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परिशिष्ट
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और 'अधर्म-अस्तिकाय' तत्त्व माने जाते हैं। इसी प्रकार जीव अजीव में पर्यायपरिणमन का स्वभाव होने पर भी उसके लिये निमित्तकारण रूप से काल-द्रव्य मानना चाहिये। यदि निमित्तकारणरूप से काल न माना जाय तो धर्म-अस्तिकाय और अधर्म-अस्तिकाय मानने में कोई युक्ति नहीं।
दूसरे पक्ष में मत-भेद-काल को स्वतन्त्र द्रव्य मानने वालों में भी उसके स्वरूप के सम्बन्ध में दो मत हैं
१. कालद्रव्य, मनुष्य-क्षेत्रमात्र में ज्योतिष्-चक्र के गति-क्षेत्र मेंवर्तमान है। वह मनुष्य-क्षेत्र-प्रमाण होकर भी सम्पूर्ण लोक परिवर्तनों का निमित्त बनता है। काल, अपना कार्य ज्योतिष्-चक्र की गति की मदद से करता है। इसलिये मनुष्य-क्षेत्र से बाहर कालद्रव्य न मानकर उसे मनुष्य-क्षेत्र-प्रमाण ही मानना युक्त है। यह मत धर्मसंग्रहणी आदि श्वेताम्बर-ग्रन्थों में है।
२. कालद्रव्य, मनुष्य-क्षेत्रमात्र वर्गी नहीं है; किन्तु लोक-व्यापी है। वह लोक-व्यापी होकर भी धर्म-अस्तिकाय की तरह स्कन्ध नहीं है; किन्तु अणुरूप है। इसके आणुओं की संख्या लोकाकाश के प्रदेशों के बराबर है। वे अणु, गतिहीन होने से जहाँ के तहाँ अर्थात् लोकाकाश के प्रत्येक प्रदेश पर स्थित रहते हैं। इनका कोई स्कन्ध नहीं बनता। इस कारण इनमें तिर्यक्-प्रचय (स्कन्ध) होने की शक्ति नहीं है। इसी सब के कालद्रव्य को अस्तिकाय में नहीं गिना है। तिर्यक् प्रचय न होने पर भी ऊर्ध्व-प्रचय है। इससे प्रत्येक काल-अणु में लगातार पर्याय हुआ करते हैं। ये ही पर्याय, 'समय' कहलाते हैं। एक-एक काल-अणु के अनन्त समय-पर्याय समझने चाहिये। समय-पर्याय ही अन्य द्रव्यों के पर्यायों का निमित्तकारण है। नवीनता-पुराणता, ज्येष्ठता-कनिष्ठता आदि सब अवस्थाएँ, काल-अणु के समय-प्रवाह की बदौलत ही समझनी चाहिये। पुद्गल-परमाणु को लोक-आकाश के एक प्रदेश से दूसरे प्रदेश तक मन्दगति से जाने में जितनी देर होती है, उतनी देर में काल-अण का एक समय-पर्याय व्यक्त होता है। अर्थात् समय-पर्याय और एक प्रदेश से दूसरे प्रदेश तक की परमाणु की मन्द गति, इन दोनों का परिमाण बराबर है। यह मन्तव्य दिगम्बर-ग्रन्थों में है।
वस्तु-स्थिति क्या है—निश्चय-दृष्टि से देखा जाय तो काल को अलग द्रव्य मानने की कोई जरूरत नहीं है। उसे जीवाजीव के पर्यारूप मानने से ही सब कार्य व सब व्यवहार उपपन्न हो जाते हैं। इसलिये यही पक्ष, तात्त्विक है। अन्य पक्ष, व्यावहारिक व औपचारिक हैं। काल को मनुष्य-क्षेत्र-प्रमाण मानने का पक्ष
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