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चौथा कर्मग्रन्थ
अपर्याप्त अवस्था में औपशमिक सम्यक्त्व पाये जाने और न पाये जाने के सम्बन्ध में दो पक्ष श्वेताम्बर - ग्रन्थों में हैं, परन्तु गोम्मटसार में उक्त दो में से पहला पक्ष ही है । पृ. ७०, नोट देखें।
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अज्ञान-त्रिक में गुणस्थानों की संख्या के सम्बन्ध में दो पक्ष कर्मग्रन्थ में मिलते हैं, परन्तु गोम्मटसार में एक ही पक्ष है। पृ. ८२, नोट देखें।
गोम्मटसार में नारकों की संख्या कर्मग्रन्थ- वर्णित संख्या से भिन्न है। पृ. ११९, नोट देखें।
द्रव्यमन का आकार तथा स्थान दिगम्बर सम्प्रदाय में श्वेताम्बर की अपेक्षा भिन्न प्रकार का माना है और तीन योगों के बाह्याभ्यन्तर कारणों का वर्णन राजवार्तिक में बहुत स्पष्ट किया है। पृ. १३४ देखें ।
मनः पर्यायज्ञान के योगों की संख्या दोनों सम्प्रदाय में तुल्य नहीं है । पृ. १५४ देखें।
श्वेताम्बर -ग्रन्थों में जिस अर्थ के लिये आयोजिकाकरण, आवर्जितकरण और आवश्यककरण, ऐसी तीन संज्ञाएँ मिलती हैं, दिगम्बर ग्रन्थों में उस अर्थ के लिये सिर्फ आवर्जितकरण, यह एक संख्या है। पृ. १५५ देखें ।
श्वेताम्बर -ग्रन्थों में काल को स्वतन्त्र द्रव्य भी माना है और उपचरित भी। किन्तु दिगम्बर ग्रन्थों में उसको स्वतन्त्र ही माना है । स्वतन्त्र पक्ष में भी काल का स्वरूप दोनों सम्प्रदाय के ग्रन्थों में एक-सा नहीं है। पृ. १५७ देखें।
किसी-किसी गुणस्थान में योगों की संख्या गोम्मटसार में कर्मग्रन्थ की अपेक्षा भिन्न है। पृ. १६३, नोट देखें।
दूसरे गुणस्थान के समय ज्ञान तथा अज्ञान माननेवाले ऐसे दो पक्ष श्वेताम्बर ग्रन्थों में हैं, परन्तु गोम्मटसार में सिर्फ दूसरा पक्ष है। पृ. १६९, नोट देखें। गुणस्थानों में लेश्या की संख्या के सम्बन्ध में श्वेताम्बर -ग्रन्थों में दो पक्ष हैं और दिगम्बर-ग्रन्थों में सिर्फ एक पक्ष है। पृ. १७२, नोट देखें।
जीव सम्यक्त्व सहित मरकर स्त्रीरूप में पैदा नहीं होता, यह बात दिगम्बर सम्प्रदाय को मान्य है, परन्तु श्वेताम्बर सम्प्रदाय को यह मन्तव्य इष्ट नहीं हो सकता; क्योंकि उसमें भगवान् मल्लिनाथ का स्त्रीवेद तथा सम्यक्त्व सहित उत्पन्न होना माना गया है।
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