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चौथा कर्मग्रन्थ
के समय, वह भी नहीं होता। यह नियम याद रखना चाहिये कि उपशम भी घातिकर्म का ही हो सकता है, सो भी सब घाति कर्म का नहीं, किन्तु केवल मोहनीयकर्म का। अर्थात् प्रदेश और विपाक दोनों प्रकार का उदय, यदि रोका जा सकता है तो मोहनीयकर्म का ही। इसके लिये देखिये, नन्दी, सू. ८ की टीका, पृ. ७७ कम्मपयडी, श्रीयशोविजयजी-कृत टीका, पृ. १३; पञ्च.द्वा. १, गा. ३९ की मलयगिरि व्याख्या। सम्यक्त्व के स्वरूप, उत्पत्ति और भेदप्रभेदादिका सविस्तर विचार देखने के लिये देखिये, लोकप्र.-सर्ग ३, श्लोक ५६९-७००।
परिशिष्ट 'ट' पृ. ७४, पङ्क्ति २१ के 'सम्भव' शब्द पर
अठारह मार्गणा में अचक्षुर्दर्शन परिगणित है, अतएव उसमें भी चौदह जीवस्थान समझने चाहिये। परन्तु इस पर प्रश्न यह होता है कि अचक्षदर्शन में जो अपर्याप्त जीवस्थान माने जाते हैं, सो क्या अपर्याप्त-अवस्था में इन्द्रियपर्याप्ति पूर्ण होने के बाद अचक्षुर्दर्शन मान कर या इन्द्रियपर्याप्ति पूर्ण होने के पहले भी अचक्षुर्दर्शन होता है यह मान कर?
यदि प्रथम पक्ष माना जाय तब तो ठीक है; क्योंकि इन्द्रियपर्याप्ति पूर्ण होने के बाद अपर्याप्त-अवस्था में ही चक्षुरिन्द्रिय द्वारा सामान्य बोध मान कर जैसे-चक्षदर्शन में तीन अपर्याप्त जीवस्थान १७वीं गाथा में मतान्तर से बतलाये हुए हैं, वैसे ही इन्द्रियपर्याप्ति पूर्ण होने के बाद अपर्याप्त-अवस्था में चक्षु भिन्न इन्द्रिय द्वारा सामान्य बोध मान कर अचक्षुर्दर्शन में सात अपर्याप्त जीवस्थान घटाये जा सकते हैं।
परन्तु श्रीजयसोमसूरि ने इस गाथा के अपने टबे में इन्द्रियपर्याप्ति पूर्ण होने के पहले भी अचक्षुर्दर्शन मानकर उसमें अपर्याप्त जीवस्थान माने हैं और सिद्धान्त के आधार से बतलाया है कि विग्रहगति और कार्मणयोग में अवधिदर्शन रहित जीव को अचक्षुर्दर्शन होता है। इस पक्ष में प्रश्न यह होता है कि इन्द्रियपर्याप्ति पूर्ण होने के पहले द्रव्येन्द्रिय न होने पर अचक्षुर्दर्शन कैसे मानना? इसका उत्तर दो तरह से दिया जा सकता है।
(१) द्रव्येन्द्रिय होने पर द्रव्य और भाव, उभय इन्द्रिय-जम्य उपयोग और द्रव्येन्द्रिय के अभाव में केवल भावेन्द्रिय-जन्य उपयोग, इस तरह दो प्रकार का
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