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परिशिष्ट
एकेन्द्रिय में सासादनभाव मानने और न माननेवाले, ऐसे जो दो पक्ष श्वेताम्बर-ग्रन्थों में हैं, दिगम्बर-ग्रन्थों में भी हैं। पृ. १७१, नोट देखें।
श्वेताम्बर ग्रन्थों में जो कहीं कर्मबन्ध के चार हेतु, कहीं दो हेतु और कहीं पाँच हेतु कहे हुए हैं; दिगम्बर-ग्रन्थों में भी वे सब वर्णित हैं। पृ. १७४, नोट देखें।
बन्ध-हेतुओं के उत्तर-भेद आदि दोनों सम्प्रदाय में समान हैं। पृ. १७४, नोट देखें।
सामान्य तथा विशेष बन्ध-हेतुओं का विचार दोनों सम्प्रदाय के ग्रन्थों में है। पृ. १८१, नोट देखें।
एक संख्या के अर्थ में रूप शब्द दोनों सम्प्रदाय के ग्रन्थों में मिलता है। पृ. २१८, नोट देखें।
कर्मग्रन्थ में वर्णित दस तथा छः क्षेप त्रिलोकसार में भी हैं। पृ. २२१, नोट देखें।
उत्तर प्रकृतियों के मूल बन्ध-हेतु का विचार जो सर्वार्थसिद्धि में है, वह पञ्चसंग्रह में किये हुए विचार से कुछ भिन्न-सा होने पर भी वस्तुत: उसके समान ही है। पृ. २२७ देखें।
कर्मग्रन्थ तथा पञ्चसंग्रह में एक-जीवाश्रित भावों का जो विचार है, गोम्मटसार में बहुत अंशों में उसके समान ही वर्णन है। पृ. २२९ देखें।
श्वेताम्बर-ग्रन्थों में तेजःकाय को वैक्रियशरीर का कथन नहीं है, पर दिगम्बर-ग्रन्थों में है। पृ. १९, नोट देखें।
श्वेताम्बर सम्प्रदाय की अपेक्षा दिगम्बर सम्प्रदाय में संज्ञी-असंज्ञी का व्यवहार कुछ भिन्न है तथा श्वेताम्बर-ग्रन्थों में हेतुवादोपदेशिकी आदि संज्ञाओं का विस्तृत वर्णन है, पर दिगम्बर-ग्रन्थों में नहीं है। पृ. ३९ देखें।
श्वेताम्बर-शास्त्र-प्रसिद्ध करणपर्याप्त शब्द के स्थान में दिगम्बरशास्त्र में निर्वृत्त्यपर्याप्त शब्द है। व्याख्या भी दोनों शब्दों की कुछ भिन्न है। पृ. ४१ देखें।
श्वेताम्बर-ग्रन्थों में केवलज्ञान तथा केवलदर्शन का क्रमभावित्व, सहभावित्व और अभेद, ये तीन पक्ष हैं, परन्तु दिगम्बर-ग्रन्थों में सहभावित्व का एक ही पक्ष है। पृ. ४३ देखें।
लेश्या तथा आयु के बन्धाबन्ध की अपेक्षा से कषाय के जो चौदह और बीस भेद गोम्मटसार में हैं, वे श्वेताम्बर-ग्रन्थों में नहीं देखे गये। पृ. ५५, नोट देखें।
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