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________________ परिशिष्ट १७१ चतुर्विग्रहगति का निर्देश किसी मूल सूत्र में नहीं है। इससे जान पड़ता है कि ऐसी गति करनेवाले जीव ही बहुत कम है। उक्त सूत्रों के भाष्य में तो यह स्पष्ट लिखा है कि त्रि-विग्रह से अधिक विग्रहवाली गति संभव ही नहीं है। 'अविग्रहा एकविग्रहा द्विविग्रहा त्रिविग्रहा इत्येताश्चतुस्समयपराश्चतुर्विधा गतयो भवन्ति, परतो न सम्भवन्ति । ' भाष्य के इस कथन से तथा दिगम्बर- ग्रन्थों में अधिक त्रि-त्रिग्रहगति का ही निर्देश पाये जाने से और भगवती - टीका आदि में जहाँ-कहीं चतुविग्रहगति का मतान्तर है, वहाँ सब जगह उसकी अल्पता दिखायी जाने के कारण अधिक से अधिक तीन विग्रहवाली गति ही का पक्ष बहुमान्य समझना चाहिये । (२) वक्र गति के काल-परिमाण के सम्बन्ध में यह नियम है कि वक्रगति का समय विग्रह की अपेक्षा एक अधिक ही होता है। अर्थात् जिस गति में एक विग्रह हो, उसका काल-मान दो समयों का, इस प्रकार द्वि विग्रहगति का काल-मान, तीन समयों का और त्रि-विग्रहगति का काल-मान चार समयों का है। इस नियम में श्वेताम्बर - दिगम्बर का कोई मतत-भेद नहीं। हाँ, ऊपर चतुर्विग्रह गति के मतान्तर का जो उल्लेख किया है, उसके अनुसार उस गति का काल - मान पाँच समयों का बतलाया गया है। (३) विग्रहगति में अनाहार के काल-मान का विचार व्यवहार और निश्चय, दो दृष्टियों से किया हुआ पाया जाता है। व्यवहारवादियों का अभिप्राय यह है कि पूर्व - शरीर छोड़ने का समय, जो वक्र गति का प्रथम समय है, उसमें पूर्वशरीर - योग्य कुछ पुद्गल लाभाहार द्वारा ग्रहण किये जाते हैं। बृहत्संग्रहणी गा. ३२६ तथा उसकी टीका; लोक. सर्ग ३, श्लो. ११०७ से आगे। परन्तु निश्चयवादियों का अभिप्राय यह है कि पूर्व शरीर छूटने के समय में, अर्थात् वक्र - गति के प्रथम समय में न तो पूर्व- शरीर का ही सम्बन्ध है और न नया शरीर बना है; इसलिये उस समय किसी प्रकार के आहार का संभव नहीं । लोक. स. ३, श्लो. १११५ से आगे । व्यवहारवादी हो या निश्चयवादी, दोनों इस बात को बराबर मानते हैं कि वक्र गति का अन्तिम समय, जिसमें जीव नवीन स्थान में उत्पन्न होता है, उसमें अवश्य आहार ग्रहण होता है। व्यवहारनय के अनुसार अनाहारकत्व का काल - मान इस प्रकार समझना चाहिए। एक विग्रहवाली गति, जिसकी काल मर्यादा दो समय की है, उसके दोनों समय में जीव आहारक ही होता है, क्योंकि पहले समय में पूर्व शरीर- योग्य लोमाहार ग्रहण किया जाता है और दूसरे समय में नवीन शरीर योग्य आहार | Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001895
Book TitleKarmagrantha Part 4 Shadshitik
Original Sutra AuthorDevendrasuri
AuthorSukhlal Sanghavi
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year2009
Total Pages290
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size13 MB
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