रव्य समझना चाहिये। वह उनसे अलग तत्त्व नहीं है। यह पक्ष 'जीवाभिगम' आदि आगमों में है।
(२) दूसरा पक्ष काल को स्वतन्त्र द्रव्य मानता है। वह कहता है कि जैसे जीव- पुद्गल आदि स्वतन्त्र द्रव्य हैं; वैसे ही काल भी । इसलिये इस पक्ष के
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