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चौथा कर्मग्रन्थ
होते हैं। छद्मस्थ जीव, अनाहारक तभी होते हैं, जब वे विग्रहगति में वर्तमान
हों
जन्मान्तर ग्रहण करने के लिये जीव को पूर्व-स्थान छोड़कर दूसरे स्थान में जाना पड़ता है। दूसरा स्थान पहले स्थान से विश्रेणि-पतित (वक्र-रेखा) में हो, तब उसे वक्र-गति करनी पड़ती है। वक्र-गति के सम्बन्ध में इस जगह तीन बातों पर विचार किया जाता है
(१) वक्र-गति में विग्रह (घुमाव) की संख्या, (२) वक्र-गति का कालपरिमाण और (३) वक्र गति में अनाहारकत्व का काल-मान।
(१) कोई उत्पत्ति-स्थान ऐसा होता है कि जिसको जीव एक विग्रह करके ही प्राप्त कर लेता है। किसी स्थान के लिये दो विग्रह करने पड़ते हैं और किसी के लिये तीन भी। नवीन उत्पत्ति-स्थान, पूर्व-स्थान से कितना ही विश्रेणि-पतित क्यों न हो, पर वह तीन विग्रह में तो अवश्य ही प्राप्त हो जाता है।
इस विषय में दिगम्बर-साहित्य में विचार-नजर नहीं आता; क्योंकि'विग्रहवती च संसारिणः प्राक् चतुर्थ्यः।' (तत्त्वार्थ अ. २, सू. २८)
इस सूत्र को सर्वार्थसिद्धि-टीका में श्रीपूज्यपादस्वामी ने अधिक से अधिक तीन विग्रहवाली गति का ही उल्लेख किया है। तथा
'एकं द्वौ त्रीन्वाऽनाहारकः।' (तत्त्वार्थ-अ. २, सूत्र ३।
इस सूत्र के ६ठे राजवार्तिक में भट्टारक श्री अकलङ्कदेव ने भी अधिक से अधिक त्रि-विग्रह-गति का ही समर्थन किया है। नेमिचन्द्र सिद्धान्तचक्रवर्ती भी गोम्मटसार-जीवकाण्ड की ६६९ की गाथा में उक्त मत का ही निर्देश करते हैं।
श्वेताम्बरीय ग्रन्थों में इस विषय पर मतान्तर उल्लिखित पाया जाता है'विग्रहवती च संसारिणः प्राक् चतुर्थ्यः।' (तत्त्वार्थ-अ. २, सूत्र २९) 'एकं द्वौ वाऽनाहारकः।' (तत्त्वार्थ-अ. २, सू. ३०)
श्वेताम्बर-प्रसिद्ध तत्त्वार्थ-अ. २ के मध्य में भगवान् उमास्वाति ने तथा उसकी टीका में श्री सिद्धसेनगणि ने त्रि-विग्रहगति का उल्लेख किया है। साथ ही उक्त भाष्य की टीका में चतुर्विग्रहमति का मतान्तर भी दर्शाया है। इस मतान्तर का उल्लेख बृहत्संग्रहणी की ३२५वी गाथा में और श्री भगवती-शतक ७, उद्देशक १ की तथा शतक १४, उद्देशक १ की टीका में भी है। किन्तु इस मतान्तर का जहाँ-कहीं उल्लेख है, वहाँ सब जगह यही लिखा है कि
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