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________________ परिशिष्ट १६९ उपयोग है । विग्रहगति में और इन्द्रियपर्याप्ति होने के पहले, पहले प्रकार का उपयोग, नहीं हो सकता; पर दूसरे प्रकार का दर्शनात्मक सामान्य उपयोग माना जा सकता है। ऐसा मानने में तत्त्वार्थ- अ. २, सू. ९ की वृत्तिका - 'अथवेन्द्रियनिरपेक्षमेव तत्कस्यचिद्भवेद् यतः पृष्ठत उपसर्पन्तं सर्पे बुद्धयैवेन्द्रियव्यापारनिरपेक्षं पश्यतीति ।' यह कथन प्रमाण है। सारांश, इन्द्रियपर्याप्ति पूर्ण होने के पहले उपयोगात्मक अचक्षुर्दर्शन मान कर समाधान किया जा सकता है। (२) विग्रहगति में और इन्द्रियपर्याप्ति पूर्ण होने के पहले अचक्षुर्दर्शन माना जाता है, सो शक्तिरूप अर्थात् क्षयोपशमरूप, उपयोगरूप नहीं। यह समाधान, प्राचीन चतुर्थ कर्मग्रन्थ की ४९वीं गाथा की टीका के 'त्रयाणामप्यचक्षुर्दर्शनं तस्यानाहारकावस्थायामपि लब्धिमाश्रित्वाभ्युपगमात्।' इस उल्लेख के आधार पर दिया गया है। प्रश्न – इन्द्रियपर्याप्ति पूर्ण होने के पहले जैसे उपयोगरूप या क्षयोपशमरूप अचक्षुर्दर्शन माना जाता है, वैसे ही चक्षुर्दर्शन क्यों नहीं माना जाता। उत्तर - चक्षुर्दर्शन, नेत्ररूप विशेष- इन्द्रिय-जन्य दर्शन को कहते हैं। ऐसा दर्शन उसी समय माना जाता है, जब कि द्रव्यनेत्र हो । अतएव चक्षुर्दर्शन को इन्द्रियपर्याप्ति होने के बाद ही माना है। अचक्षुर्दर्शन किसी एक इन्द्रिय-जन्य सामान्य उपयोग को नहीं कहते; किन्तुं नेत्र- भिन्न किसी द्रव्येन्द्रिय से होने वाले, द्रव्यमन से होनेवाले या द्रव्येन्द्रिय तथा द्रव्यमन के अभाव में क्षयोपशम मात्र से होने वाले सामान्य उपयोग को कहते हैं। इसी से अचक्षुर्दर्शन को इन्द्रिय पर्याप्ति पूर्ण होने के पहले और पीछे, दोनों अवस्थाओं में माना है। परिशिष्ट 'ठ' पृ. ७८, पङ्गि ११ के 'अनाहारक' शब्द पर अनाहारक जीव दो प्रकार के होते हैं—छद्मस्थ और वीतराग । वीतराग में जो अशरीरी (मुक्त) हैं, वे सभी सदा अनाहारक ही हैं; परन्तु जो शरीरधारी हैं, वे केवलिसमुद्धात के तीसरे, चौथे और पाँचवें समय में ही अनाहारक For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org Jain Education International
SR No.001895
Book TitleKarmagrantha Part 4 Shadshitik
Original Sutra AuthorDevendrasuri
AuthorSukhlal Sanghavi
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year2009
Total Pages290
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size13 MB
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