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चौथा कर्मग्रन्थ
स्थूल लोक व्यवहार पर निर्भर है और उसे अणुरूप मानने का पक्ष, औपचारिक है, ऐसा स्वीकार न किया जाय तो यह प्रश्न होता है कि जब मनुष्य-क्षेत्र से बाहर भी नवत्व पुराणत्व आदि भाव होते हैं, तब फिर काल को मनुष्य-क्षेत्र में ही कैसे माना जा सकता है ? दूसरे यह मानने में क्या युक्ति है कि काल, ज्योतिष - चक्र के संचार की अपेक्षा से है? यदि अपेक्षा रखता भी हो तो क्या वह लोक-व्यापी होकर ज्योतिष-चक्र के संचार की मदद नहीं ले सकता ? इसलिये उसकी मनुष्य-क्षेत्र - प्रमाण मानने की कल्पना, स्थूल लोक व्यवहार निर्भर है— काल को अणुरूप मानने की कल्पना औपचारिक है। प्रत्येक पुद्गल - परमाणु को ही चार से कालाणु समझना चाहिये और कालाणु के अप्रदेशत्व के कथन की सङ्गति इसी तरह कर लेनी चाहिये ।
ऐसा न मानकर कालाणु को स्वतन्त्र मानने में प्रश्न यह होता है कि यदि काल स्वतन्त्र द्रव्य माना जाता है तो फिर वह धर्म - अस्तिकाय की तरह स्कन्धरूप क्यों नहीं माना जाता है ? इसके अतिरिक्त एक यह भी प्रश्न है कि जीव- अजीव के पर्याय में तो निमित्तकारण समय-पर्याय है। पर समय पर्याय में निमित्तकारण क्या है ? यदि वह स्वाभाविक होने से अन्य निमित्त की अपेक्षा नहीं रखता तो फिर जीव- अजीव के पर्याय भी स्वाभाविक क्यों न माने जायें? यदि समयपर्याय के वास्ते अन्य निमित्त की कल्पना की जाय तो अनवस्था आती है। इसलिये अणु-पक्ष को औपचारिक मानना ही ठीक है ।
वैदिक दर्शन में काल का स्वरूप - वैदिक दर्शनों में भी काल के सम्बन्ध में मुख्य दो पक्ष हैं - वैशेषिक दर्शन - अ. २, आ. २, सूत्र ६.१० तथा न्यायदर्शन, काल को सर्व व्यापी स्वतन्त्र द्रव्य मानते हैं। सांख्य- अ. २, सूत्र १२, योग तथा वेदान्त आदि दर्शन, काल को स्वतन्त्र द्रव्य न मानकर उसे प्रकृति-पुरुष (जड़-चेतन) का ही रूप मानते हैं। यह दूसरा पक्ष, निश्चय-दृष्टिमूलक है और पहला पक्ष, व्यवहार - मूलक।
जैन दर्शन में जिसको 'समय' और दर्शनान्तरों में जिसको 'क्षण' कहा है, उसको स्वरूप जानने के लिये तथा 'काल' नामक कोई स्वतन्त्र वस्तु नहीं है, वह केवल लौकिक दृष्टि का व्यवहार - निर्वाह के लिये क्षणानुक्रम के विषय में की हुई कल्पनामात्र है। इस बात को स्पष्ट समझने के लिये योगदर्शन, पा. ३, सू. ५२ का भाष्य देखना चाहिये। उक्त भाष्य में कालसम्बन्धी जो विचार है, वही निश्चय - दृष्टि - मूलक; अतएव तात्त्विक जान पड़ता है।
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