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चौथा कर्मग्रन्थ
अनुसार काल को जीवादि के पर्याय प्रवाहरूप न समझकर जीवादि से भिन्न तत्त्व ही समझना चाहिये। यह पक्ष 'भगवती' आदि आगमों में है।
आगम के बाद के ग्रन्थों में, जैसे - तत्त्वार्थसूत्र में वाचक उमास्वाति ने, द्वात्रिंशिका में श्री सिद्धसेन दिवाकर ने, विशेषावश्यकभाष्य में, श्री जिनभद्रगणि क्षमाश्रमण ने धर्मसंग्रहणी में, श्री हरिभद्रसूरि ने योगशास्त्र में, श्री हेमचन्द्रसूरि ने, द्रव्य-गुण- पर्याय के रास में श्री उपाध्याय यशोविजय जी ने, लोकप्रकाश में श्री विनय - विजय जी ने और नयचक्रसार तथा आगमसार में श्री देवचन्द्र जी ने आगमगत उक्त दोनों पक्षों का उल्लेख किया है। दिगम्बर- सम्प्रदाय में सिर्फ दूसरे पक्ष का स्वीकार है, जो सबसे पहले श्री कुन्दकुन्दाचार्य के ग्रन्थों में मिलता है। इसके बाद पूज्यपादस्वामी, भट्टारक श्री अकलङ्कदेव, विद्यानन्दस्वामी, नेमिचन्द्र सिद्धान्तचक्रवर्ती और बनारसीदास आदि ने भी उस एक ही पक्ष का उल्लेख किया है।
पहले पक्ष का तात्पर्य - पहला पक्ष कहता है कि समय, आवलिका, मुहूर्त, दिन-रात आदि जो व्यवहार, काल- साध्य बतलाये जाते हैं या नवीनतापुराणता, ज्येष्ठता- कनिष्ठता आदि जो अवस्थाएँ, काल - साध्य बतलायी जाती हैं, वे सब क्रिया - विशेष (पर्याय - विशेष) के ही संकेत हैं। जैसे—- जीव या अजीव का जो पर्याय, अविभाज्य है, अर्थात् बुद्धि से भी जिसका दूसरा हिस्सा नहीं हो सकता, उस आखिरी अतिसूक्ष्म पर्याय को 'समय' कहते हैं। ऐसे असंख्यात पर्यायों के पुञ्ज को 'आवलिका' कहते हैं। अनेक आवलिकाओं को 'मुहूर्त' और तीस मुहूर्त को 'दिन-रात' कहते हैं। दो पर्यायों में से जो पहले हुआ हो, वह 'पुराण' और जो पीछे से हुआ हो, वह 'नवीन' कहलाता है। दो जीवधारियों में से जो पीछे से जन्मा हो, वह 'कनिष्ठ' और जो पहले जन्मा हो, वह 'ज्येष्ठ' कहलाता है। इस प्रकार विचार करने से यही जान पड़ता है कि समय, आवलिका आदि सब व्यवहार और नवीनता आदि सब अवस्थाएँ, विशेष - विशेष प्रकार के पर्यायों के ही अर्थात् निर्विभाग पर्याय और उनके छोटे-बड़े बुद्धि-कल्पित समूहों के ही संकेत हैं। पर्यायें, जीव अजीव की क्रिया हैं, जो किसी तत्त्वान्तर की प्रेरणा के अतिरिक्त ही हुआ करती हैं। अर्थात् जीव-अजीव दोनों अपनेअपने पर्यायरूप में आप ही परिणत हुआ करते हैं। इसलिये वस्तुतः जीव- अजीव • के पर्याय- पुञ्ज को ही काल कहना चाहिये। काल कोई स्वतन्त्र द्रव्य नहीं है।
दूसरे पक्ष का तात्पर्य - जिस प्रकार जीव- पुद्गल में गति - स्थिति करने का स्वभाव होने पर भी उस कार्य के लिये निमित्तकारणरूप से 'धर्म-अस्तिकाय '
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